मैं उत्तरा के लिए क्यों लिखती हूँ
-मधु जोशी
यह तीन दशक पुरानी बात है। मैंने कुमाऊं विश्वविद्यालय में कुछ समय पूर्व पढ़ाना शुरू किया था- आम बोलचाल की भाषा में कहूं तो अभी मेरी पक्की नौकरी नहीं लगी थी। महिला-केन्द्रित साहित्य के नाम पर बस थोड़ा-बहुत मानुषी नामक पत्रिका के पन्नोंं को उलटा-पलटा था। तभी मुझे पता चला कि विश्वविद्यालय से जुड़ी कुछ सहकर्मी उत्तरा नाम की पत्रिका निकालने वाली हैं। स्थायी नियुक्ति नहीं होने के कारण उस समय तनख्वाह भी कुछ खास नहीं थी, लेकिन मैंने बिना सोचे तत्काल उत्तरा की सदस्यता ले ली और सच कहूं तो ऐसा करने से मुझे प्रसन्नता हुई थी। उत्तरा के साथ जो रिश्ता तब कायम हुआ था, वह आज भी बना हुआ है।
(Article by Madhu Joshi)
सम्पादक मण्डल ने मुझ से आग्रह किया है कि मैं यह बताऊं कि मैं उत्तरा के लिए क्यों लिखती हूं। इसका बहुत आसान और सीधा-सादा कारण है- क्योंकि उत्तरा के लिए लिखने से मुझे प्रसन्नता मिलती है। जैसे किसी अच्छी फिल्म को देखने, सुमधुर गाने को सुनने अथवा सुरम्य स्थान पर घूमने के बाद मैं उसके विषय में अपने मित्रों से बात करती हूँ, उसी तरह से कोई रोचक स्त्री-केन्द्रित पुस्तक पढ़ने अथवा किसी प्रगतिशील व्यक्ति अथवा संस्था से वाक़िफयत होने पर मेरा मन करता है कि मैं उससे जुड़ी जानकारी उत्तरा के साथ साझा करूं और उत्तरा इतनी सरल है कि वह अमूमन मेरी बातों को सुनने के लिए तैयार हो जाती है। सर्वप्रथम, मैंने उत्तरा के साथ अपनी लेखन यात्रा कुछ लेखों के अनुवाद के साथ की। हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद तो मैं पहले भी करती थी किन्तु आरम्भ में मुझे अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करने में थोड़ा संकोच हुआ। उत्तरा के जोर देने पर यह कार्य आरम्भ किया तो शनै: शनै: इसमें मजा आने लगा। ऐसा करते समय जब मुझे सुदूर दक्षिण भारत में मुद्दुकोटुटई की पत्थरों की खदानों में कार्यरत महिलाओं के संघर्ष अथवा बैजू नरावणे के लेख में र्विणत फ्रांस की महिलाओं की गतिविधियों से उत्तरा के पाठकों को परिचित कराने का अवसर मिला तब मुझे समझ में आया कि वस्तुत: दुनियाभर की महिलाओं की स्थिति में कितनी समानता है। यह भावना तब और भी सुदृढ़ हो गयी जब कुछ समय के लिए मुझे उत्तरा के स्थायी स्तम्भ हमारी दुनिया के लिए सामग्री जुटाने का मौका मिला।
कुछ समय बाद मेरे आत्मविश्वास में वृद्धि हुई और मैंने एक श्रृंखला लिखी, जिसमें मैंने उत्तरा के पाठकों का परिचय विश्वसाहित्य की चुनिन्दा महिला केन्द्रित साहित्यिक रचनाओं से कराने का प्रयास किया। इसमें टॉमस हार्डी की टैस, मैत्रेयी देवी की न हन्यते, कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी, इस्मत चुगताई की कागजी है पैरहन, अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट, प्रभा खेतान की पीली आंधी, मुस्टाव फ्लॉवर्ट की मदाम बोवरी सरीखी कृतियाँ शामिल थीं। कुछ समय बाद मेरी हिम्मत और बढ़ी और मैं साहित्य के पन्नों से इतर वास्तविक दुनियां में कार्यरत प्रेरणादायक महिलाओं और संगठनों के विषय में उत्तरा के लिए लिखने लगी। उदाहरणत: जब मुझे मुम्बई में जरायम की दुनिया की साम्राज्ञियों अथवा मुम्बई में ही ऑटो चलाने वाली महिलाओं के विषय में पता चला तो मैं इस जानकारी को उत्तरा के साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पायी। इसी तरह से जब मैंने गुजरात में सुश्री इला भट्ट द्वारा स्थावित सेवा अथवा मुम्बई में कार्यरत विमेन्स गे्रजुएट यूनियन के विषय में जाना तो मैंने तत्काल उत्तरा को उनके विषय में सूचित किया।
(Article by Madhu Joshi)
उत्तरा के साथ मेरा एक और अत्यन्त निजी और आत्मीय रिश्ता है। यह मुझे मेरी स्व. मां की याद दिलाती है। जब भी उत्तरा का कोई नया अंक आता था, मेरी मां उसे बड़े चाव से पढ़ती थीं। विशेषकर उस लेख को जो उनकी बेटी ने लिखा हो! यह बात अलग है कि वह उस लेख को पहले भी पढ़ चुकी होती थीं। जब भी मैं उत्तरा के लिए कोई लेख लिखती, मैं उसे सर्वप्रथम अपनी मां को दिखाती थी। अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दी भाषी राज्यों में बिताने और मूलत: हिन्दी-भाषी परिवार से होने के बावजूद, चूंकि मेरी शिक्षा-दीक्षा, अंग्रेजी माध्यम से हुई है और मैंने आजीवन अंग्रेजी साहित्य पढ़ा और पढ़ाया है, आरम्भ में मुझे उत्तरा के लिए लिखने में थोड़ी हिचकिचाहट होती थी। मेरी इस हिचक को मेरी मां और उत्तरा ने काफी हद तक दूर किया। मेरी मां मेरे लिखे लेख को सावधानीपूर्वक पढ़तीं, उसमें लिखी अशुद्धियों को दूर करने में मेरी सहायता करतीं और हां, इस दौरान वह मेरा मजाक भी उड़ातीं। सम्भवत: ऐसा करते समय उन्हें उनके द्वारा उत्तर-प्रदेश के विभिन्न कॉलेजों में किये गये संस्कृत-अध्यापन की भी याद आती होगी। आज भी मेरे किसी लेख में असहज वाक्य-विन्यास को पढ़कर जब उमा मैम मुझे मीठी-सी घुड़की देती हैं, ‘‘मधु तुम आज भी अंग्रेजी में सोचकर हिन्दी में लिखती हो ना,’’ तो मुझे अनायास ही अपनी मां की याद आ जाती है।
उत्तरा के लिए लेखन और मेरी मां से जुड़ी एक और बात मुझे याद आ रही है। जब मेरी मां को उत्तरा के कुछ अंकों में लगातार उनकी बेटी के द्वारा लिखा कोई लेख नहीं मिलता था तो वह मुझसे पूछती थीं, ‘‘बेटा, आप अपनी उमा मैम- शीला मैम से नाराज हैं क्या? बहुत समय से आपने उत्तरा के लिए कुछ लिखा नहीं है।’’ यह मेरे लिए लेखन-निद्रा से जागने के लिए एक तरह की चेतावनी होती थी और सामान्यत: इसके बाद मेरी लेखनी पुन: उत्तरा के लिए कुछ लिखने को चल पड़ती थी।
उत्तरा से मेरे जुड़ाव का एक और कारण है। इसी की अंगुली थामकर मैंने हिन्दी में प्रूफ पढ़ना सीखा है। आरम्भ में जब किसी लेख विशेष अथवा उत्तरा के सम्पूर्ण अंक में भाषा अथवा टंकण की अशुद्धियों को दूर करने की बात चलती और मैं यह देखती कि मुझसे पहले इस पर किसी की कलम नहीं चली है, तो मैं तत्काल दांये-बांये हो जाती थी ताकि यह ज़िम्मेदारी मेरे पास आये ही नहीं और किसी को यह पता नहीं चले कि हिन्दी भाषा के ऊपर मेरी पकड़ कितनी कमजोर है। यदि मुझसे पहले किसी ने एक बार प्रूफ देख लिया होता तो मैं निश्चिन्त होकर प्रूफ देख लेती थी क्योंकि मुझे पता होता था कि अधिकांश गलतियां तो पहले ही पकड़ में आ गई होंगी। फिर जैसे ही उत्तरा को यह बात पता चली, उसके नये-नवेले, गरमा-गरम, एकदम ताजे प्रिंट आउट मेरे हाथ में आने लगे। शुरू-शुरू में इन्हें पकड़ते ही मेरे हाथ-पांव फूल जाते थे लेकिन धीरे-धीरे शीला मैम या हरीश से यह सुनने को मिलता कि प्रूफ रीडिंग सावधानी से की गई है, तो मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा।
आज भी मैं प्रथम प्रूफ रीडिंग से यथासम्भव बचने का प्रयास करती हूं लेकिन अब इसका जिक्र होते ही मेरी आंखें किसी ऐसे पर्दे अथवा कुर्सी को तलाशने नहीं लगती हैं जिसके पीछे मैं छिप सकूं। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं उत्तरा के लिए इसलिए भी लिखती हूं ताकि मैं उऋण हो सकूं- उत्तरा ने मुझे प्रूफ रीडिंग करना सिखाया है तो यह तो मेरा भी फर्ज बनता ही है कि मैं उसके लिए सामग्री जुटाने में योगदान दूं। उत्तरा के माध्यम से मुझे बहुत कुछ सीखने-समझने-जानने-बूझने का मौका मिलता है। जहां इसके सम्पादकीय और लेख मेरी दुनिया को विस्तार देते हैं, वहीं इसमें छपी कुछ कहानियां, कविताओं और रेखाचित्रों को पढ़-देखकर मेरे मुंह से ‘बोसाख़्ता निकलता है, ‘काश इसे मैंने लिखा या बनाया होता।’ इसीलिए उत्तरा की तीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर मैं तहेदिल से यह कामना करती हूं कि इसका स़फर यूं ही अनवरत जारी रहे और साथ ही जारी रहे मेरा इसके लिए लिखने का सिलसिला।
(Article by Madhu Joshi)
एक बार फिर अपनी स्वर्गवासी मां को याद करते हुए उत्तरा के साथ यह बात साझा करना चाहती हूं कि जब कभी वह किसी लेख में मेरे द्वारा लिखी गयी अशुद्ध हिन्दी को इंगित करतीं और अपनी गलती देखकर मैं निराश होने लगती तो मेरी मां तत्काल मुझे दिलासा देते हुए कहती थीं, ‘‘करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान।’’ तो मैं इसलिए भी चाहती हूं कि उत्तरा सदा छपती रहे क्योंकि मेरे दिल के किसी कोने में वह आशा छुपी हुई है कि कभी न कभी इसके लिए लिखते-लिखते, मेरे मस्तिष्क-रूपी सिल पर ‘‘निसान’’ पड़ जायेगा और मैं हिन्दी लेखन के लिए हिन्दी में सोचने की कला में पारंगत हो जाऊंगी।
(Article by Madhu Joshi)
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