जॉन स्टुअर्ट मिल: महिला अधिकारों का प्रखर प्रवक्ता

जया पाण्डे

एक लम्बे समय तक राजनीतिक सिद्धान्त महिला अधिकारों तथा महिला मुद्दों से अछूता रहा। भारत में तो मनु ने ‘न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति’ कहकर स्त्रियों को गुलाम बना दिया था। पश्चिमी दर्शन जो ईसा पूर्व तीसरी चौथी सदी से प्रारम्भ माना जाता है, वहाँ भी स्थिति लगभग ऐसी  ही है। प्लेटो ने पुरुषों की भाँति महिलाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में लाने की बात कही थी, लेकिन उस दौर में प्लेटो के इन विचारों को काल्पनिक कहकर खारिज कर दिया गया। ईसा पूर्व तीसरी-चौथी सदी के यूनान में समानताएँ जैसी धारणाओं के लिए कोई स्थान नहीं था। प्राकृतिक असमानता को कानूनी रूप प्राप्त था। यही कारण था कि दास प्रथा का औचित्य सिद्ध किया जा रहा था। अरस्तू ने यही किया। राजनीति विज्ञान का जनक कहे जाने वाले अरस्तू ने सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विवेचन तो किया, लेकिन यथास्थितिवाद बनाये रखने में ही जोर दिया। अरस्तू परम्पराओं पर विश्वास रखने वाला विचारक था। इसलिए वह किसी भी दशा में दास प्रथा को समाप्त करने के पक्ष में नहीं था। उन्होंने स्त्रियों को भी दासों की ही श्रेणी में रखा। मानवीय समानता की बात तो प्लेटो में भी नहीं थी, परन्तु वे सभी स्त्रियों को एक ही वर्ग में नहीं रखना चाहते थे। मानसिक क्षमता की दृष्टि से स्त्री-स्त्री में अन्तर है, यह प्लेटो का मानना था। इसके विपरीत अरस्तू सभी स्त्रियों को दासों की श्रेणी में रखने के पक्षपाती हैं।

सम्पूर्ण पाश्चात्य दर्शन ने स्त्री के साथ अन्याय किया- अरस्तू, देकाते, कांट, हीगल, रूसो पितृसत्ता के समर्थक हैं। रूसो ने भी जिसे समानता और स्वतंत्रता के मध्य साम्य करने वाला विचारक माना जाता है, इसी मनोवृत्ति का परिचय दिया। रूसो का कहना था-

‘‘स्त्री की सम्पूर्ण शिक्षा पुरुषों की सापेक्षता में होनी चाहिए। उन्हें खुश करने के लिए, उनके लिए उपयोगी  बनाने के लिए जिससे वे उन्हें प्यार और सम्मान दे सकें। स्त्रियों के कर्तव्य हमेशा हैं: बाल्यावस्था में उन्हें पढ़ाना, युवावस्था में उनकी देखभाल करना, उन्हें सलाह देना, उनके जीवन को मधुर बनाना- बचपन से उन्हें यही सिखाना चाहिए।’’

आश्चर्य तो यह है कि राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी रूसो के विचारों को विचारों के इतिहास में क्रान्तिकारी मोड़ की भाँति देखता है। ‘मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, पर सर्वत्र वह जंजीरों में जकड़ा हुआ है’ कहने वाले विचारक ने ही स्त्रियों को जंजीर में जकड़ने की वकालत की। कहने का मतलब यह है कि एक लम्बे समय तक विचारों की समीक्षा का पैमाना यह नहीं था कि वह स्त्री-स्वतंत्रता/समानता की बात कर रहा है या नहीं। स्त्रियों की पराधीनता का समर्थन करने वाले विचारक को यह कहकर सम्मानित किया जाता रहा कि वह समानता की पहले पहल वकालत करने वाला विचारक था। 18वीं-19वीं सदी में आकर  महिला अधिकारों तथा समानता की बात की जाने लगी। महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति पर विचारकों का ध्यान गया। बौद्धिक सूत्रों के माध्यम से नारीवादी मुद्दों को एक नई सोच ‘मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट’ (1792) द्वारा लिखित ‘ए विन्डीकेशन ऑफ राइट ऑफ वूमैन’ द्वारा दी गई। इसके बाद जौन स्टुअर्ट मिल का नाम आता है। प्रमुख सिद्धान्तकार के रूप में गिने जाने वाले जॉन स्टुअर्ट मिल का महत्व इस बात पर है कि उन्होंने संसद के भीतर स्त्रियों की स्वतंत्रता की वकालत की।
(John Stuart Mill)

जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) ब्रिटिश चिन्तक हैं। मिल की ख्याति उनके स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों से है। ‘ऑन लिबर्टी’ मिल का प्रसिद्ध निबन्ध है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रखर हिमायती है। स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही मिल का ध्यान समाज के उस हिस्से पर गया, जो दासता जैसी जिन्दगी जी रहा था। मिल को एक उपयोगितावादी और व्यक्तिवादी विचारक के रूप में ख्याति मिली, उनके महिला अधिकार सम्बन्धी विचारों पर बहुत अधिक प्रकाश नहीं डाला गया। कहा जाता है कि उनकी पत्नी टेलर के प्रभाव से वे महिलाओं की स्थिति को जान पाये।

मिल विक्टोरिया युग के विचारक थे। इस काल में महिलाओं को उच्च शिक्षा एवं अन्य पदों से वंचित रखा जा रहा था और सार्वजनिक जीवन में भी उनका प्रवेश निषिद्ध था। महिलाओं के लिए कोई द्वार खुला था तो केवल विवाहित जीवन बिताने का। जब उनकी दशा सुधारने के लिए कोई आन्दोलन उठता तो उसे समाप्त कर दिया जाता। मिल ने बताया कि महिलाओं का पिछड़ापन किसी भी प्रकार उनकी बौद्धिक प्रतिभा की कमी का परिणाम नहीं है वरन् यह उनकी सदियों की दासता का परिणाम है। यदि दासता के बन्धन से महिलाओं को मुक्त कर दिया जाय और उन्हें पुरुषों के समान ही उन्नति और विकास के अवसर दिए जायें तो कोई कारण नहीं कि वे पुरुषों के समान ही सिद्ध न हो सकें।

‘द सब्जेक्शन ऑफ वूमैन’ (The Subjection of Women) जान स्टुअर्ट मिल द्वारा लिखित एक निबन्ध है, जो लिंग समानता के पक्ष में मजबूत तर्क देता है। यह निबन्ध 1869 में प्रकाशित किया गया, जब पुरुषों और महिलाओं की स्थिति भिन्न थी और मिल के विचार यूरोपीय पारम्परिक मापदण्डों के लिए अपमान की तरह लग रहे थे।

इसका प्रथम अध्याय महिलाओं की अधीनता को एक सार्वभौमिक परम्परा के रूप में देखता है। हमारे समाज में महिलाओं के जन्म से लेकर भविष्य तक की योजना बना ली जाती है। महिलाएँ पुरुषों के अधीन होकर उनके संरक्षण और मानसिकताओं को झेलने के लिए उपलब्ध रहती हैं। इस त्रासदी से मुक्ति के लिए मिल महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में विस्तार चाहते हैं।

दूसरे अध्याय में मिल ने महिलाओं की कानूनी परतंत्रता का उल्लेख किया है जो महिलाओं को दास से भी ज्यादा निम्न स्थिति में पहुँचा देती है। एक अत्याचारी पति की अधीनता में स्त्री अपनी सम्पत्ति, बच्चों और कानूनी अधिकारों से वंचित हो जाती है। मिल लिंग समानता को दोनों ही पति और पत्नी के लिए लाभदायक तथा समाज की प्रगति के लिए जरूरी बताता है।

तीसरे अध्याय में मिल महिलाओं को पारम्परिक रूप से निकलकर आरक्षित व्यवसायों में जैसे राजनीतिक भूमिका, व्यवसाय, वैज्ञानिक, साहित्यिक गतिविधियाँ, कला और संगीत में लाने की बात कहते हैं। वे महिलाओं को मानवता के लिए अच्छे पेशेवर, व्यवसाय और सार्वजनिक जीवन में समान रूप से हिस्सा लेने की धारणा को बढ़ाते हैं। उनके अनुसार महिला मुक्ति के लिए लड़ाई पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा लड़ी जानी चाहिए।

चौथे और अंतिम अध्याय में, मिल कहते हैं कि महिलाओं की मुक्ति के द्वारा ही समाज का भविष्य सुरक्षित है। इसके अलावा वे महिलाओं की शिक्षा, पति और पत्नी के बीच सच्चे एवं पवित्र रिश्ते, आदर्श विवाह, मानवता, पुरुषों और महिलाओं के बीच सम्बन्धों में सुधार इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
(John Stuart Mill)

मिल के चिन्तन में गहरा प्रभाव श्रीमती हैरियट टेलर की मित्रता का पड़ा, जो 1851 में उनकी जीवन संगिनी बन गई। उनके प्रभाव ने मिल को अधिक मानवतावादी बना दिया। इनका ध्यान समाज के कमजोर वर्ग की तरफ गया। वे स्त्री पुरुष समानता के समर्थक बन गए। उनके विचार व्यक्तिवादी थे, लेकिन लोक कल्याणकारी समाजवाद के निकट भी थे। स्त्री-पुरुष समानता को मिल न केवल स्त्रियों के लिए बल्कि समाज के विकास के लिए भी आवश्यक मानते हैं। पुरुष के समान महिलाओं को अवसर न देना न केवल आधी आबादी को विकास से रोकता है, बल्कि उनकी प्रतिभा के लाभ से समाज को वंचित करता है। मिल का कहना है कि महिलाओं को दोयम दर्जे का समझने की परम्पराएँ इसलिए बनी हैं क्योंकि हमारी परम्पराएँ और कानून शक्तिशाली के हितों पर टिकी हैं। पुरुष स्त्री से शारीरिक रूप से बलवान है। मिल का मानना है कि इस आधार पर यह मान लेना कि वह स्त्री से हर क्षेत्र में श्रेष्ठ है, यह गलत है। व्यक्ति को उस स्थिति में कैद नहीं करना चाहिए, जिसमें वह पैदा हुआ है, बल्कि उसकी प्रतिभा और उसकी इच्छाओं को तब तक विकास के अवसर दिए जाने चाहिए, जब तक वे दूसरों के विकास में अवरोध न करें। अगर औरतों की क्षमता पहचाननी है तो उन्हें घरेलू कार्य से मुक्ति दी जानी चाहिए।

उस समय के लोगों का यह मानना था कि स्त्रियों की स्वतंत्रता परिवार और विवाह जैसी संस्थाओं को कमजोर बना देगी। मिल इस बात के विरोध में तर्क देते हैं कि स्त्रियों की समानता परिवार को अधिक मजबूत बनायेगी। वहाँ गुणों के विकास के अधिक अवसर होंगे। वहाँ आदर्श स्वतंत्रताओं के लिए स्थान होगा। मिल का मानना है कि महिलाओं का शोषण हो ही इसलिए हो रहा है क्योंकि वे पुरुषों से कमतर आँकी जाती हैं। स्वतंत्र होने के लिए उन्हें आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना पड़ेगा। सही मायने में औरतें तभी स्वतंत्र हो सकती हैं जब दोनों के बीच समानता के सम्बन्ध हों न कि तानाशाही के। घरेलू जीवन और परिवार के बीच महिलाओं की स्थिति से मिल बहुत परेशान है। परिवार में घरेलू दासता है। औरत को पति की दासता का शिकार होना पड़ता है।

नैतिक मूल्यों को सिखाने वाली संस्था के रूप में परिवार को बनाने में औरतों की एक पारम्परिक स्टीरियोटाइप्ड भूमिका बन जाती है। परम्परागत रूप से यथास्थितिवाद को बनाये रखने का दावा किया जाता है जो महिलाओं को गुलाम बना देता है।

मिल पुरुष-स्त्री के बीच समानता का घोर समर्थक है। इसके लिए वह स्त्रियों के लिए शिक्षा व अवसर के द्वार खोलना चाहता है। वह महिलाओं की स्वतंत्रता का इतना पक्षपाती था कि उसने ब्रिटिश संसद में इस प्रश्न पर सबसे पहले आवाज उठायी। उसका कहना था कि उन्हें उच्च शिक्षा एवं राजकीय नौकरियाँ दी जानी चाहिए। उसके मतानुसार स्त्री-पुरुष की असमानता दूर करने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उन्हें पुरुषों के समान ही मताधिकार दिया जाय। उनका विचार था कि महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखने का कोई औचित्य नहीं है। इस सम्बन्ध में उसका कथन था, ‘राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध में लिंग के आधार पर भेद करना वैसा ही अप्रासंगिक मानता हूँ जैसा कि बालों के रंग के आधार पर भेद करना। अगर कोई भेद ही करना हो तो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में मताधिकार की अधिक आवश्यकता है क्योंकि शारीरिक दृष्टि से निर्बल होने के कारण वे अपनी रक्षा के लिए विधि और समाज पर अधिक निर्भर हैं।’ मिल के तर्क अकाट्य थे और इसी कारण उनका पर्याप्त असर भी था।

मिल के विचारों का महत्व महिला-अधिकारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। 150 वर्ष पहले कहे गए उसके विचार आज भी सही प्रतीत होते हैं-

1.   औरतों की आजादी समाज को उनकी योग्यता का लाभ देगी।

2.   औरतों की आजादी स्वयं उनके लिए सुख का कारण है। यह स्वतंत्रता उनके स्वयं के लिए महत्वपूर्ण है। यह निष्कर्ष अधिक महत्वपूर्ण है। स्त्रियों की जिन्दगी दूसरों या परिवार के अन्य सदस्यों की चिन्ता में व्यतीत हो जाती है। वे तभी सुखी रह पायेंगी जब वे अपने लिए समय निकालें।

3.   मिल के स्त्री-स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों का अपने युग के चिन्तन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उससे स्त्रियों को विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुए। उनकी दशा में सुधार हुआ। महिलाएँ इस बात के लिए मिल की ऋणी हैं।
(John Stuart Mill)

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