उत्तरा का कहना है
निर्भया काण्ड से तरुण तेजपाल प्रसंग तक देखा जाय तो हमारे समाज में एक स्त्री की स्थिति क्या है, यह साफ हो जाता है। 2012 के प्रस्थान और 2013 के आगमन के दिनों में ऐसा लग रहा था, जैसे अब वह अकेली युवती नहीं, बल्कि इस देश की जन्म से मृत्यु के बीच की अवस्था वाली समस्त स्त्री-योनि ही निर्भया होकर जी सकती है। इतने शब्दों की गूंज, इतने बढ़ते कदम, इतने उठते हाथ, वक्तव्य, प्रदर्शन, समितियां, कानून जैसे सब मिलकर स्त्री-जाति की रक्षा के लिए तत्पर हो गये।
आखिर स्त्री की सुरक्षा का यह प्रश्न क्यों ? यह प्रश्न ही उसे कमजोर कर देता है। घर, समाज, कार्यस्थल हर जगह सुरक्षा का सवाल। सुरक्षा भी यौन हिंसा से जिसकी आशंका उसे अपने साथी, संरक्षक या फिर अपने ही समाज के किसी भी व्यक्ति से हो सकती है। यह हिंसक व्यक्ति सब जगह क्यों मौजूद है ? हर कहीं हमलावर क्यों खड़ा है ? अपने आप को असुरक्षित समझने की मानसिकता क्यों है ? यह स्त्री को तुच्छ समझने का भाव है या पुरुष अपने भीतर के पशु को नकार नहीं पाता ? बदला लेने की भावना जब हावी होती है तो दूसरे पक्ष की स्त्रियां ही क्यों दिखाईं देती हैं ? क्रोध या भावातिरेक में जब गालियां निकलती हैं तो उनका लक्ष्य भी स्त्रियां, जो तथाकथित मां-बहिनें कही जाती हैं, क्यों बनती हैं।
आखिर इक्कीसवीं सदी में आकर भी हुए हमारे कदम किस ओर जा रहे हैं ? हमारी दिशाएं हमें कहां ले जा रहीं हैं ?हमारे बीच बाहर और भीतर का इतना अन्तर्विरोध क्यों है ?
निर्भया कहकर उस युवती को पुकारा गया। निर्भया योजना शुरू कर दी गई। निर्भया कवच जैसी शब्दावली सामने आ गई लेकिन यह सब वाग्जाल है। इन तमाम घटनाओं ने समाज को भयग्रस्त ही किया है। भय तो समाज के हर तबके में मौजूद है। सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस भी भला कहां है- न धर्म में, न राजनीति में, न प्रशासन में, न सामाजिक ताने-बाने में, न न्याय प्रणाली में। सब चाटुकारिता और भ्रष्टाचार से आच्छन्न हैं। भय इतना व्याप्त है कि कोई गलत को गलत नहीं कह पा रहा है। आसाराम का भाँण्डा फूटने के लिए भी कितनी नादान लड़कियों को यातना झेलनी पड़ी। तब जाकर एक बालिका ने साहस किया। मीडिया जगत में भी ये बातें यानी मातहत लड़कियों से यौनिक दुव्र्यवहार, न जाने कब से चला आ रहा है। अब जाकर एक युवती तरुण तेजपाल जैसी हस्ती के खिलाफ मुंह खोल पाई है। यौन दुव्र्यवहार जो आये दिन झेलने पड़ते हैं और हर एक के जीवन में ऐसे अनुभव हैं, चाहे वह किसी भी वर्ग की स्त्री हो, लेकिन कौन इनके खिलाफ बोले। शताब्दियों से चुपचाप सहन करते जाने का ही यह परिणाम हुआ है कि पुरुष की हिम्मत बढ़ती जाती है। चार-पांच साल का लड़का भी अपनी समवयस्क लड़की से स्वयं को श्रेष्ठ समझने का प्रशिक्षण प्राप्त करने लगता है और अपने को वैसा ही समझने लगता है।
स्त्री को सिर्फ मादा समझने की यह दृष्टि कहां से पैदा होती है। जन्म से ही अपने चारों ओर स्त्री-समाज से घिरा रहने पर भी पुरुष के भीतर स्त्री के प्रति केवल यौन भाव या एक शिकार के रूप में उसे देखने का नजरिया कैसे विकसित हो जाता है। क्या हमारा समाज व्यापक मानसिक रोगों का शिकार है। यह भी एक बरगलाने वाली बात है जो यौन हिंसा की घटनाएं होने पर हिंसक व्यक्ति को मानसिक विकृतियों से ग्रस्त कहकर टूट दे दी जाय। क्या ए़के़गागुली, आसाराम या तरुण तेजपाल भी मानसिक विकार ग्रस्त हैं ? तब तो बहुत बडे पैमाने पर मानसिक रोगियों का इलाज कराने की व्यवस्था करानी होगी।
editorial
दिसम्बर 2012 में निर्भया पर आक्रमण करने वाले अज्ञातकुलशील थे। उनकी कम शिक्षा, उनका रोजगार, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि इस सबको उनके अमानुषिक व्यवहार के लिए जिम्मेदार ठहराकर जैसे मान लिया गया कि ऐसे लोगों का ऐसा आचरण सम्भव है। यानी मनुष्य होने के बावजूद उनको कमतर समझ लेना। परन्तु दिसम्बर 2013 में जो घटनाएं सामने आईं हैं, उनमें जो बड़े-बड़े नाम हमारे सामने हैं, समाज में उनका कद, प्रतिष्ठा, योग्यता, पहुँच बौद्घिकता सन्देह से परे है। यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति के बाहरी और भीतरी स्वरूप में बहुत दूरियां हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि बाहर से महात्मा की तरह रहने वाले आसाराम को नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार करने में रंच मात्र बुराई नहीं दिखाई देती। अन्यथा जिस लड़की के मां-बाप कमरे के बाहर बैठे प्रतीक्षा कर रहे हों, उसी के साथ कमरे के अन्दर वह बलात्कार कर रहा हो, यह कैसे सम्भव है ? यह भी कैसे सम्भव है कि पुत्री की सहेली के साथ पिता की तरह सम्मानित व्यक्ति लिफ्ट में यौन दुव्र्यवहार कर रहा हो या न्यायमूर्ति की पदवी प्राप्त व्यक्ति न्याय प्रणाली की ही एक प्रशिक्षु को यौन हिंसा झेलने को विवश कर रहा हो। एक धर्मगुरु, लोकतंत्र का एक चौथा स्तंभ, समाज में न्याय-अन्याय की व्यवस्था देने वाला एक माननीय, यदि इनका स्त्री के प्रति यह नजरिया है तो फिर रास्ता कहां है ? समाज में स्त्री की जगह कहाँ है ?
सनातन काल से चला आया धर्म का पाखण्ड है कि थमने का नाम नहीं लेता। एक ओर आसाराम और नारायण जैसे मक्कार और पाखण्डी हैं तो दूसरी ओर उनकी लीलाओं, उनके साम्राज्य को सम्भव बनाने वाले अन्धभक्त मौजूद हैं जिनमें भारी संख्या में स्त्रियां भी हैंं। आंखों में उंगली डालने पर भी जिनकी आंखें नहीं खुल सकतीं। स्त्रियां यह मानने को भी तैयार नहीं कि बच्चों की परवरिश में कहीं न कहीं भेदभाव है, जिसके लिए वे भी जिम्मेदार हैं। वे अभी भी मानती हैं कि लड़की का आचरण नियंत्रित और लड़कों का आचरण निद्र्वन्द्व होना चाहिए। बहुत सी उच्चशिक्षिता और जिम्मेदार पदों पर बैठी हुईं महिलाएं जब स्वीकारने लगती हैं कि लड़कियों की वेशभूषा भी यौनिक हिंसा के लिए जिम्मेदार है तो उनके सोच की अस्पष्टता दूसरों को भी भ्रमित करने का काम करने लगती है और इस तरह कहीं न कहीं समाज को पीटे ही ले जाती है।
कानून है कि बलात्कार पीड़िता का नाम गुप्त रखा जाय। भय है कि नाम जाहिर होने पर उसे सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी। कौन है जो उस पर सामाजिक प्रताड़ना थोपता है। बलात्कारी पुरुष सर उठाये समाज में बिराजमान रहता है। रोज अखबारों में उसकी फोटो छपती है, उसके समर्थक उसके पक्ष में प्रदर्शन करते हैं, वकील उसके लिए जिरह करते हैं, बड़े-बड़े लोग जो हमारे समाज के कर्णधार माने जाते हैं, बलात्कारी पर लगाये गये आरोपों पर अविश्वास जाहिर करते हैं और बलात्कार पीड़िता को अपनी पहचान भी टुपानी है। क्यों ऐसा फतवा हमारा समाज और कानून देता है ? क्या वह निर्भया नहीं हो सकती ? उसने क्या अपराध किया है, जो उसे मुंह टुपाना पड़े ? इस रूढ़ि को भी हमें छिन्न-भिन्न करना होगा। अस्मत लूटना, इज्जत लूटना ये मुहावरे भी खारिज होने चाहिए। इज्जत के नाम पर खाप पंचायतें बेहूदे फैसले सुना रही हैं। समाज के इन ठेकेदारों से पूछा जाना चाहिए, जिस स्त्री को तुम पैरों की जूती समझते हो, वही तुम्हारी इज्जत कैसे बन जाती है। स्त्री न तुम्हारी सम्पत्ति है, न ही तुम्हारी इज्जत। वह जो भी है, अपने आप के लिए है।
फिल्मों की भाषा, उनके दृष्टान्त समाज को हिंसा की भट्टी में झोंकने वाले हैं। जब राजनीतिक व्यक्तियों के बयानों पर तत्काल आपत्ति की जा सकती है तो व्यापक पैमाने पर जनजीवन को प्रभावित करने वाली फिल्मों और टी वी चैनलों की भाषा और व्यवहार को भी निरस्त करने की जरूरत है। समाज में गहराई तक जड़ें जमाये हुए इतनी बातें हैं कि उनकी ओर संकेत करें तो आश्चर्य होता है कि ऐसा सोच बना क्यों है ? क्या भाषा, क्या हाव-भाव, क्या संकेत, स्त्री के खिलाफ ही क्यों गढ़े गये हैं ?
क्या यह सब नैतिकता का पाठ पढ़ाने जैसा है ? जैसे कि तमाम छोटे-बड़े नेतागण कह रहे हैं, लड़कियों से टेड़छाड़ नहीं होगी तो इश्क कैसे होगा। या लड़कियों से बात करने में भी डर है। या निजी सचिव कैसे रखा जाय लड़कियों को। साथ में धमकियां भी हैं कि अब लड़कियों को नौकरियां मिलना मुश्किल हो जायेगा। यह घोर स्त्री-विरोधी मानसिकता तो है ही, चेतावनी भी है कि नौकरी चाहिए तो यौन-उत्पीड़न तो सहना ही होगा। जिस वर्ग से ये बातें आ रही हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह लड़ाइ्र्र अभी भी बहुत कठिन है।
सदियों से महिलाएं घरों में थीं। कार्यक्षेत्र विभाजित था। घर महिलाओं का, बाहर पुरुषों का। जो घर में थीं, उनके लिए हजार पाबन्दियां थीं। जो बाहर थे, उनके लिए सब टूट थी। पातिव्रत्य, कौमार्य, सतीत्व जैसे यौन आचरण के द्योतक शब्द सब स्त्रि़यों के लिए थे। इनके सहायक शब्द भी थे -लज्जा, शील, सहनशीलता, चुप्पी आदि। ये सब स्त्रियों की दुनियां से जुड़ी हुईं बातें थीं। पुरुषों की दुनियां इसके एकदम विपरीत थी। आज स्त्रियां हर जगह मौजूद हैं। युग-युगों से निद्र्वन्द्व मानसिकता लिए हुए पुरुष को वे अपना शिकार नजर आ रही हैं। क्या स्त्रियों ने अपने को बदला नहीं ? घर से बाहर आने के लिए उसने स्वयं को बदला है अवश्य। कड़ी मेहनत स्त्री-समाज ने की है, अपने को बाहर की दुनियां में सहज बनाने के लिए। स्त्री की यौनिकता पर जो पहरे थे, उन पर भी उसने सवाल खड़े किये हैं। वह भी स्वतंत्र विचरण कर सके इस देश-काल में, इसके लिए पुरुष वर्ग को निश्चित ही अपना रवैया, अपनी निगाहें, अपनी उच्छृंखलता पर अंकुश लगाना पड़ेगा। स्त्री के लिए जगह बनानी है तो आपको अपने को समेटना तो पड़ेगा ही।
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