बदलता नजरिया
कमल जोशी
हाल में उत्तराखण्ड के स्थानीय निकायों के चुनाव सामान्य चुनावों की ही तरह रहे। एक पार्टी खुश थी कि वह ज्यादा सीटों पर कब्जा कर पाई, वहीं दूसरी राष्ट्रीय पार्टी को हार की समीक्षा करने का नाटक करना पड़ा। लेकिन इस चुनाव में पौड़ी जिले की कोटद्वार नगरपालिका ने सवाल भी खड़े किये तथा जवाब भी ढूँढे। राष्ट्रीय पार्टियों को उनकी असल तस्वीर भी दिखाई और वहीं मतदाताओं के बदलते नजरिये को भी दर्शाया।
नगर निकायों के निवर्तमान चुनावों में पार्टियों की जीत-हार को दर किनार कर दें तो बहुत सारे तथ्य सामने आये। गढ़वाल की एक बड़ी नगरपालिका कोटद्वार में पार्टियों के बीच केवल अध्यक्ष पद हथियाने की होड़ नहीं थी, वरन् पार्टियों के अन्दर भी पार्टियाँ बनी थीं। पार्टी टिकट के लिये बहुत जोड़-तोड़ थी। यूकेडी तो अपनी ही लड़ाइयों में व्यस्त रही पर भाजपा तथा कांग्रेस दोनों प्रमुख पार्टियों के कई स्थानीय नेता टिकट तथा जीत के लिये जोड़-तोड़ कर रहे थे। अफवाह यह भी थी कि अध्यक्ष पद इस बार फिर महिलाओं के लिए आरक्षित होगा इसलिये इन नेताओं ने अपनी पत्नियों को भी टिकट का दावेदार बनाया हुआ था।
लेकिन अध्यक्ष का पद अनुसूचित जाति की महिला के लिये आरक्षित होते ही इन कद्दावर नेताओं के अरमान धराशायी तो हुये ही, खुद पार्टियाँ भी अवाक् रह गईं। दोनों ही पार्टियों को प्रत्याशियों के लाले पड़ गये। उनके पास कोई भी अनुसूचित वर्ग की महिला अध्यक्ष पद के लिये चुनाव लड़ाने के लिये उपलब्ध नहीं थी।
यह हालत हमें राष्ट्रीय पार्टियों की मानसिकता के दर्शन कराती है। ये वही पार्टियाँ हैं जो दलितों/शोषितों के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण के नारे लगाती हैं, धरने-प्रदर्शन करती हैं। यह दिखावा इसलिए करती हैं क्योंकि वे इस वर्ग को वोट बैंक के रूप में देखती हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। दलितों तथा अल्पसंख्यकों को वे अपनी पार्टी के नेतृत्व से जोड़ती तो हैं लेकिन सिर्फ मुखौटों की तरह, जिससे उनके वोट उन्हें मिलते रहें। यह उसी तरह की मानसिकता है जिसके अन्तर्गत महिलाओं के वोट हासिल करने को पंचायतों में 50 फीसदी आरक्षण दे दिया जाये पर संसद व विधानसभा में जहाँ वास्तविक सत्ता तथा निर्णय में भागीदारी, नीति निर्धारण जैसे महत्वपूर्ण कार्य होते है, उनको भागीदारी से वंचित रखा जाये।
कोटद्वार नगरपालिका के अध्यक्ष पद के लिये किसी भी राष्ट्रीय दल को अनुसूचित जाति की महिला का अपनी पार्टी में न मिलना बताता है कि शोषित वर्ग के पक्ष में सहानुभूति के घड़ियाली आँसू बहाने वाली हमारी पार्टियाँ दलितों की आवाज को कितना महत्व देती हैं। दलित पुरुष तो फिर भी पार्टियों के दलित मुखौटे बन जाते हैं लेकिन दलित वर्ग की महिलाओं को तो ये मौके भी नहीं हैं। दलित वर्ग की महिलाओं के लिये जब राष्ट्रीय स्तर पर मौके नहीं हैं तो स्थानीय स्तर पर छुटभैय्ये नेता कैसे अपनी सत्ता को दलितों तथा विशेष कर दलित वर्ग की महिलाओं से बाँट सकते है?
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स्थानीय स्तर पर राजनैतिक दल सक्रिय राजनीति में दलित महिलाओं के नेतृत्व को बढ़ाने के सारे मौके ही समाप्त कर देते हैं। क्योंकि राजनैतिक पार्टियों के लिये सुविधाजनक स्थिति यही होती है कि दलित महिलाओं में नेतृत्व क्षमता न आए। वे सिर्फ पुरुषों के निर्देश पर वोट दें। दलित महिलाओं को नेतृत्व में लाना तो बड़ी बात है, उन्हें सक्रिय राजनीति से भी दूर रखा जाता है। कोई इस तरह का संगठित या संरचनात्मक प्रयास किसी भी दल द्वारा नहीं किया जाता है जिससे वे सक्रिय होकर राजनीति में दखल दें। क्योंकि जागरूक दलित महिलाएँ सवर्ण सामन्तवादी राजनीति के लिये दलित वर्ग के पुरुषों से भी ज्यादा खतरा होंगी । रोजमर्रा के जीवन में हर कदम पर संघर्ष कर रही दलित वर्ग की महिलाओं को पुरुषों की तरह हल्के लालच देकर तोड़ा नहीं जा सकता। दलितों का पक्ष लेकर सत्ता में आए दल भी व्यक्तिवादी हो चुके हैं। उनमें भी दलित महिलाएँ स्थानीय स्तर पर भी नेतृत्व में नहीं आ पाईं या लाई गईं।
इन परिस्थितियों में जब कोटद्वार में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने लिये प्रत्याशियों के लिये खोज अभियान चलाया तो कुछ अनुसूचित युवा महिलाओं ने पार्टियों से संपर्क किया। ये पढ़ी-लिखी महिलाएँ सक्रिय राजनीति में अपना कैरियर शुरू करना चाहती थीं। परन्तु दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों ने इन महिलाओं को मौका देना या अपनी पार्टी से जोड़ना उचित नहीं समझा। यदि दोनों पार्टियों की प्रत्याशी-चुनाव-बैठकों से निकल कर आई दबी-छुपी खबरों पर विश्वास किया जाय तो इन बैठकों में इन संभावित प्रत्याशियों के बारे में यह कहा गया कि ये पढ़ी लिखी महिलाएँ पता नहीं पार्टी के पुराने लोगों की बात मानें या ना मानें। यानी यह तय था कि दोनों पार्टियां अनुसूचित महिला अध्यक्ष के रूप में ऐसी महिला को ही चुनना चाहती थीं, जो मोहरे का कार्य कर सकें। अफवाह तो यहाँ तक है कि एक कांग्रेसी मंत्री ने ऐसी दलित महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट से ही कटवा दिये जो कांगे्रस की सशक्त दावेदार हो सकती थीं।
पार्टियों की खोज के परिणाम निकले। भाजपा ने ऐसी महिला को प्रत्याशी बनाया जिसे कोटद्वार वाले पहचानते तक नहीं थे। उसकी खोज निवर्तमान महिला नगरपालिका अध्यक्ष ने की थी जो प्रत्याशी की जगह खुद भाषण देती रहीं और यह कहती रहीं कि मेरे द्वारा अधूरे छोड़े गये कार्यों को ये पूरा करेंगी। प्रत्याशी को चुनाव प्रचार के किसी मंच से बोलने का मौका शायद ही मिला हो क्योंकि यह कहा गया कि उन्हें भाषण देना नहीं आता। वैसे उसके पक्ष में वोट मांगने के लिये भूतपूर्व मुख्यमंत्री खण्डूरी-कोश्यारी तथा प्रदेश अध्यक्ष तीरथ सिंह भी कोटद्वार आये। जब उनसे खोजे गये प्रत्याशी के बारे में पूछा गया तो इन लोगों का कहना था कि चुनाव पार्टी जीतती है, व्यक्ति नहीं। जीतने के बाद पार्टी तय करेगी कि वे कैसे काम करेंगी। भाजपा को यकीन था कि पार्टी प्रत्याशी को जिता देगी।
कांग्रेस की खोज एक पूर्व वार्ड मेम्बर पर खत्म हुई। यद्यपि वे कांग्रेस से लम्बे अरसे से जुड़ी थीं पर वे आरक्षित सीट से वार्ड मेंम्बर बनी थीं। उनकी व्यक्तिगत छवि भी बहुत बेहतर नहीं थी। राजनैतिक समझ भी नहीं थी और न ही कोटद्वार को बेहतर बनाने की रणनीति या प्लान था। उनके हर सवाल का जवाब होता- माननीय (मंत्री) जैसा कहेंगे। अपने राजनैतिक आकाओं से ही कांगे्रसी प्रत्याशी ने वार्ड मेम्बर के गुण सीखे थे। इसलिये उनसे उनके वार्ड के लोग भी नाराज थे। उनका चुनाव इसलिये हुआ क्योंकि वे मंत्री जी की पसंद थी। वैसे मंत्री जी इस बीच एक अन्य टिकटार्थी महिला को जो पढ़ी-लिखी थी तथा सामाजिक कार्यों से जुड़ी थी, बुरी तरह लताड़ चुके थे। मंत्री जी के अनुसार वह महिला बहुत ‘तेज’ थी।
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परन्तु कोटद्वार की जनता ने कांगे्रस-भाजपा दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों को दरकिनार कर दिया। अध्यक्ष पद के चुनाव में उसने एक अनजान लड़की को तरजीह देकर कांग्रेस-भाजपा दोनों को आईना दिखा दिया।
नगरपालिका कोटद्वार से अध्यक्ष पद पर सफल हुई रश्मि को कोटद्वार वालों ने इसलिये जिताया क्योंकि फिलहाल वह किसी का मोहरा नहीं थी। उन्होंने बसपा से टिकट लिया। एम़ए़ तक पढ़ी रश्मि का फिलहाल कोई सार्वजनिक या सामाजिक कार्यों का अनुभव नहीं था। परन्तु उनका पढ़ा-लिखा होना और नगर की समस्याओं के बारे में दो टूक बात करना लोगों को प्रभावित कर गया। सबसे बड़ी बात यह थी कि किसी नेता की छत्रछाया में न रहना ही उनकी जीत का कारण बना। बसपा का कोटद्वार में इतना प्रभाव नहीं कि वे बसपा प्रत्याशी होने की वजह से जीततीं। उन्हें लोगों ने जिताया।
एकता रेस्टोरेंट के बौठियाल जी से जब मैंने पूछा कि किसे वोट देंगे तो उन्होंने दो टूक कहा ‘‘कांगे्रस में प्रत्याशी के बहाने मंत्री जी तथा भाजपा में प्रत्याशी के नाम पर पूर्व नगरपालिका शहर के अध्यक्ष पद पर कब्जा करना चाहते हैं। ऐसे में क्यों न पढ़ी लिखी महिला को मौका दें जो हमारी बात कम से कम समझ तो लें।” प्राइमरी अध्यापिका शान्ति देवी का मानना था कि रश्मि को वोट देकर राजनैतिक दलों को संदेश दिया है कि वे बेहतर तथा सक्षम दिखने वाले प्रत्याशी खड़े करें। वे इस भ्रम में न रहें कि वे किसी को भी हम पर थोप सकते हैं।
कोटद्वार के लोगों का राजनैतिक पार्टियों के प्रत्याशियों को नकार कर पढ़ी लिखी महिला को चुनना सुखद है क्योंकि यह उस दिशा की ओर इशारा कर रहा है जहाँ जनता खिलाफ हो रही है क्षुद्र राजनैतिक नेताओं, पार्टियों के, जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए प्रत्याशियों को थोपते हैं। पुरुषवादी समाज द्वारा महिलाओं का इस्तेमाल करने की मानसिकता के खिलाफ जनता का यह फैसला रहा। हो सकता है, आगामी पंचायती चुनावों में गाँवों में भी लोग महिला आरक्षित सीटों पर ऐसी महिलाओं को चुनें जो सक्षम हों, नेतृत्वशील हों और उन महिलाओं को नकारें जिन्हें विभिन्न दबावों में पुरुषों द्वारा अपने हित में इस्तेमाल करने के लिये चुनावों में खड़ा किया जाता है।
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