संस्कृति: नन्दा राजजात

प्रदीप पाण्डे

कोई 280 किलोमीटर की यात्रा नंदा राजजात को बहुत रोचक बना देती है और उच्च हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों से इसका गुजरना इसमें रोमांचकता भर देता है। कोई 50-60,000 लोगों की भागीदारी इसे भव्यता प्रदान करती है लेकिन ये जानना जरूरी है कि ये रोचकता, रोमांचकता व भव्यता के पीटे एक को ससुराल भेजना है, यही कारण है कि कोई एक डेढ़ दशक मैं एक बार यह यात्रा (जात) होती है, यह बेटी हिमालय की बेटी है। जो शिव को ब्याही गयी है। ऊँचे हिमालय में रहती है, कर्णप्रयाग के निकट चाँदपुर पट्टी के कांसुवा गांव के कुँवरों को जब यह एहसास होता है कि नंदा की ससुराल को विदाई का वक्त आ गया है। (इसे नंदा की दोषोत्पति का आभास होना कहते है) तो कांसुवा के ये कुंवर नंदा की रिंगाल की टंतोली लेकर नौटी के देवी मंदिर में आते है। इसके बाद आसपास के क्षेत्रों की एक बैठक बुलायी जाती है और राजजात, आयोजन कमेटी का गठन होता है। यह माना जाता है कि इसी दौरान कुंवरों के थोकदारी क्षेत्र में एक चौसिंगा खाड़ू   जन्म लेता है। चार सींग वाला यह खाड़ (मेड़ा) यात्रा के पथ प्रदर्शक के रूप में मान्यता पाता है। इस मेढे़ की पूजा अर्चना की जाती है। उसकी पीठ के करवच में नंदा की श्रृंगार सामग्री व चना चबैना रखा जाता है। नंदा राजजात में डोलियों के साथ-साथ अनेक छंतोलियां भी चलती है। जो नंदा व अन्य स्थानीय देवी-देवताओं की होती है ये अलग-अलग मार्गों से होती हुई मुख्य यात्रा से मिल जाती है। वाण में सभी छंतोलियाँ मिल जाती है।

नंदा से ज्यादा आत्मीय और लोकप्रिय देवी उत्तराखंड में दूसरी नहीं है। इसे पंडित लोग पार्वती का रूप मानते है। तो कुछ इसे गोप नंद से जोड़ते है। इसे महिषापुर मर्दिनी भी बताया जाता है और कई देवियों का रूप नंदा को बताया गया है। नंदा को शक्ति स्वरूपा बताया जाता है। यह युद्घ में विजय दिलाने वाली है। इसलिए कुमाँऊ गढ़वाल के राजा जब आपस में लड़ते थे तो जीतने वाला कई बार नंदा की मूर्ति को भी उठा कर ले जाता। नंदा की छ: अंगभूता देवियां भी है- नंदा, दुर्गा, भ्रामरी, शाकम्भरी, भीम और रक्त दंतिका।

मगर नंदा राजजात में शामिल बहुसंख्य स्थानीय जनता के लिए नंदा उनकी बहू, बेटी जैसी है, जो सीधी सादी सरल है, जो रोती भी है जो अपने माँ-बाप को कोसती है कि तुमने मुझे ऐसे ऊँचे हिमालय में क्यों ब्याहा। यहाँ बर्फ का ही ओढ़ना और बर्फ का ही बिछौना है। पति मेरा भांग धतूरा पीता है। तन्द्रा में रहता है। क्या सभी बहिनों में सिर्फ मैं ही कुलाड़ी (अप्रिय) थी।

सात पांच बैण्यों मांज मैं भयो कुलाड़ी, मैंके दियो बबा त्यू लै ऊँचा हिमालय

नंदा देवी इस रूप में एक ग्रामीण बेटी-बहू को अपने जैसी ही एक नंजर आती है। इसलिए घर से दूर ब्याही, घर खेत जंगल में अपार श्रम करने वाली बेटी, परदेश में गये अपने पति की याद में खो जाने वाली बेटी जब नंदा के गीत/जागर सुनती है तो उसकी आंखों से अश्रु प्रवाह रुकता नहीं क्योंकि उसे लगता है कहीं न कहीं ये उसका ही दर्द है। अपने मायके जाने के लिए भी नंदा अपने पति शिव से वैसे ही जिद करती है जैसे कि कोई सामान्य महिला करती है।

”चार दिन स्वामी मी मैत ज्यौन्दौऊ”
रात दिन गौरा त्वीका कनो मैत होये
ब्याली सांझ बोदी मैत ज्योंदों
आज रात बोदी स्वामी मी मैत जयों दो
सांज को सवेरे नंदा त्यारो कनु मैत होये
भाई भतीजो की स्वामी खुद लागी रैंण
बुइया ब्वै बाबू की भी खुद लागी रैण”

(इस वार्तालाप का जो शिव व नंदा के बीच चलता है, सार यह है कि नंदा कहती कि चार दिन के लिए ही सही मुझे मायके जाने दो, शिव कहते है ये क्या सुबह शाम मायके जाने की रट लगाती हो तुम, तो नंदा कहती है मुझे जाने दो मुझे भाई भतीजों की नराई लग रही है। बूढ़े मां-बाप की याद सता रही है।)

शिव नंदा को घरेलू जिम्मेदारियों की याद दिलाते हुए कहते है।
जाणक जाली गौरा तू दुध्यारू बालिक र्केमू छोड़ली।
अतुल भंडार तेरी र्के मू तूं सौंपली
गायों का गोठयार गौरा तू र्के मू छोड़ली।
(यानि जा गौरा (नंदा) मायके जा पर तू जायेगी तो ये दूधमुँहे बच्चे का, भंडार व गौशाला का क्या होगा। इनकी देखभाल कौन करेगा।)
Culture: Nanda Rajjat

नंदा की ये कथा जब गायी/सुनाई जाती है तो पहाड़ की नंदाओं (ग्रामीण अंचल की महिलाओं/बेटियों) की आंखें भर आती है। क्योंकि यह उनका भोगा यथार्थ है, मगर सामान्य महिला के कष्टों की अनदेखी तो होती आई है मगर देवी नंदा के कष्टों की अनदेखी नहीं की जा सकती क्योंकि वह तो देवी है अगर कुपित हो जाये तो फिर तो अनिष्ट होता है, फसलें सूख सकती हैं। मवेशी दूध देना बंद कर सकते है। बाढ़-भूस्खलन कुछ भी विपदा आ सकती है। अत: मायके वाले नंदा को नंजरअंदाज करने की हिम्मत नहीं कर सकते।

नंदा के दोषोत्पति यानी नंदा की नाराजी के कारण होने वाले नुकसान की कई कहानियाँ है। सबसे प्रचलित राजा जस धवल की कथा है, जिसके राज्य पर नंदा की वक्र दृष्टि पड़ी तो हाहाकार मच गया। उसने नंदा के धाम होमकुंड तक जात (यात्रा) लेकर जाने का निर्णय किया मगर यहाँ उसने फिर नंदा को नाराज कर दिया। एक स्थान पर उसने नाचने वालियों (पातरों) का नृत्य आयोजित कर विलास करना चाहा तो नंदा ने सभी पातरों को पाथर (पत्थर) बना दिया। इस स्थान का नाम पातर नचौणियाँ पड़ गया। राजा जस धवल आगे बढ़ा पर, उससे नाराज नंदा ने उसके सारे दलबल को रूप कुन्ड में दफन कर दिया। लोक मान्यता है कि रूपकुन्ड में मिलने वाले नर कंकाल राजा जस धवल के दल के ही है। इस भय से कि नंदा कुपित न हो, उसकी वार्षिक जात के अलावा राजजात का आयोजन होता है। वार्षिक जात वेदनी बुग्याल तक जाती है और 12-15 साल में होने वाली राजजात होमकुंड तक।

विलियम सैक्स ने नंदा देवी पर गहरा शोध किया है उसकी चर्चित पुस्तक ”माउन्टेन गौडेस” में उसने एक बड़े रोचक तथ्य को उभारा है। नंदा का जो रूप शास्त्रों पुराणों से उभरता है वह नंदा का पुरुषवादी सत्ता द्वारा गढ़ा हुआ रूप है। जबकि नंदा के गीतों-जागरों में नंदा का जो रूप उभरता है वह नारीवादी रूप है, ये गीत महिलाओं व दलितों द्वारा पोषित किये गये है व पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाये गये है। नंदा के इन गीतों में सृष्टि की सृजनकर्ता स्त्री (आदिशक्ति) है पुरुष नहीं।

इनकी वाहक महिलायें इनको अति पवित्र मानती है इसलिए विलियम सैक्स ने जब इनकी जानकार महिलाओं श्रीमती शेखावती नौटियाल व श्रीमती जानकी सिंह से इनको रिकार्डिंग के लिए गाने का अनुरोध किया तो वे इन्हें गाने से पहले नहा-धोकर आती व रिकार्डिंग का कार्यक्रम किसी ऐरी-गैरी जगह पर ना होकर मंदिर के प्रांगण में होता था। मगर गांव व क्षेत्र का पुरूष वर्ग इन गीतों को कोई भाव नहीं देता। पुरुषों का विचार था ये गीत मन गढंत है और समय-समय पर बदलते है जबकि शास्त्रों-पुराणों में लिखा अंतिम सत्य है, इसलिये विलियम सैक्स का मानना है कि ये गीत महिलाओं के नजरिये व परिपेक्ष्य को दर्शाने वाले गीत है जो महिलाओं के लिए बने हैं।

हमारे समाज में लोकदेवता से जनता सीधा संवाद करती है। शिकवे शिकायतें उसी तरह होते है, कष्टों का रोना वैसे ही होता है जैसे घर के बड़े बुजुर्ग के सामने। देवताओं से एक रिश्तेदारी भी कुछ इलाके वालों से होती है जैसे भीमताल के पास महरा गांव के महरा लोग कहते है कि घोड़ाखाल (जिला नैनीताल) के ग्वल देवता उनके मामा है, इसी तरह नंदा जहां एक तरफ मां है वह एक बेटी एक ध्याणी (बेटी जो दूर ब्याही गयी है) है और इस देवी जिसमें ढेर से मानवीय गुण हैं की जब एक बेटी के रूप में विदाई होती है तो पूरा माहौल गमगीन हो जाता है। महिलाओं के आंसू छलक पड़ते है वे उसकी डोली को पकड़े आगे जाने से रोकने लगती है, बमुश्किल डोली आगे जाती है, पुरुष उसे मायके जाते वक्त की हिदायतें देते है उसे विदाई के वक्त साज श्रृंगार की सामग्री दी जाती है। मौसमी फल ककड़ी, मक्का वगैरह भेंट किया जाता है रास्ते के लिए। वह अपने मायके से अन्य महिलाओं की तरह खुशी-खुशी ससुराल नहीं जाना चाहती है वह मुड़-मुड़ कर पीछे देखती है। नंदा की डोली को उठाने वाले कहते है ये डोली चढ़ाई में पीटे को आने लगती है क्योंकि नंदा सौरास नहीं जाना चाहती। यहीं डोली उन्हें सौरास जाते समय भारी और वापसी के वक्त हल्की महसूस होती है। लोग मानते है कि नंदा को कई बार समझाना पड़ता है कि तू अपने ससुराल जा हम तुझे भूलेंगे नहीं, तेरा ध्यान रखेंगे। जब भी नई फसल पकेगी हम तेरे लिए भिजवायेंगे, तेरे श्रृंगार की सामग्री भी भिजवायेंगे।
Culture: Nanda Rajjat

”त्वैकें दयूला चूड़ी मुनरी
धान की बालड़ी भी कैलासा भेज्यौला
यो खाल कलैं को भोग लगूँला
बाड़ा मुगरी कैलास द्यूलौ
संतुली का च्यूड़ा कैलास द्यूला
यो दसा अंगुठिया बीस मुनड़ी कैलास द्यूँला
अठसारा कंघी त्वैकू कैलासा भेज्यूला।”

नंदा जब क्यौर के गधेरे को पार करती है तो माना जाता है वह ससुराल में प्रवेश कर गई है। ससुराल क्षेत्र में जनता/महिलाओं द्वारा विलाप रूदन भी कम होता हौ। कुछ लोग तो यह भी कहते है कि नंदा जात के साथ चलने वाले लोगों की आवभगत भी कम होने लगती है।

नंदा की यात्रा जब ऊँचे पहाड़ों में पहुंचती है जब कोहरे के कारण उसका मायका नहीं दिखाई देता है तो लोकगीत में उसकी बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति है।

लुप्या लुप्या कुयेड़ी तू फटायी जावो
ये ऊँची डांडी तुम निसी हवे जाओ
ये धौणी कुलायी तुम छोटी हवे जावो
देख्यणा दवेवा तुम माताजी को देस।

(यानि ए कोहरे तू हट जा अरे ऊँची पहाड़ियो तुम हट जाओ मुझे अपनी माता जी का देस देखना है)

नंदा को ससुराल पहुँचाने की यह रस्म उत्तराखण्ड के निचले पहाड़ी क्षेत्रों से प्रारंभ हो दुर्गम हिमालयी क्षेत्रों तक जाती है। यह एक पूरी परिक्रमा है जो नौटी कांसुवा से चाँदपुरगढ़ी, सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, नन्दकेशरी, फल्दियागांव, मुन्दोली, लोहाजंग, वाण, वेदिनी बुग्याल, कैलू विनायक, रूपकुण्ड से होमकुण्ड तक जाती है और फिर सुतोल, घाट, नंद प्रयाग, कर्णप्रयाग होते हुए वापस नौटी पहुंचती है।

नंदा जात में शामिल होना एक अविस्मरणीय अनुभव है क्योंकि यह सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं है बल्कि इससे हम उत्तराखण्ड के समाज व संस्कृति को समझने की एक बेहतर दृष्टि पाते है। जैसे जहां एक तरफ इसमें विभिन्न देवी देवताओं की बीसियों छंतोलियां आती है वहीं इस यात्रा में लाटा गांव के लोग 16500/फीट ऊँचे कुंवारी के पार को पास कर इसमें शामिल होते है तो मर्तोली गांव के लोग याक (चेवर गाय) की पूंछ को निशाण में सजा कर लाते है। उसकी अलग ही सुन्दरता नजर आती है। ये उच्च हिमालय का प्रतिनिधित्व करते नजर आते है। वही दूसरी तरफ अल्मोड़ा की छंतोली सन् 2000 में 75 वर्ष बाद फिर से शामिल हुई और एक अच्छी परम्परा की शुरूआत हुई। ऐसे ही इस बार की यात्रा में कुछ व्यक्ति मुंबई (महाराष्ट्र) से नंदा की छंतोली लेकर नौ राज्यों से होते हुए इस राजजात में शामिल हुए।
Culture: Nanda Rajjat

नंदा राजजात में समय बदलने पर कई बदलाव आये है जो स्वाभाविक है। पहले इसमें वाण गांव से आगे महिलाओं व दलितों का जाना प्रतिबंधित था मगर 1987 की यात्रा में यह परम्परा थोड़ी टूटी लेकिन सन् 2000 में ध्वस्त हो गयी और 2014 में तो यह प्रतिबंध इतिहास का अध्याय बनकर रह गया। पूर्व में जब 1000-1500 के आस-पास लोग यात्रा के आखिरी चरण तक जाते थे तब दलित व महिलाओं को रोकटोक पाना संभव रहा होगा मगर आज नंदाजात में अपार जनसमूह जाता है वेदिनी बुग्याल में कोई 25-30000 लोग इस वर्ष मौजूद थे। जनता की अपार भागीदारी के कारण इसका स्वरूप बदला है लेकिन  कुछ चिन्ताजनक विषय भी सामने आये है। वाण गाँव से ऊपर का क्षेत्र परिस्थिति की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील है। इस क्षेत्र का इस यात्रा से दुष्प्रभावित होना लाजिमी है। सैकड़ों तम्बुओं को गाड़ने के लिए बुग्याल में खुदाई की गयी। तम्बुओं में पानी प्रवेश न करें इसके लिए इनके इर्द गिर्द नालियां बनायी गयी। प्लास्टिक व अन्य कचरे को पीछे छोड़ा गया। ये सब उस क्षेत्र में हुआ जहां परम्परागत रूप से जोर से बोलना, सीटी बजाना तक अशुभ माना जाता था लेकिन विगत व वर्तमान यात्रा में यहां मंच बनाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे गये। प्रकाश व्यवस्था के लिए जैनरेटरों की व्यवस्था की गयी तो शोर भी हुआ। इस सब की काफी कीमत चुकानी होगी।

पहले यह यात्रा विशुद्ध रूप से धर्म से जुड़ी थी लेकिन अब आवागमन आसान होने, टैन्ट, स्लीपिंग बैग, पैक्ड फूड व ईधन के कारण इसमें भागीदारी साहसिक पर्यटन की दृष्टि से भी बढ़ने लगी है तो वहीं कई लोग बगैर किसी सोच विचार के भी इसमें शामिल हो रहे है। इस कारण इस बार नंदा जात में जो नारे-जयकारे प्रमुख रूप से गूँज रहे थे वे थे ”जय माता की” ”बोल शेरावाली माता की जै” ”बोल जोतावाली माता की जै” ‘‘जय माता दी” का संबोधन तो हर दूसरा व्यक्ति जैसे कर रहा था जैसे किसी अनजान व्यक्ति से मिले नहीं वो बोलेगा ”जै माता दी भाई साब” यह एक खटकने वाली बात थी। वहीं कई नौजवान सिर पर चुनरी बांधे दिख रहे थे जो अजीब लगता था। नंदा को ससुराल ले जाया जा रहा है तो जाहिर है उसको एक बेटी माना जाता है ऐसे में ”जै माता दी” का शोर सांस्कृतिक प्रदूषण लग रहा था।

इस सब के बावजूद नंदा राजजात एक ऐसा अनुभव है जो हर दृष्टि से महत्वपूर्ण है, अविस्मरणीय है।
Culture: Nanda Rajjat
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