एक पत्रिका का सफर
शीला रजवार
विगत उन्नीस वर्षों से सुश्री दिव्या जैन के सम्पादन में निरंतर प्रकाशित हो रही महिला पत्रिका अन्तरंग संगिनी का प्रकाशन अब बंद होने जा रहा है। महिला मुद्दों से जुड़ी पत्रकारिता और लेखन के माध्यम से महिलाओं के संघर्षों को संवेदनशील रूप से निरूपित करने के लिए दिव्या जी को लाडली लाइफ टाइम एचीवमेन्ट एवॉर्ड 2011 मिला है। बाल वेश्यावृत्ति पर केन्द्रित उनकी किताब हव्वा की बेटी के लिए मणिभुवन, मुम्बई और गाँधी स्मारक निधि की ओर से सम्मानित की गईं। इनकी 300 से भी अधिक रचनाएं धर्मयुग, जनसत्ता, हिन्दी व अंग्रेजी ब्लिट्स तथा विभिन्न स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
आज जब व्यावसायिकता के इस दौर में बड़े घरानों की साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी बंद हो गया है या बंद होने की कगार पर है, तब अपने सीमित प्रयासों से प्रकाशित कुछ ही पत्रिकायें हैं जो साहित्य के उद्देश्य की पूर्ति कर रही हैं।
महिलाओं की कमजोर स्थिति के बारे में निरंतर चर्चायें और बहसें आम हैं। वर्तमान में स्त्री-विमर्श और स्त्री सशक्तीकरण और महिला उत्थान, महिला जागरूकता से सम्बंधित बहुत से कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं और योजनायें बनाई जा रही हैं। अनेक महिला पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं जिसमें से स्त्री को सौन्दर्य बढ़ाने और पितृसत्ता को पोषित करने वाली पत्रिकाएं ‘बेस्ट सेलर्स’ में हैं जिनकी प्रसार संख्या लाखों में है। वहीं दूसरी ओर महिला अस्मिता और हकों की लड़ाई को बढ़ाने और सामाजिक विसंगतियों को उजागर करने वाली 5-10-15 हजार की प्रसार संख्या वाली गम्भीर महिला पत्रिकाएं विभिन्न स्थानों से प्रकाशित हो रही हैं और अपनी गम्भीर और सजग भूमिका निभा रही हैं। लेकिन इनमें से कुछ ही हैं जो ठोस और सार्थक प्रतीत होती हैं। ऐसी ही सार्थक भूमिका अन्तरंग संगिनी की रही है। इसका प्रकाशन बंद होना दुखद है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि समाज का अर्धांग होने के बावजूद समाज में स्त्री की स्थिति दोयम दर्जे की रही है। पुरुषप्रधान समाज में स्त्रियों के साथ लगातार अन्याय होता रहा है। सामाजिक विकास के दौर में प्रगतिशील विचारधारा के लोगों ने इसे रेखांकित करते हुए स्त्री को समाज में समानता का स्थान दिलाने के विविध प्रयास किये। आज स्त्री ने समाज में अपनी अहम भूमिका स्थापित कर ली है, लेकिन स्त्री-शोषण के विविध रूप अभी भी समाज में विद्यमान हैं। स्त्री की अस्मिता और संघर्षों से जुड़े सवालों को उठाने और सामाजिक जागरूकता के उद्देश्य से विविध महिला संगठन और महिला पत्रिकायें अपनी सशक्त भूमिका निभा रही हैं। इसी क्रम में विगत उन्नीस वर्षों से डॉ0 दिव्या जैन के सम्पादन में अन्तरंग संगिनी का प्रकाशन हो रहा है। पत्रिका स्त्री जीवन के विविध पहलुओं को उजागर करती रही है। पत्रिका का हर अंक स्त्री-जीवन के किसी विशेष पहलू को केन्द्र में रखते हुए उसके संघर्षों के विविध पक्षों को उद्घाटित करता है। इस तरह पत्रिका का हर अंक एक विशेषांक होता है, और विषय को अपनी सम्पूर्ण गहराई से प्रस्तुत करता है। इसमें विषय से जुड़े विद्वानों और सामाजिक कार्यकतर्ताओं के गहरे विश्लेषण और अनुभव रहे हैं जो विषयवस्तु को समग्रता प्रदान करते हैं। कुछ अंकों में अन्य लोगों का सम्पादन सहयोग भी रहा है यथा; अलका अग्रवाल, डॉ. विभूति पटेल, चितरंजन और कुसुम त्रिपाठी, जो सामूहिकता की सोच को दर्शाता है। अपने उन्नीस वर्षों के इस सफर में अन्तरंग संगिनी ने जहाँ स्त्री की सामाजिक स्थिति और भूमिका को रेखांकित किया है वहीं उसके शोषण के लिए जिम्मेदार सामाजिक परम्पराओं पर भी दृष्टि डाली है। औरत की कहानी तथा समाज साहित्य और महिलाएं पर केन्द्रित अंक इसी तरह के हैं। महिलाएं और स्वास्थ्य, चालीस पार की औरतें विशेषांक में महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति बरती जाने वाली उपेक्षा और रजोधर्म, रजोनिवृत्ति, गर्भावस्था, बाल-विवाह से कम वय में मातृत्व से आई कमजोरी तथा यौन रोगों के प्रति जागरूकता और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और कुपोषण तथा आराम और मजदूरी करने वाली महिलाओं के लिए अवकाश की समुचित व्यवस्थाओं के अभाव को उजागर करने के साथ-साथ समाधान भी हैं।
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महिला-मुक्ति आन्दोलन और भारतीय संदर्भ में महिला आंदोलन का जन्म और विविध रूप भारत में महिला आंदोलन विशेषांक में विश्लेषित हुए हैं। सामान्य रूप से लोग मान लेते हैं कि भारत में महिला आंदोलन का स्वरूप पश्चिम के महिला आंदोलनों जैसा है या उसी तर्ज पर कुछ फैशनपरस्त महिलाओं द्वारा संचालित आंदोलन है। जबकि भारतीय संदर्भ में महिला आंदोलन रोजमर्रा के संघर्षों से जुड़कर चला। आजादी के बाद हुए स्वप्नभंग और भ्रष्टाचार ने विविध जनांदोलनों को जन्म दिया। इनमें महिलाओं ने विशेषकर युवतियों/ छात्राओं ने अहम भूमिका निभाई। इस अंक की अतिथि सम्पादक कुसुम त्रिपाठी सम्पादकीय में लिखती हैं- “इन औरतों ने पाया कि जिन प्रगतिवादी, क्रांतिकारी और साम्यवादी संगठनों से जुड़कर वे काम कर रही हैं, वहाँ भी लिंगभेद मौजूद है। व्यावहारिक रूप से सभी पितृसत्ता को निभाने में लगे हैं। …. बाहर महिला स्वतंत्रता, समानता पर भाषण देने वाले पुरुष घर आते ही पुरुष प्रधान समाज के रक्षक बन जाते हैं। उन्होंने महसूस किया कि महिलाओं के शोषण के लिए मात्र पूंजीवादी समाज व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है बल्कि पितृसत्ता भी जिम्मेदार है और इस तरह इन महिलाओं ने स्वायत्त महिला संगठन बनाने की सोची। स्वायत्त महिला संगठन महिलाओं द्वारा, महिलाओं के लिए और महिलाओं का संगठन बना, उसमें पुरुष सहभागी हो सकता है, पर निर्णय नहीं ले सकता।”
यद्यपि इस समय भारतवर्ष में अनेक महिला संगठन और स्वायत्त संगठन हैं। स्त्री विमर्श का दौर निरंतर जारी है। देश भर में अनेक महिला अध्ययन केन्द्र चल रहे हैं। कानून बन रहे हैं, सरकारी घोषणाएं हो रही हैं, सरकार द्वारा विभिन्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं, सुविधायें दी जा रही हैं। लेकिन महिलाओं की स्थिति फिर भी विचारणीय है। बाहरी रूप से बहुत कुछ बदल गया है लेकिन स्त्री शोषण की स्थितियां अपने भयावह रूप में मौजूद हैं। अन्तरंग संगिनी के विशेषांक बलात्कार का सच, संचार माध्यम और महिलाएं, साम्प्रदायिक हिंसा और महिलाएं, स्त्रियों पर हिंसा : विभिन्न पहलू, सेना के आतंक और कहर की शिकार उत्तर-पूर्वांचल की महिलाएं जहाँ स्त्री के प्रति हो रही हिंसा को उजागर करते हैं, वहीं हमारे समाज और हमारी व्यवस्थाओं का विद्रूप चेहरा भी दिखाते हैं और तब स्त्री का आदर करने का दावा करने वाली भारतीय संस्कृति का सच सामने आ जाता है। हस्तशिल्प के दायरे में महिलाएं, विचाराधीन कैदी महिलाओं की समस्याएं, जेल से छूटी स्त्रियों का पुनर्वास, श्रमजीवी महिलाओं की समस्याएं, महिलाएँ और शान्ति जैसे समसामयिक विषयों पर अंक निकाले हैं। महिलाओं के कानूनी अधिकार, राजनीति में महिलाओं के लिये आरक्षण पर केन्द्रित अंक समान भागीदारी को महत्व देते हैं। दिव्या जैन मानती हैं- संविधान में औरतों को पुरुषों के समान मत देने, सार्वजनिक पद ग्रहण करने, शिक्षा और रोजगार के अधिकार दिए गए हैं। लेकिन औरतों को अपने इन अधिकारों को पाने में सफलता नहीं मिली है। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर औरतें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं, और यदि हैं भी तो वे अपने इन अधिकारों की उपेक्षा ही करती ही पाई गई हैं।
स्त्री के सम्पत्ति अधिकार : मिथ और तथ्य विषय पर केन्द्रित अंक के लेख स्त्री के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों की जानकारी देने के साथ-साथ इनकी व्यावहारिकता, कमियों और जरूरत पर रोशनी डालते हैं। स्त्री को पारिवारिक संपत्ति पर अधिकार से वंचित रखने मात्र से स्त्री के सभी मानवाधिकार छिन जाते हैं, परिवार में उसकी स्थिति पराश्रिता की और कभी-कभी गुलामों जैसी हो जाती है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होने के कारण वह हर प्रकार के शोषण का शिकार बनती है। इस अंक में डॉ0 शशि वर्मा के लेख का शीर्षक ‘बात जब तक निकलेगी नहीं तो दूर तक कैसे जाएगी’ खुद-ब-खुद इस तथ्य को पुष्ट कर देता है कि स्त्री के अधिकारों के मुद्दे तो निरंतर और हर स्तर पर उठने ही चाहिए। अपने आत्मसम्मान को पाने के लिए स्त्री को अपने सम्पत्ति सम्बंधी अधिकारों की न केवल जानकारी होनी चाहिए वरन् उसे इन अधिकारों के प्रति जागरूक भी होना पड़ेगा और अपने हक पाने के लिए लड़ना भी होगा।
इसके अतिरिक्त बाल एवं किशोरी जीवन, नारी भू्रणहत्या जैसी समस्याओं तथा समकालीन विषयों यथा भूमंडलीकरण का महिलाओं की स्थिति पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के साथ-साथ डांस बार बंद होने से उपजे सवालों पर अन्तरंग संगिनी ने गम्भीर विमर्श प्रस्तुत किया। साथ ही भारतवर्ष के समाजसुधारकों द्वारा किये गये प्रयासों को भी नजरअन्दाज नहीं किया गया। महिला उद्धार एवं जागरूकता के लिये प्रयासरत अग्रणी महिला-पुरुष समाज सुधारकों के कार्यों पर भी कई अंक निकाले गये हैं।
उन्नीस वर्षों की इस अवधि में पत्रिका भारतीय संदर्भ में स्त्री का सम्यक् आकलन करने में पूर्णतया सफल रही है। दूसरे शब्दों में महिलाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक,व कानूनी अधिकारों की लड़ाई का एक हिस्सा बनती हुई स्त्री-स्वातंत्र्य और स्त्री-अस्मिता का एक पड़ाव पूरा करती है। हम आशा करते हैं कोई न कोई इस विरासत को आगे बढ़ाएगा। ये अंक भी सुरक्षित हों और लोगों को पढ़ने के लिए मिलते रहें।
अन्तरंग संगिनी (त्रैमासिक), संपादक : दिव्या जैन, बी- गोविन्द निवास, सरोजिनी रोड, विले पार्ले (पश्चिम), मुम्बई- 400 056, पृ.सं. 48, मूल्य- 15 रु.
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