उत्तरा का कहना है
दामिनी के साथ बर्बर व्यवहार के प्रतिरोध में जब बहुसंख्य युवा न्याय की माँग के साथ सड़कों पर उतरे और विपरीत मौसम व प्रशासन के सामने डटे रहे तथा सारा देश उनके समर्थन में उमड़ पड़ा तो तमाम व्यवस्थाओं को उनका संज्ञान लेने पर मजबूर होना पड़ा। अब सारे सवाल नये सिरे से सोचने पर मज़बूर कर रहे हैं। आजादी के 65 वर्ष बीत जाने पर भी स्त्री के लिये आजादी कहाँ है। संविधान में बराबरी का दर्जा दिये जाने के बावजूद आज भी स्त्री की हैसियत दोयम दर्जे की है। पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री को हर नया मुकाम हासिल करने के लिये कड़ा संघर्ष करना पड़ता है और हर बार खुद को साबित करना पड़ता है। आज जिस तरह से समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा महिला हिंसा के विरोध में एकजुट हुआ है, उसने हमें विषय की गम्भीरता और हमारे समाज की भयावह सच्चाई से रू-ब-रू कराया है।
सामाजिक चेतना के दबाव में बहुत कुछ सम्भव हो जायेगा। नये और कड़े कानून बन जायेंगे। व्यवस्था के विभिन्न घटक चाक-चौबन्द नजर आयेंगे। लेकिन उस मानसिकता का क्या होगा जो मानती है कि स्त्री का अस्तित्व सिर्फ और सिर्फ पुरुष के लिये है। वह पुरुष का वंश चलाने तथा उसका और उसके परिवार का लालन-पालन करने के लिये है। इसके बदले में पुरुष उसे जो भी देता है यह उसकी कृपा है। स्त्री-अधिकारों की जब भी बात उठती है, उसके तेवर बदल जाते हैं। पुरुष को यह उसके अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण लगता है। वर्षों से या यूँ कहें सदियों से हमें इसी सोच के साथ जीने की आदत पड़ गई है। इसलिये स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को आज भी समाज स्वीकार नहीं करता। दामिनी के संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का यह कथन कि बलात्कार की अधिकतर घटनाएँ ‘इडिया’ में होती हैं, ‘भारत’ में नहीं। उनके अनुसार ऐसी घटनाओं की वजह पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है, इसीलिये यह अपराध मुख्य रूप से शहरों में होता है। जबकि वास्तविकता में विगत कई वर्षों के महिला संगठनों के अनुभव इसके विपरीत हैं। वे निरंतर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के साथ हो रहे यौनिक हिंसा के मामलों से जूझ रहे हैं। कहना न होगा उनका यह बयान संघ की विचारधारा का पोषक है और वह इसे संघ की राजनीति के प्रचार का माध्यम बना रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि संघ की राजनीति में विश्वास कर लेने वाला पढ़ा-लिखा जन भी इस विचार को हवा देने की कोशिश करता नजर आ जाता है। इसी भारतीयता की संस्कृति का नाद आगे बढ़ाते हुए आसाराम बापू मान लेते हैं कि अगर दामिनी पाँवों में गिरकर गिड़गिड़ाती और उनमें से किसी एक को भाई बना लेती तो वह बच जाती। उन्हें यह मालूम ही नहीं कि देश में बहुत सारे मामले ऐसे सामने आये हैं जिसमें पिता और नजदीकी रिश्तेदार-भाई ही बलात्कार के आरोपी हैं। वे मामले तो न जाने कितने होंगे जहाँ परिवार में लड़कियाँ बलात्कार का शिकार हो रही होंगी और चुप हैं। आखिर उन्हें लक्ष्मण रेखा जो पार नहीं करनी लक्ष्मण रेखा पार करती है तो परिवार की इज्जत चली जायेगी। परिवार की इसी इज्जत के नाम पर उसे हमेशा से दबाया जाता रहा है। हमारे एक विधायक का मानना है कि स्त्री घर सम्भाले और पुरुष कमाकर लाये। अगर पुरुष नहीं कमाता है तो स्त्री उसे छोड़ दे और अगर स्त्री घर नहीं सम्हालती है तो पुरुष उसे छोड़ दे। ….. ऐसे स्त्री-पुरुषों का समाज क्या करे?
यह तो उन प्रतिक्रियावादियों के विचार हैं जो हमेशा ही स्त्री को अपनी सम्पत्ति मानते हैं, जो स्त्री स्वतंत्रता के घोर विरोधी हैं और उसे केवल अपने इशारे पर नचाना चाहते हैं। बलात्कार जैसे संगीन अपराधी के बदले वे पीड़िता को भी इसके लिये दोषी मान लेते हैं। लड़कियों के पहनावे और व्यवहार पर टीका-टिप्पणी करते हैं। उनके अनुसार लड़कियों के तौर-तरीके ऐसे अपराधों के कारण बनते हैं। लेकिन जब चार-पाँच साल की लड़की हो या पचास-पचपन की उम्रदराज स्त्री, यहाँ तक कि अस्सी वर्ष की वृद्घा भी हिंसा का शिकार हो जाती है, तब किस पहनावे को देखें, किस भंगिमा की बात करें। ऐसा नहीं है कि समाज का यह सच उनसे छिपा हुआ है, वे केवल अपनी विचारधारा को समाज पर हावी रखने के लिये ऐसे तर्क गढ़ते रहते हैं। इसमें कहीं बार-बार अच्छी और बुरी स्त्री का प्रचार भी जुड़ जाता है। अच्छी स्त्रियाँ वे जो कुछ भी करें केवल उनके अधीन रहकर करें। पुरुषप्रधान मानसिकता वाली यह पितृसत्तात्मक सोच स्त्री को स्वतंत्र व्यक्ति का दर्जा नहीं देती और स्त्री पर हो रहे तमाम अत्याचारों और शोषण का कारक/सबब बन जाती है।
दामिनी के साथ हुए बर्बर व्यवहार पर उमड़े जनाक्रोश ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया। युवाओं का ज़ायज़ गुस्सा जहाँ जनसैलाब बनकर उमड़ा वहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने साथ न्याय की मांग का ठोस कदम भी बना। व्यवस्था के लिये न केवल इस आवाज़ को अनसुना किया जाना सम्भव नहीं हुआ वहीं सुरक्षा व्यवस्था पर पुनर्विचार करना भी ज़रूरी हो गया।
Editorial
….लेकिन बहुत सारे प्रश्न हैं जो हमारी व्यवस्था के साथ जुड़े हैं। ये राजनीति से भी जुड़े हैं और हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं से भी। इसने हमारी व्यवस्था की पोल भी खोली। मसलन बिना परमिट की गाड़ियाँ सड़कों पर दौड़ना, ऐसे संगीन मामले का पुलिस द्वारा स्वत: संज्ञान न लिया जाना, अधिकार क्षेत्र का विवाद, तुरंत चिकित्सकीय सेवा न मिलना। ये सवाल जितने व्यवस्थागत हैं, उतने ही मानवीय मूल्यों और संवेदनशीलता से भी जुडे हुए हैं। इस तरह के नियम उस समय हावी हो जाते हैं जब आम आदमी किसी संकट में होता है। यही व्यवस्थायें किसी वी.आई.पी. के लिये कितनी बार तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखकर उनकी सहायता को तत्पर नजर आती हैं।
इस बीच कानूनों में सुधार और कड़े कानून बनाये जाने की माँग भी उठी लेकिन केवल नये कानून बन जाने या क़ानूनों के कड़े हो जाने मात्र से कुछ नहीं होगा अगर हम अपनी सोच को नहीं बदलते। हमारी यही सोच है जो सारे नियमों को खोखला और व्यवस्था को अन्यायी बना देती है। इसी सोच को लेकर लोग कार्रवाई करते हैं। थाने में रपट लिखाने में देर इसलिये होती है कि पहले देख लें लड़की का मामला है- बदनामी होगी। पारिवारिक मामला है तो परिवार की बदनामी होगी कभी-कभी बलात्कार जातीय या कमजोर लोगों के खिलाफ़ हथियार के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। सैन्यबल भी शत्रुपक्ष की महिलाओं के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार करता है। नक्सली महिलाओं के साथ पुलिस कस्टडी में बलात्कार के मामले सामने आये हैं। पूर्वोत्तर में अपनी ही सेना ने राज्य की महिलाओं के साथ बलात्कार किया, साम्प्रदायिक दंगों में भी यही कहानी दोहराई जाती रही है। उत्तराखण्ड राज्य की माँग कर रही महिलाओं पर भी दमन के लिये बलात्कार को हथियार बनाया गया। सामान्य लोगों में भी जब लड़ाईयाँ होती हैं तो परिवार की महिलाओं के लिये यही धमकी दी जाती है। अमूमन लोग अपनी भाषा में इसी गाली वाले मुहावरे के साथ बात करते हैं। आज के बाजारवादी मीडिया में केन्द्रबिंदु स्त्री है, स्त्री का शरीर है और पितृसत्ता को पुष्ट करते महिला चरित्र हैं। विज्ञापन और फैशन शो के नाम पर स्त्री की नुमाइश है। स्कूलों में यौन शिक्षा के सवाल पर दस सवाल और बबाल हैं, लेकिन मीडिया जो परोस रहा है उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। भूमंडलीकरण और उदारवादी आर्थिक नियोजन में हर किसी को बाजार बनाना है। इस बाजार के लिये स्त्री देह से अच्छी कोई सर्वसम्मत वस्तु नहीं है। आजकल टी.वी. पर एक विज्ञापन आ रहा है….टायर का जिसमें किसी भी गलत काम को न करते हुए कहा जाता ना बाबा मुझे पता है कहाँ रुकना है। हमें भी यह तय करना ही होगा कि कहाँ पर रुकना है।
विकास की यात्रा में विज्ञान और तकनीकी जन्मे सिनेमा का आरम्भिक दौर किसी अच्छे साहित्य की तरह था जिसमें लोकरुचि औा लोकहित की भावना को ध्यान में रखा जाता था। जो मनोरंजन के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की बात भी करता था। सामाजिक बदलावों के साथ विषयवस्तु से लेकर प्रस्तुति सभी में अंतर आया मूल्य मानक बदले लेकिन केवल आर्थिक पक्ष को महत्व देने के कारण उसमें आज स्त्री को आइटम बना दिया है। लड़कियों के नाम पर बने ये आइटम सोंग (गीत) भयावह उत्तेजना पैदा करते हैं और लड़कियों में शर्मिंदगी। ब्ल्यू फिल्में बनाने में तो स्त्री का शोषण इन फिल्मों को बनाने में तो हो ही रहा है, स्त्रियों के प्रति लोगों की गंदी और कामुक भावनाओं को भी पढ़ा रहा है। गरीबी या किसी भी रूप में असहाय असंख्य लड़कियों को जबरन या बहला फुसला कर वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेला जा रहा है। विवाह के नाम पर भी गरीब और पिछड़ी जगहों से लड़कियों को बेचना और खरीदना भी बदस्तूर चल रहा है। क्योंकि उसकी अहमियत एक वस्तु की है जिसे पुरूष के उपयोग का कैसा भी रूप दिया जा सकता है। उसके साथ कोई हादसा हो जाये तो उसका स्वतंत्र अस्तित्व न मानने वाला परिवार उसके लिये कुछ नहीं कर पाता या करता। भारत और इण्डिया का फर्क उन परम्पराओं में देखा ला सकता है जिसमें देवदासियाँ भी हैं और बनारस या मथुरा में भटकती विधवायें भी, जिनके लिये समाज में कोई जगह नहीं।
Editorial
यह सब होता रहा है और हो रहा है और इसी समाज में हो रहा है क्योंकि हमारी सामाजिक सोच स्त्री को स्वतंत्र नहीं मानतीं। हमारे धर्मशास्त्र बताते हैं कि ईश्वर ने स्त्री की रचना पुरुष के लिये की है। स्त्री को हर हाल में उसके अधीन रहना चाहिये। अपने और उसके जीते जी भी और मरने के बाद भी। पुरुष परिवार का केन्द्र है और समाज का भी इसलिये स्त्री को उसकी बनाई मर्यादा पर ही चलना होगा, उसके अधीन। दूसरे शब्दों में यह रिश्ता स्वामी और अधीनस्थ का बन जाता है। इसी पितृसत्तात्मक सोच के कारण स्वतंत्रता, समानता और न्याय पर टिका हमारा संविधान भी प्रभावी नहीं हो पाता।
दामिनी के साथ महिला के सम्मान और यौन हिंसा के खिलाफ़ उठी आवाजों में जो सवाल उठे हैं और चिंतायें सामने आई हैं और समाज के बीच संवाद की स्थिति बनी है उसे निरंतर जारी रखना होगा। होता यह है कि जब भी कोई मुद्दा उठता है तब लगता है कोई बड़ा बदलाव आ रहा है और उम्मीदें भी बनती हैं, पर कुछ समय बाद वही पुरानी यथास्थिति बन जाती है। हमें यह याद रखना होगा कि स्वतंत्र प्रजातांत्रिक भारत में आम आदमी को सुरक्षित वातावरण की जरूरत है, सम्मान का जीवन जीने का अधिकार है। आज जो यह स्वत:स्फूर्त आवाज उठी है उसे कभी भी दबने नहीं देना है।
Edirorial
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