जेलों में बंद महिला राजनीतिक बंदी
-अमिता शीरीं
जून 2018 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015 के अंत तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारतीय जेलों में बंद कुल 4,19,623 बंदियों में 17,834 महिला बंदी हैं। यानी तब से 5 साल बीतने को आये हैं, तो भी हम बंदियों की वास्तविक संख्या का केवल अनुमान लगा सकते हैं। इसके बाद के आंकड़े कम से कम नेट पर तो उपलब्ध नहीं है। (Female political prisoners in jails)
इस लेख में हम हाल के दिनों में भारतीय जेलों में बंद चंद राजनीतिक महिला बंदियों की चर्चा करेंगे। वैसे तो छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, बंगाल और देश के अन्य जेलों में ढेर सारी राजनीतिक बंदी हैं, जिनका नाम भी कोई नहीं जानता। हालांकि छत्तीसगढ़ के ‘जगदलपुर लीगल ग्रुप’ ने वहां की जेलों में बंद महिला कैदियों का अच्छा दस्तावेजीकरण किया है। नेट पर यह रिपोर्ट उपलब्ध है। जेलों में ढेर सारी आदिवासी औरतें सत्ता के दमन का शिकार हैं। उन सबकी बात होनी चाहिए। पर अभी केवल पिछले दो-ढाई साल से अलग-अलग जगहों से गिरफ्तार की गई राजनीतिक बंदियों पर चर्चा की जाय। आइये, पहले थोडा इतिहास की गलियों में घूम लेते हैं।
1 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र में पूना के नजदीक ‘भीमा कोरेगांव’ में अंग्रेजों की फौज के साथ मिलकर लड़ते हुए महारों की 500 की सेना ने मराठा पेशवाओं की 20,000 से भी ज्यादा की फौज को शिकस्त देते हुए उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया था। बाद में 1851 में इस युद्घ में मारे गये सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने यहां एक ‘स्तम्भ’ का निर्माण करवाया, जिसके ऊपर ज्यादातर महार सैनिकों के ही नाम खुदे हैं। ‘मुख्यधारा’ का इतिहास आज भी इस महत्वपूर्ण घटना की ओर आंखें मूंदे हुए है।
1 जनवरी 1927 को डॉ. अम्बेडकर ने यहां अपने साथियों के साथ आकर उन महार सैनिकों को याद किया, जिन्होंने भयंकर जातिवादी और प्रतिक्रियावादी पेशवाओं की सेना को शिकस्त देते हुए कई सारे जातिगत मिथकों को तोड़ डाला था और दलितों के आत्मसम्मान को ऊंचा उठाया था। तब से हर साल यहां लाखों की भीड़ उमड़ती है और दलित आन्दोलन व जनवाद की लड़ाई से जुड़े लोग यहां आकर अनेक कार्यक्रम पेश करते हैं और जाति-व्यवस्था के खात्मे की शपथ लेते हैं।
महारों की सेना द्वारा पेशवाओं की सेना पर इस विजय के महत्व को हम तभी अच्छी तरह समझ सकते हैं जब हम पेशवाओं के राज्य में महारों की क्या स्थिति थी, यह जानें और उनकी छटपटाहट को समझें। पेशवाओं के राज्य में महारों को सार्वजनिक स्थलों पर निकलने से पहले अनिवार्य रूप से अपने गले में घड़ा और कमर में पीछे झाड़ू बांधनी पड़ती थी, जिससे उनके पैरों के निशान खुद-ब-खुद मिटते रहें और उनकी थूक सार्वजनिक स्थलों पर न गिरे ताकि सार्वजनिक स्थल ‘अपवित्र’ न हो। अपनी इसी स्थिति के कारण महारों के दिलो-दिमाग में ब्राह्मणों और तथाकथित ऊंची जातियों के प्रति सदियों से जो नफरत बैठी होगी, उसी नफरत ने उन्हें वह ताकत दी जिससे उन्होंने अपने से संख्या में कहीं ज्यादा पेशवाओं की सेना को वापस भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्घ ने वर्णव्यवस्था के उस मिथक को भी चूर-चूर कर दिया कि क्षत्रियों में ही लड़ने की काबिलियत है और राज करने और राज को बचाने की काबिलियत वर्ण विशेष के लोगों में ही होती है।
2018 में यहां केवल दलित संगठन ही नहीं, बल्कि देशभर के जनवादी संगठन भी आयोजकों में शामिल थे। क्योंकि इस इतिहास के 200 साल पूरे हो रहे थे। इस आयोजन में तकरीबन दो लाख लोग पहुंच गए थे। इस कार्यक्रम पर दक्षिणपंथी लोगों द्वारा हमला किया गया। बहुत से लोग हताहत हुए। तभी से सरकार इस आयोजन को माओवादी आयोजन बता कर देश भर में जो लोग जनता के हक में अपनी आवाज उठाते रहे हैं, उनकी आवाज को कुचलने का प्रयास कर रही है।
इसी भीमा कोरेगांव मामले में सरकार अभी तक क्रान्तिकारी कवि वरवर राव, अधिवक्ता एवं मजदूर नेता सुधा भारद्वाज, महिलामुक्ति के लिए प्रतिबद्घ प्रोफेसर शोमा सेन, अधिवक्ता सुरेन्द्र गडलिंग, अधिवक्ता व मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फरेरा, दलित कार्यकर्ता सुधीर धावले, मानवाधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन, विस्थापन विरोधी कार्यकर्ता महेश राउत, कार्यकर्ता वर्नन गोंजाल्विस, शिक्षाविद आनंद तेल्तुम्बे व कार्यकर्ता गौतम नवलखा को गिरफ्तार कर चुकी है। आइये जानते हैं कौन हैं सुधा भारद्वाज और शोमा सेन।
ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और मजदूर नेता सुधा भारद्वाज का जन्म प्रसिद्घ अर्थशास्त्री कृष्णा भारद्वाज और रामनाथ भारद्वाज के घर अमेरिका में हुआ था। 11 साल की उम्र में वह भारत आयीं और 18 साल की उम्र में उन्होंने सचेतन तौर पर अमेरिका की नागरिकता छोड़ दी। कानपुर आईआईटी से गणित की पढ़ाई करने के दौरान वह देश-दुनिया के हालात पर, खासतौर पर मजदूरों की दुर्दशा पर विचार करने लगीं। 1986 में वह छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी के साथ ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ से जुड़ गईं। 29-30 साल तक छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि बनी रही। बाद में उन्होंने कानून की डिग्री भी हासिल की और मजदूरों के मुकदमे लड़ती रहीं। गिरफ्तारी से ठीक पहले वह नेशनल स्कूल ऑफ लॉ दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर थीं। इसके अलावा वह छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की महासचिव तथा इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लायर्स की उपाध्यक्ष भी थीं।
देश के सर्वोत्तम प्रतिष्ठान से उच्च शिक्षा लेने के बाद सुधा छत्तीसगढ़ की एक बस्ती में रहती थीं। मजदूरों की तरह ही रहते हुए उन्होंने हमेशा मजदूरों की लड़ाई में हिस्सेदारी की और उनका नेतृत्व किया। विगत वर्षों में छत्तीसगढ़ में चल रहे सरकारी दमन के खिलाफ वह लगातार आवाज उठाती रहीं। जाहिर-सी बात है, वह आवाज सरकार के कानों में विष घोलने लगी।
4 जुलाई 2018 को रिपब्लिक टीवी के कुख्यात पत्रकार अर्नब गोस्वामी ने सुधा के माओवादियों के साथ सम्बन्ध होने की खबर चलाई। कुछ महीनो तक दिल्ली में उनके घर पर नजरबंद रखने के बाद अंतत: उन्हें 26 अगस्त 2018 को पुणे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। दुनिया भर में न्यायपसंद लोगों ने सुधा की गिरफ्तारी का विरोध किया और सरकार पर दबाव बनाया। बदले में केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर 2020 की शुरूआत में इस केस को एनआइए (राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण) को सौंप दिया।
लगभग 60 वर्षीय सुधा डाईबिटीज से सम्बन्धित कई बीमारियों से ग्रस्त हैं। 21 साल की उनकी बिटिया मायशा भी अपनी मां और अपनी जिन्दगी के लिए संघर्ष कर रही है।
शोमा सेन को सरकार ने 6 जून 2018 को नागपुर के उनके आवास से गिरफ्तार किया था। तब से लेकर अभी तक 2 साल से अधिक समय से वह जेल में हैं और अभी तक उनका ट्रायल भी नहीं शुरू हुआ है। उन्हें भी भीमा कोरेगांव की घटना में फर्जी केस में कैद किया गया है।
मुंबई में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी शोमा ने मुंबई से ही उच्च शिक्षा ग्रहण की। फिर नागपुर विश्वविद्यालय से पीएचडी की। और वहीं शिक्षक हो गयीं। अपनी गिरफ्तारी के वक्त वह नागपुर विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग की हेड थीं। शोमा सेन लम्बे समय से महिला आंदोलनों का प्रमुख चेहरा रही हैं। वह नागपुर के स्त्री चेतना संगठन की कार्यकर्ता थीं। वह महिला मुद्दों पर बेहद प्रखर और चिंतनशील आवाज थीं। इसके अलावा वह मानवाधिकार संगठन सीपीडीआर की सदस्य थीं और मानवाधिकारों के प्रति आवाज उठाती रही थीं। वह नागपुर टीचर्स एसोसिएशन की अध्यक्ष भी रही थीं। औरतों पर राज्य की हिंसा के खिलाफ बने संगठन डब्ल्यूएसएस (…) की भी सदस्य थीं। उनकी इसी आवाज पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने उन्हें भीमा कोरेगांव के फर्जी केस में जेल में बंद कर रखा है।
2019 की सर्दियां एनआरसी और सीएए विरोधी आन्दोलन से गर्म बनी हुईं थीं। लोगों को बांटने के सरकार के इस कानून के खिलाफ शाहीन बाग दिल्ली में बड़ी संख्या में औरतों ने शानदार अगुवाई की और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन चलता रहा। शाहीन बाग की तर्ज पर पूरे देश में आन्दोलन होने लगा। पूरी दुनिया में इसकी आवाज गूंजने लगी। शाहीन बाग सरकार के गले की हड्डी बन गया। सारे इंसाफपसंद लोगों के मन में ऊर्जा का संचार होने लगा। एक शानदार आन्दोलन आकार ले चुका था। सरकार ने हर तरह से आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश की लेकिन औरतें धरनास्थल से नहीं हिलीं। तभी दिल्ली में एक प्रायोजित साम्प्रदायिक दंगा कराया गया। इस जनसंहार में 53 लोगों की मौत हो गयी। उसी समय कोरोना का कहर शुरू हो गया और उसकी आड़ में सरकार ने शाहीन बाग का शानदार ऐतिहासिक धरना समाप्त कर दिया।
इधर कोरोना लोगों को मौत की गिरफ्त में ले रहा था, उधर सरकार ने एक-एक करके आन्दोलनकारियों को दिल्ली हिंसा का दोषी करार देकर उठाना शुरू किया। कोरोना में जब सारी जिन्दगी थमी हुई थी, सरकार की गिरफ्तारियां जारी रहीं। इस सिलसिले में सरकार ने 24 मार्च को 10 लोगों को गिरफ्तार किया जिसमें 6 औरतें थीं। बाद में कुछ लोगों को चेतावनी के साथ जमानत दी गयी। इन औरतों में चर्चित चेहरे थे, गुलफिशां फातिमा और सफूरा जरगर। अपनी गिरफ्तारी के वक्त सफूरा जरगर गर्भवती थीं और पूरी दुनिया में सरकार के इस कदम की निंदा हुई। एक व्यापक दबाव के चलते सरकार ने अब सफूरा को जमानत दे दी है।
27 वर्षीय सफूरा जरगर एक कश्मीरी युवती हैं, जो सीएए के खिलाफ हुए आन्दोलन का एक प्रमुख चेहरा थीं। वह जामिया मिलिया इस्लामिया में पीएचडी कर रही थीं और जामिया कोआरडीनेशन कमिटी की मीडिया संचालक थीं। जामिया के छात्रों ने जब सीएए के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा तो वह उस आन्दोलन का एक प्रमुख चेहरा बन कर सामने आयीं। तीन बार जमानत खारिज करने के बाद अब न्यायालय ने ‘मानवीयता’ के आधार पर सफूरा को जमानत दे दी है।
जबकि 28 वर्षीय गुलफिशां फातिमा की जमानत को सरकार ने रद्द कर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय से उर्दू में एमए करने के बाद गुलफिशां ने एमबीए किया। गुलफिशां को सरकार ने 9 अप्रैल को गिरफ्तार किया था। मई में उन्हें जमानत मिल गयी लेकिन सरकार ने उन पर यूएपीए लगा दिया और अब उनकी जमानत नहीं होने दे रही है।
इन सबके पहले 2015 में दिल्ली में एक और आन्दोलन हुआ था जिसे नाम दिया गया था- ‘पिंजरा तोड़ आन्दोलन’। इस आन्दोलन में दिल्ली के महिला होस्टलों में लड़कियों की सुरक्षा के नाम पर जो तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाये गए थे, उसके खिलाफ लड़कियों के एक समूह ने आन्दोलन खड़ा किया था। बाद में इस आन्दोलन से जुडी लड़कियां सीएए विरोधी आन्दोलन का हिस्सा भी बनीं। पिंजरा तोड़ कार्यकर्ता नताशा नरवाल और देवांगना कालिता को भी सरकार ने कोरोना काल में ही 23 मई को गिरफ्तार कर लिया। जमानत मिलते ही उनपर यूएपीए लगा कर फिर से जेल में बंद कर दिया गया।
इस तरह सरकार ने सचमुच कोरोना की आपदा को अवसर में बदलते हुए, उसके खिलाफ बोलने वालों को एक-एक करके कैद कर लिया और अभी उसकी फेहरिस्त में और लोग भी जुड़ते जा रहे हैं। जब असंतोष बढ़ेगा तो खिलाफत भी होगी। जाहिर है सरकार विरोध की आवाज को सुनने की हालत में नहीं है। इसलिए बड़ी संख्या में आन्दोलनकारियों को कैद कर रही है। इसमें पूरी तरह से सहयोग कर रही हैं उसकी संस्थाएं, पुलिस और कोर्ट-कचहरी।
अभी हाल में ही अररिया बिहार में एक रेप पीड़िता न्यायालय में अपना बयान दर्ज कराने गयी। उसके साथ एक गैर-सरकारी संगठन जेजेएसएस के सदस्य कल्याणी और तन्मय भी थे। पीड़िता को कोर्ट में कोई कागज साइन करने को कहा गया। उसने अपने सहयोगियों के सामने ही उस कागज पर हस्ताक्षर करने की जिद की। पुलिसवालों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। इस पर उस लड़की की आवाज कुछ तल्ख हो गई। जज साहब को यह आवाज बेहद नागवार गुजरी, उन्होंने फौरन उस लड़की और उसके सहयोगियों को न्यायालय की अवमानना के तहत गिरफ्तार करने का फैसला दे दिया। काफी हंगामा होने पर उस रेप पीड़िता की जमानत तो हो गयी लेकिन कल्याणी और तन्मय की जमानत याचिका खारिज कर दी गई।
इस तरह आज इस देश में बड़ी संख्या में आन्दोलनकारी, बुद्घिजीवी, कलाकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में बंद हैं और उनमें बड़ी संख्या औरतों की भी है। हमें उनकी रिहाई की आवाज बुलंद करनी होगी।