उत्तरा का कहना है

धर्म, संस्कृति, परंपरायें और शिक्षा किसी भी समाज के निर्माण और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। होना तो यही चाहिये कि ये घटक समाज और उसमें रहने वाले सभी लोगों के लिए कल्याणकारी हों। हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ ऐसी हों कि हम उन पर गर्व कर सकें और अन्य समाजों के लिये उदाहरण बन सकें।

भारतीय संदर्भ में संस्कृति की बात उठती है तो इसे समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा का द्योतक प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है। धर्म- सनातन धर्म को इसकी रीढ़ माना जाता है। धर्म जो करने और न करने वाले कार्य और व्यवहार का निर्धारण करता है। होना तो यह चाहिये था कि इसमें बराबरी का भाव रहता लेकिन इसने मानव मात्र में भेद और गैर बराबरी को प्रश्रय दिया है। दलित वर्ग बनाया और स्त्री व दलितों के लिये बहुत सारे निषेध-नियमों में शामिल कर लिये। जो संस्कार रूप में सामाजिक विरासत के रूप में पीढ़ियों से चलते रहे। शिक्षा में भी निरंतर इन्हीं जीवन मूल्यों को पोषण मिलता रहा। इस बीच शनि शिंगणापुर के मन्दिर में पूजा अर्चना के अधिकार के लिये महिलायें आन्दोलनरत हैं और मीडिया तथा समाज में एक व्यापक बहस छिड़ी हुई है। महिलायें मन्दिर परिसर में बाहर लेटकर अपना विरोध प्रर्दिशत कर रही हैं तो विभिन्न धर्म गुरु मन्दिर प्रवेश के विरोध में अपने तर्क दे रहे हैं। एक बार फिर स्त्रियों के अपवित्र होने की बात उठ गई है। सबरीमला के मन्दिर में भी जहाँ लम्बे संघर्ष के बाद रजस्वला होने से पूर्व और रजोनिवृत्ति के उपरान्त स्त्रियों का प्रवेश मान्य हुआ वहाँ रजस्वला स्त्री की जाँच की बात उठ गई है। माह के इन चार-पाँच दिनों में धार्मिक कार्यों (और भी कई कार्य) में स्त्रियों की सहभागिता का निषेध तो वर्षों से समाज में मान्य रहा है और स्त्रियाँ भी इसे स्वीकार करते हुए स्वयं इन दिनों मन्दिर जाने या पूजा आदि से अपने को अलग रखती हैं।

मन्दिर प्रवेश या देवता विशेष के पूजन, अभिषेक अथवा स्पर्श को लेकर जो बहस मुबाहसा है वह भी आखिर क्या है? हमारे वे देवता विभिन्न स्थलों पर शक्ति पीठों में शक्ति के रूप में अवस्थित हैं या प्रतीक रूपों में अनगिनत मन्दिरों में स्थापित हैं उनके अभिषेक से ही क्या हासिल हो जाने वाला है? सर्वत्र विद्यमान ईश्वर का क्या निरंतर दलितों और स्त्रियों से स्पर्श नहीं होता है। क्या कोई भी मनुष्य शुद्ध और अशुद्ध रूप में इन शक्तियों के स्पर्श और संसर्ग में नहीं रहता? शनि एक ग्रह है, यह हमारे संत समाज का कहना है। शनि ग्रह ही नहीं एक क्रूर ग्रह भी है और इसकी दृष्टि बहुत हानिकारक होती है उसी से बचाने के लिये स्त्रियों को शनि के अभिषेक का निषेध किया गया। इससे दो सवाल उठते हैं, एक तो यह कि अगर वह क्रूर है तो उसे देवता के रूप में मानकर उसके पूजन का उद्देश्य क्या है? वैसे लोगों का यह भी मानना है कि जब वह कृपा करता है तो बहुत कृपा करता है। यही धर्मगुरु यह भी कहते हैं कि जो शनिदेव के मन्दिर हैं, वहाँ स्त्रियाँ पूजन कर सकती हैं और पंडित उन्हें व्रत करने और मन्दिरों में पूजन करने, शनि का दान करने, चढ़ावा चढ़ाने की सलाह भी देते हैं।

सवाल यह उठता है कि यहाँ पर यह सवाल आस्था का रह जाता है या व्यवसाय का बन जाता है मन्दिरों में चढ़ावा आता है तो वह पुजारियों की या ट्रस्ट की कमाई बन जाता है।

मामला सिर्फ शनि शिंगनापुर या सबरीमला का नहीं है, अब सवाल त्र्यम्बकेश्वर का भी जोर पकड़ रहा है। जहाँ महिलाएँ गर्भ गृह के बाहर से ही पूजा कर सकती हैं। यहाँ भी महिलाएँ आन्दोलनरत हैं। भू माता ब्रिगेड बनी हैं जो महिलाओं के प्रतिबन्धित मन्दिर क्षेत्र में प्रवेश के लिए जहाँ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं वहीं सरकार के सम्मुख और अदालतों में भी अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। धार्मिक स्थलों पर प्रवेश के मसले की इसी कड़ी में हाजी अली की दरगाह, मुम्बई का उदाहरण भी जुड़ जाता है। वहाँ भी बहसें खड़ी की जा रही हैं और महिलाएँ अपने ठोस तर्कों के साथ वहाँ मौजूद हैं।
(Editorial)

महिलाओं के इस आन्दोलन से पूरे समाज में एक बहस छिड़ गई है। पक्ष और विपक्ष में लोग बोल रहे हैं। यही नहीं पूरा सन्त समाज भी उस मुद्दे पर कई खेमों में बँट गया है। कुछ महिलाओं के आन्दोलन को सही मान रहे हैं तो कुछ इस बात पर अड़े हैं कि महिलाओं को मन्दिर के स्थल विशेष पर पूजा या प्रवेश का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। सबरीमला में जहाँ युवा महिलाओं के लिए प्रवेश र्विजत है, वहाँ भी महिलाएँ अदालत में गई हैं।

कट्टरतावादी सदियों से चली आ रही परम्परा का हवाला दे रहे हैं। लेकिन जब आज हम प्रगतिशीलता की बात करते हैं, जीवन के हर पहलू में हमारा बदला नजरिया सामने आता है, नये के स्वागत के लिए बहुत-से व्यवहार हमने बदले हैं तब परम्पराओं के नाम पर यह वर्जना क्यों? और कब तक?

सवाल सिर्फ रूढ़ परम्पराओं का ही नहीं है, जिससे ये वर्जनाएँ पोषित हो रही हैं। सवाल स्त्री के अधिकारों का भी है जिसमें धर्म के नाम पर स्त्री को हमेशा दबाया गया है, उसका शोषण किया गया है। धर्म के नाम पर उस पर तरह-तरह की अमानवीय परम्पराएँ थोपकर उसे बँधवा मजदूर बना दिया गया। उसकी सोच पर तक पहरे बैठा दिये गये। धर्म का भय दिखाकर उस पर सती प्रथा जैसी अमानवीयता बरती गई। पति को देवता बनाकर प्रस्तुत किया। ईश्वर की पूजा तथा धर्मग्रन्थों के पठन-पाठन तक पर रोक रखी है। पुरुष ने धर्मग्रन्थ बनाये और उनका हवाला देकर स्त्रियों को उन पर चलने के लिए विवश किया। जन्म-जन्मान्तर के दोषियों का हवाला दिया और धर्म को एक महाकाय रूप में उसके सामने प्रस्तुत किया।

वर्षों के लम्बे संघर्षों के बाद स्त्री ने आजादी के कुछ आयाम जीते हैं और यह अहसास पाया है कि वह भी वैसी ही प्राणी है जैसा कि पुरुष। वह भी व्यक्ति है। उसके भी जीने के वही अधिकार हैं जो पुरुष कै हैं। उसे भी वही जीवनी स्थितियाँ मिलनी चाहिए जैसी पुरुष को।

और फिर हमारा संविधान भी तो इसी बराबरी की बात करता है। जातिर्, लिंग और धर्म के आधार पर बराबरी। अगर आज महिलाएँ पुरुषसत्ता के गढ़ इन धार्मिक स्थलों पर प्रवेश का अधिकार माँग रही हैं तो क्या गलत है? यह तो उनका अधिकार है। संविधान सम्मत अधिकार जिसे मान्यता दी ही जानी चाहिए, संवैधानिक रूप से भी और सामाजिक रूप से भी।

भले ही वे उस अधिकार का प्रयोग करें या न करें। यह उनका व्यक्तिगत मामला है। महिलाएँ इस मुगालते में भी क्यों रहें कि मन्दिरों में जाकर ही उन्हें कुछ मिलना है।

सवाल यह उठता है कि गैर बराबरी या भेदभाव के विरोध में उठी ये आवाजें फिर उसी चक्रव्यूह का हिस्सा क्यों बन जाती हैं? उसी में क्यों घूमना चाहती हैं? उससे मुक्त क्यों नहीं होना चाहिए? हम आडम्बरों का विरोध करने की जगह एक और आडम्बर क्यों ओढ़ लेते हैं?
((Editorial)
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