सम्पादकीय जनवरी-मार्च 2020
उत्तरा का कहना है…
पिछले कुछ महीनों का यदि हम जिक्र करें तो हमारा देश एक बुरे दौर से गुजर रहा है। सरकार द्वारा पहले नागरिकता संशोधन कानून बनाना और फिर पूरे देश में एनसीआर बनाने और इसी प्रक्रिया में एनपीआर की प्रक्रिया को शुरू कराना, इन सबसे पूरे देश में अल्पसंख्यक मुस्लिमों व गरीबों-दलितों के मन में भय व आशंका का माहौल पैदा कर दिया गया है। देश के विचारशील बुद्धिजीवी वर्ग ने असम में हुए एनसीआर के अनुभवों को देखते हुए इसे भारतीय समाज की एकजुटता व देश की अखण्डता के लिए खतरा बताते हुए सरकार की इस तरह की कवायद को देश हित के विपरीत बताया है। इसी के फलस्वरूप देश के विभिन्न हिस्सों में सीएए, एनपीआर व एनआरसी के विरोध में स्वत:स्फूर्त आन्दोलन का दौर शुरू हुआ जिसमें मुख्य रूप से विश्वविद्यालयों के छात्रों, मुस्लिम समुदाय, गरीब व दलित वर्ग के लोगों की भागीदारी रही।
(Editorial January March 2020)
इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि जाति लिंग व सम्प्रदाय की भावना से हटकर सभी आम लोगों का भी सहयोग व भागीदारी बढ़ती गई। इसमें भाजपा सरकार के सभी विरोधी दलों ने भी अपनी वोट की राजनीति के तहत अपनी-अपनी तरह से कहीं दबे स्वर में तो कहीं खुले स्वर से इसे हवा देने का काम किया। एक तरह से सीएए, एनपीआर, एनसीआर विरोधी आन्दोलन को तेज करने काम जाने-अनजाने स्वयं भाजपा की केन्द्र सरकार ने ही किया। हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति को तेज करने के उद्देश्य से, सीएए को लेकर छात्रों के विरोध को दबाने के लिए पहले जामिया विश्वविद्यालय में पुलिस बल से और फिर जेएनयू में पुलिस संरक्षित गुण्डों के जरिए विश्वविद्यालय में जबरन घुसकर छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर उनके साथ मारपीट कर लहूलुहान किया गया।
इसी के चलते यह आन्दोलन स्वत:स्फूर्त तरीके से सारे देश में अलग-अलग जगहों में तेजी से फैला परन्तु इस आन्दोलन की सबसे बड़ी बात थी, पहली बार मुस्लिम महिलाओं का खुलकर आन्दोलन में आगे बढ़कर आना। दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाके शाहीनबाग की महिलाओं ने जिस तरह से हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरकर आन्दोलन को भारतीयता, देश भक्ति, अहिंसा एवं सर्वधर्म समभाव के साथ दिशा दी, उसने एक इतिहास रच दिया है। शाहीनबाग में ये महिलाएँ एक ऐसे समय में बैठी हैं, जबकि सरकारों की स्त्री-विरोधी मानसिकता कई तरह से जाहिर हो चुकी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज में लड़कियों के साथ भाजपा के गुण्डों ने नियोजित तरीके से हिंसा की हैऔर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को, जिन पर अपने कार्यालय की महिला कर्मचारी के साथ यौन उत्पीड़न का आरोप लगा है, सेवानिवृत्त होते ही राज्यसभा के माननीय सदस्य के रूप में भाजपा सरकार ने मनोनीत कर दिया है तो कहाँ की न्याय व्यवस्था और कहाँ रही महिला सुरक्षा? जेएनयू, जामिया, और दिल्ली और उत्तर प्रदेश, जहाँ-जहाँ हिंसा हुई, सारी जाँच और कार्यवाही उल्टी दिशा में चल रही है जो पीड़ित थे उनको आरोपी सिद्ध कर दिया गया है।
शाहीनबाग से प्रेरित होकर देश में 69 जगहों पर धरना-प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। शाहीनबाग की महिलाओं ने मुस्लिम समुदाय को जिस तरह से साम्प्रदायिक कट्टरवाद से हटकर वतन परस्ती की दिशा में अग्रसर किया है, उसे देश कभी नहीं भुला सकता है। शाहीनबाग में महिलाओं द्वारा सीएए व एनसीआर के विरोध में सड़क में जाम लगाने के साथ जो आन्दोलन शुरू हुआ, वह फिर थमा नहीं। निर्भया काण्ड के बाद यह महिलाओं द्वारा किया जाने वाला सबसे बड़ा स्वत:स्फूर्त आन्दोलन बना। इसमें जहाँ बुजुर्ग महिलाएँ शामिल हैं तो नौजवान भी साथ खड़े हैं। छात्र-छात्राएँ व छोटे बच्चों से लेकर हर उम्र की महिलाएँ आन्दोलन में अपनी भागीदारी निभा रही हैं और जिसमें कोई एक नेता नहीं है।
इसी बीच दिल्ली चुनाव का दौर भी दिल्ली वालों के साथ-साथ पूरे देश ने देखा। यह चुनाव कम, शक्ति प्रदर्शन ज्यादा लग रहा था। देश के प्रधानमंत्री से लेकर सभी मंत्री विधायक व राज्य के मुख्यमंत्री व मंत्री भी एक ऐसे प्रदेश में अपनी पूरी ताकत व समय झोंक रहे थे, जिसे अभी तक पूर्ण राज्य का दर्जा भी नहीं मिला है। इस चुनाव में कई माननीय मंत्रियों व राजनेताओं द्वारा शाहीनबाग के धरने को पाकिस्तान, क्रिकेट मैच व गोली मारो… से लेकर वोट यहाँ डालो करेंट शाहीनबाग में लगेगा, जैसे शब्दों का प्रयोग कर गिरते राजनैतिक स्तर को भी प्रर्दिशत किया। लोगों को जाति-धर्म सम्प्रदाय के नाम पर बाँटने की कोशिश तेज की जा रही थी। चुनाव भी खत्म हुए और भाजपा को चुनाव में मुहकी खानी पड़ी। लेकिन सीएए, एनआरसी के खिलाफ आन्दोलन खत्म नहीं हुआ और तब सबने देखा, देश ही नहीं, दुनिया ने देखा कि सरकारें किस तरह अपनी ही जनता से बदला लेती हैं।
अपनी जनता से बात नहीं करतीं और पूरे देश को दहला देती हैं। अपने दुपट्टे का परचम बनाकर लहराने वाली इन पर्दानशीन महिलाओं ने आखिर ऐसा क्या किया कि उनका उत्साह, साहस एक साथ चलने की ख्वाहिश कुछ लोगों को समझ में नहीं आयी। दिल्ली में दंगा करवाकर महिलाओं के इस आन्दोलन को कमजोर करने की कोशिश की गयी। पहले लखनऊ में दहशत का माहौल लाठी चार्ज, आगजनी, पत्थरबाजी, गिरफ्तारी, फिर दिल्ली में दंगे, कई लोगों की मौत, करोड़ों का नुकसान। ऐसे घाव जो सदियों तक नहीं भर पायेंगे। यह बात छोटी नहीं बहुत बड़ी है। एक धर्म निरपेक्ष और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए। लेकिन आज भी पूरे देश में शाहीनबाग की महिलाएँ जनता के संघर्ष का प्रतीक है, गलत का विरोध व अपनी लोंकतांत्रिक माँगों को रखने का तरीका हम सबको बता रही हैं। इस समय जहाँ साम्प्रदायिक ताकतें मजबूत हुई हैं वहीं इन महिलाओं ने जाति, धर्म, सम्प्रदाय और लिंग से मुक्त एक नये समाज की पहल को आगे बढ़ाया है।
(Editorial January March 2020)
वास्तव में कोई ऐसे ही शाहीनबाग नहीं बनता, ऐसे ही शाहीनबाग की महिलाएँ संघर्ष का प्रतीक नहीं बनतीं। इसके पीछे उनकी संघर्ष करने की अदम्य शक्ति और एकजुटता है, जो सबको अपनी ओर खींच रही है और जो सीएए, एनपीआर, एनआरसी को वापस लेने से कम में समझौता करने को तैयार नहीं है।
एक ऐसे वक्त में शाहीनबाग सबके लिए एक केन्द्र बन गया है, जहाँ वे अपनी कलाओं के माध्यम से, अपनी अभिव्यक्ति के सहारे, अपनी शारीरिक उपस्थिति दर्ज करते हुए, जाति-धर्म और लिंग से निरपेक्ष अपनी स्वतंत्र आवाज को सबके साथ एकजुट कर रहे हैं। चाहे वे छात्र-छात्राएँ हैं, सामान्य घरेलू औरतें हों, हर्ष मंदर या योगेन्द्र यादव जैसी हस्तियाँ हों, फिल्म जगत के दिग्गज लोग हों, उन सबको शाहीनबाग की नेतृत्वकारी मुस्लिम महिलाओं ने एक रास्ता दिखा दिया है। वे आज भी बेखौफ डटी हुई हैं और सरकार को चुनौती दे रही हैं। ऐसा नहीं लगता कि यह मशाल सिर्फ सीएए, एनपीआर, एनआरसी के विरोध तक ही सीमित रह जायेगी। निश्चय ही यह लड़ाई आज के हिन्दुस्तान को एक एक नई दिशा देगी।
(Editorial January March 2020)
बात निकली है तो फिर दूर तलक जायेगी।
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