पर्वतारोहण : प्रशिक्षक के रूप में बालिकाओं के साथ    

चन्द्रप्रभा ऐतवाल

जून 1980 में गर्मियों की छुट्टियों का सदुपयोग करने के लिये मैं नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में बालिकाओं के अग्रिम प्रशिक्षण में प्रशिक्षक बनकर गयी। मुझे अपने प्रशिक्षण के दिन याद आ रहे थे और बहुत अच्छा लग रहा था कि उन्हीं चट्टानों पर चढ़ना और उतरना है। यह प्रशिक्षण नये क्षेत्र में भी होने जा रहा था, जो मैने नहीं देखा था। ये सभी कारण मुझे बहुत उत्साहित कर रहे थे।

एक सप्ताह तक उत्तरकाशी में ही प्रशिक्षण क्षेत्र तेखला में चट्टान आरोहण करने के बाद हम लोग बस द्वारा दोपहर के भोजन के साथ बड़कोट, नौगांव, पुरोला, जरमोला, मोरी होकर नैटवाड़ पहुंचे। नैटवाड़ में जंगलात का विश्राम गृह है, वहीं हमने रात्रि विश्राम किया। नैटवाड़ से टौन्स नदी साफ दिखाई देती है। उसका साफ नीले रंग का पानी तेज गति से बह रहा था। काफी आगे बहने के बाद त्यूनी में टौन्स और पव्वर नदी का संगम होता है।

अगले दिन नैटवाड़ से सारा सामान बस में चढ़ाया और हम लोग सांकरी तक पैदल चले। सांकरी में खाना खाया और बस का सारा सामान नीचे उतारा, क्योंकि सांकरी तक ही बस का मार्ग था। खाना खाने के बाद अपना-अपना रूक्सेक उठाकर नेताला के लिये चल पड़े। सांकरी से नेताला के लिये सीधा रास्ता है। यहां रास्ते के दोनों ओर जंगल हैं जिससे चलने में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हुई। चलने में बड़ा आनन्द आ रहा था। रात को हमें नेताला में जंगलात वालों के विश्राम गृह में रुकना था। वहां तक छोटी गाड़ी का कच्चा मार्ग था। नेताला में पास ही सामने एक छोटी सी झील है। विश्राम गृह के ठीक सामने खड़ा पहाड़ है, जिसमें पेड़ बहुत कम हैं। नीचे टौन्स नदी बहुत तेज गति से बह रही थी।

नेताला विश्राम गृह के आस-पास गांव वालों के काफी खेत हैं। हम लोग भी घूमते-घूमते खेतों में चले गये। खेत में बहुत सी औरतें काम कर रही थीं। हम लोग भी उनके साथ गुड़ाई करने लगे। वे हमसे पूछने लगीं कि तुम्हारे कितने बच्चे हैं ? हम सभी हंसने लगे और कहा, अभी हमारी शादी नहीं हुई है। इस बात पर सभी औरतें ताज्जुब करने लगीं और एक-दूसरे का मुंह देखकर कहने लगीं कि क्यों झूठ बोलते हो ? क्या अभी तक कुवांरी रहना सम्भव हो सकता है ? खैर उन लोगों से ज्यादा बात बढ़ाना ठीक नहीं समझा और हम लोग सब अपने शिविर में वापस आ गये।

अगले दिन हम लोग नाश्ता करने के बाद ओसला के लिये चल पड़े। आज रास्ता उतार-चढ़ाव वाला था, किन्तु जंगल होने के कारण किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हुई। रास्ते में हमें एक गांव मिला जिसमें कर्ण की मूर्ति थी। यहां कौरवों और पाण्डवों को पूजा जाता है। यहां के स्थानीय लोगों से बातें करने पर पता चला कि यहां पाण्डवों की भांति ही बहुपति प्रथा है। लड़की को खरीदा जाता है और जिस लड़की की जितनी अधिक कीमत हो, वह उतनी ही अच्छी मानी जाती है। एक लड़की के दाम बढ़ने पर वह दो-तीन घर भी जा सकती है। इसका यहां बुरा नहीं माना जाता। इसके विपरीत यदि कोई धनवान है तो वह अपने लिये दो-तीन औरतें भी रख रकता है, क्योंकि उसे घर में काम करने वाले चाहिए। यहां की औरतें सुन्दर तीखे नाक नक्शे वाली होती हैं।
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 ओसला में भी जंगलात का विश्राम गृह रास्ते में ही है। सामने बड़ा सा ओसला गांव है। यहाँ मकान पत्थरों व लकड़ियों से बने हुए थे। यहां पर दुर्योधन का सुन्दर-सा मन्दिर था, जो ज्यादातर लकड़ी से बनाया गया था। इस क्षेत्र के सभी मन्दिरों में कौरव, पाण्डवों की ही मूर्तियां हैं, किन्तु इनके नाक, कान बुद्घ के नाक, कान की तरह ही चौड़े हैं। इस गांव में हम काफी देर तक घूमते रहे। आदमी लगभग सभी घरों में बैठे थे और औरतें सभी खेतों में कार्य कर रही थीं। ऐसा लग रहा था कि यहां की औरतें जानवरों की देखभाल से लेकर खेती और बाल-बच्चों की देखभाल तक सभी काम खुद ही करती हैं।

यहाँ ज्यादातर आदमी और औरतें अपने घर के भेड़ की ऊन से बनाये हुए ऊनी वस्त्र पहने दिख रहे थे। एक विशेष बात और देखने को मिली कि सबसे नया कपड़ा सबसे अन्दर पहने हुए थे और पुराना कपड़ा सबसे ऊपर पहन रखा था। पूछने पर पता चला कि ऊपर वाला कपड़ा जल्दी घिसता है, इस कारण पुराना कपड़ा ऊपर पहनते हैं और यह भी हो सकता है कि नया कपड़ा अधिक गर्म रहता है।

ओसला से अपने साथ दोपहर का भोजन लेकर घूमने के लिये दूसरे दिन हर-की-दून की तरफ गये। हर-की-दून का इलाका भी बहुत सुन्दर है किन्तु गुज्जरों ने पेड़ों को काट-काटकर लगभग खत्म ही कर दिया है। इनके जानवर यहां स्वतन्त्र रूप से घूम रहे थे। जानवरों में अधिकतर भैंसे थी। हर-की-दून से स्वर्गारोहिणी ग्रुप बड़ा सुन्दर दिखाई दे रहा था। यहां का डाकबंगला काफी टूटी-फूटी हालत में था। यहां गुज्जरों की काफी झोपड़ियां थी जो बहुत सुन्दर लग रही थीं, परन्तु गुज्जर लोग अपनी झोपड़ी बनाने के लिये और अपने जानवरों को खिलाने के लिये हर साल ही नये-नये पेड़ काटते रहते हैं, जिस कारण इस इलाके में पेड़ खत्म होते जा रहे हैं। एक समय ऐसा आयेगा कि छोटे पेड़ उनके जानवर खा जायेंगे और बड़े पेड़ खुद काटकर खत्म कर देंगे तो सारा क्षेत्र पेड़ों से रहित हो जायेगा। हर-की-दून से शाम को घूमते हुए हम वापस ओसला आये।

ओसला में रूपिन-सूपिन दो नदियों का संगम है। एक नदी के किनारे हर-की-दून तथा दूसरी नदी के किनारे रौऊसेराताल हैं। दूसरे दिन रौऊसेराताल की तरफ सामान पहुंचाने खाना साथ लेकर गये। लगभग एक घण्टे तक चलने के बाद पुल पार किया। अब धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ते चले गये। पेड़ भी अब कम होते चले गये। जैसे ही चढ़ाई खत्म हुई, सामने बहुत सुन्दर मैदान शिविर हेतु दिखाई दिया। उस मैदान तक पहुंचने के लिये हमें मोरेन वाले इलाके को पार करके उत्तर में जाना था। तभी हम उस मैदान में पहुंच सकते थे। रौऊसेराताल बहुत ही सुन्दर फैला हुआ मैदान है। इसके दक्षिणी किनारे पर सुन्दर फैला हुआ ताल है। और दूसरे किनारे पर गर्म पानी निकलता है। पश्चिम की ओर भोजपत्र, बांस आदि का घना सुन्दर जंगल है और पूर्व की ओर सुन्दर बुग्याल वाला इलाका है। इन बुग्यालों में विभिन्न प्रकार के सुन्दर फूल खिले हुए थे। यह दृश्य बहुत ही अच्छा लग रहा था।

मोरेन के क्षेत्र में चट्टान आरोहण के लिये बड़ी-बड़ी चट्टानें थीं। इन चट्टानों के नीचे बिवुएकिंग या बेनायटमेंट करने के लिये अनेक सुन्दर गुफायें हैं, जहां व्यक्ति आराम से रात्रि विश्राम कर सकता है। कहीं-कहीं पर तो 6 या 7 व्यक्ति तक एक ही गुफा में रह सकते हैं, परन्तु ये सब उसी व्यक्ति को पता चल सकता है, जिन्हें इस क्षेत्र के बारे में ज्ञान हो, क्योंकि लम्बी-लम्बी घास के कारण ये गुफायें ढकी हुई रहती हैं। हम यहां तीन-चार दिन तक चट्टान आरोहण का अभ्यास करते रहे। कहीं-कहीं लम्बी चट्टान पर रैप्लिंग का भी अभ्यास किया। मुझे हर-की-दून से ज्यादा सुन्दर रौऊसेराताल का क्षेत्र लगा। मन करता था कि महीनों बैठकर यहीं रहा जाय।
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एक दिन ऊँचाई पर चढ़ने के लिये हम लोग स्वर्गारोहिणी की ओर गये। रास्ते में हमें काफी बर्फ मिली। बहुत देर तक हम बर्फ में चलते रहे और बर्फ के गोले बनाकर खेलते रहे। आज यहां अग्रिम प्रशिक्षण वाली लड़कियां भी आयी हुई थीं। प्रथम प्रशिक्षण वाले रौऊसेराताल के पास ही चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे थे। यहां हमें विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधे भी दिखाई दिये जिनका उपयोग विभिन्न प्रकार की बीमारियों या दवाएं बनाने में किया जाता है। इस स्थान पर लोगों के कम आने के कारण ही यहां की सुन्दरता बची हुई थी।

अब हमें कालानाग के आधार शिविर क्यारकुटी की ओर जाना था। सभी सदस्य सामान पहुँचाने हेतु गये। क्यारकुटी भी बहुत सुन्दर स्थान है, यहां से सामने बन्दरपूंछ और कालानाग दिखाई देता है। आधार शिविर की सुन्दरता दूसरी तरह की थी, यहां पेड़ तो थे नहीं, लेकिन सफेद ग्लेशियर इस सुन्दरता को दोगुना कर रहा था। यहां हम प्रशिक्षुओं को ग्लेशियर का प्रशिक्षण देने के लिये रोज ही ले जाते थे। कभी-कभी दूर अब्लान्च गिरते हुए भी देख लेते थे। एक दिन मौसम साफ था पर घाटियों में कोहरा छाया था। हम लोगों को ग्लेशियर की ओर जाना था। कुछ लड़कियां भागकर वापस आ रही थीं। पूछने पर पता चला कि जो कोहरा घाटियों से उठ रहा था, उसको उन लोगों ने अब्लान्च समझा और उस अब्लान्च से बचने के लिये वे लोग भाग रहे थे। उन लोगों को यह पता ही नहीं था कि अब्लान्च पहाड़ से बर्फ या आइस गिरने के बाद आता है। पर घाटी से उठने वाला कोहरा अब्लान्च नहीं हो सकता। उन लोगों की समझ को देखकर सब के सब खूब हंसे। बाद में वे भी हंसने लगीं।

एक सप्ताह की आइस या ग्लेशियर प्रशिक्षण के बाद अग्रिम दल के प्रशिक्षार्थी प्रथम प्रशिक्षण वालों से अलग होकर प्रथम शिविर में सामान पहुंचाने गये। वहां एक टेन्ट लगाकर पहुंचे सामान को उसमें डाला और अन्य टेन्टों के लिये भी बर्फ को काट-काटकर जगह बनाई। अगले दिन प्रथम शिविर गये। उसी शाम को रेडियो से समाचार आया कि श्री संजय गांधी की मृत्यु हो गयी है। काफी देर तक अफसोस रहा क्योंंकि वे अभी जवान थे। प्रथम शिविर के चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। जगह-जगह पर बर्फ की बहुत सारी दरारें थी, इसलिये सावधानी से चलना पड़ रहा था।

अगले दिन द्वितीय शिविर के लिये सामान पहुंचाने चले गये। सारा रास्ता बर्फ और आइस ही आइस वाला था। कुछ देर तक समतल मैदान में चलने के बाद चढ़ाई चढ़ते चले गये। चढ़ते समय काफी परेशानी महसूस कर रहे थे। पर धीरे-धीरे चलते चले गये। द्वितीय शिविर में भी एक टेन्ट लगाकर सारे सामान को उसी में डाला, फिर कुछ देर तक इधर-उधर घूमने के बाद वापस प्रथम शिविर आये। दूसरे दिन द्वितीय शिविर को रवाना हुये, किन्तु कर्नल सन्धू और डॉक्टर शिद्दपा आज ही चोटी के लिये रवाना हो गये।

हम लोगों ने द्वितीय शिविर में शौचालय के लिये जगह बनाई, फिर बर्फ को काट-काटकर किचन के लिये सुन्दर जगह तैयार की। हवा से बचने के लिये बर्फ का ब्लॉक बनाकर मकान जैसा तैयार किया, जिससे किचन वालों को खाना बनाने में किसी प्रकार की परेशानी न हो। आज पूरे दिन इन्हीं कार्यों में लगे रहे। शाम का खाना भी लगभग तैयार हो गया था, पर कर्नल और डॉक्टर अभी तक चोटी से वापस नहीं आये थे। दोनों के वापस नहीं आने से चिन्ता भी हो रही थी। सभी लोग उन दोनों की राह देख रहे थे।

इतने में डॉक्टर अकेले ही वापस आ रहे थे। उनसे पूछा तो पता चला कि कर्नल बर्फ की दरार में गिर गये। वे घबराये हुए बोल रहे थे। इस बात को सुनते ही मैं और रतन सिंह कुछ कॉफी तथा कुछ खाने का सामान तथा एक रस्सी लेकर उनको ढू़ंढ़ने चल पड़े। काफी दूर चलने के बाद उनको आते हुए देखा। जैसे ही उनको देखा, चलो बच गये सोचकर खुशी हुई और उस परम पिता को धन्यवाद दिया। हम लोग जल्दी-जल्दी उनके पास पहुँचे। वहाँ पहुंचकर उनका कुशल-क्षेम पूछा और उनको कॉफी पिलाई। पर थोड़ी ही देर में उन्होंने उल्टी कर दी। उल्टी बिल्कुल काली थी। हमने सोचा कि शायद खून की उल्टी है। फिर उनको धीरे-धीरे शिविर की ओर लेकर आये।

शिविर में पहुँच कर उनको टेन्ट के अन्दर आराम से लिटा दिया। रात में थोड़ा सा सूप पीने के अलावा उन्होंने कुछ भी खाना नहीं खाया। डाक्टर तो डर के मारे अपने पास की रस्सी भी उसी बर्फ की दरार के ऊपर छोड़ कर उनको मदद करने के बजाय नीचे की ओर भाग आये थे। किन्तु बर्फ की दरार की चौड़ाई कम होने के कारण किसी तरह कोशिश करके वे ऊपर निकल गये थे। उनके हाथ में आइस-एक्स था, जिसकी वजह से ऊपर निकलने में सहायता मिली, पर उनकी हिम्मत की दाद देनी चाहिए कि अपने आप ही अकेले हिम्मत करके उस बर्फ की दरार से निकल आये। यदि कोई और होता तो हिम्मत हारकर वहीं पर ढेर हो जाता।
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दूसरे दिन सुबह ही हम लड़कियों को लेकर चोटी की ओर चल पड़े। हमारे साथ नेहरू पर्वतारोहण संस्थान की कुतिया रानी भी थी। रानी ने हमें रास्ता दिखाने में पूरी मदद की क्योंकि सारे रास्ते को सूंंघ-सूंघ कर आगे निकल जाती थी और हम उसी के पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार हमें रास्ता ढूंढने के लिए किसी प्रकार का चक्कर काटने की आवश्यकता नहीं पड़ी। रानी कर्नल और डॉक्टर के रास्ते से हमें ले जा रही थी। लड़कियों का हाल बेहाल था, कोई थककर चूर थी तो कोई सो रही थी। लेकिन हम सही समय पर चोटी पर पहुंच गये। वहां पहुंच कर भगवान को धन्यवाद दिया, पूजा-अर्चना की, फिर सभी फोटो खींचने में व्यस्त हो गये। काफी देर तक चोटी से चारों ओर का नजारा देखा। ऐसा लग रहा था कि हम स्वर्ग में हैं। उस समय के सुखद अनुभव को शब्दों में वर्णन करना असम्भव है। एक अलग प्रकार की अनुभूति मन में हो रही थी।

अब धीरे-2 वापसी की तैयारी में लग गये। लड़कियों को ठीक से वापस लाने की चिन्ता भी सता रही थी। हर्षवन्ती बिष्ट मेरे दल की लड़की थी। वह बहुत रोने लगी उसे किसी प्रकार चुप करा कर शिविर तक वापस लाये। शिविर में पहुंच कर सभी ने चाय पी। अभी तक डाक्टर व लीडर शिविर में ही थे। सभी लड़कियों को बधाई देने के बाद कर्नल (लीडर) कहने लगे कि किसी को बेसिक प्रशिक्षण तक जाकर समाचार पहुँचाना था, पर कोई जाने को तैयार ही नहीं हुआ।

काफी देर तक विचार करने के बाद मैंने कहा यदि आप कहें तो मैं आधार शिविर जा सकती हूँ, तो कहने लगे ठीक है। फिर कहने लगे तुम्हारे साथ मैं भी आऊंगा, साथ-साथ चलते हैं। मैंने अपना सामान बांधा और उनको साथ लेकर नीचे के लिये चल पड़ी। कर्नल की हालत काफी खराब थी, किसी तरह धीरे-धीरे प्रथम शिविर तक पहुंचे। प्रथम शिविर में बर्फ पिघल जाने से शिविर का हाल भी बेहाल हो रखा था। वहां आकर चाय बना कर पी और कुछ देर आराम किया।

अब आधार शिविर के लिये निकल पड़े। शाम होनी शुरू हो गयी थी, पर किसी तरह आगे बढ़ते जा रहे थे। एक जगह कहने लगे कि तुम मुझे गलत रास्ते से ले जा रहे हो, मैन। उनको समझाया और कहा इस रास्ते पर हम लोग ग्लेशियर प्रशिक्षण हेतु कितनी ही बार आ चुके हैं। अत: गलत होने का सवाल ही नहीं उठता। इस पर उनको विश्वास हो गया और आगे चलने लगे। रास्ते में जगह-जगह पर नाले भी काफी बढे़ हुये थे। बड़ी मुश्किल से उन्हेंं पार कर पाये। अब अंधेरा काफी बढ़ गया था। रास्ता ठीक से मिल नहीं रहा था। हम टार्च की रोशनी से आगे बढ़ रहे थे। लगभग 9 बजे के करीब शिविर में पहुंचे होंगे। वहाँ सभी ने खाना खा लिया था। हमारे आने का किसी को विश्वास ही नहीं था, अत: सभी आश्चर्य करने लगे।

हमेंं देखकर सभी प्रशिक्षण वाले इकट्ठा हो गये। श्री गुरुदवाल सिंह ने हमेंं शाबासी दी क्योंकि मैं द्वितीय शिविर से चोटी फतह करके सीधा आधार शिविर आयी थी। सभी बहुत खुश हो रहे थे और सभी ने तालियां बजाकर हमारा स्वागत किया। खाना खाकर रात आराम से सोई।

 दूसरे दिन आराम से उठी और नाश्ता करके फिर आराम करती रही। ब्लैक चोटी की ऊचांई 20900 फीट थी जिसका दूसरा नाम काला नाग भी कहते हैं। इस चोटी को बहुत से अभियान दलों ने फतह किया है, किन्तु आज तक किसी भी दल ने स्की डाउन नहीं किया है। मेरा विचार है, यदि मार्च-अप्रैल में स्कीइंग का अभियान रखा जाय तो आराम से स्की डाउन किया जा सकता है। क्योंकि इन महीनों में बर्फ की मात्रा अधिक होगी और सारी बर्फ की दरारें ढकी होंगी। ढाल भी बहुत तेज नहीं है। बस, मौसम की कृपा दृष्टि बनी रहनी चाहिये।

इसके अलावा काला नाग से बन्दरपूंछ ट्रेबास भी किया जा सकता है। हालांकि काला नाग से उतरते समय रिज में थोड़ा सावधानी की आवश्यकता होगी क्योंकि रिज बहुत ही पतला है पर एक नया कीर्तिमान कायम किया जा सकता है। इस चोटी की फतह से थलेसागर, जोगिन-1, 2, 3, गंगोत्री गु्रप, जोनली आदि चोटियां साफ दिखाई देती हैं, साथ ही स्वर्गारोहिणी, गु्रप और ओसला घाटियां भी सुन्दर दिखाई देती हैं।

दूसरे दिन शाम के समय चोटी फतह करने वालों का समूह आधार शिविर पहुंचा। प्रथम प्रशिक्षण की टीम ने उनका स्वागत किया। आज सभी बहुत खुश थे। रात काफी देर तक सांस्कृतिक कार्यक्रम करते रहे। अब पूरे प्रशिक्षण की तैयारी वापसी की थी। आधार शिविर से हमें रौऊसेराताल आना था। अब पूरा दल पूर्ण रूप से फिट था। अत: बिना लोड फेरी किये ही सारे सामान को उठाकर रौऊसेराताल पहुंच गये। रौऊसेराताल शिविर का सबसे सुन्दर शिविर है। रौऊसेराताल के एक किनारे भोजपत्र और बुरांश के जंगल हैं और पास ही गर्म पानी का स्रोत है।

रौऊसेराताल में एक दिन ठहर कर सभी ने अपने व्यक्तिगत सामान को ठीक किया। कपड़े धोकर गर्म पानी में स्नान किया। बहुत सी लड़कियां ताल में तैरने का आनन्द उठाने लगीं। चारों ओर विभिन्न प्रकार के फूल खिले हुए थे। बर्फ पिघल जाने से घास भी लम्बी हो गयी थी। जिससे यहां की सुन्दरता पर चार चांद लग गये थे। ऐसा मन कर रहा था कि इस स्थान को छोड़कर ही न जायें। हमारा बस चलता तो हम यहीं कुछ दिनों के लिये और रुकते, पर प्रशिक्षण का जो नियम है उसके अनुसार चलना पड़ता है।
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दूसरे दिन न चाहते हुए भी इस सुन्दरता को आंखों में बसाकर ओसला के लिये रवाना हुए। रास्तें में गुज्जरों के शिविर में खूब दूध व छांछ पिया। गुज्जरों के बच्चे हाथ से बनी सुन्दर टोपियां पहने हुए थे। कुछ बच्चे भैंस के थन पर ही मुंह लगाकर दूध पी रहे थे। यह दृश्य हमारे लिये अनोखा था जो पहली बार देखने को मिला था।

ओसला पहुँचकर खाना खाया। खाने के बाद गुरु सर और कर्नल सर के साथ नैटवाड़ के लिये चल पड़े। नैटवाड़ में कर्नल सर का जोंगा आया हुआ था। अत: सीधे जरमोला डाक बंगले में रुकने आये। रास्ते में कुछ औरतें खेत की गुड़ाई करते हुए मिली तो कहने लगी कि अकेली लड़की आदमी लोगों के साथ कैसे जा रही हो ?

जरमोला में वन विभाग का विश्राम गृह छोटा और चारों ओर पेड़ों से घिरा हुआ है। सुबह-सुबह चिड़ियों की मीठी-मीठी विभिन्न प्रकार की आवाजें सुनने को मिलीं। मुझे किसी भी प्रकार की चिड़ियाँ की आवाज की पहचान नहीं है, किन्तु गुरु सर को चिड़िया की आवाज की पहचान थी। फूलों के बारे में भी उनको बहुत सा ज्ञान है। प्रशिक्षार्थियों को फौना और फ्लोरा के बारे में वे समय-समय पर जानकारी देते रहते थे। वे बच्चों से पूछा करते थे कि स्थानीय लोग इस फूल को किस नाम से पुकारते हैं। इस तरह पूरे प्रशिक्षण के बच्चे उनके बताये फौना व फ्लोरा का नाम अपनी कॉपी पर लिखते थे। अपने ज्ञान का लाभ बच्चों को पहुंचाना उनका काम था। वे फूलों को इकट्ठा करके उनके नाम बताते रहते थे।

जरमोला के वन विभाग के विश्राम गृह के पास ही उद्यान विभाग वालों का सुन्दर सा बागीचा है। माह जून में खुबानी, पुलम, च्यूली, सेब आदि फल पके हुए थे, जो हमें खूब खाने को मिले। हम फल खरीदकर भी अपने साथ लाये थे। विभिन्न प्रकार के फूलों के पौधों को खरीदकर लाये। जरमोला का क्षेत्र पूरा ही चीड़ के पेड़ों का है। चारों ओर चीड़ के घने जंगल हैं।

इस प्रकार इस प्रशिक्षण से अपने को भी बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। यह क्षेत्र मेरे लिये बिल्कुल नया था। मुझे यमुना व टौन्स घाटियों को नजदीक से देखने का सुन्दर अवसर मिला। ये घाटियाँ प्राकृतिक सम्पदा से सम्पन्न हैं। यहां की भाषा और संस्कृति भी अलग प्रकार की है, जिसे हमने बहुत नजदीक से देखा। यहाँ के लोग शिक्षा की दृष्टि से बहुत पिछड़े हैं। खेती-बाड़ी व पशु पालन यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। ये लोग अपने घर के बने ऊनी वस्त्र ही अधिक पहनते हैं। अभी तक बहुत कम लोगों ने उत्तरकाशी जनपद देखा है। ऐसा लगता है कि ये लोग उत्तरकाशी की अपेक्षा हिमाचल से अधिक मेल खाते हैं। इनकी भाषा  और पहनावा भी हिमांचल से मिलता-जुलता है।

नेहरू पर्वतारोहण संस्थान उत्तरकाशी पहुंच कर दूसरे दिन सारे सामान की ठीक से सफाई की और स्टोर में एक-एक करके वापस किया। अन्त में पर्वतारोहण-प्रशिक्षण की लिखित में परीक्षा हुई। गे्रज्युएशन के बाद शाम को शानदार सांस्कृतिक कार्यक्रम किया गया। तसले के उपर चीड़ के कोन्र्स जलाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम किया जाता है, क्योंकि पर्यावरण को दृष्टि में रखकर लकड़ी अधिक नहीं जलायी जा सकती। प्रशिक्षुओं को इन सब बातों का पहले ज्ञान नहीं होता किन्तु बाद में सभी में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा हो जाती है।

अगले दिन सुबह नाश्ता करके व दोपहर का भोजन तथा प्रधानाचार्य की शुभकामनाएं लेकर सभी विदा हुए। उस समय के कुछ प्रशिक्षु तो आज भी हमें नहीं भूले हैं और बार-बार हर साल एक अभियान करने को कहते हैं। इससे लगता है कि शायद हमने उन्हें सही ही सिखाने की कोशिश की होगी।
क्रमश:
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