समय आ गया की हम बदलें

शशि शेखर

दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद दिल्ली की सड़कों पर या फिर सारे देश में लड़कियाँ, महिलाएँ, सामाजिक कर्मी और संगठन सिर्फ बलात्कार की शिकार एक लड़की को इंसाफ दिलाने या फिर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए ही नहीं लड़ रहे थे, वह उस जज्बे के लिए भी लड़ रहे थे जो कहता है कि आजादी और बराबरी पर लड़कियों का भी उतना ही हक है जितना किसी और का।

हमारे यहाँ लड़कियों के लिए सुरक्षा का मतलब है एक दायरे में रहना एक खास तरह से जीना, एक खास तरह के कपड़े पहनना, उन जगहों पर आना-जाना जिन जगहों पर घर-परिवार और समाज मानता है कि उनको होना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हम अपनी पितृसत्तात्मक सोच और ढाँचों को बदलने के लिए तैयार हैं? क्या हम उस संस्कृति को बदलने को तैयार हैं जो एक तरह से बलात्कार को जायज ठहराती है।

जैसे-जैसे लड़कियाँ घर की दहलीज लांघकर बाहर निकल रही हैं अपने लिए बराबरी की माँग कर रही हैं, पितृसत्ता उनको रोकने, अपने शिकंजे में कसने के लिए तमाम कोशिशें कर रही है। पितृसत्ता अपना नजरिया बहदने को तैयार नहीं है।

दिल्ली गैंगरेप के बाद आये तमाम धर्मगुरुओं या कई जनप्रतिनिधियों के बयानों का सार यही है कि अगर लड़कियों ने खुद बाहर निकलने की हिम्मत की, पितृसत्ता द्वारा बनाये दायरे तोड़ने की कोशिश की तो ऐसा ही होगा।

बलात्कार को जायज ठहराने की तमाम कोशिशें हो रही हैं। इसमें कोई भी पीछे नहीं है। व्यवस्था, समाज, परम्पराएँ, बाजार, मीडिया सब औरत को एक उत्पाद एक भोगने की वस्तु के रूप में स्थापित कर रहे हैं।

आज मर्द न तो यह स्वीकार करने को तैयार हैं कि औरतों को भी बराबरी का दर्जा और निर्णय की आजादी मिलनी चाहिए और न ही इस बात को पचा पा रहे हैं कि वे औरतें भी अपनी लड़ाई लड़ने के लिए खड़ी हो सकती हैं।
It’s time for us to change

वह सिर्फ तेरह साल की और एक गाँव में अपने छ: भाई-बहनों और माँ के साथ रहती थी। जब उसके चचेरे भाई ने उसके साथ बलात्कार किया तो उसे मालूम नहीं था कि उसके बेहद बुरे दिन शुरू हो गये हैं। चचेरे भाई ने दुराचार के बाद उसे मुँह बंद रखने के लिए धमकाया और उसके पास इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि सभी सवाल उसी पर खड़े किये जायेंगे। इस बात का खुलासा तब हुआ जब वह सात माह की गर्भवती हो गई। आनन-फानन में उसके घर वालों ने सात माह की गर्भवती उस बच्ची का गर्भपात करा दिया। यह उसकी अच्छी किस्मत थी कि वह बच गयी। पर कुछ ही महीने बाद उसके घरवालों ने उससे लगभग बीस साल बड़े आदमी के साथ उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के किसी गाँव में ब्याह दिया। तब से किसी को पता नहीं कि, इन तीन सालों में उस लड़की की क्या स्थिति है।

किसी भी लड़की या महिला के लिए बलात्कार जितना पीड़ादायी अनुभव है, उतनी ही पीड़ादायक उसके बाद शुरू होने वाली स्थितियाँ भी हैं। किसी लड़की या महिला के साथ दुष्कर्म के बाद भले ही समाज हो या प्रशासन, दोनों का नजरिया और रवैया बेहद असंवेदनशील होता है। सबसे पहली बात तो उनके लिए यह कहना कि मेरे साथ इस तरह की घटना हुई है, अपने आप को कठघरे में खड़ा करने जैसी स्थिति होती है। बजाए इसके कि उनको न्याय और दोषी को सुजा दिलाने की बात हो, उनको मुँह बंद रखने की हिदायत दी जाती है। घर-परिवार और रिश्तेदार तमाम तर्क देकर चुप रहने को कहते हैं। यदि कोई आवाज उठाता है तो समाज प्रश्न चिह्न खड़े करता है, मसलन इसने भी कुछ किया होगा, ये वहाँ क्यों थी, ऐसा क्यों कर रही थी।

महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों के मामले में हमारी न्यायिक व्यवस्था का रवैया आज भी कमोवेश वही है जो 1972 में महाराष्ट्र के चन्द्रपुर में सोलह वर्षीय किशोरी मथुरा के मामले में था। उस मामले में मथुरा के साथ थाने में दो पुलिस र्किमयों द्वारा किये बलात्कार को हमारी न्यायिक व्यवस्था ने सिर्फ इसलिए जायज ठहराया था कि वह अपने दोस्त के साथ पहले घर से भाग चुकी है। मानो अपनी मर्जी से दोस्त चुनना बलात्कार को जायज ठहराने का कारण है।

आज जबकि बलात्कार के लिए कड़े कानून की माँग हो रही है, हमें माँग इस बात की भी करनी चाहिए कि, बलात्कार की पीड़िता की अस्मिता को फिर से रौदने वाले मेडिकल टेस्ट टी.एफ.टी. यानी टू फिंगर टेस्ट को समाप्त किया जाए। यह एक ऐसा परीक्षण है जिसमें डाक्टर पीड़िता के यौनांगों में दो अंगुलियों डालकर राय देता है कि उसके साथ बलात्कार हुआ है कि नहीं। आज जबकि कई ऐसी जाँचें मौजूद हैं जो बता सकती है कि पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ या नहीं तो ऐसे अमानवीय परीक्षण के क्या मायने निकाले जाने चाहिए।

आज जिस तरह हिंसा और बलात्कार को जायज ठहराने की संस्कृति पैदा हो रही है वह यही बताती है कि इसे औरतों की आजादी और सम्मान को कुचलने का हथियार बनाया जा रहा है। अब समय आ गया है कि पितृसत्ता चेहरा बदले, तभी समाज और व्यवस्था का चेहरा भी बदल सकता है।
It’s time for us to change

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