भारतीय पर्वतारोहण संस्थान का अल्पाइन स्टाइल शिविर

चन्द्रप्रभा ऐतवाल

मई, 1981 यह शिविर नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के संरक्षण में ही चलाया गया था। इसमें विभिन्न देशों से बड़े-बड़े पर्वतारोही शामिल हुये थे। इस शिविर में हमारे देश के भी चुने हुए महिला व पुरुष पर्वतारोही शामिल थे। प्रारम्भ में अन्य प्रशिक्षणों की भांति नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रशिक्षण क्षेत्र तेखला में कुछ दिन के लिये चट्टान आरोहण का अभ्यास कराया गया। फिर बस द्वारा दोपहर के भोजन के साथ गंगोत्री के लिये रवाना हुए। बस हमें लंका तक ही ले जाती थी। लंका से भैरों घाटी तक 12 किमी़ पैदल चलकर खड़ी चढ़ाई को पार करके गंगोत्री पहुंचे। गंगोत्री में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के शिविर लगाने वाले स्थान पर शिविर लगाया। दो-तीन दिन तक गंगोत्री में ही चट्टान आरोहण का अभ्यास किया।

गंगोत्री से गोमुख के लिये दोपहर के भोजन के साथ रवाना हुये। सभी अपनी-अपनी मर्जी से चल रहे थे। मैं पूरे रास्ते चलकर निर्मल शाह और पुमुल के साथ 12 बजे के लगभग गोमुख पहुँच गयी। वहाँ नेहरू पर्वतारोहण संस्थान का शिविर पहले से ही लगा हुआ था। गोमुख पहुंचकर आराम किया फिर नहाना-धोना किया। इस शिविर में भारतीयों के अलावा न्यूजीलैण्ड, फ्रान्स तथा इंग्लैण्ड के लोग शामिल थे। ये लोग रास्ते में हल्का-हल्का सामान उठाकर चल रहे थे, पर हम लोगों के पास अपना पूरा सामान था। फिर भी हम कोशिश यही कर रहे थे कि उनकी बराबरी कर सकें।

गोमुख में भी चट्टान आरोहण का अभ्यास किया। साथ ही गोमुख से तपोवन तक सामान पहुंचाने गये, फिर दूसरे दिन  तपोवन में शिविर लगाया गया। तपोवन में समतल मैदान है, जिसके बीचों बीच पानी की सुन्दर गूल बहती है। ऐसा लगता है कि किसी ने नहर बनायी होगी। यहां अलग-अलग प्रकार के टेन्ट लगे थे। अधिकतर भारतीय लोग मैस टेन्ट में थे। यहाँ भोजन करने के लिए भी सुन्दर-सा एक टैन्ट लगा था, जिसमें छोटे-छोटे स्टूल लगा रखे थे। यह टेन्ट हॉल की तरह लम्बा था और सुन्दर रोशनी अन्दर तक आती थी, अत: अच्छा लगता था। हम लोगों ने बैठने के लिये किचन के पास सुन्दर सा स्थान पत्थरों से तैयार किया था, जो गोलाई में था। सभी आमने-सामने बैठकर खाना खाते तथा कभी-कभी हंसी-मजाक आदि भी करते थे।

तपोवन में भी चट्टान आरोहण का रोज अभ्यास करते थे, किन्तु यहां के चट्टान आरोहण और उत्तरकाशी के चट्टान आरोहण में बहुत अधिक अन्तर था। यहाँ अधिक ऊंचाई होने के कारण सांस फूल जाती थी और चट्टान आरोहण करने में कठिनाई होती थी। मैंने देखा कि विदेशी लोग तकनीकी में हम लोगों से कहीं आगे हैं। कभी-कभी तो वे लोग चट्टान के एक छोर को पकड़ने के लिये इतनी ऊंची रस्सी पर झूलते थे, फिर छोर को पकड़ने की कोशिश करते थे। ऐसा लगता था कि अब गिरे-तब गिरे और हमारी सांस कुछ देर के लिये रुक जाती थी।

उनके चट्टान पर आरोहण को देखकर हम भी कोशिश करते थे, पर ये लोग जल्दी थक जाते थे, क्योंकि हिमालय में हम लोग जितनी जल्दी जलवायु के अभ्यस्त हो जाते थे, उन्हें बहुत समय लगता था और ये बीमार हो जाते थे। अब हम लोगों का अलग-अलग दल बनाया गया। किसी ने मेरु पर्वत की ओर जाना पसन्द किया और किसी ने भागीरथी पर्वत की ओर। हमने केदार डोम की ओर जाना पसन्द किया। हमारे दल का लीडर डग स्कौट था और उसके साथ फ्रान्स के दो सदस्य और साथ में थे। उनमें एक काफी बुजुर्ग था जो बहुत अनुभवी था। इनके साथ हमारा दल केदार डोम की ओर चल पड़ा, पर केदार डोम का पुराना रास्ता छोड़कर खर्चकुण्ड की ओर से रास्ता पकड़ने का निश्चय किया। यह मेरे लिये भी नया रास्ता था।
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पहले दिन हम लोग सामान पहुँचाने गये। उस दिन खर्चकुण्ड ग्लेशियर की ओर गये। पूरे ग्लेशियर में सफेद चादर फैली हुई थी और बीच-बीच में नीले पानी की सुन्दर गूल जगह-जगह से बह रही थी। एक जगह ग्लेशियर में बड़ी सी चट्टान थी। जिस पर सभी ने अलग-अलग रास्ते से चढ़ने की कोशिश की, पर कोई चढ़ नहीं पाया। इतने में माउण्ट आबू से आया हुआ प्रफुल्ल मिस्त्री चढ़ गया। सभी ने ताली बजाकर उसका हौसला बुलन्द किया पर अब समस्या हो गयी कि चट्टान से उतरे कैसे ? फिर बड़ी मुश्किल से उतर पाया। उसके बाद धीरे-धीरे वापस आये। जहां से हमें केदार डोम जाना था, उसकी तरफ शिविर के लिये स्थान चुना और एक टेन्ट लगाकर सारा लाया हुआ सामान उसके अन्दर डाला। शिविर एक झील के किनारे बहुत ही सुन्दर स्थान पर था। कुछ देर तक आराम करने के बाद सभी अपनी-अपनी मर्जी से चलकर वापस आधार शिविर तपोवन आये।

डग स्कौट मुझे इण्डियन शेरपा कहने लगा। मैं डग स्कौट के साथ ही थी और हमारे साथी सभी पीछे रह गये थे। डग स्कौट चलता चला जा रहा था और कहीं भी पीछे देखता नहीं था। अब मैदान में गूल को पार करने की बारी आयी, पर सब जगह चौड़ा होने के कारण मुझे उसे पार करने में कठिनाई हो रही थी। मैं नीचे-ऊपर घूमने लगी, पर डग स्कौट ने एक बार भी पीछे मुड़कर मेरी मदद करने की नहीं सोची और सीधे शिविर में जाकर रुका। उस समय मैं 1979 के ग्रेम डिंगल को याद कर रही थी कि वे कितना एक-दूसरे की मदद करते थे। मैंने अपना जूता उतारा तब जाकर गूल को पार करके शिविर तक आयी।

दूसरे दिन हमारा दल केदार डोम के लिये चल पड़ा। ये लोग अपना पूरा बोझ खुद उठा लेते थे। शिविर में पहुंचकर सबने अपना-अपना टेन्ट लगाया। फ्रान्स का जोजब झील में कूद गया और तैरने लगा। सभी अपना-अपना सामान ठीक करने में लग गये, क्योंकि सबने कल अलग-अलग रास्ते से केदार डोम फतह करने हेतु निकलना था। यहाँ हम लोग अलग-अलग दलों में बँट गये थे। मैं, नन्दलाल, पुरोहित और राजकुमारी चन्द का एक दल था। हम लोगों ने बर्फ को काट कर दूसरा रास्ता पकड़ा था, पर मिली के दल वाले आधे रास्ते से वापस शिविर चले गये। किन्तु डग स्कौट के दल ने चट्टानी क्षेत्र को लिया था।

हम लोग आगे बढ़ते चले गये, पर राजकुमारी बहुत पीछे रह गयी थी। बार-बार रुकने को कह रही थी। मैंने सोचा यदि रुकते हैं तो इस बर्फ में सभी फंसते जायेंगे। अत: उसकी बात नहीं सुनकर आगे बढ़ती चली गयी। राजकुमारी कह रही थी कि तुम्हारा रास्ता खोलने का क्या फायदा ? मैं तो फँसती जा रही हूँ। यदि हम उसके लिये रुकते तो बुरा हाल हो जाता और हम भी बर्फ में फंसते जाते। अत: किसी तरह आगे बढ़ते चले गये।

आगे सुरक्षित स्थान पर शिविर के लिये जगह बनाई, जहाँ थोड़ा चट्टान की आड़ थी। इतने में नन्दलाल पहुँच गया। उसके साथ मिलकर टेन्ट लगाया, फिर चट्टान से पिघलकर निकलते पानी को सारे खाली बर्तनों में भरकर रखा, जिससे हमारे ईंधन की बचत हो गयी और चाय तैयार करके पी। इतने में राजकुमारी भी पहुँच गयी। शिविर लगा देखकर वह भी खुश हो गयी, फिर अपने साथ लाया हुया खाना गर्म करके खाया। ठीक उसी समय हमारे ऊपर की चट्टान पर डग स्कौट का दल भी पहुंच गया था। वहां पर काफी कठिन चट्टान थी जिस कारण उनको शिविर लगाने का स्थान नहीं मिला। अत: उन लोगों ने वहां से शिविर वापस जाने का विचार किया और चले गये।
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