जब काम धंधे का विश्व बदल रहा है, तब…
-इला र. भट्ट
पिछले तीन दशकों में काम-धंधे की दुनिया बदल गयी है। अर्थशास्त्रियों ने यह धारणा बना ली है कि अर्धविकसित देश भी अन्तत: देश भी अन्तत: विकसित देशों की कतार में आ जायेंगे। और किसी भी समय अधिकतर व्यापार संगठित क्षेत्र में (फॉर्मल सेक्टर में) समा जायेंगे। किन्तु वैश्वीकरण के साथ यह पूर्व धारणा बिल्कुल अलग ही स्थिति में नजर आ रही है। निजी क्षेत्र कमजोर हो गये और सार्वजनिक क्षेत्र सिकुड़ गये। कॉण्टे्रक्ट मजदूरी, खुदरा मजदूरी और बाहर से लाये गये मजदूर भी संगठित क्षेत्र में बढ़ ही रहे हैं। उदाहरण के तौर पर अहमदाबाद का कपड़ा उद्योग। बड़ी मिलों से पावरलूम्स की ओर तथा छोटे प्रोर्सेंसग हाउस की तरफ बढ़े। इसी तरह अधिकतर मेहनत के काम कॉन्ट्रेक्ट और पेटा कॉन्टे्रक्ट पद्धति से होते गये। इसमें मालिक और कामगार के बीच सीधा सम्बन्ध ही नहीं बन पाता इसलिए उन कामगारों को श्रम-कानूनों का लाभ भी नहीं मिल पाता है। अहमदाबाद के 60 प्रतिशत श्रमजीवी गलियों में या घर में बैठकर काम करते हैं, अथवा बंद हो चुके कारखानों की खुली जमीन में काम चलाऊ झोपड़ियों में बैठकर काम करते हैं। व्यापार जगत में अनेक तरह से बदलाव आया है लेकिन मजदूरों के साथ जुड़े कानून इस बदलाव के साथ तालमेल नहीं मिला सके और वे प्रस्तुत करने लायक नहीं रहे।
(Article by Ela Bhatt)
वैश्वीकरण का दबाव सर्वत्र है। बड़े उद्योगों की ताकत बढ़ती जा रही है और गरीबों के छोटे स्तर के व्यवसाय की उनके सामने कोई हैसियत नहीं है। नये-नये यंत्रों का इस्तेमाल सतत काबिलियत माँगता है। गरीब उनके सामने अपने आपको लाचार, निर्बल और असमर्थ महसूस करते हैं। मध्यमवर्ग का प्रभाव बढ़ा है। गरीबों के समर्थन और बीच बचाव करने वाली राज्य की भूमिका भी पीछे छूट गयी है। स्वयं राज्य भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और विदेशी पूँजी निवेश के तीव्र वेग र्में ंखचे जा रहे हैं। निर्णय प्रक्रिया इतने ऊँचे स्तर पर पहुँच गई है कि स्थानीय धंधों-उद्योगों और जनता के संगठनों का कोई प्रभाव नहीं है और ना ही उनकी ऊपर तक कोई पहुँच है।
इन बड़े तबकों के अन्तराष्ट्रीय संगठनों की आवश्यकता बढ़ी है। इस अर्थतंत्र में गरीबों को अगर टिकना है तो तमाम सरहदों को पार करके संगठित होना पड़ेगा। बड़ी संख्या में घर बैठे विभिन्न काम-धंधों से जुड़ी महिलाओं को तो विशेष रूप से संगठित होना चाहिए, ताकि उनका शोषण न हो पाय। असंगठित क्षेत्र में (इन्फॉर्मल सेक्टर) श्रम-संगठन स्थापित करने से बड़ी संख्या में महिलाएँ श्रम आन्दोलन के मुख्य प्रवाह में दाखिल हो सकती हैं और इससे आन्दोलन की गतिविधि व रूपरेखा बदलेगी। फिर यह पूरी तरह से संभव है कि श्रमजीवी स्त्रियों की प्राथमिकता वाले मुद्दे पुरुषों की प्राथमिकता वाले मुद्दों से अलग हों।
(Article by Ela Bhatt)
‘सेवा’ में किसी भी कार्यक्रम के प्रभाव को तौलकर हमने अपने लिए कुछ प्रश्न तैयार किये हैं। हम सही दिशा में जा रहे हैं या नहीं, ऐसे काफी विचार हमें इन प्रश्नों के जवाब से मिलते रहे हैं। हम पूछते हैं कि हमारे काम से…
- रोजी-रोटी के अवसर बढ़े हैं?
- स्त्रियों की आय बढ़ी है़?
- उन्हें अच्छा और पोषक आहार मिलता है?
- आरोग्य सेवा सरलता से मिलती है?
- बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल हो पाती है?
- निवास, पानी और शौचालय की व्यवस्था मिलती है?
- संगठन मजबूत बना है?
- गरीब स्त्रियों को आगेवानी के लिए प्रोत्साहन मिला है?
- निजी स्तर पर या सामूहिक स्तर पर स्वावलंबन बढ़ा है?
यदि जवाब में ‘हाँ’ है तो अपना संगठन सही रास्ते पर है और ‘ना’ मिले तो सुधार की जरूरत है। इन सादे प्रश्नों का सीधा जवाब मिलता है और अन्तत: तो इनके परिणाम को ही लक्ष्य में रखना होता है।
(Article by Ela Bhatt)
जब श्रमजीवी अपनी शक्ति के अनुसार आत्मनिर्भरता का पाठ सीखेंगे, तो ठोस परिवर्तन आएगा जो सचमुच जनता की तरफ से ही आना चाहिए। ये न तो ऊपर से नीचे की ओर आ सकता है, ना तो इसे थोपा जा सकता है, ना इसका आयात किया जा सकता है। हम लोकशक्ति में भरोसा रखेंगे तो ही एक देश के तौर पर परिवर्तन के लिये अनुकूल वातावरण बना पायेंगे। इसके लिए जनता के पास अपनी आवाज होनी चाहिए। गरीब बहुमत में हो तो उनकी आवाज को खासतौर पर सुना जाना चाहिए।
300 वर्ष के ब्रिटिश शासन के दौरान हमारे देश ने पारंपरिक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढाँचे को क्रमश: निर्बल और फिर बर्बाद होते देखा है। उसके स्थान पर संस्थावादी सत्ता को बढ़ावा देता हुआ नया ढाँचा उठ खड़ा हुआ है, जैसे कि केन्द्रवर्ती सत्ता, नीति और नौकरशाही, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण इत्यादि। ऐसे ढाँचे कदाचित प्रजा को केन्द्र में रखकर काम नहीं करते और उनके लिए यह जरूरी भी नहीं होता। स्वतंत्रता के बाद भी ये ढाँचे जस की तस ही रहे हैं। इनको तोड़ने के लिए खादी, पंचायत और ट्रस्टीशिप की भावना को गाँधी जी ने साधन बनाया था और उनके प्रयत्नों की ये सही दिशा भी थी। इन नये ढाँचों को खड़ा करने के प्रयत्न पर गाँधीजी बार-बार ध्यान खींच रहे थे। ऐसे ढाँचे खड़े करने की आवश्यकता थी जो अपनी प्रजा की वास्तविकता और जरूरतों को केन्द्र में रखें। उन्हें लगता था कि भारत ऐसी ही संस्थाओं से गढ़ा जा सकता है, जो छोटी, स्थानीय, लोकशाहीयुक्त और जीवंत हों।
आज तो अपना राजनीतिक ढाँचा लोकशाही का होते हुए भी स्वार्थी हो गया है, उसमें वंचितों के समुदाय तो हाशिये पर धकेल दिये गये दिखते हैं। किसी का उत्तरदायित्व जैसे बचा ही नहीं है। स्थानीय स्वशासित ढाँचा कमजोर है और उत्तरोत्तर कमजोर ही होता जा रहा है। सरकारी तंत्र के विविध अंग-संविधान, न्याय तंत्र और प्रशासन जब निचले वर्ग तक पहुँचते हैं तब तक वे सब स्वयं ही कमजोर और अस्थिर होकर पुराने ढाँचे को चालू रखकर उच्च वर्ग को सुविधा दे रहे हैं।
आर्थिक क्षेत्र पर शहरी समुदाय का वर्चस्व है। राज्य के संसाधनों और शक्ति को हमारे शहर हड़प करते जाते हैं। मध्यमवर्ग चतुर है और वे ही शिक्षा, यातायात, समूह, माध्यम, आरोग्य और सरकारी नौकरियों के अधिकार का लाभ लेते जाते हैं। इन तमाम व्यवस्थाओं को पूरा करने के लिए की जाने वाली मूल मेहनत ग्रामीण जनता और निचले स्तर के भाग्य में आती है। यह समुदाय भी असंगठित अर्थतंत्र का बड़ा हिस्सा है। देश की श्रमशक्ति का 92 प्रतिशत से भी बड़ा भाग असंगठित क्षेत्र में है अैर देश के कुल आन्तरिक उत्पादन में 93 प्रतिशत का योगदान देता है। इसके अलावा, राष्ट्रीय अर्थतंत्र की बचत का 50 प्रतिशत तथा निर्यात में भी इनका 40 प्रतिशत का योगदान है। इस सबके बावजूद भी इन श्रमजीवियों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने वाला ढाँचा हमारे पास या तो पर्याप्त मात्रा में नहीं है या फिर है ही नहीं।
(Article by Ela Bhatt)
‘सेवा’ के अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ कि गरीब बहनें इस परिस्थिति का मुख्य समाधान बन सकती हैं। आर्थिक सुधार के आयोजन में अपनी गरीब बहनों को केन्द्र स्थान में रखना चाहिए। गरीबी दूर करने का मुख्य साधन रोजगार है। रोजगार के लिए आसपास में ही सहकारी आर्थिक ढाँचे बनाना चाहिए। प्राप्त संसाधनों का लाभ इन बहनों को मिले और उनके कामों को पूँजी का लाभ मिले ऐसा होना चाहिए जिससे वे मुख्य आर्थिक धारा में शामिल हो सकें तथा प्रतिकार करने की क्षमता खड़ी कर सकें। एक ऐसा नेटवर्क बनाना चाहिए जिसमें, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य हिफाजत, बाल आरोग्य, आवास और बीमा का लाभ सभी को मिले। वंचित स्वाश्रयी बहनों की क्षमता बढ़े, उनकी कार्यशक्ति बढ़े, ऐसे प्रयास होने चाहिए जिससे वे निजी और सामूहिक तौर पर वैश्विक बाजार में प्रवेश कर सकें। लोकशाही की सही प्रक्रिया से ही लोगों का, लोगों के द्वारा चालित और लोगों के लिए देश बन सकेगा।
रोजगार पर ध्यान केन्द्रित करने से ही तमाम स्तरों पर अपने लोकतंत्र का विकास होगा। स्वरोजगार एक व्यावसायिक साहस है और गरीबों द्वारा उसकी पहल होनी चाहिए, उसमें अपार सम्भावनाएँ होती हैं। उससे व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ऐसे तमाम पहलुओं का विकास होता है। जीवन के संघर्ष में वंचित ही व्यावसायिक साहस दिखाते हैं इसलिए उनका पोषण करना जरूरी है। कर्ज की तीव्र जरूरत रखने वाले गरीब श्रमजीवी समुदाय पर ध्यान देकर बैंक उद्योग अपने अर्थतंत्र में क्रांति ला सकते हैं, ऐसी संभावना है। अब तक अदृश्य रह गये और आर्थिक तौर पर सक्रिय एक विशाल समूह की अवहेलना करके कोई भी देश किस तरह से और कब तक चल सकता है?
गरीब स्त्रियों को केन्द्र में रखकर पारिवारिक स्तर का भी सुगठित विकास किया जा सकता है। स्त्रियाँ मेहनती और शक्ति सम्पन्न हैं और जो कुछ पास हो उसको बाँटने की क्षमता रखती हैं। ताकत का संचय कर परस्पर सहायता की रीत अपनाने वाली होती हैं। कठिन परिस्थितियों में भी वे परिवार को सम्भालने और उसके पोषण का काम करती रहती हैं। उनको घर-आँगन में काम मिले, यह जरूरी है, इससे वे परिवार का ध्यान भी रख सकती हैं। स्थानीय और वैश्विक दोनों बाजारों की उन्हें जरूरत होती है, इसी तरह से वे परिवार का ध्यान रख पायेंगी। स्थानीय और वैश्विक दोनों बाजार ऐसे होने चाहिए जहाँ उनका उत्पादन पहुँच पाय। उन्हें बैंक की व्यवस्था, ऋण, स्वास्थ्य हिफाजत, बाल हिफाजत, शिक्षा और तालीम की भी जरूरत है। जिस समाज में वे जीती हैं, वहाँ उनकी आवाज का सुना जाना भी उतना ही आवश्यक है। जनता के लिए, उनके जीवन में और उनके धंधे उद्योगों मेंं निवेश होना जरूरी है, ऐसा होगा तभी देश की बेहतरी हो सकेगी। वंचित लोग स्वयं के धंधे-उद्योग के आधार पर एकत्रित हो जाते हैं। उत्पादन तथा उसके लाभ के बँटवारे को विकेन्द्रित करे, पूँजी सृजन और मालिकी को प्रोत्साहन देकर, जनता की क्षमता का विकास करके, समाज की सुरक्षा की रचना करें तब ऐसे विकास में स्त्रियों का पूर्ण समर्थन जरूरी होता है। हमें ऐसी नीति की जरूरत है जो स्वाश्रयी उत्पादन को प्रोत्साहित करे। स्थानीय स्तर पर आर्थिक साहसिक प्रयासों को मदद करे और तमाम स्तर पर न्यायोचित विभाजन को जाने तथा संसाधनों को इकट्ठा करके उसका उपयोग करे। ऐसा होगा, तो लोग सशक्त बनेंगे, स्थानान्तरण रुकेगा, शोषण व भेदभाव घटेगा और गरीबों का पतन भी रुकेगा।
(Article by Ela Bhatt)
सक्रिय लोकशाही के लिए राजनैतिक विकेन्द्रीकरण जरूरी है इसे सामान्य बुद्धिमत्ता से सभी ने स्वीकार तो किया है, फिर भी सत्ता और साधनों का आर्थिक विकेन्द्रीकरण तो अधिकतर उपेक्षित ही रहा आया है। यह एक दुर्भागयपूर्ण स्थिति है। उत्पादन, काबिलियत, यंत्रों की सुविधा और संसाधनों का विकेन्द्रीकरण ही एकमात्र रास्ता है, यह मान लिया जाना चाहिए। राजनैतिक विकेन्द्रीकरण के साथ आर्थिक सत्ता का केन्द्रीकरण बेहद जोखिमभरा मिश्रण है। श्रमजीवियों को विशाल क्षेत्र में जोड़ने के लिए उन्हें पूरी सहायता देनी चाहिए। आर्थिक चित्र में से उन्हें बेदखल कर, उन पर नियंत्रण लादना सरासर गलत है। हम फुटकर बेचने वालों, ठेला खींचने वालों या हाशिये पर रहने वाले छोटे किसानों के साथ यही कर रहे हैं।
अपने शहरों में फुटकर विक्रेताओं का बाजार जगह-जगह पर फैला हुआ देखने को मिलता है। यह बाजार केवल राहगीरों के लिए बना देना चाहिए वहाँ फुटकर विके्रताओं को पानी की, शौचालय और कचरे की निकास की व्यवस्था देनी चाहिए अैर बाद में शहर या उसके आसपास के क्षेत्रों में इसके कैसे स्वागतयोग्य परिणाम आते हैं, यह देखना चाहिए। सार्वजनिक वाहन व्यवस्था का भी अगर गरीबों के लाभ में उपयोग किया जा सके तो इसमें विकास की संभावना अधिक रहती है।
एक तरफ, कमाई के अवसर घटते जा रहे हैं। निर्माण काम मजदूरों की जगह यंत्रों के उपयोग को लेकर या राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय निर्माण काम में सामूहिक-करार पद्धति के प्रचलन के कारण काम गुम होता जा रहा है। हाथ कारीगरों को कच्चा माल नहीं मिलता क्योंकि सूत का निर्यात हो जाता है। बदलते समय और उसकी माँग के साथ-साथ गरीब स्वाश्रयी महिलाओं की आर्थिक गतिविधियाँ भी गैर जरूरी, निरर्थक बनती गई है। दूसरी तरफ उद्योगों पर नियंत्रण कम होने से हस्तकला और कपड़ा उद्योग, खेत उत्पादन क्षेत्र में महिलाओं के लिए उज्ज्वल भविष्य और विविध अवसर नजर आते हैं।
(Article by Ela Bhatt)
2000 में जब श्रम के बारे में दूसरे राष्ट्रीय कमीशन में हमारी नियुक्ति हुई तब हमने सुझाव दिया था कि असंगठित क्षेत्र के विभिन्न प्रकार के श्रम की अलग-अलग क्षेत्रों से समग्र जानकारी लेकर एक ही धारा होनी चाहिए। श्रम के संदर्भ में सबको मान्य हो ऐसा सुझाव प्रस्तुत करने का यह एक अवसर था। राष्ट्रीय आय में अपना योगदान देने वाले प्रत्येक स्त्री या पुरुष को कामगार की श्रेणी में गिना जाये। इस विचार को लेकर काम की एक वास्तविक व्याख्या बने, यह जरूरी है। प्रत्येक कामगार की आर्थिक भूमिका को मान्यता देने के लिए उनको पहचान पत्र देने की पद्धति बनाने की सिफारिश भी की थी। लेकिन वह सरकार गिर गई और राज्य में नई दिशा के प्रेरणाप्रद अवसर बनाने का मौका गँवा दिया।
कामकाज के अनेक परिणाम हैं, और उसके आर्थिक प्रभाव (पारिश्रमिक) भी अनेक होते हैं। ये नया या पुराना रूप धारण कर सकते हैं। अर्थपूर्ण काम कामगारों को रोजी देता है और सामान्य जीवन जीने के लिए सक्षम बनाता है। पूरी दुनिया में कुछ खास कामों को ही प्रोत्साहन दिया जाता है और ऐसे काम ही वैश्विक बाजार के अर्थतंत्र के योग्य होते हैं। दूसरा कोई भी काम इस संकुचित व्याख्या में समा नहीं सकता। वे काम या तो नामंजूर कर दिये जाते हैं अथवा उस काम का मूल कम आँककर उसे निम्न स्तर पर रखा जाता है। आर्थिक सिद्धान्त इस परिस्थिति को समर्थन देते हैं और नीति बनाने वाले भी इस दशा को स्वीकार करते हैं जिसके कारण विश्व के करोड़ों कामगार अपना प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से वंचित हो जाते हैं। अपने ही देश में अधिकतर श्रमजीवी कामगार आज की परिभाषा के मुताबिक रोजगार में समावेश नहीं पाते।
तब अपना पहला मूलभूत प्रश्न पूछने का समय नजदीक आ गया है कि ‘काम’यानी क्या?
(Article by Ela Bhatt)
अनसूया अक्टूबर 2019 से साभार
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