दो किताबों में साथ-साथ वास
शिरीष कुमार मौर्य
डरो मत
एक दरवाजा बंद होने से
खुल जाएंगे कई झरोखे
झरोखों को
दरवाजा बना सकती हो तुम
गीता गैरोला
चिर जड़त्व से शापिर धुरी को
आदि से पकड़ा है मैंने
अब भला क्या अंत होगा उस हृदय का
जो इसी गतिशीलता में थम गया है
यह सतत विस्तार मुझेसे ही जुड़ा है
विचर लो तुम….. पर मुझे रहना यहाँ है
मैं तुम्हारी धुरी हूँ… जाना कहाँ है
स्वाति मेलकानी
ये दोनों उद्धरण हैं इसी वर्ष आए दो कवियित्रियों के संग्रहों से, संयोग से दोनों के ये पहले संग्रह हैं। यहाँ आप दो अलग अभिव्यक्तियों और संसार में स्त्री होने के दो उतने ही अलग अर्थ दिखेंगे। गीता गैरोला सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जन-आन्दोलनों से जुड़ी रहने के साथ वैचारित रूप से प्रतिबद्ध भी हैं। स्त्री प्रश्नों पर मैं किसी भी विमर्श की नहीं, आन्दोलन की बात कर रहा हूँ। स्वाति कम उम्र हैं, संसार उतना अनुभवसम्पन्न नहीं है और उनके संग्रह का स्व भी किंचित निजी है। गीता गैरोला का कवि सामाजिक संघर्षों की उपज है और स्वाति का प्रेम और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में आत्ममंथन का।
गीता गैरोला के संग्रह का शीर्षक और समर्पण घोषित करता है कि वे किस पथ की राही हैं। उनके कवि कर्म का उद्देश्य सामाजिक-राजनीतिक है। देशभर में स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध पितृसत्तात्मक समाज के सैकड़ों वर्ष पुराने कुढ़ते-सड़ते सामंती मन की उतनी ही घृणित नाकाबिले बर्दाश्त अभिव्यक्ति है। हर शिक्षित और जागरूक स्त्री (पुरुष) के लिए इस सबसे लड़ने की चुनौती जीवन का पहला प्रश्न है। स्त्री जब लेखन के क्षेत्र में आती है तो उसका आत्म भी इस व्यवस्था में कुचली जा रही हर स्त्री के आत्म से जा मिलता है। सान्ती परिवारों में जी रही उस परम्परा को मान लेने वाली और राजनीतिक विचलन की शिकार कुछ स्त्रियों को छोड़ दिया जाए तो यह कहने में कतई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ये अनगिनत साधारण स्त्रियाँ ही भारत में सच्ची साम्यवादी हैं। गीता गैरोला की कविताएँ हमें इस संसार को बेहतर जानने का पता देती हैं। देहरी के पार शीर्षक कविता की छटपटाहट निजी नहीं, सामाजिक और वैचारिक छटपटाहट है। औरत कहाँ मरती है में मर-मर के जी जाने का आख्यान अपने जीवट के कारण सघन और सुन्दर होता गया है। जंगल के रास्ते में पत्थरों पर घिस-घिस कर पैनी की जा रही दरातियों की आवाज से आकार लेता राग पहाड़ी उस रागिनी का जरूरी विस्तार प्रस्तुत करता है जो अब तक सिर्फ अपनी मधुरता और कोमलता के लिए जानी गई है। वे गोधरा और दंतेवाड़ा तक जाती हुई खुद को और पाठकों को आश्वस्त करने का साहस रखती हैं कि यहीं उगेगी नई ़फसल/जंगल लहालहांगे/मिट्टी पानी और ऋ तुओं की/अपनी लहर होती है। आज की खूंखार भयावह राजनीतिक लहरों के बीच यह मानवीय लहर अपने आप में एक भरोसा है, उस जीवन का, जिसके बारे में वीरेन डंगवाल ने कहा है कि हठीला बढ़ता ही जाता। गीता गैरोला की कविताओं में आत्मीय रिश्ते भी हैं। वे माँ और प्रेयसी हैं लेकिन ये दोनों अनिवार्य भूमिका उन्हेें कहीं बाँधती नहीं। इन रिश्तों के बारे में उनकी कविताओं में भी वही सामाजिक समझ है, जिसके भीतर एक आधुनिक आजाद स्त्री साँस ले सकती है।
स्वाति मेलकानी का भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन योजना से अनुशंसित संग्रह एक अलग और सीमित भाव-संसार का संग्रह है। स्वाति में बँधे रह जाने की पीड़ा तो बहुत है पर उससे निकलने की कोई राह नहीं। वे अकसर स्त्री की महत्ता सिद्ध करने के क्रम में भावुक समर्पण कर देती हैं, जिसे आप मेरे द्वारा आरम्भ में ही उद्धृत पंक्तियों में सरलता से देख सकते हैं। उनकी कविताएँ प्रेम और रिश्तों को लेकर उनकी निजी उधेड़बुन का पता तो देता है लेकिन एक विकट समाज में होने-रहने और उससे लड़ने के संवेग यहाँ कम-कम ही हैं। एक आम पाठक बहुत आसानी से स्वाति के संग्रह को प्रेम कविताओं के संग्रह की तरह पढ़ सकता है। एक कविता जिन्दा हैं हम समाज के बारे में मुखर होकर बोलती है। यहाँ स्वाति का कवि एक वृहद् संसार से संवाद कर रहा है। इसमें व्यंग्य है लेकिन अफसोस उसे तीखी धार दे सकने की वैचारिकी यहाँ नहीं है। स्वाति में सम्भावना की कौंध अचानक उभरती है, जब अपने साधारणजनों और उनकी बेबसी से जुड़ती हुई वे इस लहजे में कुछ मह जाती हैं-
एक बार फिर
मैं नहीं लिख पाती
पहाड़ पर कविता
पहाड़ पर कविता लिखने के लिए
पहाड़ पर कविता लिखनी पड़ती है।
बीड़ी पीती अम्मा पर कविता या हर साल बरसात में ऐसी कविताएँ हैं, जहाँ स्वाति का कविमन एक वृहद् संसार की ओर मुड़ता है। ऐसे दृश्य कम हैं पर उम्मीद की तरह वे हैं। स्वाति का अनुभव जगत् अभी और बढ़ेगा। मुझे विश्वास है कि दुनिया और उसकी मुश्किलों में रहवास उन्हें भीतरी उलझनों के बाहरी सिरे खोजने की ओर लेता जाएगा।
ये दोनों कविता संग्रह समकालीन कविता संसार में कुछ जोड़ते हैं। दोनों ही कवयित्रियाँ अपनी अभिव्यक्ति के स्वरूप में अलग अवश्य हैं, लेकिन अनुभवों की सच्चाई उनमें भरभूर है। साहित्य में समाज-राजनीति और व्यक्ति निष्ठता के बीच का द्वंद्व मुझे हमेशा समाज और राजनीति के पक्ष में खड़ा करता है, ध्यान देने की बात है कि स्त्री प्रश्नों का समाधान भी इन्हीं दो इलाकों में सम्भव होगा, अकेलेपन के मंथन में नहीं। यही वजह है कि गीता गैरोला की कविताओं का जुझारूपन मुझे अधिक प्रभावित कर रहा है। स्वाति मेलकानी की सम्भवनाएँ भी निगाह से बाहर नहीं हैं। दोनों को मैं पहले संग्रह की बधाई देता हूँ और वैचारिक यात्रा की शुभकामनाएँ भी।