डर और डराने का क्रम
सीमा आजाद
किसी शहर में, जब किसी सामाजिक कार्यकर्ता की ऐसी यानी राजनैतिक गिरफ्तारी होती है तो वहाँ डर का फैलना लाजिमी है। लेकिन इस डर को किस तरह खुद पुलिसिया स्टेट फैलाती है और वह किस तरह इसका इस्तेमाल करती है, यह इस दौरान हमें बहुत अच्छे से दिखा। एसटीएफ वालों ने जब कचहरी में भारी भीड़ देखी तो उसने इसे कम करने और लोगों को काट कर हमसे अलग करने की जुगत लगायी। इसमें से जैसा कि मैंने पहले बताया था नवेन्दू ऐसे बहुत से लोगों से परिचित था, जिनसे हमारा परिचय था। उसने ऐसे सभी लोगों को या तो फोन करके या फिर उनके घर जाकर डराना शुरू किया। उसने लोगों से कहा ‘मैं तो अन्दर की सारी बातें जानता हूँ, मामला बहुत संगीन है और उनके साथियों की भी तलाश की जा रही है अभी और भी गिरफ्तारी होनी है। आप लोग उससे दूर रहिए नहीं तो शक के घेरे में आप भी आ सकते हैं।’ उसने जिन लोगों से यह बात कही, उन लोगों ने कुछ और लोगों से भी यह बात कही। यह बातें अखबारों के माध्यम से भी फैलाई जानी लगीं कि ‘अभी इनके साथियों की तलाश जारी है और अभी और भी गिरफ्तारियाँ होनी हैं।’ जाहिर है, इस शहर में हमारे साथी बहुत से हैं। सभी को लगने लगा कि उनके ऊपर भी नजर है। बहुत से लोग तो इतना डर गये कि कुछ दिन तक सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी जाना बन्द कर दिया। ये सभी बातें हमें किसी न किसी के माध्यम से पता चलती रहती थीं, पर हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हद तो तब हो गयी, जब हमारे वकील के जूनियर लालजी भी नवेन्दू की अफवाह के प्रभाव में आ गए। उनसे भी नवेन्दू का परिचय है, यह बात हमें उन्होंने ही बतायी और यह भी बताया कि जब उन्होंने यह केस लिया तो उनके घर पर एसटीएफ वाले पूछ-ताछ के लिए पहुँचे थे। लेकिन इस बात पर हमारे वकील होने के नाते वे आक्रामक होने की बजाय बचाव की मुद्रा में रहते। हमारे घर वालों को यह जताने का प्रयास करते कि ये केस लेकर उन्होंने हमारे ऊपर कितना बड़ा अहसान किया है। शुरू-शुरू में तो उन्होंने कुछेक बार मेरे भाई से मिलने से मना कर दिया कि ‘एसटीएफ के लोग नजर रखते हैं।’ जब मेरे भाई ने उनसे कहा कि वे इतना डरते हैं तो मुकदमा छोड़ दें, तब जाकर उन्होंने यह कहना बन्द किया। ऐसा तब था, जब हमारे ये जूनियर वकील मानवाधिकार से जुड़े एनजीओ ‘ह्यूमन राइट ला नेटवर्क’ (एचआरएलएन) से जुड़े हुए हैं और कोर्ट में अक्सर हमसे बताते रहते थे कि ‘संगठन के काम से फलां जगह गये थे।’ उनकी इस तरह की बातें सुनकर मैंने उन्हें जेल की एक दो महिलाओं के केस की पैरवी और वकील करने के लिए उनसे कहा, और एचआरएलएन को पत्र भी लिखा, लेकिन न तो उन्होंने ही कुछ किया न ही पत्र का कोई जवाब मिला। इन वकील साहब को जो भी बात कथित रूप से नवेन्दू बताता, वह बात बिना मुझसे कन्फर्म किये प्रचारित करने लगते और मेरे घर के लोगों पर इसका दबाव बनाते कि कोई न कोई ठोस सबूत जरूर है, जिसके कारण वकीलों को काफी मेहनत करनी पड़ रही है। एक बार मुझे पता चला कि वे सबसे कह रहे हैं कि मेरे फोन में माओवादियों का नम्बर है। मैं जब अगली पेशी पर गयी तो उन्हें बुलवा कर कहा कि ‘मेरे फोन की डिटेल मंगवाकर बताइये कि कौन से नम्बर से मेरी किसी माओवादी से बात हुई है। पहले तो उन्होंने टाल-मटोल की और कहा कि ‘अरे हम लोग उससे निपट लेंगे।’ लेकिन मैंने कहा कि ‘‘नहीं निपटिये नहीं, मुझे नम्बर बताइये।’’ जब मैं पीछे पड़ी तो उन्होंने मेरे फोन बुक की कॉपी दिखाकर बताया कि ‘इसमें जो नम्बर ‘कृपाशंकर’ नाम से सेव है, उसी की गिरफ्तारी तो कानपुर में हुई है। मैंने अपना सिर पीट लिया और उसे बताया कि वह नम्बर इलाहाबाद में रहने वाले अर्थशास्त्री और स्वतंत्रता सेनानी कृपाशंकर जी का है। लेकिन इसे स्पष्ट करने का कोई फायदा नहीं था, वह न जाने कितने लोगों से यह बात बता चुके थे। यह अफवाह भी एक वकील ने ही फैला दी थी कि मेरे फोन में जितने भी नम्बर थे, सारे रिश्तेदारों और दोस्तों का फोन सर्विलांस पर लगा दिया गया है इसलिए फोन पर मेरा नाम भी नहीं लेना है। बहुत सी बातों पर हमें हँसी आती थी पर हम कुछ कर नहीं सकते थे। रायता अपने तरीके से फैल कर गन्दगी करता ही जा रहा था।’
(A Piece from Zindanama)
एक दूसरे वकील साहब का हाल बताती हूँ जो कि मेरे घर लगभग हर रोज आने वाले मुँहबोले भइया हैं। मेरे पिताजी से उन्हें लेबर लॉ के मुकदमे और मुकदमों में बौद्धिक सहयोग दोनों मिलता रहता है। पापा से उनकी काफी बनती भी है। उन्हें मैंने जब थाने पर देखा तो अच्छा लगा और लगा कि वे पापा को सम्भाल लेंगे, इसी वजह से मैंने उनसे विशेष रूप से अनुरोध किया कि वे पापा का ध्यान रखें। लेकिन उन्हें सम्भालने की बजाय उन्होंने उनकी चिन्ता बढ़ाने का काम किया। उसी दिन रात में 12 बजे उन्होंने घर पर फोन किया कि ‘मामा, घर के चारों ओर पुलिस वाले लगे हुए हैं, बाहर मत निकलियेगा और सतर्क रहियेगा।’ पापा तो घबरा ही गये कि अब आगे क्या होने वाला है लेकिन अम्मा को उनका यह व्यवहार समझ में आ गया और उन्होंने पापा को सम्भाला। इस घटना के बाद उन्होंने पहले घर आना कम किया और फिर आना बन्द ही कर दिया।
एसटीएफ वालों ने लोगों को डराने का एक दूसरा तरीका भी अख्तियार किया हुआ था। हमारी पहली पेशी से ही एसटीएफ के लोग बगैर वर्दी के यहाँ-वहाँ तैनात रहते थे। साथ में पुलिस वाले तो रहते ही थे। हमारी पेशी के समय हमारे परिचितों और शुभचिन्तकों से कोर्ट भरी रहती थी। ये सब इन लोगों को अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि ये लोग तो हमारा मनोबल तोड़ना चाहते थे। लेकिन इतने सारे लोगों को देखकर यह टूटता ही नहीं था। दूसरी पेशी से इन्होंने कोर्ट में कैमरा लेकर आना शुरू कर दिया। कैमरे का इस्तेमाल ये लोग फोटो खींचने के लिए कम, लोगों को डराने के लिए ज्यादा करते थे कि ‘देखो, तुम्हारी भी फोटो ली जा रही है।’ डराने के लिए ये लोग आगन्तुकों के एकदम सामने कैमरा लेकर जाते और उन्हें दिखाते हुए उनकी फोटो खींचते, सामने वाला व्यक्ति थोड़ा विचलित तो हो ही जाता। कुछ लोगों ने मुझे बाहर निकलने पर बताया कि इसी वजह से वे कचहरी तो आते थे लेकिन कोर्ट में नहीं आते थे। कुछ लोग आते तो थे लेकिन हमारे करीब आने से बचते थे क्योंकि इससे तो यह पक्का हो जायेगा कि वे मेरे परिचित हैं। फिर भी इसका कोई खास असर लोगों को नहीं हुआ और वे काफी समय तक कोर्ट में आते रहे। तीसरे नवेन्दू ने यह भी लोगों से कह रखा था कि जो उससे मिलने जेल जायेगा, वह भी शक के घेरे में आ सकता है। जेल में किसी से मिलने जाने से तो लोग वैसे ही डरते हैं, नवेन्दु के प्रचार का और भी असर हुआ। शुरूआत में घर वालों के अलावा और जैन साहब, के.के. रॉय के अलावा वहाँ मुझसे मिलने कोई नहीं आया। वास्तव में यह बात सच भी है कि जेल में मिलने आने वालों को एलआईयू वाले तमाम तरह की पूछताछ कर परेशान करते हैं लेकिन थोड़ा भी कड़ा हो जाने पर वे परेशान नहीं करते हैं। जैसे जब नीलाभ जी हमसे मिलने गये तो उनसे सामान्य जानकारी के अलावा कोई भी पूछताछ नहीं की गयी और वहीं जब एक बार मेरी मित्र नाहिद मुझसे मिलने गयी तो वह एलआईयू वालों से थोड़ा घबरा गयी और अपने परिचय में उसने बता दिया कि वह मेरी छोटी बहन है। बस इसी बात पर सब उसके पीछे पड़ गये, उसी समय मैं वहाँ पहुँच गयी और उसका ठीक-ठाक परिचय दिया और उन्हें नाहिद को परेशान करने के लिए थोड़ी डाँट भी लगाई तब वे वहाँ से वापस गये। हमारे ही कुछ परिचितों ने जेल में मुझसे मिलने न जाने की सफाई में यह तर्क भी गढ़ लिया कि यदि कोई मुझसे मिलने जाता है तो मुझे ही परेशान किया जायेगा। इस तर्क को उन्होंने अपने तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे प्रचारित और प्रसारित भी किया। फिर बाकियों को भी क्योंकि यह तर्क सूट करता था इसलिए उन्होंने भी इसे सही माना। इस तरह हम अन्दर रहे और बाहर तरह-तरह का डर फैलता रहा और फैलाया जाता रहा।
‘जिन्दानामा’ से साभार
(A Piece from Zindanama)
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