यात्राएं हमें बेहतरी की तरफ ले जाती हैं

Journeys lead us to the better
-दिव्या

घूमने-फिरने के शौकीनों की कमी नहीं है अपने देश में भी। हाल-फिलहाल तो सोशल मीडिया देखकर लगता है, घुमक्कड़ों की बाढ़-सी आ गयी है। तरह-तरह की मुद्राओं-भंगिमाओं आकृतियों के फोटो से फेसबुक पटा पड़ा रहता है। लगता है घूमना नई पीढ़ी में शो ऑफ करने का ट्रेंड बन चुका है। ऐसा कहकर मैं इस टाइप वाले घुमक्कड़ों को जज बिल्कुल भी नहीं कर रही क्योंकि यायावरी के मायने हर किसी के लिए अलग-अलग हैं। मेरे घूमने का शुरूआती दौर भी ऐसा ही था। (Journeys lead us to the better)

बचपन में हमारे लिये घूमना मतलब हल्द्वानी अपनी मौसी या नैनीताल मामा के घर जाना होता था। उसमें भी बारी लगती। एक साल भाई जाएगा, एक साल मैं। हम कभी किसी फैमिली ट्रिप में नहीं गए। अम्मा (नानी) या छोटी मौसी के साथ ही जा पाते थे जाड़ों की छुट्टियों में या परीक्षा के बाद होने वाले ब्रेक में। वहां से लौटकर उन दोस्तों में फौंस मारते जो कभी बेरीनाग से बाहर नहीं जा पाए। एक छुट्टी में हल्द्वानी से लौटने के बाद घूमने के किस्सों को दौर जारी था। तभी एक अन्य मित्र आयी और बोली, मैं तो इस बार दिल्ली गयी थी। तू गयी है दिल्ली? उस वक्त दिल्ली जाना मतलब पूरा देश घूम लेने जैसा था। नहीं कहने में शर्म आती थी इसलिए बात गोलमोल कर दी। मेरे हल्द्वानी के किस्सों पर दिल्ली के किस्से भारी पड़ने लगे।

दिल्ली जाने का पहला मौका सीधे एडमिशन के दौरान ही मिला। दिल्ली जाना किसी सपने के पूरे होने जैसा था। मेरी दिली इच्छा थी 12वीं के बाद की पढ़ाई घर से दूर करनी है। माँ  की शर्त थी अगर फर्स्ट डिवीजन आती है तो ही भेजा जाएगा। उस वक्त उत्तराखंड बोर्ड से फर्स्ट डिवीजन आना मां-बाप के लिये गर्व की बात होती थी। मैने जैस- तैसे मां-बाप को गर्व करने का मौका दे ही दिया। दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन लायक नंबर आ गए थे। इस तरह पहली बार अपने सपनों की दुनिया से मुखातिब हुई। मुझे अब भी याद है, नानी के साथ दिल्ली पहुंचने के बाद हफ्ते दस दिन तक मेरी आँखों में धुंधलापन-सा आ गया। मेरी आंखों ने वहां के पर्यावरण के हिसाब से एडजस्ट होने में टाइम लिया। रोड क्रॉस करना सबसे ज्यादा जद्दोजहद का काम होता। हालांकि अभी तक ये जद्दोजहद बनी हुई है। सभी रास्ते एक जैसे लगते। कलेज के पहले ही दिन आनंद विहार वाले चौक के 20 मिनट तक चक्कर लगाती रही। समझ ही नहीं आया आटो कहाँ से मिलेगा घर के लिये। भला हो उस मंदिर में लगे झंडे का जिस पर नजर पड़ते ही मुझे रास्ता समझ आया। झिझक और डर इतना कि आते-जाते लोगों से पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी। जैसे-तैसे घर पहुंची। छोटे से कस्बे से सीधे महानगर पहुंचकर वहां की जीवनशैली से तालमेल बिठाने में काफी वक्त लग गया। छुट्टी वाले दिन घर में आने-जाने वालों का तांता लगा रहता था और ये मेरे लिए परेशानी का सबब होता। नए-नए चेहरों से रूबरू होना मुझे असहज करता था। इससे बचने का एक तरीका मैंने खोज निकाला। जब भी कोई आता मैं खुद को कमरे में बंद कर लेती। सामने आने से बचती।

कालेज में अपना 08 दोस्तों का एक ग्रुप था। अपने ड्रेसअप, मेकअप को लेकर बेपरवाह मैं दोस्तों से टोकी भी जाती थी। घर का माहौल बिल्कुल अलग था और कालेज के दोस्त बिल्कुल अलग माहौल से आये थे। इनके द्वंद्व के बीच मैं अकसर खुद को फंसा हुआ पाती थी। कालेज के 03 साल कैसे निकल गए कुछ पता ही नहीं लगा।  मैं आज जो हूँ, उसके बनने की शुरूआत यहीं से होती है।

पीजी करने के लिये नैनीताल में डीएसबी में प्रवेश लिया। अब घर छोड़कर होस्टल की जिन्दगी में प्रवेश किया। दिल्लीपना मुझमें थोड़ा बहुत ही आया था। बाद में कुछ दोस्तों की संगत से वह भी चला गया। पहले पहल नैनीताल बहुत अटपटा लगा। शुरुआत में यह शहर मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आया। के.पी. हॉस्टल में मेरा रहना तय हुआ। ये विश्वविद्यालय का सरकारी हॉस्टल था तो लड़कियों के लिए आने-जाने का समय निश्चित था। ठंड इतनी ज्यादा कि पूछो मत। 12 बजे तक ही धूप दर्शन देती। अपने जूनियर्स के साथ मेरी बहुत अच्छी बनती। रात के समय अपर विंग के आखिरी कमरे में सभी का जमावड़ा लगता। बनती-बिगड़ती प्रेम कहानियों पर चर्चा-परिचर्चा होती। छुपी हुई कहानियों को उगलवाने का दौर चलता। होस्टल लाइफ आपको इंडिपेंडेंट और व्यावहारिक बनाती है। मेरे अन्तर्मुखी स्वभाव में यहीं से बदलाव आना शुरू हुआ। होस्टल में रहते हुए घूमने जाना संभव नहीं था। कालेज में जो दोस्त थे, वे कमरा लेकर रहते या फिर डे स्कॉलर थे।

आवारापन का बीज पहले से ही था सो छुट्टी वाले दिन सभी लड़कियों ने चुपचाप मजार (बिड़ला स्कूल के पास) जाना तय किया। यह एक मजेदार ट्रिप था। रास्ते मे सामान ले जाने वाले छोटे से ट्रक से हमने लिफ्ट ली। सारी लडकियां उसमें लद गईं। ये एक छोटी सी घटना है लेकिन उस समय बहुत मायने रखती थी। वार्डन को जब इसकी खबर हुई तो खूब डांट भी खाई। इसी दौरान मेरी मुलाकत पोलिटिकल साइंस में पी.एच-डी. कर रही लता से हुई। वह अपनी छोटी बहन भारती के साथ कमरा लेकर रहती थी। धीम-धीमे दोस्ती बढ़ी। अब मैं होस्टल से गोल मारकर कभी-कभी लता के कमरे में रुक जाती थी।

इसी दौरान युगमंच के कार्यक्रमों में शामिल हुए। नाटक में पहले से रुचि थी लेकिन मन में झिझक भी थी। फिर होस्टल में रहते हुए इन सब चीजों में हिस्सा ले पाना संभव नहीं था। नैनीताल रात के समय बेहद खूबसूरत लगता है। होस्टल बंक करके लता के साथ रात-अधरात इन सड़कों पर आवारा घूमते। मन में डर बहुत रहता, कोई शिकायत न कर दे। ऐसा हुआ नहीं कभी। नैनीताल के आसपास के इलाके इन्हीं लोगों के साथ छाने। इसी दौरान लता ने पीएचडी स्कॉलर अनिल कार्की से मिलवाया। डिपार्टमेंट में उनके चर्चे थे। लंबी सी चुटिया रखे हुए इस शख्स से मिलकर लगा इतना एटीट्यूड किस बात का। डिपार्टमेंट के एक प्रोग्राम के दौरान बहस भी हो गयी।

खैर, वह पूरा हुआ और एम.फिल. के लिए वनस्थली आ गई। यहां लता भी मेरे साथ थी। यहां के नियम कायदे ऐसे, मानो आप जेल के कैदी हों। घर से जब परमिशन लेटर आता तो जाकर कहीं छुट्टी मिलती। यहां अलग-अलग परिवेश और राज्यों से आई हुई लड़कियां थीं। सबके मजेदार अनुभव थे। यहां आए दिन लड़ाई झगड़े होते रहते। यह एक अलग ही दुनिया थी। घूमने का दूर-दूर तक कोई स्कोप नहीं था। बेशक कुछ चीजें अच्छी थीं। तैराकी, घुड़सवारी, खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम या लाइब्रेरी। आप दिन भर लाइब्रेरी में अपना टाइम बिता सकते थे।

असली कहानी वनस्थली के बाद शुरू होती है।