कविताएं : रेखा चमोली
–1–
वे ही
वे ही बचाएंगे
इस हरियाली को
पेड़ों, नदियों, पहाड़ों को
जिनके लिए
किसी जगह की जनसंख्या
1573 पुरुष और 1104 स्त्रियां नहीं
बल्कि
दादा-दादी, चाचा-बुआ मौसी-ताई आदि होती हैं
जो किसी दुर्घटना के बारे में पढ़कर
क्या होगा इस दुनियाँ का कहकर भूल नहीं जाते
बल्कि
उनकी आंखों में
स्थायी उदासी के तौर पर छा जाती हैं
हताहतों की तस्वीरें
जो कुछ न कर पाने की बेबसी से चुप नहीं बैठते
बिफर उठते हैं
कुछ भी गलत होता देख
जो सवालों से कतराते नहीं
ना ही किसी जवाब को अन्तिम मान
इतिहास बनाने की जुगत भिड़ाते हैं
जो नहीं समझते
काम को नौकरी
औरत को पशु
बच्चों को नासमझ
जो अपना घर बनाते समय
सार्वजनिक रास्तों की जगह नहीं घेरते
उन्हीं की खुरदुरी हथेलियां
थाम पाएंगी
इन नदियों, पहाड़ों, झरनों, धूप, मिट्टी को।
–2–
मुझे उम्मीद है
मुझे उम्मीद है
एक दिन तुम जरूर ऊब जाओगे
मुझे उम्मीद है
एक दिन तुम जरूर थक जाओगे
इस खून खराबे से
इन डण्डों, झण्डों और गूँजते नारों से
इन फतवों, धमकियों, सुपारियों से
बेशर्म झूठों और अफवाहों से
जब तुम्हें अपने हाथों में लगे खून के धब्बे
अपनी थाली में रखी रोटी पर दिखेंगे
उठाते ही एक कौर
उस पर लगा खून देखकर
उल्टी हो जाएगी तुम्हें
साथ बैठे तुम्हारे घरवाले घबराकर तुम्हारी ओर देखेंगे
एक पछतावे का भाव उनके चेहरे को सुखा देगा
अपने खून सने कपडे़ धोने से निकले
गाढे़ भूरे पानी में
अपने बच्चों को उंगलियां डुबाता देख
तुम चीख पड़ोगे
जल्दी से उनका हाथ साफ करोगे
तब कोई भी हैण्डवाश उनके हाथों के धब्बे नहीं छुड़ा पाएगा
रात में सोते हुए
नींद में बडबड़ाओगे
मुझे जाने दो प्लीज
मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है
प्लीज, मुझे जाने दो
तुम पसीना-पसीना होकर उठ बैठोगे
तुम्हारी पत्नी जल्दी से लाइट जलाएगी
सपना देखा होगा कह हाथ थामेगी
तुम्हें दुुबारा सुलाने की असफल कोशिश करेगी
उस समय तुम्हारी आँखों को चुभेंगे वे खूनी दृश्य
जब तुम भीड़ थे उन्मादी
जहर उगलते शब्द
तनी हुयी बंदूक
खूब नुकीला छुरा
तलवार या ईंट
उस समय तुम खूब छटपटाओगे कसमसाओगे
लौट जाना चाहोगे समय में पिछले
फेंक दोगे अपने छुरे और तलवारें
बन्द कर दोगे उन आवाजों के रास्ते
जो तुम्हें भीड़ बनने को उकसाते हैं
अपनी आत्मा में लगे घावों को भरना चाहोगे
तुम जरूर लौटोगे कुदाल और हल की तरफ
नमक और प्रेम अभी इतना भी दुर्लभ नहीं हुआ।
-3-
निशाना
इस हवा में मनुष्य के जलने की गंध है
चीखें हैं बेगुनाहों की
इस मिट्टी पर पड़ा खून
चप्पलों जूतों पर लग फैल रहा है चारों ओर
यहाँ आवाजें नहीं हैं शोर है
मारो मारो का आलाप है
कुत्सित इशारे हैं
विध्वंसक हाथ हैं
ओजस्वी वक्तव्यों से गूँजती दिशाएं हैं
चापलूसी बातचीत हैं
कुटिल मुस्कानों में छिपे नरभक्षी दाँत हैं
इनसे बचकर निकल जाने से कुछ नहीं होगा
जब तक जलता रहेगा मांस
गन्धाती रहेगी हवा
पानी बनता रहेगा जहर
अब और अनदेखा न करो
अब और चुप न रहो
अब और गलत न सहो
कहीं अगला निशाना तुम न बनो।
-4-
प्रेम में डूबा मन सबसे अधिक दयालु होता है
प्रेम में डूबा आदमी जोर से नहीं बोलता किसी से
झल्लाता नहीं बात-बात पर
चहकता महकता है
बेवजह मुस्काता है
उसका पौरुष किसी को डराता नहीं
चट्टानों पर भी राह बनाता है
बंजर पर भी अन्न उगाता है
उसका स्पर्श फूलों-सा कोमल होता है
उसकी आवाज बच्चों की आवाज-सी मीठी होती है
प्रेम में डूबी स्त्री
पृथ्वी से भी अधिक धैर्यशाली होती है
उसके हौसलों के आगे सागर भी हार मानता है
उसके चेहरे का नमक समय के साथ फीका नहीं पड़ता
उसके शरीर की फुर्ती कई बार बाघिन को भी मात दे देती है
वह अपने रोजमर्रा के जीवन से उपजे दुखों को
ज्यादा मुंह नहीं लगाती, तुरंत फटकार देती है
अपनी छोटी से छोटी खुशी को
अपने भीतर रोप देती है
प्रेम फिर-फिर उपजता है उसके भीतर
प्रेम में डूबे स्त्री -पुरुष
कभी निराश नहीं होते
कितनी भी अंधेरी हो रात
सुबह की उम्मीद को मिटने नहीं देते
इन्हें साथ-साथ चलने पर भरोसा होता है
ये पतझड़ में भी सौन्दर्य देखते हैं
इन्हें घंटों बांधे रखती है नदी की आवाज
ये बेमतलब भीगना चाहते हैं बारिश में
बच्चों की तरह सवाल पूछते हैं
अभावों में भी ढूंढ ही लेते हैं कोई न कोई साधन
ये जीवन को काटने पर नहीं
साथ-साथ जीने में विश्वास रखते हैं
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि
अगर कोई बचा पाया यह धरती
तो वे प्रेम में डूबे स्त्री -पुरुष ही होंगे।