उत्तरा और मैं
-महेश चन्द्र पुनेठा
पिछले लगभग 27 साल से मैं ‘उत्तरा’ से जुड़ा हूँ । पत्रिका से पहले-पहल मेरा जुड़ना ‘लघुकथा’ के प्रति मेरी दीवानगी से हुआ। उस समय मैं उस हरेक पत्रिका को ढूँढ-ढूँढकर पढ़ा करता था, जिसमें लघुकथायें प्रकाशित हुआ करती थी। किसी मित्र के यहां ‘उत्तरा’ के एक अंक में मैने जब लघुकथा छपी देखी तो अवलोकनार्थ पत्रिका मंगा ली। उमा दी ने पत्रिका भेज भी दी। पत्रिका पसंद आई। मैं पत्रिका का वार्षिक सदस्य बन गया। तब से यह पत्रिका नियमित रूप से मेरे पास आती रही। यह वही दौर था, जब मैने सरिता, मुक्ता, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग आदि के बाद हंस, कथादेश, वागार्थ, जनमत जैसी पत्रिकाएं पढ़ना शुरू किया था। यह प्रगतिशील साहित्य पढ़ने की एक तरह से शुरूआत थी। ‘उत्तरा’ ने इसको विस्तार प्रदान किया। पत्रिका मिलते ही सबसे पहले मैं लघुकथा ही पढ़ता था। खुद लिखने की कोशिश भी करता था। इसमें ‘अपराधिनी’ नाम से मेरी पहली लघुकथा प्रकाशित भी हुई। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। इसके बाद मैं इस पत्रिका का पाठक के साथ-साथ लेखक भी बना। नियमित अन्तराल पर कुछ न कुछ लिखता ही रहता।
(Article by Mahesh Chandra Punetha)
रिपोर्ट, कविता, लेख आदि। उमा दी पत्रों के माध्यम से लगातार लिखने के लिये प्रेरित करती रहतीं। उनकी प्रेरणा और आग्रह से लिखने के प्रति उत्साह बढ़ता गया। अब मैं केवल लघुकथा ही नहीं, पत्रिका में दी गयी हर रचना को ध्यान से पढ़ने लगा। अपनी प्रतिक्रिया देने लगा। पत्रिका से ऐसा लगाव हो गया कि अन्य लोगों को इससे जुड़ने के लिये कहता। ऐसा करते हुये मुझे बहुत खुशी मिलती। मुझे यह अपनी जिम्मेदारी का हिस्सा लगता।
मुझे अब ‘उत्तरा’ मात्र एक पत्रिका नहीं बल्कि एक विचार लगने लगा, एक ऐसा विचार जिसे हर स्त्री-पुरुष को अपनाना चाहिये। मैं आज भी मानता हूँ कि एक लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक सोच वाले समाज का निर्माण करने हेतु इसे पढ़ना चाहिये। सामन्ती और पुरुषवादी सोच को जानने-पहचाने और उससे मुक्त होने की दिशा में यह पत्रिका काफी मददगार है। महिला मुद्दों को पूरी संवेदनशीलता और वैचारिकता के साथ नियमित रूप से उठाने वाली ऐसी बहुत कम पत्रिकाएं मुझे हिंदी में दिखाई देती हैं।
इस पत्रिका ने पिछले तीस सालों में एक तरह से उत्तराखंड के भीतर महिला आन्दोलनों का नेतृत्व किया है। इसके बावजूद यह किसी संगठन के मुखपत्र की तरह नहीं है बल्कि स्त्री विषयक गम्भीर और स्तरीय साहित्य इस पत्रिका में प्रकाशित होता रहा है। दूसरी भाषाओं की बहुत सारी स्त्री-विषयक कविता-कहानियों के अनुवाद मुझे इस पत्रिका में पढ़ने को मिले। हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाएँ तो इसमें छपती ही रही हैं।
(Article by Mahesh Chandra Punetha)
साथ ही इस पत्रिका ने नये रचनाकारों को छपने का अवसर भी उपलब्ध कराया है। मैं खुद इसका उदाहरण रहा हूँ। मुझे अच्छा लगता है कि दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं इसमें अपनी बात कहती हैं। उनके सुख-दुख और संघर्ष इसके माध्यम से अभिव्यक्त होते रहे हैं। दहेज हत्या, पारिवारिक हिंसा, यौन उत्पीड़न-शोषण की खबरें जो कहीं स्थान नहीं पाती हैं, उन्हें उत्तरा पूरी जिम्मेदारी और महत्व के साथ छापती रही है, जिसमें ऐसी घटनाओं के बारे में सूचना ही नहीं बल्कि, विश्लेषण भी मौजूद रहता है। इनके घटने के कारणों की गहन पड़ताल करती हुई सामग्री रहती है।
सम्पादकीय, आत्मकथ्य, बातचीत, जीवनकथा, संस्मरण, हमारी दुनिया, संस्कृति जैसे स्थायी स्तम्भ हमेशा कुछ नया दे जाते हैं। आधी दुनिया को जानने-समझने की अनूठी और नवीन सामग्री इन स्तम्भों में पढ़ने को मिलती रहती है। ऐसी तमाम महिलाओं के बारे में जिन्होने अपने जीवन में कठिन संघर्ष से एक अलग पहचान और उपलब्धि प्राप्त की है, मुझे इस पत्रिका से जानने को मिला, जो हमेशा एक नयी प्रेरणा से भरती रही।
मैं इस बात को ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ कि जब मैं इस पत्रिका से जुड़ा, इसने मुझे महिलाओं के प्रति परंपरागत दृष्टिकोण से बाहर निकलकर सोचने-विचारने को प्रेरित किया। महिला मुद्दों और लैंगिक मसालों को लेकर पत्रिका में उठाये गये विचार वैज्ञानिक तरीके से सोचने के लिये आमंत्रित करते रहे। पत्रिका की सामग्री मेरे सामन्ती और पुरुषवादी सोच पर चोट करती रही। इससे जुड़ने के बाद महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान के प्रति मेरा नजरिया बदलने लगा।
(Article by Mahesh Chandra Punetha)
-महेश चंद्र पुनेठा, पिथौरागढ़
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