कुछ कविताएँ

हर्ष

लक्ष्मण रेखा
मेरी लक्ष्मण रेखा
खींच ली है स्वयं ही मैंने
तय करते हुए़.
दायरा अपने दर्द का
और अपनी उदासियों की सीमा
जो भी गुज़रेगा अब हमदर्द बनकर
बहुत करीब से मेरे
रह जायेगा अछूत मेरी इन तन्हाइयों से
बस एक तुम्हारा ही है इन्तज़ार
जो लांघकर इसे आ जाओगे इस पार
इस दर्द में जल जाने के खौफ़ को चीरकर, जीतकर
लांघ पाना अब इसे
मेरे अपने बस में भी कहाँ।
बन पाना सीता
मेरे अपने बस में भी कहाँ

बुलबुला
इक बुलबुला
कभी फिसला, कभी संभला
हुआ सतरंगी कभी कभी
कभी बहका, कभी मचला
कभी चुपचाप,सहमा सा
रहा बिल्कुल कोरा कोरा
बिना आहट, बिना हलचल
मिल गया पानी में
मिट गया पानी में
इक बुलबुला
कि मेरा मन!!

रिश्ते
घुन लग जाते हैं,
दीमक चाट जाती है,
और जंग कमज़ोर कर देती है,
बहुत समय तक सहेजकर, बन्द रखे हुए रिश्तों को भी
बहुत ज़रूरी है, रिश्तों का,
वक़्त की तपिश, और जिन्दगी की आँच में,
जलते रहना…. तपते रहना….!!
some poems

चीख
किस क़दर ज़ोर से उट्ठी
और फिर रह गयी घुटकर
अदब की दीवारों से टकराकर
सूराख कर गयी कितने,
इस बदबख्त,बदहवास और बदहाल दिल में!

औरत-एक
काश कि बन पाती
सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी ही पूरक
जाने कितने रिश्तों को पूरा करती
ये अधूरी सी औरत

औरत-दो
हिसाब जोड़ती औरत
खाने में चुटकी भर नमक तक का  
जाने किस बारिश में, डली से घुली और बह भी गयी।
है कोई हिसाब?
some poems

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