संस्कृति : जौनपुर के पारम्परिक आभूषण

सुरेन्द्र पुण्डीर

मारे लोक जीवन में गहनों और आभूषणों का पुराकाल से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। प्रकृति के सान्निध्य में मनुष्य ने जीवन के विविध रंगों को उकेरने की कोशिश की तथा प्रकृति में फैली भिन्न-भिन्न वस्तुओं, पहाड़, नदी, फूल, जंगल, पेड़ आदि से उसने बहुत कुछ ग्रहण किया। स्वयं को सजाने के लिए भी उसने प्रकृति से उपलब्ध फूल, पत्थर, काष्ठ तथा अन्य धातुओं का सहारा लिया।

किसी भी जनजातीय समुदाय का परिचय उसकी मान्यताओं के आधार पर होता है। टिहरी जनपद का जौनपुर क्षेत्र भी अपनी लोक मान्यताओं, प्रथाओं के कारण अलग और विशिष्ट है। जनजातीय समाज की परिकल्पना को स्थापित करते हुए यहाँ कई ऐसी प्रथाएँ हैं जो अपने में अलग हैं तथा उसे अपने अनुरूप ढालने में समर्थ भी हुई हैं।

आभूषण और गहनों का हमारे लोक जीवन में गरिमामय स्थान है क्योंकि हमारे जनजातीय समाज ने पहले कंदराओं में, गुफाओं में, खुले आसमान के नीचे अपना बसेरा बनाया और मातृसत्तात्मक समाज को पोषित किया। समय-समय पर उसने अपने तरीके से गहनों का आविष्कार किया। जिस अवस्था में रहा, उसने अपने को आकर्षक बनाने के लिए गहनों का सहारा लिया। पहले फूलों का, पत्थरों का, काष्ठ का, गिलट का, सोने और चाँदी समेत अन्य धातुओं का उपयोग किया। जैसे-जैसे व्यक्ति आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे व्यक्ति ने अपने साधन चुने और उन्हें निरन्तर विकसित करता गया तथा उन्हें अपने अनुरूप ढालने लगा। गहनों को जहाँ उसने आर्किषत करने का साधन बनाया, वहीं शरीर को प्राकृतिक आपदाओं, भूत प्रेतों, रक्त के संचार को सही व व्यवस्थित रखने का साधन भी बनाया। इस जनजातीय समाज में आज भी उन गहनों की परम्पराएँ हमें देखने को मिलती हैं जिनके कारण यहाँ का समाज विविध रंगों को सजाता दिखाई देता है। वहाँ मादकता, उमंग और स्वच्छन्दता का भान भी मिलता है इसीलिए यहाँ की अपार सुन्दरता को ‘जौनपुरी बाँद’ नाम से विभूषित किया है, जिसका वर्णन लोकगीतों में हमें दिखाई देता है।

जौनपुरी समाज में पुरुष, महिला व बच्चे सभी के अपने-अपने ढंग के गहने विद्यमान हैं। तथा इन गहनों को हम तीन वर्गों में बाँटते हैं। महिला प्रधान इस समाज में पुरुषों को गहना पहनाकर जहाँ उसके स्वास्थ्य को व्यवस्थित रखने की कोशिश की गई है, वहीं उसको अलग पहचान देने की भी बात की गई है। पुरुषों के लिए कान में मुरकी, हाथों में धागुला या पीतल या ताँबे का कड़ा, गले में चाँदी की जंजीर  होती थी। पहले पैरों में भी कड़े पहनने का रिवाज था, अब नहीं है। हाथ में अंगूठी पहनते हैं तथा बंडी या कोट में चाँदी की जंजीर लगाने की परम्परा है।
Culture: Traditional Jewelery of Jaunpur

वहीं बच्चों के आभूषणों में गले में चाँदी की जंजीर खगवाली, हाथों में चाँदी की धागुली तथा पैरों में चाँदी का धागुला और पेट में चाँदी की करदोड़ पहनाई जाती है। लड़कियों तथा लड़कों के कर्ण एवं नाक छेदन की परम्परा भी है। लड़कों के कान इसलिए छेदते हैं ताकि लड़का अल्पायु न मरे, ऐसी मान्यता है। लड़कियों के नाक एवं कानों में लकड़ी और चाँदी की सूत पहनाई जाती है।

महिलाओं ने आज भी इन पारम्परिक आभूषणों को बचा रखा है। यहाँ पर महिलाएँ सिर से पैर तक गहने से भरी और लदी रहती हैं। चाहे शरीर हो या शरीर का अंग। यहाँ पर हाथों और पैरों को गोदने की प्रथा भी है। खासकर महिलाओं के हाथों, बाँहों व पैरों को गोदा या आंका जाता है। यह सौन्दर्य को और मुखर करने का साधन भी है। लोकगीतों और मुहावरों में भी आभूषणों की झलक दिखाई देती है।

यहाँ पर माथे में ‘मथवीणा’, चोटी के पास चाँदी का ‘शीशफूल’ पहनने की प्रथा है। उसके पश्चात गले के गहनों का स्थान आता है, जिसमें चन्द्रहार, तैत, दूसेरु, कंठा, कण्ठी, तिमणिया, मंगलसूत्र व हार इत्यादि आते हैं तथा कानों में मुरकी भी पहनी जाती है। नाक में बुलाक व लावी पहनी जाती है। अब लोग फुल्ली भी पहनते हैं। नाक में नथ भी पहनी जाती है जिससे यहाँ नथोली वाली बाँद का मुहावरा चरितार्थ होता है। बदलते जमाने के साथ अब गले में लाकेट, मंगलसूत्र, हार तक सीमित हो गया है। नाक में फुल्ली व कान में कुण्डल ने स्थान ले लिया है।

हाथों में पौंछी, कड़े व धागुले पहने जाते हैं तथा अंगुलियों में अंगूठी रहती है। यह भी चाँदी के बने होते हैं। लेकिन जमाने के बदले मिजाज के साथ अब इसका स्थान सोने के कड़े ने ले लिया है। अंगूठियाँ भी अब चाँदी व मूंगे की होने लगी हैं, जो अब ग्रहों की शान्ति के लिए पहनी जाती हैं। खराब स्वास्थ्य की वजह से भी मूंगा और मालाएं पहनी जाती हैं।

इसके बाद कमरबंद का स्थान आता है, जो चाँदी का बना होता है। इसके बीचोंबीच नग भी रहता है। पैरों के कड़े चांदी के होते हैं। अंगुलियों में बिछुआ पहने रहती हैं। अब धागुले या कड़े की जगह पायल या पाजेब पहनने का रिवाज है। वहीं कपड़े और परिधान भी अलग तरीके के होते हैं।

गहनों को रखने के लिए घड़ा, लकड़ी का बक्सा या एक प्रकार का घड़ा जिसमें बाहर से बकरे की छाल मढ़ी होती है, प्रयोग में लाते हैं। इसे यहाँ पर ढवड़ी कहते हैं। उसे गड्ढे के भीतर रखा जाता है। गहने रिंगाल की टोकरी के भीतर भी रखे जाते हैं, जो कोठार में रहती है।

गहनों को साफ करने के लिए पहले खरवाणी (राख का पानी), चिलोड़ (खुबानी के छिलके) , छोई, अमेल्डा आदि का प्रयोग करते थे। अब तेजाब व अन्य कैमिकल्स से धोते हैं। पहले लोग घरों में धोते थे, अब बाजार में सुनार के पास ले जाते हैं।

जौनपुरी समाज में इन पुराने गहनों का अपना महत्व है। गहने घर के मुखिया के पास रहते हैं। सास अपने गहने बहू को देती है। बड़ी बहू अपने गहने छोटी बहू को देती है, इस व्यवस्था को ‘पैरोण’ कहते हैं। शादी-विवाह, मेले, विशेष अवसर पर या मायके जाने पर बहू गहने माँगती है और वापस आने पर मुखिया को दे देती है। तब दूसरे की बारी होती है। यहाँ पर संयुक्त परिवार प्रणाली है, एक ही गहने बारी-बारी से सबके काम आ जाते हैं। यहाँ पर गहने बनाने का रिवाज है। यह कहीं समृद्धि का भी सूचक है। सवर्णों के लिए सोने तथा निम्न वर्ग के लिए चाँदी के गहने होते थे। चाँदी र्आिथक तंगी तथा अलग पहचान के लिए भी होती थी। कहीं-कहीं इनके डिजायनों व आकार में भी अन्तर मिलता है।

जौनपुर का यह क्षेत्र सात पट्टियों में बँटा है। यहाँ पर मूल रूप से सिलवाड़, लालूर, ईड़ालस्यूँ, छ:जुला पट्टियाँ हैं जिसमें आज भी परम्परिक गहने पहनने का रिवाज है। लेकिन एकलाना, दसजुला और पालीगाड़ पट्टियों में गढ़वाल के समान गहनों की परम्परा है।

जौनपुरी समाज में आभूषणों के तोल का अपना अलग तरीका है। 12 ग्राम का एक तोला, आठ खस खस का एक चावल का दाना, आठ चावल के दाने का एक रत्ती, 5 रत्ती का एक मासा होता था। यह माप था यहाँ उस जमाने का। आज तो नाप तोल का अलग तराजू विद्यमान है।

जौनपुरी समाज में गहने जहाँ समृद्धि के द्योतक हैं, वहीं ये समय पर काम भी आते हैं। उन्हें बेचकर या गिरवी रखकर उससे अपना काम चलाया जा सकता है। आड़े समय पर ये गहने पूँजी के रूप में काम आते हैं।
Culture: Traditional Jewelery of Jaunpur
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