पर्वतीय महिलाओं का जीवन हमेशा संघर्षपूर्ण रहा है: ललिता वैष्णव
बातचीत
30 साल पहले
उत्तरा
प्रस्तुति- योगेश धस्माना
उत्तराखण्ड के जन-जागरण में जिन समाचार-पत्रों का प्रमुख योगदान रहा है, उनमें ‘गढ़वाली’ (1905-1952) की प्रमुख भूमिका रही है। गढ़वाली के सम्पादक विश्वम्भरदत्त चंदोला की बड़ी पुत्री श्रीमती ललिता वैष्णव ने भी इस पत्र के प्रकाशन में योगदान दिया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. तथा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद वे पंजाब तथा हरियाणा राज्य सेवा में प्रवक्ता तथा प्रधानाचार्य के पद पर रहीं। 1982 में अवकाश ग्रहण करने के बाद देहरादून में उन्होंने ‘विश्वम्भरदत्त चंदोला शोध अध्ययन केन्द्र’ स्थापित किया।
(Lalita Vaishnav Interview)
चंदोला जी की बड़ी पुत्री होने के कारण ललिता वैष्णव ने भी स्वयं गढ़वाली को जीवित रखने के लिए संघर्ष किया। संघर्ष के दिनों की स्मृतियों को ताजा रखते हुए उनका कहना था कि संघर्ष की भावना और शक्ति तो पर्वतीय महिलाओं को उनके जन्म से ही मिल जाती है। इसका खुला करते हुए ललिता दीदी कहती हैं- देखिये हमारे युग में संयुक्त परिवारों में 20-25 व्यक्तियों का पालन-पोषण हमारी महिलाएँ करती थीं। जंगल से लकड़ी लाने, जानवरों के चारा तथा रसोई बनाने से लेकर ओखल में कुटाई तक का कार्य सभी महिलाएँ करती हैं। खेतों पर भी हमारी निर्भरता महिलाओं के बूते रही है।
यहाँ प्रस्तुत है उनके बातचीत के कुछ मुख्य अंश-
गढ़वाल के प्रख्यात संपादकाचार्य की पुत्री होने के नाते आप बतायेंगी कि गढ़वाली पत्र का जन-जागरण में कहाँ तक अन्य पत्रों की तुलना में योगदान रहा था?
देखिये, गढ़वाली पत्र का प्रकाशन एक नीतिबद्ध कार्यक्रम के अन्तर्गत गढ़वाल यूनियन के तत्वावधान में मई 1905 में शुरू किया गया था। गढ़वाल यूनियन की स्थापना में देहरादून में 19 अगस्त 1909 ई. में की गई थी। गढ़वाल की इस पहली सामाजिक संस्था, जिसमें स्वयं बी.डी. चन्दोला, पं. गिरिजादत्त नैथाणी, चन्द्रमोहन रतूड़ी तथा तारादत्त गैरोला प्रमुख रूप से सम्बद्ध थे, का उद्देश्य गढ़वाल के सामाजिक, र्आिथक, र्धािमक व राजनीतिक पिछड़ेपन को दूर करना था। इसी उद्देश्य से गढ़वाली पत्र के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। इस मिशन में गढ़वाल यूनियन, गढ़वाली प्रेस तथा गढ़वाली मासिक पत्र ने राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे जनजागरण उद्देश्य से स्त्री-शिक्षा, हरिजन-उद्धार कार्यक्रमों पर अग्रलेख लिखते हुए सामाजिक कुरीतियों-कन्या विक्रय, वर मूल्य प्रथा, कुलीबेगार तथा जातिगत संस्थाओं की घोर निन्दा करते हुए इनके निवारण के लिए जनमत जागृत करने का प्रयास किया। दूसरी ओर गढ़वाली प्रेस के माध्यम से गढ़वाली साहित्य की दुर्लभ पाण्डुलिपियों का संकलन और प्रकाशन करते हुए नये लेखकों को प्रोत्साहित किया। गढ़वाली पत्र का प्रकाशन एक टीम भावना थी। इन सामूहिक प्रयत्नों के कारण गढ़वाली पत्र तब समाज की अभिव्यक्ति बन गया था।
(Lalita Vaishnav Interview)
गढ़वाली के जन-जागरण और आन्दोलन के युग में (1930 से 1950) कांग्रेसी नेताओं का सहयोग कहाँ तक मिला?
इस बारे में कहने को तो बहुत है किन्तु ऐसा कहने से कुछ बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं की छवि खराब हो सकती है। इतना अवश्य कहूंगी कि गढ़वाली पत्र के संकट के समय किसी ने र्आिथक सहायता नहीं दी। इसके विपरीत हमने इस मिशन के प्रति अपनी सम्पत्ति अवश्य बेच डाली। टिहरी रियासत के विरुद्ध जन-आन्दोलन में कांग्रेसी नेताओं की भूमिका पर टीका-टिप्पणी करने पर कुछ कांग्रेसी नेताओं ने गढ़वाली पत्र को बनदनाम करने की कोशिशें कीं। रियासत में चल रहे जन-आन्दोलन की अवधि में कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं द्वारा शाही खजाना लूटे जाने की भत्र्सना करने के कारण इन नेताओं ने गढ़वाली पत्र को राज परिवार का एजेन्ट ठहराने का प्रयत्न किया। जबकि राजपरिवार ने ही सम्पादक चन्दोला को एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी थी।
गढ़वाल के जन-जागरण में आपके परिवार की एक विशिष्ट भूमिका रही है। इस संदर्भ में आपके युग में महिला शिक्षा के प्रति समाज का दृष्टिकोण क्या था?
मेरे पिताजी स्व. बी.डी. चन्दोला राष्ट्रवादी और प्रगतिशील विचारों के थे। इसके कारण परिवार के सभी सदस्यों को उन्होंने सदैव उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। उस समय समाज के बुजुर्ग व्यक्ति अक्सर पिताजी से कहते कि लड़कियों की शादी करो, पढ़ा-लिखाकर क्या मिलेगा इनसे? इस तरह के सामाजिक वातावरण के बाद भी पिताजी ने हम सब बहनों को भाइयों के समान ही शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। तत्कालीन समाज में महिला शिक्षा की सर्वाधिक दयनीय स्थिति थी। आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि 1935 में जैदेवी घिल्डियाल पहली गढ़वाली थीं, जिन्होंने घर से बाहर निकलकर बनारस से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इस संदर्भ में आपको बता दूं कि सन 1932 में देहरादून से पहली बार 5 महिलाएँ बी.ए. करने के लिए बनारस गईं थीं। तब समूचे गढ़वाली समाज में यह बात एक सनसनीखेज खबर की तरह सुनाई जाती थी। 1933 में टिहरी राज्य के खिलाफ जनता का पक्ष प्रस्तुत करने के कारण मेरे पिता श्री बी.डी. चन्दोला को बन्दी बनाकर कारावास भेज दिया गया था। उत्तराखण्ड के किसी पत्रकार को निरंकुशशाही का पर्दाफाश करने के जुर्म में दी गई यह पहली सजा थी। तब मैंने बनारस छोड़कर देहरादून में शिक्षण कार्य कर घर-परिवार का खर्चा चलाकर प्रेस व पत्र को भी चलाया। इसके कारण जैदेवी ने मुझसे पहले बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मैंने एक वर्ष बाद 1935 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक डिग्री हासिल की। गढ़वाल में सन् 80 के दशक के बाद जन-जागृति का प्रभाव आने से महिलाओं की स्थिति में बदलाव आने लगा था। फलस्वरूप प्राइमरी से लेकर हाईस्कूल तक लड़कियाँ पढ़ने लगीं।
क्या आप मेरी बात से सहमत होंगी कि गढ़वाल में ब्रिटिश शासन के युग में पत्रकारिता ने प्राय: अपने को राजनीतिक प्रश्नों से अछूता रखा?
देखिये, यहाँ मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ। अन्य पत्रों की मुझे अधिक जानकारी नहीं है, किन्तु चूँकि गढ़वाली पत्र से सम्बन्धित रही हूँ अत: यह कह सकती हूँ कि गढ़वाली ने जिस निडरता से राजनीतिक प्रश्नों पर सम्पादकीय लेख लिखकर आंग्ल-शासन पर चोट की, वह एक निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता का उदाहरण था। आप सन 1914 के गढ़वाली का अंक देखिये। दक्षिण अफ्रीका के प्रश्न पर गोरी सरकार की आलोचना करते हुए श्री चंदोला ने लिखा था कि जिस तरह का व्यवहार अफ्रीका में अश्वेत नागरिकों के साथ किया जा रहा है, यदि उस तरह का व्यवहार कोई अन्य जाति अंग्रेजों के प्रति करती तो उसकी कैसी-प्रतिक्रिया होती। इसी तरह सन् 1920 में श्री चंदोला ने अपने एक सम्पादकीय लेख में युवकों को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए ट्रेनिंग कालेज की स्थापना पर बल दिया था। इसके पश्चात् मई, 1930 में टिहरी रियासत के रवांई काण्ड की रिपोर्टिंग करने के आरोप में गढ़वाली के सम्पादक चन्दोला को एक वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। ये सब राजनीतिक विषयों के ही उदाहरण हैं।
टिहरी रियासत के तिलाड़ी कांड (रवांई काण्ड) का समाचार प्रकाशित करने के संदर्भ में गढ़वाली के सम्पादक पर किसी तरह का अभियोग पत्र रियासत की ओर से अदालत में दाखिल किया गया था?
इस नाटकीय हत्याकाण्ड की, जिसमें कई व्यक्ति मारे गये और सैकड़ों घायल हुए थे, गढ़वाली के संवाददाता द्वारा रिर्पोंिटग की गई थी। रियासत की ओर से सम्पादक चन्दोला से संवाददाता का नाम बताने को कहा गया था पर उन्होंने इंकार कर दिया। फलस्वरूप रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल द्वारा पं. श्विम्भरदत्त चन्दोला को गाँधीवादी, षड्यन्त्रकारी तथा राजशाही के विरुद्ध जनता को भड़काने के लिए उत्तरदायी ठहराते हुए अभियोग पत्र अदालत में दाखिल किया गया। निरंकुशशाही के कारण उन्हें एक वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गयी किन्तु चन्दोला जी ने फिर भी संवाददाता का नाम नहीं बताया।
(Lalita Vaishnav Interview)
गढ़वाली पत्र के सम्पादक की गिरफ्तारी के बाद गढ़वाली के प्रकाशन में कठिनाइयों का आना स्वाभाविक ही था। आपने किस तरह इसके प्रकाशन को निरन्तर बनाये रखा?
पिताजी की गिरफ्तारी के बाद मेरे चाचा जी श्री प्रियम्बक दत्त चन्दोला ने प्रकाशन का दायित्व सम्भाला। इस दौरान हमारी र्आिथक स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी। प्रेस कर्मचारी भी एक-एक करके टूटते रहे। तब मैं बनारस में इण्टर परीक्षा पास करके बी.ए. में प्रवेश लेने की तैयारी कर रही थी। किन्तु पिताजी की गिरफ्तारी की खबर सुनते ही मैं वापस देहरादून चली आई। यहाँ मैंने शिक्षण कार्य शुरू किया। साथ में चाचा जी के साथ प्रेस भी देखा। इस वक्त तक हमारा संयुक्त परिवार था। इस तरह 12 से लेकर 16 व्यक्तियों के परिवार का खर्च चलाना सहज न था। कुछ अन्य व्यक्तियों ने भी इस कार्य में हमारा सहयोग दिया। तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने तो हमारी कोई सुध नहीं ली। किन्तु एक वर्ष के उपरान्त पिताजी के जेल से छूटते ही हमारी स्थिति में बदलाव आ गया था और पत्र भी नियमित रूप से प्रकाशित होने लगा था। परिवार की र्आिथक स्थिति सुधरते ही मैं पुन: बी.ए. करने बनारस चली गई थी।
आपके युग की पत्रकारिता और आज दिन की पत्रकारिता में बहुत बदलाव आ चुका है। वर्तमान पत्रकारिता के स्वरूप के विषय में आप क्या सोचती हैं?
दरअसल स्वाधीनता से पूर्व की पत्रकारिता एक मिशन थी। आज इसका स्वरूप व्यावसायिक अधिक हो चला है। आज विभिन्न राजनीतिक दलों के अपने मुखपत्र होने के कारण पत्रकारिता पर राजनीतिक प्रभाव बढ़ रहा है। इसके कारण आज सर्वत्र पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई है। लेकिन इस बदलाव के बावजूद आज भी कुछ पत्र और पत्रकार पत्रकारिता के आदर्शों के अनुरूप निष्पक्ष और निर्भीकता से लिखते हुए कुशासन और विसंगतियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। उमेश डोभाल इसी संघर्ष की एक कड़ी था।
आपने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर को निकट से देखा है। उस आन्दोलन में आपकी व गढ़वाली की महिलाओं की भूमिका क्या रही?
मैंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर को बचपन से देखा है। पिताजी हमें बचपन से ही किसी थियेटर या नौटंकी आदि दिखाने कभी नहीं ले गये। लेकिन कभी भी कान्फें्रस या कांग्रेस की सभा या सम्मेलन होता था तो हम सभी परिवार के बच्चों को अवश्य अपने साथ ले जाते थे। मुझे अच्छी तरह याद है, उस समय मैं बहुत छोटी थी जब विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई थी और हमने भी उसमें कपड़े डाले थे। जब गाँधी जी या अन्य कोई भी आन्दोलनकारियों की सभा होती तो पिताजी हमें अवश्य ले जाते थे। क्योंकि मैंने शिक्षा बनारस में पूरी की अत: मुझे गढ़वाल की महिलाओं के विषय में अधिक जानकारी नहीं है कि उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में किस प्रकार हिस्सेदारी की। मैट्रिक के लिए जब मैं बनारस गयी तब वहाँ का वातावरण देशभक्ति से भरा था। यूनिवर्सिटी में 10 लड़कियाँ देहरादून (गढ़वाल) की थीं। वे सभी खादी पहनती थीं। सन् 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में छात्राओं व महिलाओं का काफी योगदान रहा। यूनिर्विसटी के अन्दर पुलिस का आना मना था व रात-दिन छात्र व छात्राओं द्वारा पहरा किया जाता था। इस पहरे में छात्र व छात्राओं में अन्तर नहीं किया जाता था। 8 छात्राएँ दिन-रात पहरे में रहती थीं। उस समय देहरादून की छात्रा प्रेमलता खडगी व लक्ष्मी हम सब की लीडर थीं। सुचित्रा कृपलानी हमारी इतिहास की लेक्चरर भी थीं व छात्राओं को राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए प्रोत्साहित व प्रेरित भी करती थीं। उस समय डॉ. कुशलानन्द गैरोला जो भूमिगत भी रहे, क्रान्तिकारी नेता थे व जापान से लौटे थे। उनका बनारस व यूनिर्विसटी में बहुत प्रभाव था। उनका संगठन बहुत मजबूत था। उन्होंने उस समय बनारस के कोर्ट में राष्ट्रीय झंडा गाड़ा जो उस समय की महत्वपूर्ण व साहसिक घटना थी। मुझे याद है, जब हम लोग बनारस से देहरादून आते थे तो रास्ते में हमें पूरे 4 दिन का सफर करना पड़ता था। हम लोग 30-40 छात्र-छात्राएँ अवश्य होते थे। हम लोग हर स्टेशन पर उतरकर ‘हिन्दुस्तान हमारा है’ के नारे लगाते थे। हमारे नारे सुनकर जब अंग्रेज अफसर या अधिकारी हमारी ओर आते थे तो हम जोर से ‘ये स्टेशन हमारा’ है के नोर लगाने लगते थे।
पत्रकारिता के क्षेत्र में स्त्रियाँ बहुत कम सक्रिय रही हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
पत्रकारिता हमारे देश में बाद में ही पनपी है। समाचार एकत्र करने के लिए पुरुष ही दौड़-भाग कर सकते थे। उस समय महिलाएँ बहुत कम बाहर निकलती थीं। जब महिलाओं ने बाहर निकलना शुरू किया तो वह शिक्षा संस्थाओं से जुड़ीं। उसके बाद क्रमश: सरकारी-गैर सरकारी सेवाओं व सामयिक संस्थाओं व राजनीति से महिलाओं का जुड़ाव क्रमश: बना। समाचार पत्रों व पत्रिकाओं से भी पाठक के रूप में पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ कम जुड़ पायीं। प्रेस व समाचार के साथ धीरे-धीरे महिलाएँ भी पत्रकारिता के साथ जुड़ीं व आज महिलाएँ सभी तरह की पत्रिकाओं व समाचार पत्रों से जुड़ी हुई है।
(Lalita Vaishnav Interview)
आप निरन्तर सरकारी सेवा में रहीं। क्या आप मानती हैं कि एक स्त्री होने के नाते कठिनाइयाँ कुछ बढ़ जाती हैं?
सरकारी सेवा में आप खुलकर कार्य नहीं कर सकते, लेकिन लिखने-पढ़ने की स्वतंत्रता है। र्सिवस के साथ-साथ मैं हमेशा ही कुछ न कुछ लिखती रही हूँ। बिना राजनीति पर लिखे आपकी पत्रकारिता नकारी जायेगी। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैंने कभी भी किसी भी दल का पक्षपात न करते हुए एक सिद्धान्त का पक्ष लिया, जो देश के हित में थे और उन्हीं पर दृढ़ता से कार्य भी किया। मैं जब सन् 1979 में फरीदाबाद के स्नातकोत्तर महाविद्यालय में आयी तो लोगों की एक स्त्री होने के नाते शायद मुझसे वे अपेक्षाएँ नहीं थीं। वे सोचते थे कि ये कालेज को किस प्रकार चला पाएंगी। हरियाणा राज्य में फरीदाबाद महाविद्यालय सर्वाधिक विशाल व लोकप्रिय महाविद्यालय था। मैंने अपनी सर्विस के दौरान यह देखा कि हर संस्था या कार्यालय में कई गु्रप बने रहते हैं व उन ग्रुपों में हमेशा ही एक शीत युद्ध चलता रहता है। जब भी कोई नया अधिकारी या प्रशासक नियुक्त होता है तो उस समय वे सभी लोग अधिक सक्रिय हो जाते हैं। जो ग्रुप से अधिक शक्तिशाली होता है, प्रशासक व अधिकारी भी अधिकतर उसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं। लेकिन मैंने कभी इस तरह के ग्रुपों में कोई रुचि नहीं ली। मैंने हमेशा अपने नीचे कार्य करने वाले लोगों की रुचि को देखते हुए व साथ ही उनकी कार्यकुशलता को कायम रखते हुए कार्य किया। चाहे विभाग किसी भी दल का पक्ष ले, मैंने हमेशा सिद्धान्तों पर चलकर देशहित में ही अपने विचार रखे, इससे बड़ी शक्ति और कोई नहीं।
आज स्त्रियाँ प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय हैं, प्रगति कर रही हैं। क्या इस स्थिति को संतोषजनक माना जा सकता है?
पहले की अपेक्षा कुछ हद तक संतोषजनक कहा जा सकता है। लेकिन जब तक व्यक्ति या समाज के सोच में अन्तर न होगा, जब तक महिलाओं के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण नहीं होता, महिलाओं को आगे बढ़ावा नहीं दे सकते, समाज में उनके अस्तित्व को या उनके बराबर का पद नहीं देते तब तक स्थिति को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। एक अन्य पहलू यह भी है कि बच्चों को माँ ही देखती है व उसके साथ ही साथ नौकरी भी करती है। लेकिन पुरुष इतने समझदार नहीं कि स्त्री के कार्यों में स्वयं भी सहयोग करें। यदि उन्हें लगता है कि स्त्री के लिए अधिक कार्य हो रहा है तो वे किसी अन्य को (नौकर को) सहयोग के लिए रख लेते हैं, लेकिन स्वयं सहयोग देने के लिए तैयार नहीं रहते। जब तक पुरुष भी स्त्रियों को प्रत्येक कार्य में बराबर का सहयोग नहीं देते उन्हें अपना सह-भागीदार नहीं समझते, तब तक स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती।
क्या आप मानती हैं कि स्त्रियाँ ही स्त्रियों के शोषण के लिए जिम्मेदार हैं?
काफी हद तक हम मानते हैं कि स्त्रियाँ ही स्त्रियों के शोषण के लिये जिम्मेदार है। घर परिवार में देखते हैं कि माँ बेटा व बेटी में, बहू व लड़की में अन्तर करती है। ससुराल में लड़कियों पर स्त्रियों के द्वारा होने वाला शोषण पहले भी था व आज तो आप रोज ही अखबारों में देखते हैं। स्त्रियों के शोषण का सबसे बड़ा कारण जो मैं समझती हूँ वह है समाज में धन के प्रति बढ़ती हुई लालसा व लोभ।
नई पीढ़ी की युवतियों को आप कोई संदेश देना चाहेंगी?
नई पीढ़ी अपना रास्ता स्वयं बनाती है। नई पीढ़ी प्रगति के रास्ते पर चलना चाहती है, अच्छा सोच सकती है लेकिन इतना अवश्य है वह मार्गदर्शन लेना न भूले। मार्गदर्शन की आवश्यकता जीवन में हमेशा रहती ही है। उसकी अवहेलना नहीं होनी चाहिए। अपने से आगे बढ़े बुजुर्गों का अनुभव उनके मार्गदर्शन में बहुत सहायक होता है, यही संदेश मेरा नई पीढ़ी के लिए है।
(Lalita Vaishnav Interview)
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