सारी सत्ता समुदाय को
राजीव लोचन साह
बहुत सोच-विचार के बाद यही लगता है कि इस देश को यदि बचाना है तो इसका तरीका वही हो सकता है, जिसे महात्मा गाँधी ने ‘ग्राम गणराज्य’ कहा था, राम मनोहर लोहिया ने ‘चौखम्भा राज’और जिसका रास्ता 1992 में लागू 73वें-74वें संविधान संशोधन कानूनों ने काफी हद तक साफ कर दिया है। सिर्फ वोट ले कर किनारे बैठा देने वाले प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र की जगह व्यक्ति को अपना विकास स्वयं करने का मौका देने वाले सहभागितामूलक लोकतंत्र की आज ज्यादा जरूरत है। इसीलिये हाल ही में चर्चा में आई ‘आम आदमी पार्टी’जब मोहल्ला सभा या ग्राम पंचायत की बात करती है तो एक उम्मीद जगने लगती है।
हमारी रोजमर्रा की समस्यायें दरअसल क्या होती हैं, देखें….
गाँव का स्कूल टूटा-जर्जर है। जो बजट पंचायत के लिये आया था वह तो पानी की टंकी बनाने की मद में था। उससे स्कूल की छत भला कैसे ठीक की जा सकती थी? लिहाजा स्कूल की मरम्मत तो हुई नहीं, जबरन जो टंकी बनाई गई, वह साल भर में बेकार हो गई। क्योंकि बजट का चालीस प्रतिशत तो बीडीओ साहब के हाथ में रखना ही था, तो फिर लगे हाथों बीस प्रतिशत प्रधान जी भी खा गये। अब जब साठ प्रतिशत खाने-पीने में ही निकल गया तो टंकी क्या खाक बनती!…. पहाड़ी ढलानों पर खड़ंजे बिछाना खतरनाक होता है। बरसात में काई जम जाती है तो जाड़ों में पाला फिसलन पैदा कर देता है। हाथ-पाँव टूटने का खतरा लगातार बना रहता है। लेकिन पंचायत क्या करे? बिछाने तो खड़ंजे ही पड़ेंगे, क्योंकि यह तो राजधानी में तय कर लिया गया है कि सारे प्रदेश में खड़ंजे बिछाये जायें।…. उधर इण्टरमीडिएट कॉलेज में विज्ञान विषय खुलवाने की जनता की माँग काफी दिनों से चली आ रही है। लेकिन सरकार में कोई कान ही नहीं देता।…. प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र में कई सालों से कोई डॉक्टर नहीं है। एक डॉक्टर नियुक्ति के वक्त दस्तखत करने आया था। अब नहीं आता। सुना है उसे तनख्वाह बराबर मिल रही है। उसे नियुक्ति राजधानी में बैठे मंत्री-अधिकारी ने दी थी। वहाँ उसकी सैटिंग है। वह गाँव में आये या न आये, क्या कर लेगी जनता? …..शराब ने जनजीवन को तबाह कर दिया है। लेकिन सरकार को शराब से राजस्व मिलता है। अत: लोग चाहें-न चाहें, सरकार हर साल शराब की नई-नई दुकानें खुलवा देती है। …… सुन्दर प्राकृतिक दृश्यावली वाली, मोटर सड़क से लगी तमाम जमीनें बाहर से आये बिल्डरों ने खरीद ली हैं। लोगों को चिन्ता है कि इस प्रवृत्ति से स्थानीय संस्कृति विकृत होगी। लेकिन कुछ कर पाने में वे असमर्थ हैं। ……. ग्रामीणों को हक-हकूक की लकड़ी तो नहीं मिल पा रही है और सरकार बाँध या वन्य जीव विहार बनाने के लिये उनकी समूची जमीन लेना चाहती है। जमीन पर सैकड़ों सालों से बसे लोग अपनी जमीन छोड़ने को राजी नहीं हैं। लेकिन सरकार के आगे उनकी कैसे चले? ……एन.जी़ ओ. गाँव में न जाने क्या-क्या कर रहे हैं। पता ही नहीं चलता। उनसे कौन पूछे ? जंगली जानवरों द्वारा बर्बाद की जा रही खेती अब इतनी अलाभकारी हो गई है कि किसानों ने खेत बंजर छोड़ दिये हैं। मगर यह समस्या तो सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है। इससे कैसे निपटें ?
उत्तराखंड तो क्या, देश भर में जहाँ कहीं भी जाओ, इसी तरह की शिकायतें सुनने को मिलती हैं।
इन समस्याओं का हल यदि सम्भव है तो पंचायती राज या ग्राम गणराज्य में ही। मगर यह बात कहना शुरू करो तो लोग चट से टोक देते हैं, ‘‘अरे, आप भी कहाँ पंचायतों की बात ले बैठे। सारे सभापति तो खुद ही चोर हैं।” उनका कहना गलत भी नहीं है। आज शायद ही कोई ग्राम प्रधान ईमानदार हो। यदि ईमानदार होगा तो अपनी ग्राम सभा के लिये बजट कैसे लायेगा? निष्क्रिय होकर घर बैठ जायेगा। उसे तो दिल्ली से देहरादून और देहरादून से गाँव तक लूट का जो सर्वव्यापी तंत्र फैला है, उसका निम्नतम पुर्जा बनना ही होगा। उसे अपने समाज का दुश्मन और प्रशासन तंत्र का हिस्सा बनना होगा, तभी वह अपने को बचाये रह सकता है।
विकास कार्य के नाम लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं, मगर गाँव में कानोंकान किसी को खबर नहीं लगती। प्रधान जी बीडीओ के साथ मिल कर कागजी खानापूरी कर देते हैं। बैठक की कार्यवाही से लेकर ऑडिट तक हर चीज कागजों में दुरुस्त हो जाती है। ठेकेदारी करने के लिये ही प्रधानी झपटी जाती है, तो ठेकेदारी चल जानी चाहिये, बाकी से क्या मतलब? समाज जाये भाड़ में! तो अगर ऐसी व्यवस्था ले आई जाये कि ग्राम पंचायतें नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त हो कर समाज के नियंत्रण में आ जायें, पंचायत की जवाबदेही किसी बी़डी़ओ़, सी़डी़ओ़ या जिलाधिकारी के प्रति न होकर गाँव के सामान्य व्यक्ति के प्रति हो जाये तो प्रधान भ्रष्ट होगा तो कैसे ?
मौजूदा पंचायती राज पूरी तरह विकृत और समाजतोड़क भी है। राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने गाँव के भीतर तक घुस कर परिवारों में फूट डाल दी है। एक बेटा कांग्रेसी है तो एक भाजपाई। पत्नी प्रधान है और उसके नाम पर पति सारे कामकाज करता है। सबसे आदर्श स्थिति तो यह होती कि आम सहमति से पंचायत बनती। मगर मौजूदा लोकतांत्रिक ढाँचे में उसकी गुंजाइश बनती नहीं दिखाई देती। वैसे अनेक स्थानों पर आम सहमति की पंचायतें हैं। हिमाचल प्रदेश का मलाना गाँव इसका एक उदाहरण है, जहाँ जब तक सर्वसम्मति नहीं बनती कोई निर्णय नहीं लिये जाते। हालाँकि पिछले पच्चीस सालों में दलगत राजनीति ने इन पंचायतों को चरमरा दिया है। जौनसार बाबर में भी परम्परागत पंचायतें अभी असरकारी हैं। इन्हें कानून की परिधि के अन्दर कैसे रखा जाये, इसके लिये विमर्श की जरूरत है।
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पंचायतों के सशक्तीकरण को लेकर भी बहुत चिन्ता व्यक्त की जाती है। इसकी भी जरूरत नहीं है। क्या भारत को आजादी देते वक्त अंग्रेजों ने यह कहा था कि पहले हम आपको संसदीय लोकतंत्र का ककहरा सिखायेंगे और तब जाकर सत्ता सौंपेंगे? हम नालायक ही सही, पिछले पैंसठ सालों से अपने देश को चला ही रहे हैं। फिर पंचायती राज कैसे नहीं चला पायेंगे? यह तो हमारी परम्परा में है। अंग्रेजों ने आकर इस परम्परा को तहस-नहस किया। 1857 में हुए स्वतंत्रता के पहले संग्राम में जब क्रांति की ज्वाला तेजी से पूरे देश में फैली तो अंग्रेजों ने पंचायतों की ताकत महसूस की। विद्रोह कुचलने के बाद अपने शासन को निरापद करने के लिये उन्होंने गाँवों के ढाँचे को पूरी तरह तोड़ कर नौकरशाही पर निर्भर बना दिया। गाँव में रहने वाले आदमी के लिये बात-बात पर शहर में रह रहे अधिकारी के पास दौड़ना जरूरी हो गया। ऐसे नियम बना दिये कि जन्म और मृत्यु भी सरकार की निगरानी में रहें। जन्म का प्रमाणपत्र तहसीलदार देगा। क्यों ? क्या वह बच्चे की नाल कटते समय वहाँ मौजूद था? यदि गाँव के पाँच बड़े-बूढ़े लिख कर दे दें कि हाँ, फलाँ बच्चा फलाँ तारीख को पैदा हुआ था तो उसे प्रमाणपत्र क्यों नहीं माना जा सकता ? कोई साँप के काटे से मर गया तो भले ही समाज के सारे व्यक्ति गवाही दें कि यह कोई संदिग्ध मृत्यु नहीं है, यह आदमी साँप के काटे से ही मरा है, छुट्टी तभी मिलेगी जब सरकारी डॉक्टर पोस्टमार्टम करेगा। अन्यथा पुलिस रगड़ती रहेगी और अपना उल्लू सीधा करती रहेगी। यह पुलिस इस तरह विकसित की गई है कि उसकी क्षमता कानून-व्यवस्था बनाये रखने में कम, जनता को परेशान करने में ज्यादा लगती है। लेकिन अपनी मानसिक गुलामी के चलते हम अपने साधारण विवाद आपस में न सुलझा कर थाने को ही दौड़ते हैं। सरकारी अधिकारी, वह कितना ही अनुभवहीन, भ्रष्ट और अक्षम हो, के सामने गिड़गिड़ाना हमारी आदत में शुमार हो गया है। अपने समाज के विवेकशील, अनुभवी और ईमानदार लोगों में हमारी तनिक भी आस्था नहीं रही है। ऐसे में स्वशासन की अवधारणा हमारे लिये पराई हो गई है। बाहर का आदमी हम पर शासन करे, यह हमें शिरोधार्य होगा। अपने बीच के योग्य लोगों को हम अपनी व्यवस्था करने की जिम्मेदारी दें, यह हम कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते। अंग्रेजों द्वारा औपनिवेशिक राज्य के लिये बनाये गये विधि-विधानों को स्वशासी राष्ट्र में ज्यों का त्यों लागू कर देने से हमारी मानसिकता वैसी ही बन गई है। मगर हालात बदलने हैं तो हमें कोशिश पहले जैसी पंचायतों को पुनर्जीवित करने की करनी होगी।
1992 में पारित संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों ने काफी हद तक ग्राम पंचायतों और नगर निकायों को अधिकार देकर ग्राम गणराज्य की स्थापना का रास्ता साफ कर दिया है। यह बात भी ध्यान देने की है कि जिस वक्त ये कानून पारित हुए थे, लगभग उसी वक्त देश ने विश्व व्यापार संगठन में शामिल होकर आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनायी थी। इन बीस सालों में र्आिथक उदारीकरण के रास्ते पर तो हम इतना आगे बढ़ आये हैं कि अब इनके दुष्प्रभावों से आजिज आकर ‘त्राहि माम्, त्राहि माम्’करने लगे हैं। मगर 73वें और 74वें संशोधन कानून ढंग से लागू तक नहीं हुए, क्योंकि इनको लागू करने की जिम्मेदारी प्रदेश सरकारों की थी और प्रदेश सरकारें ऐसा करने के लिये उत्सुक नहीं हैं। इनको लागू करने से खाने-पीने के सिलसिले में अड़ंगा लगता है।
73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन कानून लागू हो जाने के बाद पंचायतों की हैसियत केन्द्र और राज्य सरकारों के बराबर हो जाती है। संविधान के ‘भाग पाँच में ‘केन्द्र’है, ‘भाग छ:’ में ‘राज्य’तो इन कानूनों के लागू हो जाने के बाद ‘भाग नौ’में ‘ग्राम पंचायत’आ गई है और ‘भाग नौ अ’में ‘नगरपालिका’। यानी अब पंचायतें और नगरपालिकायें केन्द्र और राज्य सरकारों के बराबर संवैधानिक संस्थाएँ हैं, उनकी दबैल नहीं हो सकती हैं। मगर व्यवहार में ऐसा होता कहाँ है? जब-जब इन पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल समाप्त होता है, प्रदेश सरकार निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को हटा कर उनकी जगह अपने अधिकारियों को बिठला देती है और फिर किसी व्यक्ति को जाकर अदालत के सामने गुहार लगानी पड़ती है कि देखिये इस सरकार ने संवैधानिक संकट पैदा कर दिया है। हर बार अदालत के हस्तक्षेप से पंचायतें बहाल होती हैं और अगली बार फिर प्रदेश सरकार वही दादागिरी दुहराती है। जबकि पिछली पंचायत की समय सीमा पूरी होने से पूर्व ही नई पंचायत का गठन हो जाना चाहिए जैसे कि लोकसभा या विधानसभा का होता है। इस वक्त तो मनरेगा, अलाणा रोजगार योजना, फलाणा रोजगार योजना आदि सब कुछ जिलाधिकारी के हाथ में है। ऊपर से विधायक निधि, सांसद निधि आदि के रूप में भी पंचायतों को उनके वाजिब हक से वंचित किया गया। पंचायतें मात्र शोभा की वस्तु बना दी गई हैं।
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73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन कानून ढंग से लागू करने की बात अभी बहुत दूर की है, अभी तो इन कानूनों की गंभीर व्याख्या तक नहीं हुई है। हम जिला-जिला बहुत चिल्लाते हैं। नया जिला बनाने की माँग आये दिन होती रहती है। लोग नया जिला बनाने से मतलब लेते हैं कि इससे सरकारी काम करवाने के लिये इतनी दूर नहीं भागना पड़ेगा कि रात भी वहीं काटनी पड़े। कुछ नौकरियाँ सृजित होंगी तो हमारे बच्चे भी लिपिक या चपरासी बन जायेंगे। जिला मुख्यालय के भवनों और अवस्थापना सम्बन्धी कार्य होंगे तो कुछ लोगों को ठेकेदारी मिलेगी तो कुछ को मजदूरी। कुल मिला कर प्रशासनिक कार्य आसान होंगे और आर्थिक हित भी होंगे। अब तक इन राजस्व जिलों से विकास को इसी तरह जोड़ कर देखा गया है। जबकि 73वें-74वें संविधान संशोधन कानूनों के बाद जिले वास्तव में महत्वपूर्ण हो गये हैं। अब संविधान में पहली बार जिलों के अस्तित्व और महत्ता को स्वीकार किया गया है। मगर ये संविधानसम्मत जिले राजस्व एकत्र करने के या प्रशासनिक जिले नहीं होंगे। ये विकास के जिले होंगे। जिस तरह ‘राज्यों’का संघ ‘केन्द्र’होता है, उसी तरह ‘राज्य’‘जिलों का संघ’होगा। अत: विकास को दृष्टि में रखते हुए जिलों का नये सिरे से पुनर्गठन करने की आवश्यकता होगी।
संविधान की 11वीं अनुसूची में त्रिस्तरीय ग्राम पंचायतों के लिये 29 तथा 12वीं अनुसूची में नगर निकायों के लिये 18 ऐसे विषय रखे गये हैं, जिन्हें वे कर सकते हैं। अर्थात् अब पंचायतें कृषि, भूमि विकास, लघु सिंचाई, पशुपालन, दुग्ध उद्योग, मत्स्यपालन, लघु उद्योग, ग्रामीण आवास, सड़क, पुल, जलमार्ग, विद्युतीकरण, गैरपारम्परिक ऊर्जा, गरीबी उन्मूलन, माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, हाट-बाजार, महिला और बाल विकास, समाज कल्याण, सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे तमाम कार्य कर सकती हैं। तो देखें कि प्रदेश सरकार के करने के लिये अब काम बचे ही कितने?
इन कानूनों में एक ‘जिला नियोजन समिति’ का प्रावधान है, जिसमें किसी जिले की ग्रामीण और नगरीय आबादी के अनुपात में ही ग्राम पंचायतों और नगर निकायों के प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व होगा। यह समिति जिले की सारी पंचायतों और नगर निकायों की जरूरत के अनुसार एक वार्षिक जिला योजना बनायेगी। सिर्फ योजना क्या, इस समिति को यह तक अधिकार दिये गये हैं कि यदि प्राकृतिक संसाधनों आदि को लेकर जिले के भीतर की पंचायती राज संस्थाओं में कोई विवाद हों, अर्थात् जंगल या पानी जैसे झगड़े हों तो यह उनका भी निपटारा कर सकती है। ‘जिला नियोजन समिति’की बनायी वार्षिक जिला योजना के लिये इन्हीं 73वें-74वें संविधान कानूनों के तहत गठित एक अन्य सांवैधानिक संस्था ‘राज्य वित्त आयोग’आवश्यकतानुसार बजट उपलब्ध करायेगी। अब ध्यान देकर समझिये। इस प्रक्रिया में राज्य स्तरीय सचिवालय तो अप्रासंगिक हो गया, नौकरशाहों का हस्तक्षेप खत्म हो गया और पंचायत ने अपनी जरूरत के हिसाब से जो माँगा उसे मिल गया। वह जैसे, जिस तरह ठीक लगे अपने काम करवाये। स्कूल, अस्पताल, सड़कें, पुल, नहरें स्वयं बनाये और चलाये। अपने इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षक भर्ती करे। अपनी व्यवस्थायें बनाये। ये विकास प्राधिकरण, ये भीमकाय निगम तो स्वत: खत्म हो गये। रोजगार भी स्थानीय स्तर पर सृजित हुए, विकास भी हुआ। भ्रष्टाचार खत्म हुआ, काम सस्ता और बढ़िया हुआ।
यह एक सपना जैसा लगता है। मगर यदि ईमानदारी से 73वें-74वें संविधान संशोधन कानूनों को लागू कर दिया जाये, उनके आधार पर अपना पंचायती राज कानून बनाया जाये तो यह सपना सच होना असंभव नहीं है। मगर सच कैसे हो? दिल्ली से गाँव तक आने में एक रुपये में से पिच्चासी पैसे डकार लेने वाले लोग उसे सच क्यों होने दें? ये राजनेता, नौकरशाह, ये माफिया, गाँव-गाँव तक फैली ठेकेदारों की जमात़… ये क्यों चाहेंगे कि हर आम आदमी का विकास हो, हर एक की आँख के आँसू पुछ जायें…. वह भी उनकी सम्पन्नता की कीमत पर ?
यहाँ तक कि सचिवालय में जो बहुत छोटे स्तर के कर्मचारी हैं, उन्हें भी यह रास नहीं आयेगा कि पंचायतों को सीधे पैसा चला जाये। इस घटिया और सड़ी हुई व्यवस्था से उनके भी तार जुड़े हुए हैं। शिक्षक और डॉक्टर, जो अब तक मंत्री, सचिव या अधिकारी स्तर पर सैटिंग कर गाँवों में जाये बगैर ही अपनी तनख्वाह ले लेते हैं, क्यों चाहेंगे कि उन्हें पंचायतों के आधीन रहना पड़े ? कुल मिला कर पिछले साठ सालों में जो मानसिकता पुख्ता तौर पर बन गई है, वह इन कानूनों के लागू होने से पूरी तरह तहस-नहस हो जायेगी। यही इन कानूनों के लागू होने के रास्ते में सबसे बड़ी अड़चन है।
यह तो एकदम जमीनी स्तर की समस्या है। एकदम ऊपरी स्तर पर देखें। विकास का पैमाना बन गया है बड़े-बड़े मॉल, आकाशचुम्बी भवन, एक्सप्रेस वे, सेज आदि। औद्योगिक विकास के लिये विद्युत परियोजनायें बननी हैं, खनिजों का दोहन होना है। ये लाखों करोड़ रुपये के काम हैं और इन्हें बहुत बड़े स्तर पर ही करवाया जाता है। छोटे स्तर पर ये क्या हो सकते हैं, इसकी सम्भावनायें भी नहीं टटोली जातीं। इन सबके लिये भारी मात्रा में जमीन और प्राकृतिक संसाधन चाहिये। बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ ही इन्हें कर सकती हैं। इन्हीं में हजारों-हजार करोड़ रुपये के वे घोटाले होते हैं, जिनके बारे में हम आजकल खूब सुनते हैं। हमारे संविधान के ‘नीति निर्देशक सिद्घान्त’में ‘अनुच्छेद 38 बी’ में यह कहा गया है कि ‘‘समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस तरह बँटे कि सामूहिक हित सर्वोत्तम रूप से हों।”यह प्रकारान्तर में समुदाय यानी कि पंचायतों को ही प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार दे देने की बात हुई। लेकिन यदि ऐसा हो गया तो फिर पंचायतें क्यों अपने पैरों पर कुल्हाड़ा चलायेंगी ? क्यों देंगी वे अनुमति? कैसे बन पायेंगी ये बड़ी-बड़ी परियोजनायें? कैसे होंगे हजारों करोड़ रुपये के घोटाले? एक बार केरल के प्लाचिमाडा गाँव के ग्रामीणों ने पाया कि कोकाकोला के प्लाण्ट से उनका भूगर्भीय पानी कम पड़ गया है और प्रदूषित भी होने लगा है तो उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग कर प्लाण्ट को बन्द करवा दिया। अभी कुछ माह पहले उड़ीसा की पल्ली (ग्राम) सभाओं को सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय देने का मौका दिया तो उन्होंने ‘वेदान्ता’नामक एक बहुत बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा वहाँ बॉक्साइट के खनन करने पर रोक लगा दी। ऐसे मामलों में सरकारों द्वारा ‘सम्प्रभु सत्ता’(प्रिन्सिपल ऑवॅ एमीनेन्ट डोमेन) के एक विदेशी सिद्घान्त का बहाना ले कर ‘योजना आयोग, जो सर्वथा असंवैधानिक संस्था है, की मदद से प्राकृतिक संसाधन एकमुश्त लूट लिये जाते हैं। ग्राम समुदाय देखते रह जाते हैं। उन्हें विकास में हिस्सा तो क्या मिलता है, उल्टे मिलता है विस्थापन और विरोध करने पर कठोर दमन।
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इसलिये बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों के हित में, राजनेताओं-नौकरशाहों के हजारों करोड़ रुपये के घोटाले करने के लिये भी पंचायतों के हक में अड़ंगा लगाया जाता है और 73वाँ-74वाँ संविधान संशोधन कानून लागू नहीं हो पाता।
पंचायतों को सिर्फ तथाकथित विकास से जोड़ना भी अधूरा सोच है। खालिस विकास, जिसका रिश्ता सिर्फ स्कूल-अस्पताल के भवनों, सड़कों आदि तथा इनसे जुड़े पैसे से माना जाता है, को अत्यधिक महत्व देने से ही दिल्ली से गाँव तक सिर्फ दलालों की फौज खड़ी हो रही है। ग्राम समाज को समग्र रूप में शक्तिशाली और आत्मनिर्भर होना चाहिये। तथाकथित विकास से बाहर भी पंचायत अपने निर्णय स्वयं ले। वह तय करें कि उसकी सीमा के भीतर प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किस तरह हो। शराब उसके अधिकार क्षेत्र में बेची जाये या नहीं। उसकी जमीन बाँध, वन्य जीव विहार या किसी बड़े उद्योग के लिये दी जाये या नहीं और यदि दी जाये तो उसमें उसका नियंत्रण और हिस्सा कितना हो। बाहर से कोई व्यक्ति या स्वैच्छिक संस्था आकर उसके क्षेत्र में कार्य करे या नहीं, यह तय करने का अधिकार ग्राम समाज को मिलना चाहिये। 1996 के ‘पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम’अर्थात् ‘पेसा कानून’ में ऐसी व्यवस्थायें हैं।
गाँव के स्वायत्त ढाँचे के भीतर ग्राम समाज की अपनी न्याय व्यवस्था लगातार चल रही है। हालाँकि औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के पदचिन्हों पर चल रही आजाद भारत की सरकार द्वारा पंचायती न्याय को कोई मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन बावजूद इसके अनेक स्थानों पर वह अब भी प्रभावी रूप में कार्य करती है। यह ठीक है कि अनेक बार गाँव की पंचायतों से भयावह फैसलों की खबरें मिलती हैं। कभी पंचायत द्वारा किशोर प्रेमी-प्रेमिका को फाँसी देने की खबर आती है तो कभी किसी एकल औरत को डायन होने के शक में जिन्दा गाड़ देने की। खाप पंचायतें तो इस मामले में बदनाम हैं। मगर याद रखा जाना चाहिये कि देश में हजारों पंचायतें होंगी, जो हर रोज हजारों फैसले करती होंगी। तो जो प्रेमचन्द की ‘पंच परमेश्वर’कहानी जैसे ‘दूध का दूध, पानी का पानी’वाले फैसले होते हैं, उनकी भी तो चर्चा की जानी चाहिये। पंचायतों में गलत-सलत और अमानवीय फैसले अगर होते हैं तो उसके पीछे कारण यह है कि पढ़े-लिखे, प्रगतिशील लोग या तो गाँवों से पलायन कर गये हैं या फिर गाँव की गतिविधियों से अलग-थलग रहते हैं। समाज के दकियानूसी तत्वों का पंचायतों में वर्चस्व हो जाता है। यह प्रवृत्ति तो राजनीति में भी दिखाई पड़ती है। ईमानदार आदमी राजनीति में रुचि नहीं लेता और अपराधी तथा साम्प्रदायिक तत्व राजनीति में सबसे ताकतवर बन कर उभरते हैं। जब गाँव समाज के भीतर की प्रगतिशील ताकतें जमीनी संघर्ष और सच्चाइयों से रू-ब-रू होकर, अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करके दकियानूसी प्रवृत्तियों के खिलाफ खड़ी होंगी, तभी ग्राम गणराज्य प्रभावी हो पायेगा। एक जीवन्त समाज में मंथन की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहनी चाहिये। पंचायतों पर दकियानूसी होने का आरोप इसलिये भी बहुत चिन्ताजनक नहीं है, क्योंकि हमारी न्यायपालिका ही कितनी बेहतर स्थिति में है ? सारे वकील और न्यायाधीश बहुपठित भी होते हैं और प्रशिक्षित भी। फिर भी अदालतें प्राय: गलत फैसले देती क्यों दिखाई देती हैं? तब यदि सामान्य विवेक और नैसर्गिक न्याय के आधार पर कार्य करने वाली पंचायतों के लाखों फैसलों में दो-चार गलत आ जायें तो क्या उन्हें सिरे से खारिज कर देना चाहिये ? ग्राम गणराज्य की सफलता के लिये पंचायत के फैसलों को कानूनी मान्यता देना बहुत जरूरी है। जब सामान्य व्यक्ति को मालूम होगा कि पंचायत केवल विकास के पैसे का तीन- तेरह करने वाली संस्था नहीं है, उसके घर की, खेत की, जिन्दगी की समस्याओं का समाधान भी वह करती है तो पंचायत में उसका विश्वास भी बढ़ेगा और भागीदारी भी। पंचायतों को ऐसे अधिकार देने से अदालतों में मुकदमों की भीड़ भी कम होगी।
इस तरह 73वें-74वें संविधान संशोधन कानून के जरिये सहभागितामूलक लोकतंत्र स्थापित करने से समाज में एक क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। लेकिन जैसा कहा गया, यह लक्ष्य हासिल करने के रास्ते में मुख्य अड़चन एक ओर कम्पनियों, राजनेताओं, नौकरशाहों, माफियाओं और ठेकेदारों का गठजोड़ है तो दूसरी ओर हमारी मानसिक गुलामी, जिसके चलते हम गतानुगतिक बने रहते हंै और नये प्रयोगों को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं।
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