विद्रोही व्यक्तित्व : दुर्गाबाई देशमुख

Durgabai Deshmukh
-अव्यक्त

असहयोग आन्दोलन पूरे देश में जोर-शोर से चल रहा था। महात्मा गाँधी पूरे भारत में घूम-घूमकर लोगों को सम्बोधित कर रहे थे। 2 अप्रैल, 1921 को महात्मा गाँधी आंध्रप्रदेश के काकीनाड़ में एक सभा करनेवाले थे। मुख्य कार्यक्रम वहाँ के टाउन हॉल में आयोजित होने वाला था। जब इस बारे में वहाँ के एक बालिका विद्यालय की 12 साल की एक छात्रा को पता चला तो उसने तय किया कि वह वहाँ देवदासी कुप्रथा की शिकार महिलाओं को गाँधीजी से मिलवाएगी। उसने यह भी ठाना कि बुर्का कुप्रथा की शिकार मुस्लिम महिलाओं को भी गाँधीजी से मिलवाएगी। वह चाहती थी, गाँधीजी इन महिलाओं को कुछ ऐसा संदेश दें जिससे ये इन कुप्रथाओं से उबर सकें।
(Durgabai Deshmukh)

अब समस्या यह थी कि गाँधीजी के पास बहुत ही कम समय होता था और स्थानीय आयोजक अपने कार्यक्रम को लेकर ही व्यस्त थे, सो उन्होंने टालने के लिए उस लड़की से कह दिया कि यदि उसने गाँधीजी को चंदे में देने के लिए पाँच हजार रुपये (उस समय एक बहुत बड़ी राशि) इकट्ठे कर लिए तो गाँधी जी का दस मिनट का समय उन महिलाओं के लिए मिल जाएगा। आयोजकों ने हँसी-हँसी में सोचा होगा कि यह बच्ची क्या पाँच हजार रुपये इकट्ठा कर पाएगी। इसके बाद वह लड़की अपनी देवदासी सहेलियों से जाकर मिली और इस शर्त के बारे में बताया। देवदासियों ने कहा कि रुपयों का इंतजाम तो हो जायेगा लेकिन वह रोज आकर उनसे मिले और उन्हें गाँधीजी के देश के प्रति योगदान के बारे में बताए। एक सप्ताह के भीतर ही रुपयों का इंतजाम हो गया।

अब समस्या यह थी कि गाँधीजी का यह कार्यक्रम किस जगह पर रखा जाए। देवदासियाँ और बुर्कानशीं महिलाएँ आम सभा में जाने से हिचक रही थीं। स्थानीय आयोजकों ने कोई मदद नहीं की। इसलिए लड़की ने उन्हें रुपये देने से इनकार कर दिया और खुद ही कार्यक्रम के लिए उपयुक्त जगह की तलाश में जुट गई। वह अपने स्कूल के हेडमास्टर शिवैया शास्त्री के पास गई और अनुरोध किया कि स्कूल के ही विशाल मैदान में कार्यक्रम आयोजित करने की अनुमति दी जाए। अनुमति भी मिल गई। स्थानीय आयोजकों ने कहा कि गाँधीजी का केवल पाँच मिनट ही इस कार्यक्रम के लिए मिल पाएगा। लड़की ने कहा कि दो मिनट भी काफी है।

स्कूल का मैदान रेलवे स्टेशन और टाउन हॉल के बीच में ही पड़ता था इसलिए गाँधीजी पहले महिलाओं की इस विशेष सभा में पहुँचे। एक हजार से अधिक महिलाएँ जुटी थीं। जैसे ही गाँधीजी ने बोलना शुरू किया, पाँच मिनट बीते, दस मिनट बीते, आधा घंटा बीत गया लेकिन गाँधी लगातार बोलते जा रहे थे। महिलाएँ अपने जेवर-आभूषण, सोने के कंगन, गले के कीमती हार उनके कदमों में रखती जा रही थीं। इस तरह कुल पच्चीस हजार रुपयों की थैली इकट्ठा हो चुकी थी। गाँधी जी ने महिलाओं की मुक्ति पर जोर देते हुए कहा कि देवदासी और बुर्का जैसी कुप्रथाओं को जाना ही होगा। गाँधी जी का यह पूरा भाषण हिन्दुस्तानी में था और इसका तेलगु में अनुवाद वह 12 वर्षीया लड़की ही कर रही थी।

इसके बाद जब वह लड़की सबके साथ गाँधी जी को स्कूल के दरवाजे तक छोड़ने गई, तो गाँधी जी ने उससे कहा- ‘दुर्गा, आओ मेरे साथ मेरी कार में बैठो। दुर्गा कार की पिछली सीट पर कस्तूरबा के साथ जा बैठी। बगल में प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी) भी बैठी थीं। जब गाँधी टाउन हॉल पहुँचे और वहाँ सभा को सम्बोधित करना शुरू किया तो वहाँ के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी कोंडा वेंकटाप्पैय्या ने गाँधीजी के हिन्दुस्तानी में दिए जा रहे भाषण को तेलगु में अनुवाद करना शुरू किया। गाँधी जी ने बीच में ही उन्हें रोककर कहा- ‘वेंकटाप्पैय्या, अनुवाद दुर्गा को करने दो। आज सुबह उसने मेरे भाषण का क्या खूब अनुवाद किया है।’ इसके बाद से गाँधीजी ने जब भी आंध्र का दौरा किया तो दुर्गा ने ही उनके अनुवादक का काम किया। यहाँ तक कि मद्रास की सभाओं में भी अपने भाषण को तमिल में अनुवाद के लिए गाँधी दुर्गा को ही बुलाते थे, जबकि दुर्गा को थोड़ी-बहुत ही तमिल आती थी।

इसके बाद एक दूसरी दिलचस्प घटना हुई। 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन काकीनाड़ा में ही होने वाला था। गाँधीजी तब तक दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना कर चुके थे और इसका मुख्यालय मद्रास में रखा था। इसी के तत्वावधान में पहला हिन्दी साहित्य सम्मेलन कांग्रेस अधिवेशन के साथ-साथ काकीनाड़ में ही होने वाला था। 14 साल की दुर्गा कम उम्र की वजह से कांग्रेस के अधिवेशन में वालेंटियर नहीं बन सकी, लेकिन हिन्दी साहित्य सम्मेलन की एक प्रदर्शनी में उसे वॉलेंटियर बनाया गया।
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उस प्रदर्शनी को देखने जवाहरलाल नेहरू भी पहुँचे। गेट पर खड़ी दुर्गा ने उनसे टिकट दिखाने को कहा। अब न तो नेहरू जी के पास टिकट था और न टिकट खरीदने के लिए पैसे (दो आने) ही थे। दुर्गा ने विनम्रतापूर्वक उन्हें भीतर बिना टिकट प्रवेश करने से मना कर दिया। आयोजकों को जब पता चला, वे दौड़े आए और दुर्गा का कान उमेठते हुए पूछा कि तुम्हें मालूम नहीं है कि ये जवाहरलाल नेहरू हैं। दुर्गा ने कहा कि मुझे मालूम है कि ये नेहरू हैं लेकिन मुझे तो आदेश था कि मैं किसी को भी बिना टिकट प्रवेश न करने दूँ। तब नेहरू के लिए एक टिकट खरीदा गया और दुर्गा ने उन्हें प्रवेश करने दिया। नेहरू के मन पर भी उस लड़की की अमिट छाप पड़ गई और उन्होंने आयोजकों से कहा कि देश को ऐसी ही लड़कियों की जरूरत है जो साहस और प्रतिबद्धता के साथ अपना कर्तव्य पूरा करे।

यह लड़की दुर्गा ही आगे चलकर दुर्गाबाई देशमुख बनीं। 15 जुलाई, 1909 को जन्मी दुर्गा का शुरूआती नाम ‘रेवती’ था। आंध्र के ईस्ट गोदावरी जिले का राजमुंदरी जहाँ दुर्गाबाई का जन्म हुआ, वहीं तेलगु भाषा की जन्मस्थली भी माना जाता है। तेलगु की लिपि और उसका व्याकरण जिन्होंने रचा वह राजमुंदरी के ही थे। ‘राजशेखरा चरित्र’ नाम से तेलगु का पहला उपन्यास लिखने वाले काणुकुरी वीरार्सांलगम भी राजमुंदरी के ही थे।

दुर्गा के पिता बीवीएन रामाराव यूँ तो एक जागरूक समाजसेवी थे, लेकिन दुर्गा के शब्दों में जो एकमात्र गलती उन्होंने अपने जीवन में की, वह यह थी कि उन्होंने केवल आठ साल की उम्र में दुर्गा का बाल-विवाह एक जमींदार के दत्तक पुत्र सुब्बा राव से कर दिया। बाद में, दुर्गा ने जब पन्द्रह साल की उमर में इस विवाह को मानने से इंकार कर दिया तो पिता रामाराव को भी इस गलती का एहसास हुआ। 1929 में जब केवल 36 साल की उम्र में रामाराव का देहान्त हुआ तो मृत्यु से पहले उन्होंने दुर्गा की माँ कृष्णवेणम्मा को बुलाकर कहा कि दुर्गा आगे चलकर जिस किसी दूसरे पुरुष से विवाह करना चाहे, उसे करने देना।
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वहीं इससे पहले दुर्गा अपने बाल-विवाह वाले पति सुब्बा राव को बुलाकर कह चुकी थीं कि तुम अपने पसंद की किसी अन्य लड़की से विवाह कर लो। इस पर सुब्बाराव ने दुर्गा से लिखित में एक सहमति पत्र माँगा जो दुर्गा ने दे दिया। सुब्बा राव ने मायम्मा नाम की एक लड़की से विवाह किया था। उल्लेखनीय है कि 1941 में जब सुब्बा राव का देहान्त हो गया और मायम्मा के साथ उसके ससुराल वाले अत्याचार करने लगे तो दुर्गाबाई ने उन्हें अपने पास बुला लिया और अपने द्वारा स्थापित ‘आंध्र महिला सभा’ में प्रशिक्षण दिलाकर स्वावलम्बी बनाया और बाद में वे हैदराबाद के रीजनल हैंडीक्राफ्ट इंस्टीट्यूट में शिक्षिका बन गईं।

दुर्गाबाई देशमुख का जीवन दिखाता है कि कैसे एक अकेली कस्बाई लड़की ने आजादी की लड़ाई के दौरान और आजाद भारत में भी अपनी लगन, साहस और आत्मविश्वास से अपने लिए एक अहम स्थान बनाया। दुर्गाबाई केवल 14 साल की थीं जब उन्होंने अपने छोटे से घर के एक हिस्से में ही ‘बालिका हिन्दी पाठशाला’ चलाना शुरू कर दिया था। काकीनाड़ा कांग्रेस अधिवेशन से पहले वे 400 से अधिक महिला स्वयंसेवकों को हिन्दी सिखा चुकी थीं। बाद में किसी सज्जन ने उन्हें एक बड़ा स्थान इसके लिए मुहैया कराया। इस पाठशाला में चरखा चलाना और कपड़ा बुनना भी सिखाया जाने लगा। अपनी खासियतों की वजह से उस समय यह पाठशाला अचानक ही राष्ट्रीय स्तर पर जानी-पहचानी जाने लगी। चितरंजन दास, कस्तूरबा गाँधी, मौलाना शौकत अली, जमनालाल बजाज ने पूछा कि इस पाठशाला की प्रधानाध्यापक कौन है, जब बुलुसु सांबार्मूित जैसे स्वतंत्रता सेनानी ने 14 साल की दुर्गाबाई के बारे में बताया तो उन्हें एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ। उन्होंने दो अवसरों पर दुर्गाबाई को र्आिथक सहयोग देने की पेशकश भी की, लेकिन दुर्गाबाई ने विनम्रतापूर्वक मना करते हुए कहा कि जब ऐसी जरूरत पड़ेगी तब वह माँग लेगी।
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धीरे-धीरे दुर्गाबाई पूरी तरह से आजादी की लड़ाई में कूद गईं। इस दौरान मद्रास में नमक सत्याग्रह का आन्दोलन शुरू किया। इस बीच उन्हें तीन बार जेल भी जाना पड़ा। एक बार तो उन्हें मदुरै जेल में एक साल का एकांत कारावास भी झेलना पड़ा था। इसके चलते वे अस्वस्थ हो गईं और कुछ दिन गाँधीजी के आश्रम में गाँधीजी और कस्तूरबा के साथ भी रहीं। इसके बाद उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने सपने को फिर से पूरा करने की ठानी। बहुत तैयारियों के बाद मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू.) से उन्होंने विशिष्टता के साथ मैट्रिेक की परीक्षा पास की। इस दौरान उन्होंने मालवीय जी का भी ध्यान खींचा। मालवीय जी की मदद से उन्होंने बीएचयू से ही इंटरमीडिएट की परीक्षा भी विशिष्टता के साथ उत्तीर्ण की। इसका पुरस्कार देने के लिए स्वयं महात्मा गाँधी को वहाँ आमंत्रित किया गया था। दुर्गाबाई को अपने हाथों से यह पुरस्कार देते हुए महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘तुमने जीवन के इस क्षेत्र में भी कमाल किया है दुर्गा!’

लेकिन इसके बाद दुर्गाबाई को महिला होने के चलते एक अजीब तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा। राजनीति के जरिए सेवा में रुचि होने की वजह से दुर्गाबाई राजनीति विज्ञान में ही बी.ए. करना चाहती थीं। लेकिन मदन मोहन मालवीय इस विषय को केवल पुरुषों के लिए उपयुक्त समझते थे। उन्होंने दुर्गाबाई को बीएचयू में राजनीति विज्ञान से बी.ए. करने की अनुमति नहीं दी। लेकिन दुर्गाबाई ने हार नहीं मानी। उन्होंने आंध्र विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की सोची। वहाँ के कुलपति डॉ. सी.आर. रेड्डी एक लंबी बहस के बाद दाखिले पर तो सहमत हो गए, लेकिन नया बहाना पेश कर दिया कि हमारे यहाँ तो महिलाओं के लिए हॉस्टल ही नहीं हैं।

दुर्गाबाई ने अब भी हार नहीं मानी। उन्होंने अखबार में इश्तहार दिया कि जो भी लड़कियाँ हॉस्टल के अभाव में आंध्र विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं ले पा रही हैं, वे उनसे सम्पर्क करें। लगभग दस लड़कियों ने उनसे सम्पर्क किया। इन दसों लड़कियों ने मिलकर एक उपयुक्त जगह की तलाश की और खुद ही एक गल्र्स हॉस्टल की शुरूआत कर दी। फिर इन सबने कुलपति से मिलकर कहा कि उन्हें उनकी पसंद के कोर्सों में दाखिला दिया जाए। इस तरह दुर्गाबाई ने 1939 में उस समय एम.ए. के समकक्ष माना जाने वाला स्पेशल बी.ए. ऑनर्स कोर्स प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए पास किया। इस उपलब्धि के लिए उन्हें लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में पढ़ने के लिए टाटा स्कॉलरशिप मिल गई और इनर टेंपल जैसे संस्थान में कानून पढ़ने के लिए भी एक सीट मिल गई। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो जाने की वजह से वे ब्रिटेन न जा सकीं। उन्होेंने मद्रास के लॉ कॉलेज से कानून की डिग्री हासिल की।
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लॉ कॉलेज में पढ़ते हुए दुर्गाबाई ने मद्रास में ही ‘आंध्र महिला सभा’ की नींव रखी। महिलाओं की शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण और महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में  इस संस्थान ने अपनी खास पहचान बनाई और देशभर के कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इसके प्रयासों से जुड़े जिनमें सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, जयपुर के महाराजा विक्रमदेव वर्मा, मिर्जापुर की महारानी और डॉ. बीसी रॉय प्रमुख रहे। 1946 में मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ के नए भवन की नींव रखने स्वयं महात्मा गाँधी गए थे। उसी साल दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में योगदान के लिए महात्मा गाँधी के हाथों ही उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया।

आजादी के बाद संविधान सभा की गिनी-चुनी महिला सदस्यों में वे प्रमुख थीं और इसके सभापति के पैनल में वे अकेली महिला थीं। संविधान सभा और बाद में अंतरिम सरकार में होने वाली बहसों में वे बढ़चढ़कर हिस्सा लेती थीं। खासकर वंचितों और महिलाओं के अधिकारों और बजटीय प्रावधानों के लिए वे मंत्रियों को परेशान करके रखती थीं। एक बार तो उन्होंने वित्तमंत्री डॉ. जॉन मथाई और उनके परवर्ती सीडी देशमुख को गरीबों के सवाल पर संसद में इस तरह घेरा कि डॉ. अम्बेडकर ने बहुत खुश होते हुए कहा- ‘दिस वूमन हैज़ एबी इन हर बोनट’ (किसी विषय या मुद्दे को आसानी से न छोड़ना)।

सरदार पटेल का बहुत अधिक स्नेह दुर्गाबाई को मिला। एक बार संसद में दुर्गाबाई ने हिन्दी में इतना जोरदार भाषण दिया कि सरकार पटेल वाह-वाह कर उठे। उसके बाद से उन्होंने सप्ताह में एक दिन दुर्गाबाई को खाने पर बुलाना शुरू कर दिया। अपनी बेटी मणिबेन के साथ सरदार एक बार मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ को देखने भी गए।

अब आखिर में दुर्गाबाई के जीवन का वह अध्याय जिसके बिना यह आलेख अधूरा रह जाएगा। वह है दुर्गाबाई राव से उनके दुर्गाबाई देशमुख बनने की कहानी। चिन्तामणि द्वारकानाथ देशमुख (सीडी देशमुख) अपने दौर के सबसे मेधावी युवकों में थे और विश्वविद्यालयों से लेकर आईसीएस तक की परीक्षा में वे टॉपर रहे थे। गोलमेज सम्मेलनों से लेकर अन्य कई महत्वपूर्ण  जिम्मेदारियों का उन्होंने सफलतापूर्वक निर्वहन किया था। आजादी के बाद उन्होंने लगातार कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को सम्भाला। वे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पहले भारतीय गर्वनर बने। बाद में वे भारत के द्वितीय वित्तमंत्री भी बने। योजना आयोग की स्थापना के समय से ही वे इसके सदस्य बने। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष और नेशनल बुक ट्रस्ट के संस्थापक सभापति भी रहे। तिलक से लेकर महात्मा गाँधी और बाद में नेहरू के साथ उनके आत्मीय सम्बन्ध रहे। उनका पहला विवाह लंदन में ही रोज़ीना नाम की एक ब्रिटिश युवती से हुआ था। 1949 में रोज़ीना का देहान्त हो गया।
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दुर्गाबाई संसद में वित्तमंत्री देशमुख को कई बार गरीबों के प्रश्न पर घेर चुकी थी। इसके बाद योजना आयोग के प्रथम पाँच सदस्यों के रूप में देशमुख और दुर्गाबाई एक साथ थे। इस तरह दोनों की ठीक से जान-पहचान हुई। दोनों की जीवन शैली एकदम भिन्न थी। देशमुख जहाँ अपनी अंग्रेजीदां जीवन शैली और पहनावे और भदेस जीवन शैली के लिए जानी जाती थीं। दुर्गाबाई ने लिखा है कि उन्हें तो फैशनेबल चप्पलें तक पहननी नहीं आती थीं।

इस बीच एक दिन देशमुख दुर्गाबाई को अपने बगीचे में एक यूकेलिप्टस के पेड़ के पास ले गए और उसके तने पर संस्कृत में दो श्लोक लिखे, जिसका निहितार्थ वास्तव में विवाह का प्रस्ताव था। दुर्गाबाई ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 22 जनवरी, 1953 को दोनों का विवाह हुआ जिसमें प्रथम गवाह की भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने निभाई। विवाह से ठीक पहले दुर्गाबाई योजना आयोग से अपना इस्तीफा लेकर नेहरू के पास गई थीं कि पति-पत्नी का एक साथ योजना आयोग में रहना ठीक नहीं होगा। इस पर नेहरू ने इस्तीफा नामंजूर करते हुए कहा था कि योजना आयोग में तुम्हारी नियुक्ति देशमुख ने नहीं, मैंने की है।

भारत में लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा के लिए 1958 में बनाई गई परिषद् ‘नेशनल काउन्सिल फार वीमेन्स एजुकेशन’ का प्रथम अध्यक्ष दुर्गाबाई देशमुख को ही बनाया गया। भारतीय न्यायपालिका में ‘फैमिली कोर्ट’ की व्यवस्था लाने का श्रेय भी उन्हीं को दिया जाता है। सामाजिक शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली नई दिल्ली स्थित संस्था ‘काउन्सिल फॉर सोशल डेवलपमेंट’ की स्थापना भी उन्होंने ही की थी। हिन्दी के प्रति यदि किसी भी दक्षिण भारतीय नेता में सबसे अधिक अनुराग था तो वह निस्सन्देह दुर्गाबाई को ही था। तभी  तो उन्होंने संविधान सभा में हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था।

अगली बार जब आप अपने बच्चों को लेकर दिल्ली मेट्रो की पिंक लाइन से गुजरें और दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस वाले दुर्गाबाई देशमुख मेट्रो स्टेशन पर उतरें,तो अपने बच्चों को जरूर बताएँ कि दुर्गाबाई देशमुख कितनी महान शख्यियत थीं।
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समरथ, जुलाई-सितम्बर 2019 से साभार

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