सम्पादकीय उत्तरा जनवरी-मार्च 2019
देश के अलग-अलग हिस्सों में छात्राओं, राह चलती लड़कियों व छोटे बच्चों व बच्चियों के साथ होने वाली यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा व छेड़खानी की घटनाओं की बढ़ती संख्या का परिणाम यह हो रहा है कि अब इन घटनाओं को लेकर संवेदनशील प्रतिक्रिया का ग्राफ निरन्तर कम होता जा रहा है। ये घटनाएँ अब खबर में तब्दील होकर अगले दिन पुरानी होने लगी हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि अपने आसपास होने वाली घटनाओं के प्रति आक्रोश या नफरत के बजाय अब उपेक्षा का भाव रखने की हमको आदत-सी पड़ने लग गई है।
देश के अलग&अलग हिस्सों में पिछले दिनों लड़कियों को जलाने की घटनाएँ सामने आयी हैं ताकि ये लड़कियाँ किसी प्रकार की गवाही देने के लायक न रहें। सफदरजंग अस्पताल, दिल्ली से महज 200 किमी- दूर आगरा व करीब 300 किमी- दूर पौड़ी गढ़वाल की दो लड़कियाँ जिन्दगी की जंग लड़ते हुए खत्म हो गयीं। दोनों को ही यौन हिंसा के तहत रास्ते में चलते हुए पेट्रोल से जिन्दा जला दिया गया।
16 दिसम्बर को पौड़ी की नेहा बी-एस.सी की परीक्षा देकर आ रही थी। उसने जबरदस्ती छेड़खानी करने का विरोध किया तो उसकी स्कूटी रोककर टैक्सी ड्राइवर बंटी ने उसके ऊपर पेट्रोल डालकर आग लगा दी। सात दिन बाद उसने दुनिया को अलविदा कहा। उत्तरकाशी के पुरोला की एक लड़की जो कि अफसर बनने का सपना लिए अपने दो भाइयों के साथ देहरादून आकर पढ़ाई कर रही थी, एक लड़के की छेड़खानी से इतना अवसाद में गयी कि उसने स्वयं को फाँसी लगा ली। भाइयों के नाम एक मार्किक पत्र छोड़ दिया।
कोटद्वार में एक चौदह वर्षीय बालिका ने स्कूल जाना छोड़ दिया क्योंकि रास्ते में एक युवक रोज छेड़खानी करता है। उत्तरकाशी के भटवाड़ी ब्लॉक के एक स्कूल की छात्राओं ने शिक्षकों पर छेड़खानी का आरोप लगाया है।
ये घटनाएँ किसी न किसी रूप में पूरे देश के किसी भी गली-मुहल्ले, गाँव, कस्बे, शहर से लेकर स्कूल, कॉलेज, खेत, फैक्ट्री या किसी भी काम की जगह पर आती-जाती, काम करती लड़की और औरत के साथ घटित हो रही हैं। इस प्रकार की घटनाओं की प्रकृति भी दिन-प्रतिदिन भयावह होती जा रही है। इस सबके बीच लड़कियाँ जन्म ले रही हैं, अपनी मौजूदगी का एहसास करा रही हैं, आगे बढ़ रही हैं, सपने देख रही हैं और अपने सपनों को पूरा करने की खातिर मौजूदा समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता का मुकाबला कर रही हैं। वे आसमान छूने का साहस कर रही है तो धरती में मौजूद संभावनाओं को छानती अपना भविष्य तलाश रही हैं।
लेकिन आज भी हमारे समाज की लड़कियों व महिलाओं को स्वतंत्र, स्वाभिमानी, उन्मुक्त देखने की तैयारी नहीं है। हमारे परिवार व समाज उनको अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने देने को तैयार नहीं हैं। परिवार व समाज की बाधाओं को पार कर समाज में अपनी जगह बनाने में वे अकेली दिखती हैं। महिला की सुरक्षा व सम्मान आज भी पुस्तकों के पन्नों या विज्ञापनों में ही दिखता है। पुरुष स्त्री को अपने बराबर मानने के लिए आज भी तैयार होना तो दूर कमतर होने का एहसास ही पग&पग पर करवाते हैं। आखिर क्यों यह स्थिति बनी हुई है, इसको समझने की आवश्यकता है।
वर्षों से महिलाओं ने अपने छोटे&बड़े संघर्षों की बदौलत अपने कुछ अधिकारों को हासिल किया। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक बराबरी की खातिर ही 8 मार्च को महिला संघर्षों का प्रतीक माना जाता है। यही वह दिन है जो कि दुनियाभर की संघर्षशील महिलाओं को प्रेरणा देता है। निरन्तर संघर्ष कर यूरोपीय देशों की महिलाओं ने जहाँ बीसवीं सदी में अपने संघर्षों की बदौलत बहुत कुछ खोया-पाया, वहीं भारत जैसे सामन्ती देश में आज भी यह जद्दोजहद जारी है। इसी का परिणाम है कि लड़कियाँ सामन्ती रूढ़ियों व मूल्य-मान्यताओं के बरक्स स्वतंत्रता-समानता के मूल्यों को आत्मसात करना चाहती हैं।
चूँकि हमारा समाज आज भी सामन्ती, धार्मिक व पुरुष प्रधान मान्यताओं के अनुरूप ही संचालित होता है और स्त्री को अनिवार्यत: इस पितृसत्ता के अधीन ही रहने को मजबूर होना पड़ता है। यदि कोई भी स्त्री परिवार व समाज में चली आ रही परम्पराओं को चुनौती देने का साहस करती है] पितृसत्ता का विरोध करती है तो पुरुष-प्रधानता स्त्री को दमित करने के लिए यौन हिंसा का सहारा लेता है। पितृसत्ता औरत को गुलाम बनाये रखने की वह मानसिकता है, जिसमें कि पुरुष सदैव प्रधान है और स्त्री दोयम] पुरुष मालिक है और स्त्री दासी, पुरुष उपभोगकर्ता और स्त्री उपभोग की वस्तु। यही पितृसत्ता वह मूल है जिसमें कि हिंसा मौजूद है।
स्त्री का यौनिक दमन सदियों से एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। किसी समाज को नीचा दिखाना हो तो समुदाय की स्त्रियों के साथ यौनिक हिंसा सबसे आसान हथियार माना जाता है। यही हिंसा तब भी की जाती है जब स्त्री अपने स्वतंत्र अस्तित्व को स्थापित करते हुए पितृसत्ता के विरुद्ध खड़ी होती है। स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व, उसके इंसान होने की पहचान को स्थापित होने के लिए न जाने अभी कितने संघर्ष करने होंगे। कितनी बच्चियों, बेटियों, लड़कियों और औरतों को इस पितृसत्तात्मक हिंसा का शिकार होना होगा। यही नहीं, स्त्री को सम्मानजनक जीवन हासिल करने के लिए अपनी पूर्वजा बहनों की तरह कुर्बानी के लिए भी तैयार रहना होगा।
भले ही महिलाओं के अधिकारों या स्वतंत्रता के बड़े-बड़े दावे राजनीतिक मंचों व सेमिनार के भाषणों में किये जाते रहें लेकिन व्यवहार के स्तर पर आज भी हमारे समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता हावी है। जिसकी वाहक कई बार स्वयं महिलाएँ भी हो जाती हैं और परवाज भरती लड़कियों के पंखों को चोट पहुँचाने में पुरुष की सहयोगी बन जाती हैं। महिलाओं के साथ होने वाली घटनाएँ तब तक होती रहेंगी, जब तक कि स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर लिया जायेगा। हमें समाज में इस बात को स्थापित करना होगा कि स्त्री और पुरुष में लैंगिक भेद के अतिरिक्त ऐसी कोई भी बात नहीं है जो कि पुरुष को प्रधान और स्त्री को दोयम माना जाय, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव ही नहीं तो भेदभाव क्यों\ दोनों बराबर के काबिल हैं और इस धरा का जीवन स्त्री और पुरुष दोनों के परस्पर योगदान से ही संभव है और इसका निरन्तर विकास भी।
स्त्री पर होने वाली यौन हिंसा की घटनाएँ अभी थमने वाली नहीं हैं। जितना अधिक लड़कियाँ प्रतिरोध करेंगी, पितृसत्ता की प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीव्र होगी। इसलिए आज हमें इन घटनाओं से घबराने व दुखी होने के बजाय इतिहास से सीख लेते हुए संगठित होकर पुरुष प्रधान व्यवस्था को चुनौती देने के लिए तैयार होना होगा।
यदि हम इस भ्रम में हैं कि कठोर कानून बना देने से स्त्री के साथ होने वाली यौनिक हिंसा में कमी आयेगी तो यह तार्किक नहीं है। क्योंकि कानूनों को लागू करने में संवेदनशीलता नहीं है। प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ-आई-आर) में तथ्य कमजोर कर दिये जाते हैं। किसी भी घटना को आगे न ले जाने में पितृसत्तात्मक मानसिकता हावी होती है, जिसमें स्त्री यौन-तृष्णा को पूरी करने वाली वस्तु मान ली जाती है। कानूनी प्रक्रिया इतनी लम्बी व खर्चीली होती है कि सालों साल किसी केस का निर्णय ही नहीं हो पाता। कानून बना देने व सजा दिलवाने के बीच की जो प्रक्रिया व यंत्रणा होती है उसको समझने की जरूरत है। क्योंकि महिला हिंसा से सम्बन्धित कानून व कानूनी प्रक्रिया पूरी तरह से सामंती व पितृसत्तात्मक मूल्यों से संचालित होती हैं, जिसमें कि मानवीय पहलू भी कई बार नदारद होता है। फिर यौन हिंसा की घटनाएँ छोटे लड़के-लड़कियों के साथ ही जिस तरह उम्रदराज महिलाओं के साथ भी बढ़ रही हैं, यह निरन्तर विकृत होते जा रहे हमारे सामाजिक ताने-बाने का परिणाम भी है। अवसाद, गरीबी, बेरोजगारी, नशाखोरी वर्तमान व्यवस्था की विफलता है। इसलिए हमें यौन हिंसा को समाज में होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा से काटकर नहीं देख सकते। यदि हम महिलाओं के संघर्ष को समाज की समस्याओं से अलग देखेंगे तो उसका समाधान सम्भव नहीं है। इसलिए महिलाओं के साथ होने वाले किसी भी प्रकार के हिंसात्मक व्यवहार को समाज की समग्रता में समझकर प्रतिरोध करने की आवश्यकता है।
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