दामिनी के बहाने
प्रीती आर्या
सामान्यत: कई घटनाएँ घटती हैं और धीरे-धीरे समय के साथ उनका भावावेश भी घटता जाता है। किन्तु 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में हुए सामूहिक दुष्कर्म ने सड़क से संसद तक कोहराम मचा दिया। इस हादसे से उपजा जनाक्रोश इतना प्रबल था कि अनेक सामाजिक संगठनों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी सड़क में उतरने को विवश हो गया। पहली बार संसद में इस विषय पर बात करते हुए महिला सांसदों की आँखें नम हो गईं। पूरे भारत में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन, कैंडल मार्च, रैली करते लोगों के बीच सारे भेद खत्म होते दिखाई दे रहे थे। ऐसा तो नहीं था कि इस प्रकार की यह पहली घटना हो; पर हाँ! ऐसे दुष्कर्म और दुष्र्किमयों के विरुद्ध पहली बार इतना व्यापक एवं प्रबल विरोध देखकर माना ये जा रहा था कि भविष्य में ऐसी घटनाएँ नहीं होंगी लेकिन वास्तविकता इससे बिलकुल अलग है, क्योंकि ऐसी विकृत मानसिकता पर कोई लगाम नहीं है।
इसी घटना के समानान्तर राजस्थान में एक पीड़िता के 12 ऑपरेशन के बाद भी स्थिति गम्भीर बनी थी। जम्मू-कश्मीर में पीड़िता पर तेजाब फेंका गया और दिल्ली में एक नाबालिग से छेड़छाड़ का मामला सामने आया। इस हादसे ने जहाँ संवेदना के स्तर को चरम तक पहुँचाया, वहीं दूसरी ओर अधिकांश लोगों के महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी विचारों को भी उजागर किया। समाज और धर्म के प्रतिनिधि बने कई जाने-माने चेहरों के बयानों ने बलात्कार जैसे कुकृत्य का नब्बे प्रतिशत कारण परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से स्वयं महिलाओं को माना। कहा गया कि उनकी वेशभूषा, चाल-ढाल, उनकी स्वतंत्रता, फिल्मों में उनकी भूमिकाएँ, पाश्चात्य जीवन शैली का प्रभाव, इलेक्ट्रानिक मीडिया में उनका हस्तक्षेप और अभिव्यक्ति इत्यादि ऐसी घटनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। यदि व्यापक और निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ये सभी कारण केवल उन पुरुषों की पाशविक और विकृत मानसिकता को ढाँपने का प्रयास मात्र हैं।
राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में महिलाओं के प्रति अपराधों का ग्राफ लगतार बढ़ रहा है। विचारणीय है कि महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं या अपराधों के प्रति स्वयं महिलाओं में जागरूकता बढ़ रही है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए कठोर कानून बनाने और उनके क्रियान्वयन की आवश्यकता है। अगर उत्तराखण्ड की सरकार की इस बात को मान भी लिया जाए कि असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाली महिलाएँ शाम छह बजे बाद काम नहीं करेंगी तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे महिलाओं के काम करने की अवधि के दौरान क्या पुरुषों के घरों से बाहर निकलने पर रोक लगाएंगे? क्योंकि महिलाओं को जिस प्रवृत्ति से सुरक्षा चाहिए वे घटनाएँ तो दिन में भी घटित हो रही हैं।
In the name of Damini
दरअसल बलात्कार करने वाले प्रत्येक छोटे-बड़े शहर, गाँव, कस्बे के घरों और सड़कों में बसते हैं। जिनसे केवल घर से बाहर जाने वाली ही नहीं, बल्कि घरों में रहने वाली महिलाएँ भी सुरक्षित नहीं हैं। इससे ज्यादा घिनौना और असभ्य कृत्य क्या होगा कि दो वर्षीय अबोध बालिका से लेकर साठ वर्ष की वृद्धा तक इनकी हैवानियत सहने को विवश है। उससे भी दुखद स्थिति यह है कि ऐसे लोग कभी बुजुर्ग, कभी विक्षिप्त, कभी नाबालिग और कभी सत्ता एवं शक्तिसम्पन्न होकर बच निकलते हैं।
अब यदि फिल्मों के समाज पर प्रभाव की बात करें तो वहाँ महिलाओं का सबसे ज्यादा शोषण होता है पर उनके प्रति हम संजीदा नहीं होते। दरअसल हमारी सोच में वे स्वैच्छिक कार्य क्षेत्र में रहती हैं इसलिए जो भी होता है उनकी इच्छा से होता है। प्रश्न यह है कि महिलाओं के साथ-साथ कई पुरुष भी आइटम सांग व देह प्रदर्शन करते हैं। तब उसी तर्ज पर पुरुषों के साथ दुराचार या सामूहिक बलात्कार क्यों नहीं होता? ये सब बहाने हैं। हम केवल उन्हीं भूमिकाओं की बात क्यों करते हैं, जिनमें महिलाएँ उत्तेजक भूमिका निभाती हैं। उन फिल्मों और भूमिकाओं से प्रेरित क्यों नहीं होते जहाँ ऐसे दरिन्दों को महिलाएँ स्वयं दण्ड देती हैं। ‘मदर इंडिया’ इसका जीता-जागता उदाहरण है कि माँ अपने दुराचारी बेटे को मृत्युदण्ड देती है। वास्तविक धरातल पर यद्यपि कोई भी माँ बेटे को दुष्कर्म का संस्कार नहीं देती तथापि किसी माँ ने उसे सजा का अदम्य साहस भी तो नहीं दिखाया।
‘दामिनी’ के साथ हुई इस घटना ने कम से कम सदियों से चले आ रहे इस कुकृत्य को सहने की क्षमता का व्यापक विरोध तो किया। महिलाओं के साथ-साथ पुरुष वर्ग, विशेषकर युवा वर्ग की भागीदारी सराहनीय रही। आज के सन्दर्भ में प्रत्येक माँ को अपने दुष्कर्मी बेटे, पत्नी को दुराचारी पति, बेटी को हैवान पिता और बहिनों को दरिन्दे भाइयों के विरुद्ध खड़े होने का साहस करना पड़ेगा। ताकि समाज में आधी-आबादी का अस्तित्व न केवल बना रहे अपितु वे बेखौफ जीवन जी सकें।
In the name of Damini
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