अफ़सोस

ज्योतिराज प्रसाद

पिछले दिनों किसी कारणवश दिल्ली जाना हुआ। दिल्ली दहली हुई थी। गैंगरेप पीड़िता के अपराधियों को फाँसी की सजा दिलाने की माँग को लेकर लोग जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे थे। सुरक्षा की दृष्टि से रेसकोर्स, उद्योग भवन, केन्द्रीय सचिवालय समेत कई मेट्रो स्टेशन बंद कर दिए गए तथा इण्डियागेट व आसपास के क्षेत्रों में धारा 144 लगा दी गई। सभी जगहों पर इस घटना की चर्चा हो रही थी। कई लोग मेट्रो स्टेशनों के बन्द किए जाने से नाराज थे तो किसी को धारा 144 से परेशानी थी। ‘अरे कौन-सा मर्डर हो गया यार….?’ जैसे वाक्य जब मेरे कानों में पड़े तो आक्रोश से मन भर उठा, इच्छा हुई कि गिरेबान पकड़कर इन्हें तमाचे जड़ दूँ मगर अपने आँसू व गुस्से को पी जाने के अतिरिक्त कोई चारा मेरे पास नहीं था।

इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में जहाँ सदियों से स्त्रियों को ‘भोग्या’ कहा गया है, वहाँ कोई पुरुष स्त्रियों के साथ होने वाले दुष्कर्म के लिए उसी स्त्री को जिम्मेदार ठहराएगा, कोई उसके लिए लक्ष्मण रेखा तय करे, कोई राजनीतिज्ञ यह भारत में नहीं इण्डिया में हो रहा है जैसी बयानबाजी करे तो आश्चर्य की बात नहीं है।

दिल्ली जैसी घटना पहली बार हुई हो ऐसा नहीं है। हमारे समाज में यह सदियों से होता आया है, ‘जौहर’ जैसी कुप्रथाओं ने समाज में जन्म लिया क्योंकि विजयी राजाओं के सैनिकों द्वारा पराजित राज्य की महिलाओं पर सामूहिक दुष्कर्म किया जाता था जिससे बचने के लिए महिलाएँ हार की सूचना पाते ही आग में जिन्दा जल जाया करती थीं।

हमेशा से ही पुरुष उसे सम्पत्ति समझ मनमानी करते आए हैं। पाण्डवों का द्रौपदी को जुए में दाँव पर लगाना, दु:शासन का उसे बालों से पकड़कर घसीटते हुए सभा में लाना और मूकदर्शक बने सभासदों के बीच उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश करना यही तो दर्शाता है कि द्रौपदी एक वस्तु है जिसे कौरवों ने जुए में जीता है वे अपनी जीती हुई वस्तु के साथ मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हैं चाहे यह मनमानी उसका चीरहरण ही क्यों न हो। कहने का अर्थ है कि समाज न सदियों पहले स्त्रियों के प्रति संवेदनशील था और न ही आज और जो विकृति समाज में व्याप्त है उसका कारण भी सदियों से चला आ रहा पितृसत्तात्मक एकाधिकार, पुरुष वर्चस्व व स्त्रियों के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण ही है।

स्त्रियों को समानता का दर्जा देना तो दूर की बात है, उसे एक इंसान तक समाज ने नहीं समझा है। हमेशा से वह पुरुष के षडयंत्र का शिकार बनती रही है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते….’ कहकर उसे ‘देवी’ बना दिया ताकि घर के भीतर एक मौन प्रतिमा स्थापित की जा सके। कभी दासी, कभी पैर की जूती, कभी ‘त्रिया चरित्रम्…. जैसी उपमाओं से उसे अपमानित किया गया।’ उसे ‘अनुगामिनी’ बनाकर तो जैसे पुरुष फूले न समाए हों। और जब उसकी स्थिति दयनीय लगी तब भी ‘अबला जीवन हाय….’ कहकर समाज ने उसकी स्थिति पर टसुए बहाने के अलावा कुछ नहीं किया।

संविधान में लिखित मूल अधिकारों में समानता का अधिकार व स्वतंत्रता का अधिकार तो जैसे स्त्रियों पर लागू ही नहीं होते। संस्कृति के नाम पर सारी दकियानूसी परम्पराएँ उसे ही अपने कंधे पर ढोनी हैं। कभी सुना नहीं कि किसी पुरुष ने अग्निपरीक्षा दी हो, या कोई पुरुष अपनी पत्नी की चिता में स्वयं कूदकर जल मरा हो। कभी पुरुषों का भी डे्रसकोड तय किया हो किसी ने। ऐसा हमारे समाज में तो मैंने कभी नहीं सुना। ठेकेदार तो स्त्रियों के लिए बैठाए गए हैं, जो तय करेंगे कि उसे क्या पहनना है? वही तय करेंगे कि उसे देवी बनाया जाय या दासी। स्त्री की इच्छा कभी जानने की कोशिश ही नहीं की गई है।
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रही बात स्त्री स्वतंत्रता की तो आज भी निर्णय लेने की स्वतंत्रता स्त्रियों को नहीं है। आर्थिक रूप से कुछ हद तक वे सबल अवश्य हुई हैं परन्तु कुछ प्रतिशत को छोड़ दें तो अपने वेतन तक को स्वेच्छा से खर्च करने की स्वतंत्रता उसे नहीं है। आए दिन नए-नए फरमान जारी होते हैं। जींस मत पहनो, बुर्का पहनो, जोर से मत हँसो, यहाँ तक कि मोबाइल फोन मत रखो जैसे बेतुके फरमान।

आश्चर्य होता है समाज के इस दोहरेपन पर। एक ओर कन्यापूजन दूसरी ओर कन्या भू्रण हत्या, एक ओर वसुधैव कुटुम्बकम् का डंका पीटा जाता है दूसरी ओर यह एक कुटुम्ब न जाने कितने वर्गों, वर्णों, जातियों, धर्मों में बँटा हुआ है और स्त्री अपने ही कुटुम्ब में सुरक्षित नहीं। एक ओर विश्व शान्ति का नारा लगाते नहीं थकते। दूसरी ओर हाहाकार मचा हुआ है। हम परमाणु शक्ति सम्पन्न अवश्य बन गए होंगे मगर स्त्री सुरक्षा के मामले में हम बहुत कमजोर और उदासीन हैं। नियम व कानूनों का सख्ती से पालन ही नहीं होता। जैसे यात्रियों को न बैठाने व मनमाना किराया वसूल करने वाले वाहन-चालकों का लाइसेंस रद्द करने वाले कानून पर यदि अमल होता तो कम से कम एक युवती को हम बचा पाते।

बात होती है स्त्री आत्मरक्षा की तो सभी लड़कियों के लिए प्रशिक्षण लेना सम्भव नहीं। न ही सम्भव है अस्सी-नब्बे वर्ष की वृद्धा के लिए, दुष्कर्म तो उन पर भी होते हैं, और वैसे भी अगर एक इंसान पर दिल्ली, पंजाब, व गुवाहाटी की तर्ज पर आधे दर्जन से अधिक भूखे कुत्तों का झुण्ड टूट पड़ेगा तो भारी वही पड़ेंगे।

इसलिए स्त्री समाज में तब सुरक्षित होगी जब उसका सशक्तीकरण होगा। स्त्री सशक्तीकरण उसे आत्मरक्षा के गुर सिखाकर या उसे आरक्षण दे देने भर से नहीं होगा। उसका सशक्तीकरण तब होगा जब समाज की मानसिकता में बदलाव आएगा। और ये तब सम्भव है जब पितृसत्तात्मक ढाँचा टूटे, स्त्री का बाजारीकरण बन्द हो, उसे स्वतंत्रता मिले। वह एक इंसान है और पुरुष उसे संचालित करना  बन्द करें और उसके साथ हैवानियत होने पर उसके अपराधियों को जल्द से जल्द सजा मिले। एक हमारी बहन ‘अरुणा शानबाग’ तीन दशकों से कोमा में है और उसका अपराधी आज भी ‘पुरुष’ बना घूम रहा है। यदि दुष्कर्मी को कठोर कारावास के साथ नपुंसक बना दिया जाए तो इन घटनाओं पर रोक लगाई जा सकती है। मगर हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे समाज में पैदा हुए हैं जहाँ दोहरापन है, भेदभाव है, पाखण्ड है, सख्त कानून नहीं है, कानून है तो अमल नहीं, अफसोस!
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