किताब: युद्ध और क्रोएशिया महिलाएं

चन्द्रकला

देह या शरीर जीवित प्राणी का एक संवेदनशील ढांचा होता है। लेकिन स्त्री देह न केवल संवेदना से भरपूर होती है, बल्कि नवसृजन व प्राणी जगत के अस्तित्व व विस्तार के अदभुत प्राकृतिक गुण के कारण वह मनुष्यत्व के लिए अनमोल और जरूरी अवयव रही है। इसलिए हजारों वर्ष पूर्व स्त्री देह सम्मानित व गरीमा मयी मानी गयी। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रादुर्भाव के साथ ही प्राणी जगत के इस केन्द्रक को महज देह तक सीमित कर दिया। स्त्री महज़ एक देह बना दी गयी, मृत या जीवित, संवेदनशील या संवेदनाहीन जिसका उपयोग किसी तरह भी किया जा सके। और कालान्तर में इस स्त्री देह को कभी उपमा और अलंकारों के रूप में र्विणत किया, कभी पाप का कारक माना गया तो कभी इज्जत का पर्याय बना दिया गया। हज़ारों वर्षों से पुरुष अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए स्त्री देह को पायदान बनाकर चलता रहा है। बलात्कार या यौन हिंसा पितृसत्ता का वह हथियार है जिसकी सीमाएं देशकाल, परिस्थितियों के भीतर तय नहीं होती। इसके मूल में होता है हासिल करना, कब्जा करना, पुरुष सत्ता को स्थापित करना।

देह ही देश है (क्रोएशिया प्रवास डायरी) गरीमा श्रीवास्तव की वह पुस्तक है, जिसमें महज देह बना दी गयीं क्रोएशियाई औरतों के साथ सर्ब सैनिकों द्वारा किये गये अन्तहीन यौन हमलों की पीड़ा को व्यक्त किया गया है। साम्रज्यावादियों के कानूनों की आड़ में ढक दिये गये उन क्रूर तथ्यों को लेखिका ने पूरी दुनिया की औरतों के अनुभवों के साथ जोड़ते हुए सधी हुई भाषा-शैली में उघाड़ने का सफलतम प्रयास किया है। व्यष्टि से समष्टि को जोड़ते हुए लेखिका उस संस्कृति का खामोश आख्यान करती हैं, जहां स्त्री महज एक देह बना दी जाती है। देह ही देश है, समाज की यह स्वीकृति भी है कि दुनिया के अधिकांश शासकों ने सदैव उग्र राष्ट्रवाद के आवरण में अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बलात्कार को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है।

शैक्षिक प्रवास में दो वर्ष के लिए दिल्ली से जाग्रेबा गयी लेखिका ने क्रोएशिया व बोस्नीया की महिलाओं के यंत्रणादायी अनुभवों को गहन संवेदना के साथ जिस तरह साझा किया है, वे कभी भीतर तक रुलाते हैं तो कभी जुगुप्सा के अतिरेक में ले जाते हैं और कभी भीतर तक आक्रोश पैदा करते हैं। पत्रों के माध्यम से दिल में उमड़ती वेदना को लेखिका किसी भी तरह से कह देना चाहती है। वह बलात्कृत और घर्षित औरतों की कहानी को सामने लाते हुए जितना कहती जाती है, भीतर की पीड़ा बढ़ती जाती है। मंटो, टैगोर, मुक्तिबोध, कुमार अम्बुज, यश मालवीय आदि के लेखन को पुस्तक का हिस्सा बनाकर लेखिका ने सभ्यता के तथाकथित मानदण्डों पर प्रश्न खड़े किये हैं।

“सम्भवत: युद्घ जितना स्त्रियों और बच्चों को प्रभावित करता है, उतना और किसी को नहीं।” युद्ध की विभीषिका में औरत की देह होम की जाती है, यह सार्वभौमिक तथ्य है। बलात्कार की संस्कृति की सार्वभौमिकता को उजागर करती लेखिका की डायरी के शब्द, वाक्य, और परिच्छेद, पूर्वी यूरोप की क्रोएशियायी औरतों की यंत्रणाओं को महसूस कराते हुए एशिया तक पहुंचाते हैं। भारत के बंटवारे की विभीषिका और बोङ्लादेश युद्ध में औरतों की देह पर देश गढ़ने के तथ्यों के साथ जोड़ते हुए इस सच्चाई को मान लेने के लिए बाध्य करती है कि सत्ता स्थापित करने के लिए देह को रौंदने का चलन सदियों से चला आ रहा है। “यहां से देखती हूँ तो बारम्बार भारत-पाक विभाजन, बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान भारतीय-एशियाई स्त्रियों के साथ घटे अनगिनत हादसे जो अब तक किस्से कहानी में पढ़े थे़.. जाने कैसे दृश्य चित्रों में आंखों के सामने घटित से होने लगते हैं। जब कभी विभाजन पर आधारित ‘शरणदाता’, ‘खोल दो’, ‘ठण्डा गोश्त’ जैसी कहानियां विद्यार्थियों को पढ़ाया करती थी, लगता था, वो सब तो घट चुका। लेकिन यहां की शोषित-पीड़ित स्त्रियों और अपने दु:ख को मन की अनगिनत तहों में छिपाये उनके जिन किस्सों से रूबरू हूँ, वे अपनी सत्यता में फिर से मंटो और अज्ञेय के चरित्रों को जीवंत कर दे रहे हैं।”
Book: War and Croatia Women

कविताओं को माध्यम बनाकर सूत्रों को जोड़ती लेखिका देश की सीमाओं को तोड़ते स्त्री स्वर की सामूहिक प्रतिबद्धता को स्थापित करती है। नारीवादी लेखिका सिमोन की पुस्तक ‘ए बेरी इज़ी डेथ’ का जिक्र पुस्तक में प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया मालूम पड़ता है। जिसके आलोक में लेखिका युद्ध की यौन पीड़िताओं के अनुभवों को अपनी डायरी में दर्ज कर दुनिया के सामने लाती हैं। क्रोएशिएन और बोस्नियाई नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रियों के साथ यौन हिंसा व बलात्कार किये गये। ”मैं उन स्त्रियों और परिवार जनों से मिली हूँ जिनकी जिन्दगी युद्ध ने बदल दी, यौन हिंसा की शिकार हुई हजारों-हजार औरतें कमोडिटी में तब्दील हो गयीं और उन्हें वे दर्द चुपचाप सहने पड़े। इतना तो तय है कि सामूहिक बलात्कारों को युद्घनीति के रूप में इस्तेमाल किया गया, जिसके तीन लाभ थे- पहला तो आम जनता में भय का संचार करना, दूसरा नागारिक आबादी को विस्थापन के लिए विवश करना और तीसरा सैनिकों को बलात्कार की छूट देकर पुरस्कृत करना। शासक अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए युद्घ थोपकर किस तरह से एक पूरे समाज को विकृत कर देते हैं और सैनिकों द्वारा रौंदी गयी औरतों के अपराधियों को कभी भी किसी भी देश की अदालतों में शायद ही दोषी ठहराया जाता है। बल्कि इस तरह के कृत्यों को अकसर सचेत तौर पर दबा दिया जाता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी व समाजवादी देशों की टकराहट और उठापटक के अन्तहीन सिलसिले का परिणाम था, 9वें दशक का सर्बिया का राष्ट्रवाद। पुस्तक के अनुसार बोस्निया हर्जेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ युद्ध में सर्बिया ने नागरिक और सैन्य कैदियों के कुल 480 कैम्प बनाये थे। जिसमें स्लोवेनिया व क्रोएशिया में हुए भीषण रक्तपात में 20 लाख लोग शरणार्थी हुए। कुल 20 हजार से 50 हजार महिलाएं यौन शोषण का शिकार हुईं। युद्ध पीड़िता स्नेजना का कहना है कि जब तक अपराधी छुट्टे घूमते रहेंगे, उसे चैन नहीं मिलेगा और वह अपराधियों से पूछना चाहती है कि उस जैसी मासूम औरतें, जिन्हें अपने देश की भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति का भी पूरा ज्ञान कभी नहीं रहा, जो अपनी खेती-गृहस्थी में जी-जान से रमी हुई थीं, उनको नष्ट करने का अधिकार किसको और क्यों दिया गया?’’ युद्धों का इतिहास रहा है कि औरतें हर युद्ध का आसान निशान होती हैं, लेकिन दुनिया के पैमाने पर होने वाली वार्ताओं या सम्मेलनों में ये मुद्दे या तो होते ही नहीं है, या दर्ज किये भी जाते हैं तो उनका महत्व गौण ही माना जाता है।

लेखिका का आख्यान महिलाओं से एक विशाल फलक में जीने की अपेक्षा भी करता है। ”अपने एकांत, ही दायरे में सुख-दुख के भागी बनकर हम उस वृहत्तर संसार से आंखें मूंद लेते हैं-जान ही नहीं पाते कि देश के अन्य भागों में एशिया, यूरोप में क्या हो रहा है। जो इतिहास-पुस्तकों में दर्ज है, सिर्फ वही इतिहास नहीं है। वह भी इतिहास है जो आख्यानों, अनुभवों, जातीय स्मृतियों में सुरक्षित है।” नारीवादी कैथरीन मेकीनन के लेखन में बोस्निया में शान्ति सैनिकों की भूमिका को कोट करते हुए लेखिका बताती हैं कि किस तरह दुनिया के पैमाने पर संयुक्त राष्ट्र संघ की मौजदूगी में  स्त्रियों की ट्रैफ़िकिंग, वेश्यागृहों और मसाज-पार्लरों, पीपी शोज़ और पोर्नोग्राफ़िक फ़िल्म-निर्माण में तेजी से वृद्घि हुई। ”स्त्रीत्व के सम्मान की बात तो दूर, उन्हें मनुष्य ही कोई नहीं समझता, देह जैसे एक लबादा। आत्मा को संस्पर्श कर सकने वाली एक दृष्टि तक नहीं। देह ही तो सारे झमेले की जड़ है। पूरे जीवन का इसी आस में बीत जाना कि पंचभूतों से बनी इस देह को यथोचित सम्मान मिले। और जिसे मालूम हो कि यह देह ही रोटी है, भात है, छत है, उसी को बेचना जो सबसे ज्यादा मुश्किल और सहज भी। कितनी जद्दोजहद और यंत्रणा होती होगी किस़ी को अपनी देह बेचने में।” इन पंक्तियों में वह बयान है जो इस दुनिया का यथार्थ है।

लेखिका का आनन्दिता दी को लिखा खत भारत की अधिकांश महिलाओं को सम्बोधित लगता है जो कि परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए अपना ‘स्पेस’खो देती हैं और ताजिन्दगी खोई ही रह जाती हैं खुद से ही। ”स्त्रियों को अपना सम्मान बचाए रखने के लिए स्ट्रेटजी का निर्माण करना पड़ता है। वर्ना उन्हें निगल लेना किसी भी समाज के लिए असान ही होता है।” अपने प्रवास के दौरान शहरों, वहां के लोगों की जीवन दशाओं, रहन-सहन, खानपान आदि के साथ ही तमाम पहलुओं का बारीक अध्ययन व भारतीयता के रूपकों व स्थानीयता के साथ तारतम्य जोड़कर एक पूरे समाज की तस्वीर पाठक के समक्ष पेश कर देना लेखिका की परिपक्वता व सरोकार का परिचायक हैं। युद्ध पीड़िताओं की दास्तान हों या फिर समाज का औरत के प्रति नज़रिया, सभी को तुलनात्मकता में व्यक्त करती पंक्तियां कई बार स्वयं पाठक का ही मूल्यांकन करती प्रतीत होती हैं। यह सिलसिला पुस्तक के आरम्भ से शुरू होता है और अन्त तक बना रहता है और पाठक को अपने देश के सकारात्मक व नकारत्मक का बोध कराता रहता है। पुस्तक में वर्तमान व अतीत को जोड़ती तात्कालिक संवादों, साक्षात्कारों, घटनाओं व तथ्यों से अपने अतीत व वर्तमान को जोड़ती लेखिका अपने से बातें करती हुई कितनी ही औरतों की आवाज़ बन जाती है- ”इतिहास में कभी भी स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं पहचाना गया, शक्ति और सत्ता हमेशा से उसके लिए वर्जित क्षेत्र रहे।”
Book: War and Croatia Women

इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह तो महसूस होता है कि नारीवादी और मानवाधिकारों के मुद्दों पर काम करने वालों को आज आम लोगों के साथ किये जाने वाले युद्धजनित अपराधों को चिन्हित करना होगा और सत्ताधारियों को कटघरे में खड़ा करने के लिए मानवीय एकता बनानी होगी। फिर चाहे भारत हो, पाकिस्तान-अफगानिस्तान या अरब देश या फिर अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, दुनिया का कोई भी छोटे से छोटा देश या फिर कोई शक्तिशाली राष्ट्र। अपने से गुजरती हुई लेखिका एक औरत के दुख से दूसरी औरत को जोड़ती हुई एक लम्बी यात्रा पर निकली हुई नज़र आती है। ‘दृष्टि अच्छादित नहीं है वरना् दुनिया की तमाम औरतों के आख्यान औरत होने के नाते एक ही हैं। ‘युद्घ कहीं भी हों…..किसी के बीच हो …. मारी तो जाती औरत ही है।’

युद्धजनित यौन यातनाओं का बयान करती क्रोएशियाई औरतों की युद्ध में रौंद दी गयी अस्मिता को पूरी दुनिया में अतीत में लड़े गये युद्धों और उसमें औरतों के साथ की जाने वाली यातनाओं, तथ्यों, घटनाओं और अपनी यादों का तारतम्य बैठाते हुए लेखिका जितना कहती जाती है, पाठक में उतनी ही खामोशी घर करती चली जाती है। लेकिन मनुष्य कभी हार नहीं मानता जीवन की जददोज़हद ताजिन्दगी चलती रहती है। संघर्ष और प्रतिरोध ही दुनिया का सार है। कितनी भी विपत्ति हो, उसमें भी ‘जीवन’ की तलाश ही वास्तव में मानवीय गुण है, यह भी स्थापित करना नहीं भूलती।

”क्या मनुष्य कभी वास्तव में हारता-थकता नहीं। सब कुछ नष्ट होने के बाद भी बचे रहते हैं राख में दबे फूल और उन फूलों से फिर वह अपने रहने की जगह सुन्दर बना लेता है। हजारों-हजार बार टूटने-बिखरने के बाद भी मन में जो बची रहती है, वह आस है-कितने आंसू, कितनी तकलीफ पाकर भी आस है कि टूटती नहीं। मनुष्य की जिजीविषा सबसे बड़ा सच है। मृत्यु, आत्मीयों का चले जाना, धोखा, फरेब, झूठ सब कुछ भूलकर नये जीवन के लिए जो तैयार हो जाता है उसे मनुष्य कहते हैं।”

इन्सान को इन्सान से मिलाने में यात्राएं बहुत ही उपयोगी माध्यम होती हैं। भले ही उनमें पीड़ा मिले या फिर खुशी, लेकिन इन्सानियत को बनाये रखने में यात्राओं का बहुत योगदान रहा है। ”इतना आसान कहां होता है अपने आप को दूसरों के सामने खोलना, और खुद को समझना ही कहां संभव है, उसके लिए उतरना पड़ता है अपने ही भीतर। भीतर की यात्राएं बाहर की यात्राओं से ज्यादा गझिन और बीहड़ होती हैं।” पूर्वी यूरोप की यात्रा के अनुभव पर लिखी गयी गरिमा श्रीवास्तव की यह डायरी कई आयामों से पढ़ी जाने योग्य है।

पुस्तक का नाम – देह ही देश है (क्रोएशिया प्रवास डायरी), लेखिका – गरिमा श्रीवास्तव, मूल्य – 285 रुपये, पृष्ठ सं.
प्रकाशन – राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली
Book: War and Croatia Women

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