एहसास औरत होने का

चन्द्रकला

औरत पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’ सिमोन की पुस्तक स्त्री उपेक्षिता की इन पंक्तियों से मेरा वास्ता उन दिनों हो गया था, जब मैं तय कर रही थी कि मुझे एक आम महिला की तरह घर की चहारदीवारी की जिम्मेदारी नहीं निभानी है। बल्कि औरत को कैद करने वाली रूढ़ियों, सामन्ती मूल्य-परम्पराओं व पितृप्रधान सत्ता की खिलाफत करनी है। औरत को इंसान के बजाय वस्तु की तरह उपयोग करने वाले समाज को बदलने में अपनी भूमिका निभानी है। कारण, बचपन से ही देखा व महसूस किया था कि औरत होने के नाते परिवार व समाज में न केवल दोयम समझा जाता है बल्कि औरत होने के कारण उसको अपमान, शोषण व हिंसा का सामना करना पड़ता है।

यूँ तो रोज-रोज की घटनाओं को पढ़कर व सुनकर भीतर से नफरत पैदा होती है, लेकिन पिछले दिनों स्वयं मेरे साथ एक ऐसा वाकया हुआ कि मेरे विचार और पुख्ता हो गये। दिसम्बर का महीना गुजर चुका था, महिला सुरक्षा को लेकर पूरे देश में हलचल मची हुई थी।  इन्हीं दिनों मेरा दक्षिण की ओर जाना हुआ। जाते वक्त रेल का सफर अच्छा था। बाहर की तीखी ठंड के बावजूद भीतर का माहौल खुशनुमा था। सहयोगी महिलाएँ शिरडी के दर्शनों के लिए जा रही थीं। उनके साथ चल रही थीं तीन किशोरियाँ। बच्चियों की चंचलता बचपन की याद दिला रही थी। जब वे तीनों अपने मोबाइल में बज रहे ‘फैबीकौल’ सरीखे गीतों का मजा ले रही थीं तो मैंने उनको आदतवश इस तरह के भौंडे़ गीत न सुनने की हिदायत दे डाली। इस तरह के गीतों में मौजूद औरत -विरोधी विचारों के बारे में उनसे चर्चा की, यह जानते हुए भी कि मेरी बातों का प्रमाण तात्कालिक ही होगा। लेकिन चर्चा के दौरान उन बच्चियों की माताएँ जो मेरे अकेले होने के कारण मुझसे दूरी बनाये हुए थीं, नजदीक आ गयीं और हमारा अपनापा बढ़ गया। गंतव्य आने पर सबने विदा ली और दो घंटे बाद मैं भी अपने गंतव्य पर पहुँच गयी।

मेरा प्रवास अनिश्चित था, सो मैंने वापसी का टिकट नहीं लिया था। कुछ दिन रहने के बाद मैंने जब वापसी की इच्छा जाहिर की तो टिकट मिलना मुश्किल था। क्रिसमस व सर्दियों की छुट्टियाँ समाप्त होने के बाद दिल्ली की ओर आने वालों की भीड़ ज्यादा थी। फिर भी मेरे रिश्तेदारों के प्रयासों के कारण मुझे टिकट तो मिल गया लेकिन स्लीपर कोच के बजाय ए.सी. कोच का टिकट ले लिया गया था। मेरी ट्रेन रात्रि पौने ग्यारह बजे आने वाली थी अत: मैंने समय से पहले ही घर से निकलकर प्रतीक्षालय में अपना स्थान ले लिया था। यूँ भी मुझे प्रतीक्षालय हमेशा अच्छा लगता है। यहाँ की जीवन्तता व विभिन्न प्रान्तों, भाषा-भाषी महिलाओं से मिलना रोमांचक होता है। मैं अक्सर अकेले ही सफर करती रही हूँ लेकिन ए. सी. कोच में सफर करने का मेरा अनुभव न के बराबर रहा है। इसलिए मन में थोड़ी घबराहट बनी हुई थी।

गाड़ी अपने समय से एक घण्टा लेट यानी 12 बजे रात पहुँची। किसी तरह मैं अपने कोच में चढ़कर केबिन ढूँढने में सफल हो गयी। अजीब सी घुटन थी यहाँ पर। सभी यात्री परदों के पीछे इत्मीनान से नींद का मजा ले रहे थे। खर्राटों की आवाज वहाँ पर लोगों की मौजूदगी का आभास करवा रही थी। स्लीपर क्लास में तो आप इन्सानों को देख पाते हैं, कुछ दूर साथ सफर करने के बाद अच्छी जान-पहचान हो जाती है। लेकिन यहाँ पर न आप बाहर की दुनिया से रूबरू हो पाते हैं, न विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बेचने वालों से वास्ता पड़ता है, और ना ही सहयात्रियों से ज्यादा घुलना-मिलना हो पाता है।
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जैसे ही मैं अपने केबिन का परदा हटाकर अपनी सीट तलाशने लगी तो मैंने पाया कि वहाँ पर तीन अधेड़ उम्र के पुरुष पहले से मौजूद थे। ‘अरे भइया, काहे मैडम को सोने को कह रहे है? क्या सफर सोने के लिए होता है? मजा के लिए होता है, जो सोया वो खोया’ कहकहों के बीच गूँज रहे इस वाक्य ने मुझे भीतर तक हिला दिया। उस पुरुष के प्रति मेरे मन में घृणा व क्रोध बढ़ने लगा। मुझे लगने लगा था कि मेरा सफर आसान नहीं है। हालांकि कई बार फोन उठाकर अपने परिजनों को इस माहौल की इन्तला करने का विचार मन में आया। एक जगह मैने सन्देश भी प्रेषित कर दिया लेकिन बीच रात में किसी को परेशान करना मुझे उचित नहीं लगा, फिर मौजूदा परिस्थिति का सामना तो मुझे अकेले ही करना था।

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैंने फैसला किया कि मुझे अपनी बर्थ खाली करवाकर इत्मीनान से बैठना चाहिए। अपनी सीट पर बैठे व्यक्ति से  मैंने पूछा, आपकी सीट कौन सी है? आप इतनी रात तक बैठे क्यों हैं? कहां तक जाना है आपको? मेरी बात का जवाब दिये बिना वह आदमी मेरी सीट से उठकर सामने बैठ गया। तीनों का संवाद जारी था। मुझे किसी भी हालत में नींद को भगाना था। मैंने अपने झोले से एक पत्रिका निकाली और पढ़ने लगी। उनके मुँह लगने से बेहतर था चुपचाप अपने होने का एहसास करवाना। मेरे सख्त व्यवहार से इतना तो हो चुका था कि उनके बोलने व कहकहे लगाने की तीव्रता में कुछ कमी आ गयी थी। मेरी आँखें भले ही पत्रिका में थीं लेकिन कान उनकी महिला-विरोधी बातों की ओर ही लगे थे। कई बातें तो वे महज मुझे सुनाने के लिए ही कह रहे थे। मसलन औरत कलैक्टर भी बन जायेगी तो वह रहेगी औरत ही, बच्चा पैदा करना व पति की सेवा करना तो उसका धर्म है। मैं उनके साथ बहस करके उन्हें चुप करा सकती थी लेकिन उनके मुँह लगना मुझे उचित नहीं लगा। हालांकि बात ज्यादा बढ़ती तो जरूर कुछ न कुछ बवाल करने का मैंने फैसला कर लिया था।

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सुल्ताना का सपना

बेगम रुकैया सकावत हुसैन

”मान लो कुछ पागल निकल भागे पागल खाने से
और जुल्म ढाने लगे लोगों पर
घोड़ों और दूसरे जीवों पर
तो
क्या करेंगे तुम्हारे देश के लोग?”
वे कोशिश करेंगे उन्हें पकड़कर
दोबारा पागलखाने में बंद करने की।
”शुक्रिया! और तुम सही दिमाग लोगों को
सीखचों के पीछे और पागलों को खुला
छोड़ने में यकीन भी नहीं करते?”
बेशक मैंने हँसते हुए कहा
”सच तो यह है कि यही हो रहा है तुम्हारे देश में
मर्द जो बेहिसाब जुल्म ढाते हैं
या ढाने के काबिल हैं
खुले घूमते हैं
बेगुनाह औरतें बंद हैं जनानखाने के भीतर”
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जूठे बर्तनों इत्यादि से समझ आ रहा था कि उन्होंने कुछ समय पहले ही भोजन व शराब का सेवन किया है। मैं चुपचाप अपना सामान नीचे रखकर उनका मुआयना करने लगी। उनकी बातचीत का केन्द्र महिलाएँ थीं, मालूम हो रहा था कि वे शादी के लिए किसी लड़की को पसंद करने गये होंगे। वहाँ जिस तरह का माहौल मैंने देखा और तीन घंटे उन पुरुषों का सामना करते हुए औरत होने के कारण जो मानसिक यंत्रणा झेली उसको भुलाना मुश्किल है। मेरे रिश्तेदारों ने मेरी अनिच्छा के बावजूद सुरक्षा व ठंड से बचाव की दृष्टि से मेरा टिकट ए.सी. कोच में लिया था लेकिन वे इस बात से बेखबर थे कि एक अकेली औरत को यह पुरुष प्रधान समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। सरकारें, समाज के ठेकेदार, महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान का कितना भी ढकोसला करें, वास्तव में वह दिखावा ही होता है। मेरे ये तीनों पुरुष सहयात्री निश्चित ही किसी अधिकारी पद में कार्यरत थे।

मेरे लिए रात का यह सफर बहुत तकलीफदेह था। टिकट कलेक्टर मेरा टिकट चैक करके जा चुका था। कुछ देर बाद उन पुरुषों के रवैये से परेशान होकर मैंने टिकट कलैक्टर को ढूँढने का प्रयास भी किया कि शायद कोई बेहतर जगह मुझे मिल पाये लेकिन जब तक मैं उसे ढूँढती, तब तक वह कहीं खो चुका था। अब मेरे पास इस सर्द रात में अपनी सीट पर संयत होकर बैठने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। सोने के बारे में तो सोचा ही नहीं जा सकता था। क्योंकि तीनों की तिरछी निगाहें बार-बार मेरी ओर उठ रही थीं। गाड़ी की बढ़ती स्पीड, रात की इस नीरवता को भंग कर रही थी।

कुछ समय तक मेरे चुपचाप बैठे रहने पर उन तीन पुरुषों में से एक पूछने लगा, ‘सोएंगी क्या मैडम, मैं आपकी सीट से उठ जाता हूँ।’ मैं उस बेहूदे आदमी को कुछ जवाब देती, उससे पहले ही दूसरा अश्लील-सी हँसी हँस पड़ा। थकान के कारण मुझे बार-बार झपकी लग रही थी। हालांकि अब मेरा मन कुछ हद तक संयत हो चुका था। मैंने उनको तीखी नजरों से घूरना शुरू किया तो एक सकपकाकर उठकर दूसरी तरफ चला गया। अब मुझमें थोड़ी हिम्मत आ गयी और उनकी बात से मैं जान गयी कि वे तीनों प्रतीक्षारत टिकट वाले हैं। उनके पास मात्र एक साइड वाली बर्थ है। मैंने उनसे बातचीत के लहजे को धीमा कर देने का आग्रह किया तो वे बोले आप सोइये, आपको हमसे क्या? मैं खामोश हो गयी। आसपास कोई नहीं जान रहा था कि मैं कैसे अकेले तीन पुरुषों का सामना कर रही हूँ। वहाँ कोई तथाकथित सुरक्षाकर्मी भी नहीं था जो कि रात की इस यंत्रणा से मुझे राहत दिलवा सकता। हालांकि उनसे भी सुरक्षा की उम्मीद करना बेमानी होता। स्लीपर या जनरल डिब्बे में आप ज्यादा सुरक्षित होते हैं, जहाँ आप बाहर देख सकते हैं, बाहर वाला भीतर देख सकता है लेकिन यहाँ यह स्वतंत्रता नहीं थी। मैं इन तीन घंटों में खुद को असहाय महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि औरत यूँ तो कहीं भी किसी भी रूप में असुरक्षित होती है लेकिन बंद दीवारों के भीतर उसकी असुरक्षा व पीड़ा अधिक बढ़ जाती है।

अचानक गाड़ी की तीव्रता कम हुई। गाड़ी के रुकते ही इंसानों की आवाजाही का एहसास हुआ। तभी एक परिवार बच्चों व नवदम्पति सहित मेरे केबिन में चढ़ गया। आते ही एक महिला ने उन पुरुषों को उठने का संकेत किया और परिवार के सदस्यों को बैठने को कहने लगी। परिवार की संख्या देखकर अन्तत: तीनों वहाँ से उठकर अपनी सीट पर चले गये। मेरे लिए उन तीन घंटों की पीड़ा अचानक काफूर हो गयी। नया परिवार मेरे लिए अजनबी था लेकिन मैं उनसे अपनी करीबी महसूस कर रही थी। 

जो भी हो, मैं अब सुकून महसूस कर रही थी। भले ही नया आगंतुक परिवार भी काफी जोर-जोर से बोल रहा था पर इससे बेखबर अब मैंने इत्मीनान से बिस्तर लगाया और कमर सीधी करके लेट गई। मेरे बाजू वाली सीट पर एक बूढ़ी महिला का बिस्तर लगाया गया। बूढ़ी महिला के सीट पर लेटते ही मेरा डर खत्म हो चुका था औरत होने का। अब गाड़ी की स्पीड मेरे लिए लोरी थी। नींद के आगोश में जाते ही कितनी ही अनाम औरतें व बच्चियाँ मेरे ख्वाबों में तैरने लगीं, जिन्हें इस समाज व्यवस्था ने दंड दिया था- पुरुष सत्ता को चुनौती देने की खातिर……
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