मैं बर्ड गाईड कैसे बनी
रेखा रौतेला
पक्षी तो बहुत खूबसूरत होते हैं- उनके रंग- बिरंगे पंख, उनकी सुरीली चहचहाहट तो हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। बचपन से हम गोरी घाटी में स्थित हमारे सरमोली गाँव के जंगलों में उच्च हिमालय के वन मुर्गियों जैसे विचित्र पक्षी व गौरेया जैसे सामान्य पक्षी देखते आये थे, पर वह आये और चले गये और ध्यान में बस उनके रंग रह जाते थे। और फिर बच्चों द्वारा जैबलि (चूहेदानी) में पकड़े गये दो चार भिगुरी और शिकार में मारे गए वन मुर्गियाँ तो खाये ही थे।
2003 में जब मलिका विर्दी ग्राम सरमोली जैती (जिला पिथौरागढ़) के वन पंचायत की सरपंच बनीं तो उस समय लोगों द्वारा लगातार जंगल का कटान चल रहा था। घर में खाना बनाने के लिये लकड़ी और घास, चारा व पतेल की जरूरत पड़ती ही थी, पर उपयोग के अलावा इन संजायती जंगलों को सम्भालने के लिये लोग आगे नहीं आते थे। तब 2004 में सरपंच के सोच-विचार से वन पंचायत के हकदारों के बीच समुदाय आधारित इको पर्यटन का काम शुरू किया गया। गोरी घाटी में स्थित मुनस्यारी एक खूबसूरत जगह है और ठीक पंचाचूली के बर्फीले पहाड़ों के सामने होने के कारण पर्यटकों को आकर्षित करती है। वन पंचायत के सभी हकदारों द्वारा यह तय किया गया कि जो भी वन पंचायत के जंगलों के संरक्षण व संवर्धन में अपना योगदान करेंगे- पेड़ लगाने में, पानी के स्रोतों को सुरक्षित करने के लिए श्रमदान में- वे पर्यटकों को इस इको पर्यटन कार्यक्रम के तहत अपने घरों में मेहमान के रूप में रख सकते हैं और उससे आजीविका कमा सकते हैं। गाँव घर की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए समझदारी से हमने मिलकर होम स्टे के नियम बनाये और तब से महिलाओं द्वारा यह व्यवसाय चलाया जा रहा है। गाँव में खासकर महिलाओं के हाथ मजबूत हुए हैं क्योंकि होम स्टे की आमदनी सीधे उन्हीं के हाथ में आती है। समय के साथ इस व्यवसाय की पहचान हिमालयन आर्क होम स्टे के नाम से बढ़ती गयी और देश-विदेश के पर्यटक मेरे घर के अलावा 12 अन्य घरों में भी रहने के लिये आते रहे। इसके चलते गाँव के लोग श्रमदान में और भागीदारी करने लगे, नुकसान कम होने लगा और जंगल धीरे-धीरे सुरक्षित हुए। लोग अब लकड़ी सोच-समझ कर और कम लाने लगे हैं और एल़ पी. जी. गैस सिलेण्डर का इस्तेमाल करने लगे हैं।
इसी बीच मलिका दी ने मुझे प्रख्यात पक्षी वैज्ञानिक सलीम अली की एक किताब दी, जो ‘उत्तर भारत के पक्षी’ के नाम से है, जिसमें पक्षियों के बारे में सारी जानकारी हैं। तब मुझे इन चीजों में खास रुचि नहीं थी। मैं होम स्टे का काम कर ही रही थी। मलिका दी जब भी कोई पक्षी देखती तो उनका नाम बताती और कुछ समय के लिये मुझे याद भी रहता पर फिर भूल जाती। अंग्रेजी के बड़े-बड़े शब्द कहाँ याद रह पाते। मेरे लिए यह बहुत कठिन तो था पर फिर दिमाग में कहीं पर थोड़ा-सा याद रह जाता था।
(Bird Guide Rekha Rautela)
2013 में जब मुनस्यारी स्थित हिमालय के प्राकृतिक मुद्दों पर कार्यरत संस्था- हिमल प्रति ने वन विभाग के साथ मिलकर तीन दिवसीय पक्षी प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया तो गाँव के नौजवानों के साथ हम माटी संगठन की महिलाओं ने भी इस प्रशिक्षण में भाग लिया। प्रशिक्षण देने के लिये पर्यावरणीय संस्थाओं में- कल्पवृक्ष, पुणे से आशीष कोठारी व सुजाता, तितली ट्रस्ट, देहरादून से संजय सोंधी व आंचल सोंधी और हिमल प्रति से के़ रामनारायण ने हमें पक्षियों को देखने, पहचानने व समझने की तकनीक को समझाया। इस तीन दिन के प्रशिक्षण के बाद थोड़ा समझ में आया कि लाल, पीले, नीले दिखने वाले पक्षियों के इतने अलग-अलग नाम, आवास/‘हेबिटाट’ और आदते/‘हैबिट’ भी होते हैं।
हर वर्ष हम अपने वन पंचायत के बांज व बुरांस के जंगल में छिपे मसर कुंड के पास मेसर वन कौतिक का आयोजन करते हैं जिसकी शुरूआत हमने 2008 में की। इस मेले से पहले हम हिमल कलासूत्र के नाम से अनेक कार्यक्रम करते हैं। 2013 से हमने बर्ड वाचिंग व ट्रेनिंग का भी आयोजन करना शुरू कर दिया। इससे मेरी पक्षियों में रुचि और बढ़ी- जो भी पक्षी मुझे दिखता- मन में कौतूहल होता कि इसका नाम क्या होगा। कई बार खाना बनाते समय जब कोई चिड़िया खेत में आ जाती थी तो मैं उनको देखने के लिये किताब लेकर आंगन में खड़े होकर पहचानने की कोशिश करती और मेरी रोटी तवे में जल जाती। लेकिन अब मुझे लगता है कि कोई बात नहीं- क्योंकि जब मैं लोगों को पक्षियों का नाम बता पाती हूँ तो मुझे अंदर से बहुत खुशी होती है। मेरी पक्षियों में जिज्ञासा अब इतनी हो गयी है कि कहीं भी कोई पक्षी देखती हूँ तो उसको पहचानने की कोशिश करती हूँ, उसी किताब से जो मुझे सालों पहले भेंट में मिली थी। उस किताब की अहमियत अब समझ में आई, उसके बिना सीखना आसान नहीं रहता। साथ में हमारे गांव में राम दा व त्रिलोक जैसे पक्षियों में गहरी रुचि रखने वालों के साथ हर समय पक्षियों पर चर्चा होती रहती है।
(Bird Guide Rekha Rautela)
उत्तराखण्ड वन विभाग द्वारा 2014 में आसन बराज (देहरादून) में आयोजित पहले बर्ड फेस्टिवल व 2015 में पावलगढ़ (छोटी हल्द्वानी) में दूसरे फेस्टिवल में मैंने हिमालयन आर्क की तरफ से भाग लिया, जिससे मुझे नयी जगह के पक्षियों को भी जानने का मौका मिला। हमारे उत्तराखण्ड में पक्षियों की कुल 637 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिसमें से हमारे गोरी घाटी के छोटे से क्षेत्र में आधे से ज्यादा, यानी 336 प्रजातियों के पक्षी पाये जाते हैं जो कि 50 अलग पक्षी परिवारों से हैं। आज के दिन मैं लगभग 200 पक्षियों को पहचान सकती हूँ। मैं अब कई बार पर्यटकों के साथ बर्ड गाइड के रूप में जा चुकी हूँ। जितना मैं पक्षियों की दुनिया में जा रही हूँ, अहसास होता है कि अभी मुझे कितना और सीखना बाकी है।
पक्षी गाइड के लिये आज हम रु. 1500 दिन के हिसाब से लेते हैं। बंग्लूरू, पुणे, दिल्ली, छत्तीसगढ़, मुम्बई व कलकत्ता से कई ऐसे पक्षी-प्रेमी पर्यटक व पक्षी शोधकर्ता आते हैं। विदेश से देखा जाय तो अमेरिका, न्यूजीलैण्ड, फ्रांस, स्वीडन, डेनमार्क, पोलैण्ड आदि देशों से कई महिला-पुरुष पक्षी-पर्यटक आते हैं। हमारे गाँव व संगठन के साथी भी गाइड के रूप में जाते हैं। आज प्रेरित होकर क्षेत्र के नौजवान भी प्राकृतिक गाइड बनने के लिये र्बिडंग सीख रहे हैं। और मैं जितना पक्षियों की दुनिया में जा रही हूँ, अहसास होता है कि अभी मुझे कितना और सीखना बाकी है।
(Bird Guide Rekha Rautela)
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