महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर और चुनौतियाँ
-इन्दु पाठक
आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता केवल गरीबी उन्मूलन व आर्थिक विकास की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि समग्र सामाजिक विकास के संदर्भ में निर्णायक मानी जाती है। सामाजिक विकास को जीवन की गुणवत्ता अर्थात शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण आदि के स्वर में बढ़ोत्तरी के रूप में देखा जाता है। स्पष्ट है कि महिलाओं का आर्थिक योगदान न केवल किसी समाज विशेष की आर्थिक वृद्धि में सहायक होता है बल्कि उनके परिवार व अन्तत: समाज व राष्ट्र के शैक्षिक अवसरों में भी बढ़ोत्तरी करता है तथा स्वास्थ्य व पोषण के स्तर को उच्च करने में सहायक भी होता है।
(Economic Opportunities and Challenges for Women)
परन्तु लैंगिक विषमता से उत्पन्न होने वाला अन्तराल अर्थात् सामाजिक-आर्थिक अवसरों के संदर्भ में स्त्री-पुरुषों के मध्य पाया जाने वाला अन्तर विकास के मार्ग में बाधक बनता है। यह अन्तर स्वाभाविक भी माना जा सकता था, यदि यह बहुत अधिक नहीं होता तथा इससे स्त्री-पुरुष दोनों ही समान रूप से प्रभावित होते। परन्तु वास्तविकता यह है कि यह अन्तर न सिर्फ बहुत अधिक है बल्कि इसके चलते आर्थिक-सामाजिक, शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। 50 प्रतिशत महिला आबादी के सभी अवसर उनकी संख्या के अनुपात में हमेशा ही बहुत कम रहे हैं।
यहाँ मैं उस प्रसंग की चर्चा करना चाहूंगी जब प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान, नैनीताल में चयनित ‘भावी प्रशासकों को संबोधित करते हुए चर्चा के दौरान एक भावी प्रशासक ने कुछ मासूम से अन्दाज में पूछा, ‘मैडम यदि सभी लड़कियाँ नौकरी करेंगी तो हमारा क्या होगा? हमारा अर्थात् पुरुषों का। बाद की चर्चा में महसूस हुआ कि शिकायत केवल महिला प्रतिस्पर्धी से है क्योंकि प्रतिस्पर्धा में अधिक लोग हों लेकिन केवल पुरुष हों तो शिकायत ‘अवसरों की कमी’ पर केन्द्रित होती है। परन्तु अधिक महिला प्रतिस्र्पिधयों का होना, उन्हें उनके अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण लगता है और लगता है कि उनके अवसर छिन रहे हैं। माना कि आर्थिक अवसरों की कमी है और इसे लेकर युवा वर्ग में असुरक्षा का भाव उत्पन्न होना भी स्वाभाविक है लेकिन महिलाओं की वजह से पुरुषों के आर्थिक अवसर कम हो रहे हैं, स्थिति का बहुत ही सतही तरीके से आकलन किया जाना है। शिकायत उस महिला वर्ग से है जिसके खुद के अवसर बहुत कम हैं। लगता है आर्थिक अवसरों की कमी से अधिक लैंगिक विषमता की मानसिकता इस प्रकार की सोच का कारण है।
भारतीय संविधान के प्रावधानों में महिलाओं के प्रति किसी भी प्रकार की विषमता/विभेद अस्वीकार्य हैं। इसके अनुच्छेद 39 में राज्य द्वारा अनुसरणीय नीति तत्वों में स्पष्ट है कि राज्य नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि पुरुष व स्त्री दोनों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो तथा दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हो। अनुच्छेद 43 स्त्री व पुरुष कामगारों के लिए निर्वाह योग्य मजदूरी की व्यवस्था करने का निर्देश देता है तथा उनको सामाजिक सुरक्षा प्रदान किया जाना भी अपरिहार्य मानता है। स्पष्ट है कि भारतीय संविधान की संकल्पना में स्त्री के ‘आर्थिक अवसरों’ को मान्य किया गया है तथा इस हेतु उन्हें कई प्रकार की कानूनी सुरक्षा भी प्रदान की गयी है।
परन्तु जमीनी हकीकत अलग दिखाई देती है आधी जनसंख्या के आर्थिक अवसर पुरुषों की तुलना में बहुत कम हैं तथा इस सीमित अवसरों में से भी अधिकतर उन्हें उस असंगठित क्षेत्र में मिले हैं जहाँ एक ओर सामाजिक सुरक्षा का कोई विशेष प्रावधान नहीं होता और दूसरी ओर मजदूरी/वेतन के मामले में भी उन्हें विसंगति का सामना करना पड़ता है। महिलाओं के आर्थिक अवसर व अधिकारिता के सन्दर्भ में दो पक्षों का उल्लेख किया जाना आवश्यक है-
1. उनकी आय या आजीविका
2. इस आय पर महिला का प्रभावी नियंत्रण
कानूनी सुरक्षा होने पर भी समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त न होना आय सम्बन्धी विसंगति को दर्शाता है। साथ ही कई बार यह भी देखा जाता है कि उनकी अपनी आमदनी पर उनका प्रभावी नियंत्रण नहीं होता। उसकी आय को खर्च कैसे किया जाय, यह पति/परिवार के द्वारा तय किया जाता है। ऐसी महिला को उसकी आर्थिक स्वतंत्रता के पश्चात् भी शायद आर्थिक रूप से सशक्त नहीं कहा जा सकता।
(Economic Opportunities and Challenges for Women)
महिलाओं की आर्थिक भूमिका पुरुषों से कुछ भिन्न भी दिखाई देती है। इसे इस रूप में देखा जा सकता है।
1. आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की तुलना में कम होती है।
2. प्राथमिक क्षेत्रों व कुछ विशेष उद्योगों व पेशों में ही उनका जमाव होता है।
3. अकुशल व सीमान्त कार्यों में उन्हें अधिक अवसर मिलते हैं।
स्पष्ट है कि देश में उपलब्ध रोजगारों का स्त्री-पुरुष के मध्य समान वितरण नहीं होता तथा उनकी आमदनी में भी अन्तर दिखाई देता है। आज भी आर्थिक ऐजेण्ट के रूप में बहुसंख्यक महिलाएँ असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं अधिकांश महिला कामगार ग्रामीण क्षेत्र में पायी जाती हैं तथा कुल श्रम-बल में महिलाओं की सहभागिता पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। केन्द्रीय सांख्यिकीय व कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के विभिन्न वर्षों के ऑकड़ों से श्रम-बल में उनकी घटती भागीदारी स्पष्ट होती है। 2004, 2009, 2011 तथा 2017 के ऑकड़ों के अनुसार जहाँ इन वर्षों में श्रमबल में पुरुषों की भागीदारी लगभग 55 प्रतिशत पर स्थिर रही, वहीं इन विभिन्न वर्षों में महिलाओं की सहभागिता का प्रतिशत क्रमश: 29.4, 23.3, 22.5 तथा 17.5 रहा है। श्रमबल में महिलाओं की यह घटती हुई दर उनके आर्थिक अवसरों की विषमता को स्पष्ट करती है।
एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि महिलाओं द्वारा किये गये कई प्रकार के कार्यों का सरकारी दस्तावेजों में कोई स्थान नहीं होता। एक गृहिणी के रूप में महिलाएँ घर के अन्दर भोजन बनाने, कपड़े धाने, सफाई कार्य के अतिरिक्त बच्चों, वृद्धों व बीमार लोगों की देखभाल में समय लगाती हैं। ग्रामीण महिला तो घर के अन्दर के इन कार्यों के अतिरिक्त कृषि कार्य, पशुपालन, चारे-पानी की व्यवस्था आदि कार्यों में भी संलग्न रहती है। एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ‘ऑरगनाइजेशन ऑफ इकानोमिक कोओपरेशन एण्ड डेवलपमेंट’ के 2017 के अध्ययन के अनुसार भारत में महिलाएँ प्रतिदिन घरेलू कार्यों में 352 मिनट लगाती हैं। जो कि पुरुषों की तुलना में 577 प्रतिशत अधिक है। पुरुषों का ऐसा कार्यभार 52 मिनट प्रतिदिन रहा है। मौद्रिक रूप से आकलन न होने के कारण महिलाओं के ‘अदृश्य’ माने जाने वाले ऐसे कार्यों को प्राय: ‘कुछ कार्य नहीं’ की श्रेणी में डाल दिया जाता है। इतना कार्य करने वाली महिलाओं को, ‘तुम दिन भर घर में करती क्या हो’ जैसी टिप्पणियाँ अक्सर ही सुनने को मिलती हैं। ‘कुछ नहीं’ समझे जाने वाले इन्हीं सब कार्यों के लिए यदि वैतनिक सहायक रखना पड़े तो पर्याप्त आर्थिक मूल्य चुकता करना पड़ेगा। यही कारण है कि अब महिलाओं के इस प्रकार के योगदान के भी आर्थिक आकलन की मांग की जाने लगी है।
(Economic Opportunities and Challenges for Women)
यह आश्चर्यजनक ही है कि जब एक ओर महिला-शिक्षा का तेजी से प्रसार हो रहा है, प्रजनन दर में कमी आयी है, देश की आर्थिक वृद्धि दर में भी पर्याप्त बढ़ोत्तरी हुई है तो क्या कारण है कि महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर पर्याप्त नहीं हैं। वास्तविकता को कुछ ऑकड़ों की सहायता से समझने की कोशिश की जा सकती है। पहला तथ्य यह है कि रोजगाररत महिलाओं में से लगभग 80-90 प्रतिशत तक असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जहाँ सामाजिक-कानूनी सुरक्षा के प्रावधान कोई विशेष मायने नहीं रखते। कम कुशलता, कम महत्व व कम वेतन वाले कार्यक्षेत्र में उनका अधिक जमाव देखा जाता है। आर्थिक क्षेत्र की निर्णायक भूमिकाओं में महिलाओं का बहुत कम प्रतिनिधि है। किरन मजुमदार शॉ, सुनीता रेड्डी, अरून्धती भट्टाचार्य, नैना लाल किदवई, मंजुश्री खेतान, सुधा कृष्णमूर्ति जैसी महिलाएँ भी हैं जो आर्थिक क्षेत्र में सफलतम भूमिका का निर्वाह कर रही हैं या कर चुकी हैं लेकिन उच्चतम स्तर तक पहुँचने वाली ऐसी महिलाओं की संख्या कुछ सौ, कुछ हजार या कुछ लाखों में ही हो सकती है। ये गिने-चुने नाम प्रतीकात्मक रूप से हमें गौरवान्वित तो कर सकते हैं, परन्तु औसत भारतीय स्त्री को उसका आर्थिक हक व अवसर प्रदान नहीं कर सकते।
भारत सरकार के सांख्यिकीय एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा उपलब्ध ऑकड़ों से स्पष्ट होता है कि विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में स्वामित्व की स्थिति देखी जाय तो महिलाओं की स्थिति बहुत कमजोर है। 2014 के आँकड़ों के अनुसार इन क्षेत्रों में केवल 15 प्रतिशत महिलाएँ मालिकाना हक रखती हैं। कृषि व कृषि से सम्बन्धित अन्य गतिविधियाँ जैसे पुशपालन, वानिकी, मछलीपालन आदि में महिलाओं का स्वामित्व 21 प्रतिशत है। गैर कृषि गतिविधियों जिसमें मुख्यत: खनन, विनिर्माण, विद्युत, जलप्रबन्धन, व्यापार निर्माण, परिवहन, सूचना-संचार, वित्त-बीमा, तकनीकी-प्रशासनिक सहायक सेवाएँ आदि आते हैं। वहाँ मात्र 13 प्रतिशत महिलाएँ स्वामित्व की स्थिति में हैं। प्रबन्धन के क्षेत्र में भी कोई भिन्न परिस्थिति नहीं दिखाई देती। ‘सेबी’ के आँकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र में 2015-16 में प्रति हजार पुरुषों में 173 महिलाएँ थीं तथा 2016-17 में यह आँकड़ा केवल 177 तक पहुँचा था। सभी प्रकार के पुलिस बलों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 7.02 प्रतिशत है। (वीमैन एण्ड मैन इन इण्डिया 2019)।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 33 पदों में से 30 में पुरुष हैं तथा महिला न्यायाधीशों की संख्या मात्र 03 है। अधिकांश राज्यों के उच्च न्यायालयों में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व 0 से 20 प्रतिशत के मध्य है। बैंकों में महिलाओं की संख्या को तुलनात्मक रूप से उच्च कहा जा सकता है। सभी अनुसूचित व वाणिज्यिक बैंकिंग संस्थाओं में विभिन्न श्रेणियों में कुल मिलाकर 25 प्रतिशत के मध्य है।
स्पष्ट है कि औपचारिक व अनौपचारिक, उच्च व निम्न सभी प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में बराबर के अवसरों से महिलाएँ अभी बहुत दूर हैं।
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चुनौतियाँ :
आर्थिक सहभागिता व अवसरों के संदर्भ में महिलाओं को अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
1. पहली चुनौती तो वह पितृसत्तात्मक सोच ही है जिसमें माना जाता है कि रोजगार के क्षेत्र में लड़कियों का प्रवेश लड़कों के अवसरों को कम कर देता है। ऐसी सोच यदि चयनकर्ताओं पर हावी हो तो महिलाओं के आर्थिक अवसरों के प्रभावित होने की सम्भावना तो रहेगी ही।
2. ‘पुरुष परिवार का मुख्य कमाऊ सदस्य होता है’, इस मानसिकता के चलते स्त्री की आमदनी को सहायक/अतिरिक्त आय के रूप में देखा जाता है। इसी सोच के कारण वैतनिक क्षेत्र में स्त्री के प्रवेश को ‘मुख्य अर्जक’ के अवसरों की कमी के लिए जिम्मेदार माना जाने लगता है। उच्च पदों पर बैठी महिलाओं को भी कहते सुना जाता है, ‘अरे वह लड़का है,उसकी नौकरी अधिक जरूरी है।’
3. अनेक प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक बन्धन तथा सन्तान के जन्म के साथ-साथ उसके पालन-पोषण व प्रारम्भिक शिक्षा का पूर्ण दायित्व केवल स्त्री/माँ पर होना भी उसकी आर्थिक गतिशीलता को बाधित करता है और यदि वह रोजगार कर रही है तो कार्यस्थल के दायित्वों के साथ-साथ घरेलू जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए उसे कठिन भूमिका- संघर्ष से गुजरना पड़ता है। कार्यक्षेत्र में स्वयं को प्रमाणिक करने के लिए उसे कठिन श्रम करना पड़ता है।
4. एक चुनौती आर्थिक स्वतंत्रता होने पर भी ‘आर्थिक स्वायत्तता’ की कमी की भी है। कमाने के बावजूद खर्च करने की स्वतंत्रता न होने की स्थिति से भी कई महिलाओं को गुजरना पड़ता है। परिवार के सभी खर्चों को उसी की कमाई से पूरा करने की कोशिश भी प्राय: देखी जाती है। उसकी ऐसी आर्थिक स्वतंत्रता उसके जीवन को सरल की बजाय अधिक कठिन बना देती है।
5. असंगठित/प्राइवेट सैक्टर की वेतन विसंगति, प्रभावपूर्ण सामाजिक सुरक्षा की कमी तथा स्त्रियों से सम्बन्धित विभिन्न कानूनी प्रावधानों को बाधा मानते हुए कम महिला र्कािमकों का चयन किया जाना भी आज के दौर में स्त्रियों के लिए चुनौतीपूर्ण बन रहा है।
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वस्तुत: आर्थिक जीवन/श्रम शक्ति में औसत महिला के शामिल होने का निर्णय एक ओर उसके परिवार व वैवाहिक स्थिति तथा दूसरी ओर उसकी शैक्षिक-सामाजिक स्थिति से प्रभावित होता है। चूँकि महिलाओं की सक्रिय सहभागिता के अभाव में किसी भी देश का सामाजिक-आर्थिक विकास पूर्णत: सम्भव नहीं है, अत: ऐसे प्रयत्न किये जाने की आवश्यकता है कि अधिकाधिक महिलाएँ श्रम बल में शामिल हों। इसके लिए सरकार, प्राइवेट सेक्टर, मीडिया तथा नागरिक समाज को अपने-अपने स्तर पर प्रयास करना होगा।
नीति निर्माण व क्रियान्वयन का कार्य मुख्यत: सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। अत: सरकारी स्तर पर महिलाओं को औद्योगिक क्षेत्र की आवश्कयताओं के अनुरूप कौशल विकास सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे उनके कार्य अवसरों में वृद्धि हो। महिलाओं की अधिकाधिक आर्थिक सहभागिता हेतु लक्ष्य निर्धारित प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। सूक्ष्म, लघु व मध्यम स्तरीय उद्योगों को सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान की जाय जिससे वे अपने महिला र्किमयों को सवैतनिक मातृत्व अवकाश व अन्य सुविधाएं प्रदान कर सकें।
प्राइवेट/कारपोरेट सैक्टर को ‘स्त्रियोचित विशिष्ट कार्य’ जैसी मानसिकता से ऊपर उठकर विविध कार्यों में महिलाओं को समायोजित कर उनकी आर्थिक भूमिका का विस्तार करना होगा। मीडिया व नागरिक समाज के लोगों को महिलाओं को स्कूल/कालेज जाने, व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लेने को प्रेरित करना होगा। मीडिया को विशिष्ट उपलब्धियाँ र्अिजत करने वाली तथा अपने-अपने क्षेत्र की सफलतम महिलाओं का प्रचार-प्रसार करना चाहिए जो कि औसत महिला के लिए प्रेरणास्पद होने के साथ-साथ उन्हें सक्रिय जीवन में प्रवेश के लिए उत्साहित भी कर सकता है।
अब समय आ गया है कि महिलाओं को न सिर्फ अधिकाधिक आर्थिक अवसर प्राप्त हों बल्कि उन्हें मुख्य भूमिकाओं के निर्वाह के लिए भी प्रेरित किया जाय। देश के आर्थिक विकास में योगदान देने के लिए महिलाओं को तैयार करना, इस योगदान के लिए उन्हें अवसर प्रदान करना तथा इस योगदान के लिए सफलतापूर्वक निर्वाह करने के लिए पारिवारिक-सामाजिक स्तर पर उन्हें सहयोग मिलना, एक सामूहिक जिम्मेदारी होनी चाहिए जिसमें सरकार, प्राइवेट संस्थान, मीडिया, परिवार व विस्तृत नागरिक समाज, सभी को अपने-अपने दायित्व का निर्वहन करना होगा।
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