उत्तरा का कहना है.. जुलाई-सितम्बर 2017
यूं तो पूरी दुनियां में तरह-तरह के अंधविश्वास फैले हैं किन्तु भारत में इन अंधविश्वासों का रूप कुछ अलग तरह का भी है। पराशक्तियों के प्रति आस्था और भय का भाव धर्म से जुड़कर जनमानस और जीवनपद्घति को भी प्रभावित करता है। कहना न होगा, इससे सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित स्त्रियां होती हैं। पुनर्जन्म की अवधारणा विश्व के अधिकांश हिस्सों में व्याप्त है, लेकिन भारत में पूर्वजन्म का फल बताते हुए उसे स्त्री रूप में पुरुष की चेरी मान लिया जाता है और उस पर तरह-तरह के बंधन लगभग दिये जाते हैं। उसके जीवन को पूरी तरह पति के लिये समर्पित बना दिया जाता है। पति के लिए सुहागचिह्न धारण करने की अनिवार्यता स्त्री के बनाव श्रृंगार का साधन बन जाती है। यदि स्त्री इन्हें धारण नहीं करती तो इसे अपशकुन माना जाता है। दूसरी ओर पति की मृत्यु हो जाने पर स्त्री को इन्हें त्यागना होता है। सुहागिन स्त्री का बाल काटना अपशकुन माना जाता है और विधवा स्त्री का सर मुंडवा दिया जाता है। स्त्री और समाज के मन में यह भाव गहराई से जड़ें जमाकर स्त्रियों को असुरक्षित मानसिकता में जकड़ लेता है। इसलिए वह कभी सोलह श्रृंगार करती है तो कभी व्रत-उपवास कर पति और बच्चों के दीर्घ जीवन की मिथ्या कामना के जाल में फंस जाती है। विधवा स्त्री के मन में यह भय बना रहता है कि यदि वह समाज के बने कायदों को तोड़ेगी तो उसे समाज की प्रताड़ना सहनी होगी, उसे नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी । यही नहीं, उसके पूर्वजन्मों का फल उसे इस जन्म में मिल रहा है यदि इस जन्म में उससे कोई गलती हुई तो अगले जन्मों में भी उसके साथ बुरा ही होगा । स्त्री की यदि संतान नहीं है तब भी वह अपशकुनी मानी जाती है। विधवा और बांझ स्त्री का मुंह देखना अपशकुन समझा जाने लगता है। लेकिन विधुर अथवा नपुंसक पुरुष के प्रति यह सोच नहीं होती।
और भी तरह-तरह की भ्रामक अवधारणायें हमारे समाज में मौजूद हैं। बिहार तथा देश के कुछ हिस्सों में डायन का लांछन झेलती महिलाओं को अमानवीय यातनायें दी जाती हैं जिसमें कभी कभी उनकी मृत्यु तक हो जाती है। विडम्बना यह है कि इनका विरोध करने वालों को समाज का तीखा आक्रोश झेलना पड़ता है। नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज उठाने के कारण ही हुई। और भी ऐसे उदाहरण समाज में हैं जिनमें अंधविश्वासों की खिलाफत करने वालों को समाज द्वारा बहिष्कृत या दण्डित किया जाता रहा है। विडम्बना तो यह है कि कानून भी इनके सामने लाचार नजर आता है। अगर समाज अपने अंधविश्वासों के चलते किसी को दोषी मान लेता है तो उसके लिए सजा तय होती है। खाप पंचायतों के निर्णय इसका ताजा उदाहरण हैं। जरूरत है कि इन सबके खिलाफ सख्त कानून बनाये जांय और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ उन्हें लागू करवाया जाय।
विकास के साथ-साथ बहुत सी परम्परायें समाप्त हुई हैं और स्त्री के लिए बहुत से वर्जित क्षेत्र खुले हैं। पिछले वर्ष लम्बे संघर्ष के बाद शनि शनिशिंगणापुर, सबरीमला मन्दिर और हाजी की मजार पर प्रतिबंधित स्त्रियों के प्रवेश को पहले कानूनन फिर उन संस्थाओं ने प्रवेश की अनुमति दी। और सब जानते हैं, कोई अनिष्ट नहीं हुआ। इस बीच बहुत सी बहसें भी हुईं जो सामाजिक चेतना को प्रदर्शित करती है।
आज भी प्राय: ग्रामीण क्षेत्रों में किशोरियों पर चुड़ैल या परी आ जाती है या महिलाओं पर किसी आमा – जिसे भूतनी कहा जाता है- का साया आ जाता है। अगर अंधविष्वास से जुड़ा कोई मामला मीडिया में आ जाता है तो फिर लगातार उस तरह की घटनाओं की आवृत्ति होने लगती है। इन दिनों एक चर्चा महिलाओं की चोटी कटने की है जिसमें कोई साया महिलाओं की चोटी काट रहा है। सबसे पहले यह समाचार या घटना उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा से जुड़ी फिर दिल्ली और अब सभी जगहों में यह चर्चा आम है । ठीक वैसे ही जैसे पिछली सदी के अंतिम दशक में गणेशजी की मूर्ति द्वारा दूध पीने की घटना थी। पहले भी इस तरह के चमत्कारों की चर्चा होती थी पर वह बहुधा स्थान विशेष तक सीमित रह जाती थी या फिर मान्यता वहीं से जुड़ी रहती थी लेकिन मीडिया के प्रसार के साथ वह सभी जगह होने लगी है, जैसे गणेश जी देश के कोने कोने में दूध पीने लगे थे। अब सभी जगह साया चोटी काटने लगा है। इसके साथ तरह तरह के नये मिथक भी जोड़े जाने लगे हैं। जैसे जिसने राखी का मुहूर्त निकल जाने के बाद भी राखी नहीं उतारी उसकी चोटी कट गई । पर ऐसी महिलायें भी हैं जिनके हाथों में राखी और सर में चोटी सलामत है दूसरी ओर मुस्लिम महिलाओं की चोटी भी कटी है जिनका राखी से मतलब नहीं है। हालांकि इसमें यह सच भी सामने आने लगा है कि कुछ ने पब्लिसिटी के लिए अपनी या रिश्तेदारों की चोटी काट डाली या घर वाले बाल काटने के खिलाफ थे तो साये के नाम पर खुद ही अपने बाल काट लिये। इसके साथ यह भ्रम भी जुड़ा कि सरकार मुआवजा दे रही है तो लोगों ने इस घटना को अंजाम दे डाला।
(Editorial Juli-Setember 2017)
विडम्बना यह है कि जितनी जल्दी अंधविश्वास से जुड़ी खबरें प्रचारित हो जाती हैं, उतनी जल्दी सकारात्मक सोच की खबरें प्रचारित-प्रसारित नहीं हो पाती। क्या यह हमारी रुग्ण मानसिकता की परिचायक नहीं हैं? क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहॉं अवसाद है, दमित वासनायें और वर्जनायें हैं जो इन रूपों में उजागर होती हैं और हमारे अंदर एक पलायनवादी प्रवृत्ति विद्यमान है जो हमें इन सतही बातों में रस देती है।
आज जब हम विकास के दौर में बहुत आगे बढ़ गए हैं। चन्द्र, मंगल, वृहस्पति के रहस्यों के पर्दे उठ रहे हैं तब भी इनके पूजा-अनुष्ठान में कमी नहीं आई है। यही नहीं, सूचना क्रांति के इस दौर में तमाम सूचना के यंत्रों फोन, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, नेट आदि से जुड़े हैं। इन वैज्ञानिक आविष्कारों से क्षणांश में दुनियां भर की जानकारी पाने में सक्षम हैं। तब भी हम पाते हैं कि हमारे पास ढेर सारे धार्मिक चैनल हैं। तंत्र-मंत्र और भाग्य बताने वाले सितारों का खेल समझाने वाले कार्यक्रम हैं। बहुत सारी वेबसाइट्स हैं जो हमें रहस्यमयी पराशक्तियां के बारे में बताती हैं जो रोजमर्रा के जीवन को सुखी विशेषकर धनी बनाने के लिए तरह-तरह के चमत्कारिक उपाय बताती हैं। लोग उन्हें बढ़ावा भी देते हैं। अपने अनुभवों को साझा करने और ऐसे चमत्कारों को प्रसारित करने के लिए पहले भी पत्र आते थे, उन्हें अन्य 16-32 लोगों को भेजने के लिए कहा जाता था। साथ ही भय भी पैदा किया जाता था कि ऐसा नहीं करने वालों के साथ बुरा होगा। आज ऐसे संदेश सोशियल मीडिया में आते हैं जिन्हें लाइक और शेयर करना होता है। मंत्र-तंत्र की विद्या अब ये वैज्ञानिक यंत्र सिखाने लगे हैं। इनका प्रसार बढ़ रहा है और कई बातों में अपने को निरुपाय मान लेने वाले लोग इनका सहारा ले रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या महिलाओं की है।
महिलाएँ क्यों अंधश्विासी हो जाती हैं। पहले स्त्रियों की दुनियां केवल घर की चहारदीवारी तक सीमित थी इसलिए जब पति और बच्चे घर से बाहर निकलते थे तो एक अज्ञात भय उनके मन में रहता होगा इसलिए वे नजर के टोटकों और सुरक्षा कवचों का सहारा लेती होंगी। इसीलिए माना जाता रहा है कि घरेलू स्त्रियां अधिक अंधश्विासी होती हैं। आर्थिक असुरक्षा भी इसके पीछे एक कारण हो सकता है, जिसके लिए पुरुष, वह चाहे पति हो या पुत्र, उसका जीवित रहना जरूरी है। लेकिन आज के युग में आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाएँ भी इससे अछूती नहीं हैं। वे भी प्राय: इस या उस प्रकार के अंधविश्वासों को मान ही लेती हैं। बचपन से वे अपने इर्द-गिर्द इस माहौल और आस्था को देखती हैं जो अंदर कहीं जड़ें जमा लेता है, तर्क और विज्ञान को हम पीछे छोड़ देते हैं। विज्ञान से हम केवल सुविधाएँ लेना चाहते हैं, जीवन दृष्टि नहीं। हमें इस जड़ता से बाहर निकलना होगा।
समय समय पर प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच ने इन अंधविश्वासों की खिलाफत की है और आज भी बहुत से लोग समाज को इन अंधविश्वासों से बाहर निकालने की मुहिम में लगे हैं। जरूरत है, उन्हें व्यापक प्रचार-प्रसार देने की। महिलाओं को यह समझना ही चाहिए कि इनका सहारा लेना उनके व्यक्तित्व को कमजोर बनाता है जो उनके विकास में बाधक है और समाज के लिए घातक। पीढ़ी दर पीढ़ी ये अंधविश्वास संक्रमित होते हैं। हमारी तर्कशक्ति को कुंठित करते हैं। हमें चुप रहने को बाध्य करते हैं। प्राय: इन्हें मामूली बातें कहकर छोड़ दिया जाता है। लेकिन इनके खिलाफ एक व्यापक मुहिम छेड़ने की जरूरत को नकारा नहीं जा सकता है।
(Editorial July-September 2017)
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