न्याय की दिशा में

शीला रजवार

दिल्ली बलात्कार काण्ड के बाद केन्द्र सरकार द्वारा गठित वर्मा समिति की रिपोर्ट आने के बाद उसकी कुछ संस्तुतियों को छोड़ते हुए सरकार ने तत्काल कैबिनेट की बैठक में पास करके विधेयक संसद में प्रस्तुत कर दिया। एक प्रकार से केन्द्र सरकार अब कह सकती है कि उसने इस काण्ड के बाद अपनी जवाबदेही निभा ली है।

1997 में विशाखा प्रकरण के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय ने जब कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न सम्बन्धी निर्देश जारी किये थे (जो अब विधेयक बन चुका है), तब भी न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा को उस प्रकरण की छानबीन करके अपनी संस्तुतियाँ पेश करने का दायित्व दिया गया था। इस बार भी 30 दिन की निर्धारित अवधि में बहुत सारे व्यक्तियों, संस्थाओं, कानूनविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की सहायता लेकर न्यायर्मूित जे.एस. वर्मा, न्यायमूर्ति लीला सेठ एवं न्यायमूर्ति गोपाल सुब्रह्मण्यम की समिति ने 657 पृष्ठ की रिपोर्ट व्यापक जाँच पड़ताल के बाद प्रस्तुत कर दी। इस प्रक्रिया में भारत ही नहीं, विश्व के भी महान व्यक्तियों की दृष्टि और उक्तियों को उद्धृत किया गया तथा विभिन्न संविधानों का हवाला दिया गया।

इस रिपोर्ट में एक प्रकार से आजादी के बाद के परिदृश्य में महिलाओं को कानूनी तथा सामाजिक रूप से वंचित किये जाने के इतिहास को पूरी तरह खंगाला गया है। ऐसा नहीं है कि स्वतंत्र भारत में महिलाओं के विकास  अथवा अधिकारों के लिए कुछ नहीं किया गया। अनेक कदम उठाये गये, नीतियाँ बनाईं गईं, कानूनों में संशोधन हुए। संविधान प्रदत्त समानता का अधिकार तो था ही। ऐसा भी नहीं कि महिलाएँ आज बेहतर स्थिति में नहीं हैं। फिर भी देश की राजधानी में दामिनी प्रकरण सम्भव है और 16 दिसम्बर 2012 के बाद के अखबार और दृश्य मीडिया की खबरों को सच मानें तो देश के हर नगर, कस्बे और गाँव में दामिनी-प्रकरण संभव हैं।

वर्मा समिति की रिपोर्ट में न केवल इतिहास की पड़ताल की गई है, वरन् वर्तमान में महिला-हिंसा को उसकी व्यापकता में प्रस्तुत किया गया है जिसके तहत सर्वप्रथम लोकतंत्र और संविधान में प्रदत्त लैंगिक समानता तथा विश्व के संदर्भ में भारत द्वारा किये गये लैंगिक समानता के प्रयासों का उल्लेख है। तत्पश्चात महिला हिंसा के विशेष रूपों- कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न, बलात्कार, छेड़-छाड़, घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, मानव तस्करी, बाल-यौनापराध,ऑनर र्किंलग तथा खाप पंचायतों का रवैय्या आदि की परिस्थितियों  को उजागर किया है तथा उदाहरणों सहित सामाजिक, राजनीतिक तथा कानूनी सन्दर्भों में लेते हुए बारीकी से सबका विवेचन किया गया है। बहुत से फैसलों, उनमें दी गई सजाओं तथा तत्सम्बन्धी कानूनी धराओं के ब्यौरे भी इस रिपोर्ट में दिये गये हैं। कानून तथा महिलाओं की गरिमा की दृष्टि से मेडिकल परीक्षण की खामियों को देखते हुए सुझाव दिये गये हैं। जिन विषयों पर बल दिया गया है, वे हैं- पुलिस व्यवस्था में सुधार, चुनावी व्यवस्था में सुधार तथा शिक्षा और स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण में सुधार।
in the direction of justice

इस रिपोर्ट में माना गया है कि सभी प्राणियों की तरह महिलाओं को भी अपने जीवन, उसकी सुरक्षा, गरिमा और अखण्डता को बनाये रखने का अधिकार है। प्रत्येक स्त्री के सम्मान की रक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए। महिलाओं को लक्ष्य बनाकर किसी भी प्रकार की हिंसा, शोषण, क्रूरता, अमानुषिकता, उन्हें नीचा दिखाने वाले व्यवहार आदि का निषेध जरूरी है। स्त्री को इन्सान का दर्जा देते हुए उसके कानूनी और सामाजिक अधिकारों की सुरक्षा का दायित्व सरकार का है। साथ ही यौन हिंसा पीड़ित महिला के उपचार और पुनर्वास की जिम्मेदारी भी सरकार की है। सर्वप्रथम आवश्यकता एक प्रभावशाली तंत्र की है। स्त्री की स्वतंत्रता, चाहे वह धार्मिक हो या आर्थिक या शिक्षा सम्बन्धी, का किसी भी रूप में हनन नहीं किया जा सकता। उसे बेघर नहीं किया जा सकता। जाति, धर्म, क्षेत्र, और नस्लीय आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। एक बालिग स्त्री अपनी पसंद से विवाह करने, अलग होने, तलाक और विवाह को समाप्त करने का अधिकार रखती है। शैक्षणिक संस्थाओं में यौन उत्पीड़न सहित किसी भी प्रकार की प्रताड़ना नहीं दी जा सकती। किसी भी प्रकार के जोखिम, छेड़छाड़ और सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली परिस्थितियों से मुक्त सार्वजनिक परिवहन की सुविधा  स्त्रियों को मिलनी चाहिए।

रिपोर्ट में बारीकी से उन परिस्थितियों और परम्पराओं का विवेचन तथा मूल्यांकन है जो जन्म से ही स्त्री को दोयम दर्जा देती हैं इन्हें गलत ठहराते हुए  कानून की नजर में स्त्री के प्रति अपराध माना गया है। समिति के अनुसार हमारे कानून में कोई कमी नहीं है, वह पूर्णतया सक्षम है। सरकारी तंत्र अपनी मानसिकता में बदलाव लाकर मुस्तैदी से एवं कारगर तरीके से उसका पालन करे। यौन हिंसा का दायरा बढ़ाते हुए उन्होंने इसमें पुरुष, समलैंगिक और उभर्यंलगियों को भी शामिल किया है। सेना और पुलिस सहित उन्होंने हिरासत में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराये जाने और बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज न कराने या जाँच खत्म कर दिये जाने को दंडनीय अपराध में शामिल किया है। पुलिस के पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण को रेखांकित किया है। बच्चों की गुमशुदगी और उस पर सरकार के न्यून प्रयासों को गम्भीरता से लिया गया है ऐसे बच्चे का यौन शोषण भी होता है। यदि किसी जनप्रतिनिधि पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगता है तो उसे अपने पद से हटाया जाय और ऐसे लोगों को चुनाव का टिकट भी न दिया जाय। आपराधिक गतिविधियों में लिप्त जन प्रतिनिधियों का पिछले 10 वर्षों का विवरण दिया है। 31 प्रतिशत जनप्रतिनिधि ऐसे हैं जो संज्ञेय अपराधों में लिप्त या आरोपी हैं। उन्हें स्वेच्छा से इस्तीफा दे देना चाहिए। जहाँ ऐसे जनप्रतिनिधि हैं, वहाँ महिलाओं और आम जनता के लिये असुरक्षित माहौल है।

बलात्कारियों को फाँसी देने और बाल अपराधियों की उम्र घटाने की माँगों को न्याय की दृष्टि से अनुचित मानकर दरकिनार कर दिया गया। लेकिन बलात्कार के दोषियों को 20 वर्ष तक की सजा और सामूहिक बलात्कार के दोषियों को उम्र भर कैद में रखने की संस्तुति की गई। फाँसी की सजा को सभ्य देश पहले ही नकार चुके हैं। भारत में भी यह बहस पहले हो चुकी है। जनमत भी इसके पक्ष में नहीं रहा। समिति ने माना कि भारत में बाल सुधार गृह इसकी मूल अवधारणा के अनुरूप नहीं चलाये जा रहे हैं उनमें सुधार की जरूरत पर बल दिया गया है। बालकों और किशोरों पर तो पहले ही अन्याय हो रहा है। उनके लिये जैसा वातावरण चाहिये वह हमारे यहाँ नहीं है। मानव तस्करी की एक पीड़िता का इण्टरव्यू भी अन्त में दिया गया है। इस रिपोर्ट ने कानून और व्यवस्था को ही नहीं, समाज को भी आईना दिखाया है। नागरिकों के भी कर्तव्य होते हैं। दिल्ली काण्ड के संदर्भ में हवाला दिया है जो राहगीर और गाड़ियाँ उस बीच उस रास्ते से गुजरे उनका भी दायित्व बनता था कि वह पीड़िता की सहायता करते।

यह रिपोर्ट बहुत मनोयोग तथा गहराई से हर पहलू का अन्वेषण, विश्लेषण  करते हुए न्यायसंगत दृष्टिकोण व हल प्रस्तुत करती है। इस पर लगातार चर्चा और विविध क्षेत्रों में इसके सुझावों पर अमल की नितान्त आवश्यकता है।
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