भारत-जापान संयुक्त नन्दा देवी अभियान (पर्वतारोहण 17)

चन्द्रप्रभा ऐतवाल

20 अगस्त को आधार शिविर की खोज हेतु सभी सदस्य निकल पड़े और सामान को पहुंचाने का काम भी किया। रास्ते में हम लोगों ने बहुत से बरल (ब्लू शीप) छोटे-छोटे बच्चों के साथ देखे, जो झुण्ड के झुण्ड चर रहे थे। ये बरल के बच्चे बहुत ही प्यारे लग रहे थे। रास्ते में छोटी-सी नदी को पार किया और चढ़ाई चढ़कर एक समतल  स्थान पर आधार शिविर लगाया। आज हमने दो मैस टेन्ट लगाये और सदस्यों द्वारा लाये सामान को टेन्ट के अन्दर रखा और थोड़ी देर तक शिविर के चारों ओर घूमते रहे।

आधार शिविर सुन्दर स्थान पर लगाया। इसके एक क्षेत्र पर पानी का नाला था, जिस पर हम आराम से नहाने-धोने का कार्य कर सकते थे। दूसरी तरफ शौचालय के लिये जगह बनाई। इस प्रकार 2 घण्टे तक इधर-उधर घूमने के बाद सरसों पाताल वापस आये। आधार शिविर की ऊंचाई लगभग 17000 फीट (4937 मीटर) थी। 21 अगस्त को सरसों पाताल से हम सभी सामान व बकरियों सहित आधार शिविर पहुंचे। बकरी वाले पहली बार इतनी ऊंचाई तक सामान लेकर आये थे। ऋषिगंगा में स्नोब्रिज (बर्फ का पुल) बना हुआ था, जिस कारण उसे पार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। फिर भी दो-तीन स्थानों पर रास्ता काफी कठिन था। वहां से कैसे आये इसका मुझे ताज्जुब हो रहा था।

आज हमने अपना पहला आधार शिविर लगाया था। अत: काफी अच्छा लग रहा था। साथ ही रोज रसोई बन्द करके आगे शिविर क्षेत्र ढूंढ़ने का चक्कर भी अब खत्म हो गया था। सारे सामान को ठीक तरह से लगाने में सारा समय निकल गया था। आज दो और मैस टेन्ट लगाये। वायरलेस सेट के लिये एक और मैस टेन्ट लगाया, जिसमें वायरलेस वाले की भी टेन्ट में रहने की व्यवस्था की। दोनों ही वायरलेस वाले आई.टी.बी.पी. से ड्यूटी पर आये थे। प्यारे लाल उनमें से काफी सहयोगी था और अपनी ड्यूटी सही तरह से निभा रहा था। कभी शौक से प्रथम शिविर तक सामान पहुंचाने हेतु चल देता था। एक मैस टेन्ट में केवल सामान को रखा। एक ओर सारे राशन और डिब्बों को अलग-अलग करके सजाकर रखा। दूसरे किनारे पर चट्टान आरोहण के सामानों को सजाकर रखा। लेकिन सब्जी व जल्दी प्रयोग होने वाले राशन आदि को बाहर तारपोलिन से ढ़ककर रखा, जो रसोई के काफी पास ही थी।

रसोई घर के लिये पत्थरों की दीवार देकर मकान-सा तैयार किया और ऊपर से तारपोलिन से ढ़का गया। बर्तन धोने का स्थान तथा बर्तनों को ठीक से रखने की जगह पर पत्थर बिछाया गया। बेकार बचे खाने या सब्जी आदि के छिलकों को डालने के लिये बहुत बड़ा गड्ढा बनाया और उसे भर जाने पर दफना देने के लिये मिट्टी का ढेर रखा, जिससे उसके सड़ने की बदबू न आये।

इसी प्रकार नम्बर दो के क्षेत्र के लिये रास्ता बनाया गया और उस रास्ते पर एक डण्डा लगा दिया, जिसमें एक डिब्बा जाते समय डण्डे पर चढ़ाया जाता और वापस आते समय उतार दिया जाता था। इस तरह शिविर की पूरी स्वच्छता का ध्यान रखा जाता था। साथ ही किसी को किसी प्रकार की असुविधा भी नहीं होती थी और प्रत्येक सदस्य को अपना नम्बर दो अपने-आप दबा देना होता था, जिसमें दूसरे दिन वहां मक्खी न भिनभिनाये और किसी को भी थू-थू करने की आवश्यकता न पड़े। इससे दूसरे दिन किसी को भी किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती थी और ये क्षेत्र शिविर से काफी दूर ढ़लान वाला था और खूब मिट्टी भी थी।

22 अगस्त को अलग-अलग शिविर के लिये सामान को अलग-अलग किया। लगभग सभी सामान खोलकर फैला दिया गया। उसी दिन बकरी वालों और शेष कुलियों को भी हिसाब चुकाकर वापस भेज दिया गया। अब हमारे पास ऊंचाई पर काम करने वाले कुलियों के नाम से 10 ही कुली रखे गये, जो अधिकतर लाता व जेलम गांव के थे। उसमें से एक हाईस्कूल पास सबसे छोटी उम्र का बनवन नाम का काफी तगड़ा लड़का था। साथ ही साथ उसमें फुर्ती भी उतनी ही अधिक थी।

आज सभी सदस्यों व ऊंचाई पर काम करने वाले कुलियों को जिस सामान की आवश्यकता थी, उसे दिया गया। सारे सामान को उनके नाम के आगे चढ़ाया गया क्योंकि वापस करते समय उन्हें उस सामान को वापस करना पड़ेगा। इसी प्रकार सभी सदस्यों को भी आवश्यक सामान दिया गया। इस अभियान में मेरे अन्य अभियानों की अपेक्षा काफी बातों में अन्तर था। यह अभियान लड़के व लड़कियों का सम्मिलित अभियान था, जो भारत का पहला अभियान था। लड़कों का विचार था कि लड़कियां काम कम करती हैं और लड़कियों का विचार था कि लड़कों में शारीरिक शक्ति अधिक होती है किन्तु कोई भी किसी काम की जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता है। वास्तव में लड़कियों के पास मानसिक शक्ति अधिक होती है और जिस कार्य को भी वे करती हैं उसे मन और लगन से करती हैं।

इस कारण कभी-कभी काफी मतभेद भी रहता था। हालांकि रस्सियां लगाने और खोलने में लड़कों का अधिक हाथ था। इसमें लड़कियों का हाथ बिल्कुल नहीं था। फिर भी जितनी मदद हो सकती थी उतनी मदद करने की कोशिश करतीं थीं और रस्सियां लगाने आदि का आवश्यक सामान उठाकर उनके साथ चलती थीं। इस अभियान के समय मुझे बार-बार 1979 अभियान के सदस्य न्यूजीलैण्ड के ग्रेम डिंगल की याद आती थी, क्योंकि ग्रेम डिंगल ने हम लोगों की कितनी मदद की थी, ऐसी बात भारतीय सदस्यों में नहीं देखी।

23 अगस्त को प्रथम शिविर तक सामान पहुंचाने का प्रस्ताव था। आधार शिविर से प्रथम शिविर तक का रास्ता सीधी चढ़ाई द्वारा पहुंचता था। प्रथम शिविर एक चट्टान के पास लगाया, जहां पर पत्थर गिरने का थोड़ा डर तो था पर शिविर का क्षेत्र अच्छा था। प्रथम शिविर में जगह को साफ कराकर दो छोटे टेन्ट आमने-सामने लगाये। रसोई के लिये पत्थरों को लगाकर चट्टान के पास तैयार किया। लगभग दो घण्टे तक प्रथम शिविर में रहकर वापस आधार शिविर आये।

आधार शिविर आकर नहा-धोकर खाना खाया। अब सभी एक साथ बैठकर आगे के लिये योजना बनाने लगे। उसी समय यह निश्चय किया गया कि लाटू, रतन, रेखा व मैं दो शेरपाओं के साथ प्रथम शिविर के लिये रवाना होंगे और अन्य सदस्य आधार शिविर से सामान पहुंचाने का कार्य करेंगे। इस प्रकार 24 अगस्त को हम लोग प्रथम शिविर में रहने हेतु पहुंचे। यहां पहुंचकर चाय-नाश्ता करने के बाद आगे के शिविर के लिये रास्ता खोलने हेतु चल पड़े। लगभग 4 बजे तक जितनी दूर पहुंच सकते थे, चलते चले गये। उस दिन हम लोग आईस फॉल तक रास्ता बनाते हुए पहुंचे, फिर वहीं से वापस आये। हम अपने साथ रस्सियां आदि सामान जो लेकर गये थे, उसे वहीं छोड़ कर वापस प्रथम शिविर आये।

प्रथम शिविर में आज हम लोग कम थे, अत: शान्ति थी। किसी प्रकार खाना बनाकर आगे के लिये योजना बनाने लगे। सब कुछ ठीक से चल रहा था। इतने में लाटू कहने लगा कि एक टेन्ट में हम दोनों रहते हैं और दूसरे टेन्ट में रेखा व रतन रहेंगे। मैंने कहा रेखा को अच्छा नहीं लगेगा, क्योंकि रतन ने उसके पिता के साथ में काम किया है। अत: तुम्हारे टेन्ट में रेखा रहेगी और मैं रतन के टेन्ट में रहूंगी। इस तरह वह राजी हो गया। वहीं से उनकी दोस्ती शुरू हो गयी। पर मैं ये सब कुछ भी नहीं जानती थी और न कभी विचार ही आया कि आगे चलकर उनकी दोस्ती इतनी रंग लायेगी।

खैर प्रथम शिविर से नन्दा देवी मुख्य चोटी, नन्दा देवी पूर्व, नन्दा खाट आदि चोंटियां बहुत सुन्दर दिखाई देती थीं। हमने प्रथम शिविर में पीने के पानी की व्यवस्था बर्फ को काटकर की थी और उसके पास झण्डा लगा दिया था, जिससे कोई गन्दा न करे, पर दूसरे दिन सारी बर्फ टूट गयी,। फिर हमें दूसरी जगह पर झण्डा लगाना पड़ा।

अन्य सदस्य आधार शिविर से सामान पहुंचाने का ही कार्य कर रहे थे, किन्तु हम लोग सामान लेकर द्वितीय शिविर के लिये रास्ता खोलने चल पड़े। आईस फॉल के पास पहुंचने के बाद आपस में विचार करने लगे कि आगे का रास्ता कहां से निकाला जाय? मैंने कहा, सदस्यों के लिये तो यह आईस फॉल वाला रास्ता ठीक ही है पर कुली परेशान हो जायेंगे क्योंकि बोझ के साथ जुमार से चढ़ना कठिन हो जायेगा। अत: बांयें हाथ की तरफ से रास्ता निकाला जाय। उस समय तो मान गये और जहां मैंने राय दी, वहीं से रास्ता निकालने लगे। दो चट्टान पीटोन भी ठोक लिया था किन्तु पता नहीं उनकी मर्दानगी पर चोट लगी या क्या था। कहने लगे कि वही आईस फॉल वाला रास्ता ठीक है, फिर मैं कुछ नहीं बोली और वहां से वापस आईस फॉल पर ही रास्ता बनाने लगे। उस दिन से मैंने यह विचार किया कि कभी भी आगे राय नहीं दूंगी।

आईस फॉल वाला रास्ता काफी खतरनाक था। जुमार की सहायता से आईस फॉल को चढ़कर आगे बढ़ना पड़ता था। यदि 11 बजे तक उसे पार कर लिया तो ठीक है, इसके बाद उस फॉल पर पानी का झरना गिरता था जिस कारण पूरे भीग जाते थे। पर आज हम लोग द्वितीय शिविर तक नहीं पहुंच पाये और आधे रास्ते में ही सामान रखकर वापस प्रथम शिविर आये। प्रथम शिविर पहुंचने में हमें 6 बज गये थे, फिर खाना बनाकर खाकर सो गये।

दूसरे दिन 27 अगस्त को जल्दी उठकर नाश्ता तैयार करके खाकर जहां रस्सियां लगाईं थी, वहां तक जुमार की सहायता से चढ़ते चले गये, पर आईस फॉल उचित नहीं समझा और अन्दर ही अन्दर आंसू के घूंट पीकर रह गयी। मेरा दिल अन्दर ही अन्दर रो रहा था, पर मैं बाहर प्रकट नहीं कर पायी। 29 अगस्त से 31 अगस्त तक शिविर के सारे सामानों व राशन आदि को अलग-अलग करके ठीक किया, पर आज बहुत से लोगों की चिट्ठियां आयीं थी। इतनी ऊंचाई पर हमारे मनोरंजन का एकमात्र साधन पत्र ही होता था। इस कारण सभी अपने-अपने पत्रों पर टूट पड़े और उसे पढ़ने में व्यस्त हो गये। इन पत्रों को पढ़कर ऐसा लगता था कि मेरे मित्रगण मेरे ऊपर कितनी आशा रखते हैं। पत्रों पर लिखा रहता था कि तुम तो अब काफी दूर पहुंच गयी होंगी। तुम्हें चोटी तक पहुंचना ही है। उनके इन समाचारों को पढ़कर बड़ा ही साहस एवं प्रेरणा मिलती थी तथा कभी सोचती थी कि इनकी इच्छाओं को मैं कैसे पूर्ण करवाऊंगी ? क्योंकि इस साल, अन्य सालों के अभियानों की अपेक्षा, मेरी तबियत ठीक नहीं थी। शुरू में मेरा दाहिना कान पक गया था, उसे सुखाने के लिये डॉक्टर से दवाई ली। डॉक्टर ने मुझे कैप्सूल दिये, इससे कान तो सूख गया पर मेरा पेट खराब हो गया। इससे मुझे परेशानी हो रही थी। जो कुछ भी खाती थी, पच ही नहीं पाता था और अधिक पेट खराब होने के कारण शरीर में पानी की भी कमी हो गयी थी। अत: लगता था कि मैं इस साल अपने लक्ष्य तक पहुंच पाऊंगी या नहीं ?

1 सितम्बर को आधार शिविर से द्वितीय शिविर के लिये सीधे रवाना हुए। पेट की कमजोरी के कारण मैं कुछ कमजोर-सी हो गयी थी। इस कारण सुबह 6 बजे ही आधार शिविर से रवाना हो गयी, जबकि अन्य सदस्य मुझ से 2 घण्टे बाद आये। मैंने प्रथम शिविर पहुंचकर सारे सामान को ठीक से रखा। वहां हमारे अन्य सदस्य थे। उनके साथ 1 घण्टे तक बातें करने के बाद द्वितीय शिविर के लिये रवाना हुई। लगभग 2 बजे द्वितीय शिविर पहुंच गयी थी। वहां भी हमारे अन्य सदस्य थे। द्वितीय शिविर रिज में होने के कारण दोनों तरफ का दृश्य आराम से देख सकते थे।

2 सितम्बर से 5 सितम्बर तक द्वितीय शिविर से तृतीय शिविर के लिये सामान पहुंचाने का कार्य करती रहती थी। द्वितीय शिविर से तृतीय शिविर तक के पूरे ही रास्ते पर रस्सियां लगा रखी थीं। अत: जुमार की सहायता से तृतीय शिविर की लगभग पूरी की पूरी रस्सियां बर्फ और थोड़ा चट्टान पर लगा रखी थीं। अभी तक हमारे चतुर्थ शिविर की स्थापना नहीं हो पायी थी, इस कारण तृतीय शिविर के सदस्य तृतीय शिविर में ही थे।

पहले के प्रस्ताव के अनुसार 5 सितम्बर को मुझे तृतीय शिविर में रहने जाना था, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। इस कारण मैं लीडर से पूछ बैठी कि क्या मुझे आज तृतीय शिविर में रहने जाना है ? पर लीडर इस पर बिगड़ गये और कहने लगे यदि लीडर को लीडर नहीं मानना है तो फिर मेरा यहां होना किस काम का ? उनकी यह बात सुनकर मैं निरुत्तर हो गयी और अपनी बेवकूफी पर बहुत ही रोना आया, किन्तु रोकर भी क्या फायदा था। मैं तो केवल यह जानना चाहती थी कि आगे की योजना क्या है ?

इस प्रकार कभी-कभी लगता था कि वास्तव में मुझमें बहुत ही कमी है। अपने  पास ऐसी विद्या है ही नहीं, जो दूसरों को काम से नहीं बल्कि बातों से जीत लेती हैं। खैर 6 सितम्बर को मुझे तृतीय शिविर में रहने जाने की अनुमति मिल गयी और अपने सभी सामान को लेकर तृतीय शिविर रहने के लिये निकल पड़ी, किन्तु उस दिन मौसम इतना खराब था कि जैसे ही आगे बढ़ते, हवा हमें धक्का दे जाती थी। कभी-कभी तो हवा के झोंके हमें काफी दूर तक फेंक देते थे। बाद-बाद में तो हमें यह आदत-सी हो गयी थी कि जैसे ही हवा के झोंके आते हम बैठ जाते थे। इस प्रकार गिरते-संभलते हुए तृतीय शिविर पहुंची।

दूसरे दिन सभी सदस्यों ने तृतीय शिविर में ही आराम करने का विचार किया, लेकिन रतन सिंह द्वितीय शिविर वापस चले गये। मैं, लाटू और रेखा तृतीय शिविर में ही रहे। उस दिन मौसम बहुत साफ था, इस कारण सारे दिन टेन्ट के अन्दर ही रहना मुश्किल हो रहा था। मैं कभी टेन्ट के अन्दर तथा कभी बाहर आती-जाती रहती थी। इन पहाड़ों के मौसम का भी कुछ पता नहीं चलता है। कभी भयानक ठण्ड पड़ती है, जिसे सहन कर पाना भी कठिन हो जाता है और हाथ पैर तक जम जाने का डर होता है, तो कभी गर्मी के मारे बुरा हाल हो जाता है।

8 सितम्बर को हमारी योजना चतुर्थ शिविर की ओर जाने की थी, किन्तु जैसे ही सुबह उठे तो देखा कि दोनों टेन्टों के बीच की जगह पर बर्फ का ढेर लगा था, जो कि हवा द्वारा उड़ाकर लाई गई थी। उस दिन सुबह से ही आंधी के कारण बर्फ के टुकड़े उड़-उड़कर मुंह पर थपेड़े मारने लगे थे। बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ते गये। लगभग 4 बजे शाम के समय राशन का बोझ उठाकर ले जाने वाला शेरपा सामान को आधे रास्ते पर ही छोड़कर वापस तृतीय शिविर चला आया और कहने लगा कि चतुर्थ शिविर काफी दूर है और समय बहुत हो गया है। दूसरे शेरपा की आंख में कुछ समस्या थी, वह कहने लगा कि मुझे ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है और वह भी सामान रखकर तृतीय शिविर वापस चला आया। इस तरह दोनों ही शेरपा आधे रास्ते में ही सामान छोड़कर वापस तृतीय शिविर आ गये, जो हमें रास्ते में मिले। उन्हें देखकर हमने भी तृतीय शिविर वापस जाने का विचार किया। सभी सदस्यों की हालत बहुत खराब हो गयी थी। किसी तरह 6:30 बजे के लगभग तृतीय शिविर पहुंचे। सभी के हाथ, पैर तथा मुंह जम से गये थे। किसी प्रकार एक-एक प्याला चाय पीकर सो गये, किन्तु सुबह सभी को पानी की मात्रा कम होने के कारण तकलीफ हो रही थी। रेखा की हालत काफी खराब थी। उसे इतनी ठण्ड लग गयी थी कि रात भर जाड़े के कारण दांत अकड़ते रहे। हाथ-पांव मलकर उसे गर्म किया, तब जाकर वह ठीक हुई।

सुबह उठकर चाय तैयार की। चाय पीने के बाद आधार शिविर में आराम करने की योजना बनायी। इस तरह 9 सितम्बर को आधार शिविर वापस आये।

आधार शिविर में आकर भी मुझे किसी प्रकार का खाना खाने की इच्छा नहीं हुई। यहां तक कि चाय पीने का मन भी बिल्कुल नहीं करता था। जिस कारण अब मुझे केवल उल्टी-सी होने लगी। ऐसा लगता था कि सारे पेट में हवा भर गयी है। यहां तक कि खाने की खुशबू से भी उल्टी होने को तैयार हो जाती थी। इस कारण बहुत परेशान थी। सोच-सोचकर मेरी तबियत और खराब होने लगी, क्योंकि 13 सितम्बर को पहाड़ की ओर जाना था।

इस प्रकार 13 सितम्बर को सभी सदस्य पहाड़ की ओर जाने की तैयारी करने लगे और अपने राम को उल्टी पर उल्टी होनी शुरू हो गयी। मेरी हालत बिगड़ती ही जा रही थी। आधार शिविर में मैं वायरलैस आपरेटर तथा एक भोजन बनाने वाले के साथ थी। ऐसे समय में मैं सोच-सोचकर पागल हुई जा रही थी और पूर्णरूप से निराश हो चुकी थी। बार-बार यही सोचती रही कि उन लोगों को क्या मुंह दिखाऊंगी, जो मुझसे इतनी आशा रखते हैं। किन्तु दैव योग से पैरा वालों के डॉक्टर पी.डी. पुनेकर आये और उन्होंने बहुत मदद की।

डॉक्टर शाम 4 बजे के लगभग हमारे शिविर में आये और मेरे हाल-समाचार पूछकर ग्लूकोज चढ़ाया, किन्तु मुझे उसका रिऐक्शन हो गया। साथ ही जहां से ग्लूकोज की सुई लगा रखी थी, वहां पर फूलकर बैलून बन गया और बहुत दर्द करने लगा। मैं उसे सहती रही और कुछ नहीं बोली। काफी देर में जब डॉक्टर ने खुद देखा तो कहने लगे, बोला क्यों नहीं ? परन्तु मैंने कहा, कहेंगे कि सहन कर ही नहीं सकती, अत: चुप ही रही। खैर किसी तरह से वहां से सुई निकाल कर दूसरी जगह से ग्लूकोज चढ़ाया। पर उसका रिऐक्शन होने से मेरे दांत अकड़ गये और मैंने पूर्णरूप से अपने हाथ-पैर छोड़ दिये। सारा शरीर कांपने लगा। 4-5 लोगों ने मुझे पकड़ रखा था। मेरी हालत को देखकर डॉक्टर ने अपने शिविर से दो सुई मंगवाई। मैने डॉक्टर से कहा, कृपया मुझे किसी बर्फ की दरार में फेंक दो। अब मुझसे यह दर्द सहा नहीं जाता है और अचानक ही मैं उन 5 के काबू से बाहर हो गयी। जोड़-जोड़ में दर्द  सहा नहीं जा रहा था और चिल्लाती भी जा रही थी और पता नहीं क्या-क्या बके जा रही थी। जैसे ही उन्होंने सुई लगाई मुझे कुछ पता नहीं चला। फिर धीरे-धीरे मैं शान्त होती चली गयी। रात के करीब 9 बजे मैं होश में आयी। डॉक्टर शाम 4 बजे से 9 बजे रात तक मेरी सेवा करने में लगे थे। मैं उनका यह एहसान कभी भूल नहीं सकती हूं। आज तक मैं उनके किये को नहीं भूली हूं।

इस प्रकार पैरा वालों की मेरे ऊपर बहुत ही अधिक कृपा रही, जिस कारण मैं स्वास्थ्य लाभ कर सकी। साथ ही उनके डॉक्टर में इतना अधिक सेवाभाव था कि उल्टी को बार-बार पलट-पलटकर चेक कर रहे थे। साथ ही जब ग्लूकोज के साथ जूस और कुछ दवाई डालकर तरल पदार्थ तैयार कर रहे थे तो अपने आप चखकर तैयार करते थे। यदि आज सभी डॉक्टरों में इसी प्रकार का सेवाभाव होता तो हमें रोगों पर विजय पाना आसान होता। पर इतना समय किसके पास है, जो रोगी की सेवा कर सकें। मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि भगवान डॉ. वी.डी. पुनेकर को दीर्घ आयु प्रदान करें तथा जीवन के हर कदम पर आगे ही आगे बढ़ते जाये तथा सफलता हमेशा उनके कदम चूंमे।

क्रमश: