अजन्मी बेटियों की हितैषी: वर्षा देशपांडे
मधु जोशी
2002 में भारत में गर्भ धारण तथा प्रसव पूर्व नैदानिक प्रक्रिया अधिनियम अर्थात् PCPNDT Act (Pre-Conception and Pre-Natal Diagnostics Techniques) पारित हुआ था। इसका उद्देश्य बालिका तथा बालिका भू्रण हत्या पर लगाम लगाना था। इस कानून का उद्देश्य प्रशंसनीय तो था किन्तु इसे लागू करने में उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी तब मिल सकती थी, यदि इसे कड़ाई से लागू किया जाता। इसके फलस्वरूप बालकों के मुकाबले बालिकाओं का लिंगानुपात काफी कम बना रहा। उदाहरणत: महाराष्ट्र राज्य में, इस कानून के लागू होने के तीन वर्ष बाद भी, 2005-2006 में प्रति एक हज़ार बालकों के सापेक्ष महज आठ सौ सड़सठ बालिकाओं का जन्म हुआ था।
इसी चिन्ताजनक स्थिति से निपटने के लिए, एक अत्यन्त साहसी और अग्रगामी कदम उठाते हुए पेशे से वकील वर्षा देशपांडे ने 2004 में सतारा में एक स्टिंग ऑपरेशन (खुफ़िया कार्रवाही) संचालित किया। उस समय वर्षा देशपांडे दलित महिला विकास मंडल की सक्रिय सदस्य थीं। यहाँ यह तथ्य भी अप्रासंगिक नहीं है कि विवाहपूर्व वर्षा देशपांडे के पति संजीव बोन्डे ने उनके सामने शर्त रखी थी कि वह विवाहोपरान्त भी समाज सेवा करती रहेंगी! उल्लेखनीय है कि वर्षा देशपांडे के माता-पिता भी सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय थे। 2004 में सतारा में चलाये गये इस गुप्त अभियान का उद्देश्य विकिरण़चिकित्सक (radiologist) डॉ. देवदत्त शेटे की गतिविधियों का पर्दाफाश करना था क्योंकि उन्हें विश्वसनीय सूचना मिली थी कि डॉ़ शेटे जन्मपूर्र्व लिंग निर्धारण के उपरान्त कन्या भू्रणों के गर्भपात की व्यवस्था करवाने में लिप्त हैं।
डॉ़ शेटे की गैरकानूनी तथा अनैतिक गतिविधियों का भण्डा फोड़ने के लिए वर्षा देशपांडे ने अपनी घरेलू सहायिका की बहन की सहायता ली क्योंकि यह महिला इस समय सात माह से गर्भवती थी। वर्षा देशपांडे को यह भलीभाँति मालूम था कि खुफ़िया कार्रवाही करके ही वह किसी भी चिकित्सक को रंगे हाथ पकड़ पायेंगी। इसके बिना इन चिकित्सकों के खिलाफ़ पुख्ता सबूत जुटा पाना लगभग असंभव था और वर्षा देशपांडे के अपने शब्दों में, ‘‘मैं बालिका शिशुओं की हत्या करने वाले इनके विरुद्ध अकाट्य प्रमाण जुटाना चाहती थी’’। इस उद्देश्य से वर्षा देशपांडे ने पन्द्रह हज़ार रुपये में पुराना वीडियोकैमरा और पाँच हज़ार रुपये में टेप़रिकॉर्डर खरीदा। इसके अलावा उन्होंने अपनी सहायिका की बीस वर्षीया गर्भवती बहन तथा अपनी चालीस वर्षीया सहकर्मी को दो दिनों तक प्रशिक्षित किया ताकि अन्तिम क्षणों में कोई अप्रत्याशित गतिरोध उत्पन्न न हो। कैमरे को उक्त सहकर्मी के बैग में रखकर उसके लैन्स के लिए एक सुराख किया गया और रिकॉर्डर को गर्भवती महिला के पास रखा गया।
(Girls benevolent Versha Desh Pandey)
यह दोनों महिलाएं एक सेवानिवृत्त परिचारिका, जो डॉ़ शेटे की एजेन्ट के रूप में कार्य करती थी, के पास गयीं। उन्होंने आठ सौ रुपये लेने के उपरान्त उन दोनों को डॉ़ शेटे के पास भेज दिया। डॉ़ शेटे ने दो हज़ार रुपये लेकर पारश्रव्य चित्रण (sonography) करने के उपरान्त परीक्षण का परिणाम हरे रंग की स्याही से लिखा जो इस तथ्य का संकेत था कि महिला के गर्भ में बालक का भू्रण पल रहा है। महिलाओं के कमरे से बाहर जाते ही डॉ़ शेटे को तत्काल गिरफ़्तार कर लिया गया किन्तु शीघ्र ही वह उन पर दर्ज मुकदमे से बरी हो गये क्योंकि गर्भवती महिला न्यायालय में अपने बयान से मुकर गयी। यह संदेह व्यक्त किया गया कि उसने आरोपी चिकित्सक से पैसे ले लिये थे।
इस नाकामयाबी के बाद वर्षा देशपांडे की बहुत जगहंसाई हुई किन्तु इससे वह हतोत्साहित नहीं हुईं। यद्यपि डॉ़ शेटे के विरुद्ध आरोप अदालत में साबित नहीं हो पाये थे फ़िर भी इस ऑपरेशन का एक सकारात्मक परिणाम निकला। समाज में यह संदेश गया कि वर्षा देशपांडे नाम की एडवोकेट व्यवस्था से टक्कर लेने को तैयार हैं। उनके पास गुमनाम फोन कॉल तथा पत्र आने लगे जिनमें उन चिकित्सकों से जुड़ी जानकारी होती थी जो सातारा जिले में लिंग निर्धारण परीक्षणों तथा कन्या भ्रूण हत्या में लिप्त थे।
कुछ समय बाद उन्होंने अपने संगठन की चार माह से गर्भवती कार्यकर्ता की सहायता से एक अन्य रेडियालॉजिस्ट डॉ़ अम्बादास कदम के विरुद्घ खुफ़िया कार्रवाही की। इस बार उनके समक्ष कोई अवरोध खड़ा नहीं हुआ और आरोपी चिकित्सक को तीन वर्ष के कारावास की सजा सुनायी गयी। इस ऑपरेशन की सफलता से उत्साहित एडवोकेट वर्षा देशपांडे तथा उनके सहयोगियों ने लेक लाडकी अभियान आरम्भ किया जिसने प्रसवपूर्व लिंग निर्धारण की गैरकानूनी सेवा प्रदान करने वाले चिकित्सकों के विरुद्घ अनवरत मुहिम छेड़ दी। 2004 से 2015 के मध्य इन्होंने सातारा, कोल्हापुर, बीड, सांगली, रायगड़, अहमदनगर, नासिक, ठाणे तथा मुम्बई में 49 स्टिंग ऑपरेशन किये जिसके कारण बीस चिकित्सकों को दोष सिद्घ होने पर सजा हुई। इस अभियान में उन्हें गर्भवती महिलाओं से भरपूर सहयोग मिला क्योंकि इनकी सहायता के बिना ऐसे अभियान को चला पाना मुमकिन नहीं था। वर्षा देशपांडे के अनुसार समाज के सभी तबकों की महिलाओं- निर्धऩ, धनाढ्य, शिक्षित़, अशिक्षित – ने नि:स्वार्थ भाव से उनकी सहायता की। इनमें से दो गर्भवती महिलाएं पत्रकार थीं और तीन सैक्स वर्कर।
(Girls benevolent Versha Desh Pandey)
ऐसा भी नहीं कि सर्भी स्टिंग ऑपरेशन सफल रहे थे। आरम्भिक चरणों में सहयोग करने वाली चार महिलाएं बाद में अपने बयानों से पलट गयीं। वर्षा देशपांडे इन महिलाओं की मजबूरी समझती हैं और उनके मन में इन चारों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। इनकी आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र वह यह भी कहती हैं कि ऐसे अभियानों में सहायता करने वाली गर्भवती महिलाओं को आर्थिक प्रोत्साहन मिलना चाहिये क्योंकि वह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सामाजिक कार्य की सफलता हेतु अपनी जान जोखिम में डालती हैं। 2011 में एक दोषी चिकित्सक की कलई खोलने वाली महिला अपनी नवजात पुत्री के साथ अचानक गायब हो गयीं और वर्षा देशपांडे आज तक यह पता नहीं कर पायी हैं कि वह कहाँ और किस हाल में हैं। स्वयं वर्षा देशपांडे को कोरे चैक, कार, बंगले आदि के रूप में अनेक प्रलोभन दिये गये। उनके पास धमकी भरे फोन आये और राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं सहित अनेक प्रभावशाली लोग उन्हें अपने काम से मतलब रखने की नसीहत भी दे चुके हैं। फिर भी वर्षा देशपांडे के इरादे अटल हैं और उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि तब मिलती है जब वह किसी दोषी चिकित्सक को सलाखों के पीछे देखती हैं।
वर्षा देशपांडे द्वारा चलाये एक अभियान की राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा हुई थी। 2010 में बीड के डॉ़ सुदाम मुंडे को खुफिया कैमरे में यह कहते हुए पकड़ा गया था कि वह गर्भपात के उपरान्त कन्या भ्रूणों को अपने पाँच कुत्तों को खिला देते हैं ताकि कोई सबूत बाकी नहीं रहे। फिर भी उनके खिलाफ़ कोई कार्रवाही नहीं हुई क्योंकि तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री के अनुसार ‘‘उन पर कोई आरोप सिद्घ नहीं हुआ है’’। 2012 में जब गर्भपात की प्रक्रिया के दौरान एक महिला की मृत्यु हो गयी तो डॉ़ सुदाम मुंडे पर किये गर्ये ंस्टग ऑपरेशन पर पुन: देश का ध्यान गया। कहा जाता है कि डॉ़ सुदाम मुंडे तथा उनकी पत्नी डॉ़ सरस्वती मुंडे ने लगभग चार हज़ार गर्भपात किये थे हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता आशंका व्यक्त करते हैं कि यह संख्या सात हज़ार तक हो सकती है। 2015 में मुंडे दम्पति को ढउढठऊळ कानून के तहत चार वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी और अभी वह नासिक जेल में अपनी सजा काट रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि इर्न स्टिंग ऑपरेशनों को वर्षा देशपांडे ने, बिना किसी सरकारी आर्थिक सहायता के, स्वयं अपनी संस्था के संसाधनों से संचालित किया था। सामान्यत: प्रत्येक ऑपरेशन में आरम्भ से दोषसिद्घि तक एक से दो लाख रुपये तक का खर्च आता है। वर्षा देशपांडे के अनथक प्रयासों के दौरान कन्या भ्रूण हत्या से जुड़े अनेक शर्मनाक तथ्य सामने आये और चिकित्सकों द्वारा प्रयुक्त सांकेतिक वाक्यांशों तथा शब्दों से भी पर्दा उठा। उदाहरणत: यह मालूम हुआ कि चिकित्सक बालिका भू्रण के लिए ऋण का चिह्न, जय माता दी, लाल रंग की स्याही, सोमवार, अंग्रेजी में 19 की संख्या इस्तेमाल करते हैं और बालकों के लिए धन (plus) का चिह्न, सांई बाबा, हरे रंग की स्याही, शुक्रवार तथा अंग्रेज़ी संख्या 16 प्रयुक्त करते हैं।
(Girls benevolent Versha Desh Pandey)
वर्षा देशपांडे के दल ने 2015 में अन्तिम स्टिंग ऑपरेशन किया था। उनके अन्तिम दो ऑपरेशन असफल रहे थे क्योंकि स्वास्थ्य विभाग से दोषी चिकित्सकों को अग्रिम सूचना मिल गयी थी। 2016 में सांगली जिले के म्हैसाल में जब डॉ़ बाबासाहब खिदरापुरे के भू्रण़हत्या के शर्मनाक कारोबार का भण्डाफोड़ हुआ तो वर्षा देशपांडे ने पुन: स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही और मिलीभगत को रेखांकित किया। अब वर्षा देशपांडे भारत सरकार के स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण विभाग की PCPNDT एक्ट की राष्ट्रीय निरीक्षण तथा निगरानी समिति की सदस्य हैं। वह अनचाही बेटियों, जिन्हे महाराष्ट्र में ‘नकुशा’ नाम दिया जाता है, को गरिमामय नाम देने की मुहिम से भी जुड़ी हुई हैं। धनाढ्य वर्ग, विशेषकर सिनेकलाकारों द्वारा मनचाहे
अभिकल्पित (designer) बालकों को जन्म देने की प्रवृत्ति के खिलाफ भी वह आवाज़ बुलन्द करती रहती हैं। उनके संगठन के सदस्य गणेश बोरहाडे ने महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के बैचलर ऑफ आयुर्वेद, मैडिसिन एंड सर्जरी BAMS के पाठ्यक्रम में ऐसी तकनीकों को शामिल करने पर कड़ा ऐतराज जताया है जिनके अनुसार लड़का पैदा करने का दावा किया जाता है। स्पष्टत: जन्मी-अजन्मी बेटियों के जीने के अधिकार के पक्ष में वर्षा देशपांडे तथा उनके सहयोगी सतत कार्यरत हैं। महाराष्ट्र राज्य में अनेक बेटियां सम्भवत: जन्म ही नहीं ले पातीं अगर उनके जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बालिका भू्रण हत्या के विरुद्घ इतनी पुरजोर मुहिम नहीं चलायी होती।
(मुम्बई मिरर, 19 मार्च 2017 में लता मिश्रा के लेख, वन इन्डिया, वन पीपल में 1 फरवरी 2014 के लेख, इण्डिया टुडे, 18 सितम्बर 2014 में गणेश एऩक के लेख, बी़ बी़ सी़ हिन्दी में 20 नवम्बर 2015 को स्वाति बक्शी की रिपोर्ट, गज़ब पोस्ट में 9 मार्च 2017 को विशु के लेख पर साभार आधारित)
(Girls benevolent Versha Desh Pandey)
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