एक असभ्य सवाल
-हूबनाथ
वे जानना चाहते हैं
कि क्या कर रही हैं
औरतें
किसान आन्दोलन में
इन्हें बहुत पुरानी आदत है
औरतों को
घर में देखने की
लक्ष्मण रेखा के भीतर
औरतों को
बिस्तर पर देखने की
दिल बहलाव के
खिलौनों की तरह
इन्होंने बनाई है
बड़ी मशक्कत से जगह
औरतों के लिए
जूतियों के पास
सीली लकड़ी की तरह
रसोई में धुंधआती औरतें
घड़ों पानी सिर पर लादे
खानदान का पानी बचाते
गोबर पाथते
लकड़ियां बीनते
आटों के पहाड़ सानते
धरती का सारा कपड़ा
पटक पटक पछींटते
पनघट पर
मरघट पर
पौरुष के अंगूठे तले
कसमसाती
बिलबिलाती
घुटती जलती
मर मर जीती
जीते जी मरती
सत्ता की चौखट पर
नाक रगड़ती
माथा फोड़ती
एड़ियां घिसतीं औरतें
देखने की
देखते रहने की
बहुत पुरानी आदत है इन्हें
लड़ती औरतें
झगड़ती औरतें
ह़क मागातीं
न्याय गुहारती
ऊंची आवाज़ में चीखती
चिल्लातीं नाचती गाती
नारे लगाती
पुरुषों के कंधे से
कंधा लगाए ही नहीं
बल्कि पूरी व्यवस्था को
कंधा देती औरतें
किसी भी
सभ्य समाज के लिए
ठीक नहीं होतीं
अपनी बनी बनाई
औ़कात के बाहर
निकलते ही औरतें
बन जाती हैं मनुष्य
औरतों का मनुष्य होना
असभ्यता का लक्षण है
इसीलिए
वे पूछ रहे हैं
एक बेहद मासूम लेकिन
असभ्य सवाल
कि औरतें क्या कर रही हैं
किसान आन्दोलन में
और वे भूल जाते हैं
कि धरती पर
खेती की शुरूआत
औरतों ने ही की थी
वे शायद यह भी भूल गए हैं
कि धरती को
मां भी कहा जाता है
और हर मां
पहले औरत ही होती है
माई लॉर्ड!
(Hubnath Poem)