आपकी चिठियाँ

उत्तरा का अप्रैल-जून अंक मिला। आपकी (उत्तरा की) निरंतरता, सक्रियता और गरिमामयी सादगी प्रेरित करने वाली है। इस गलाफाड़ आत्मप्रचार के युग में यह शालीनता बताती है कि सब कुछ खत्म नहीं हो गया है। संभव हो तो तमाम अंकों को डिजिटल स्वरूप में उपलब्ध करवाने की योजना बनाएँ।
पल्लव, नई दिल्ली।

आपकी पत्रिका का उत्तराखण्ड के पढ़ने वाले लोगों अथवा पाठकों के मध्य अपना एक विशिष्ट स्थान है। पत्रिका का कलेवर एवं उसमें संकलित सामग्री ही पत्रिका को आमजनों के बीच लोकप्रिय बनाती है… और यह कार्य विगत सत्ताईस-अट्ठाईस वर्षों से  उत्तरा कर रही है। आपके इस समर्पण के लिए आपकी पूरी टीम को मेरी बधाई एवं शुभकामनाएँ।
दरअसल मुझे उत्तरा भाई अश्विनी कोटनाला की दुकान में ही पढ़ने को मिलती थी। बाद में अंक को हम लोग पुस्तकालय में रख देते थे। अब विगत वर्ष भाई अश्विनी का कैंसर की बीमारी से जूझते हुए निधन होने के पश्चात् यहाँ नगर में साहित्यिक गतिविधियों को लेकर एक शून्य ही उत्पन्न हुआ है। बल्कि उत्तरा का अंक भी मुझे कई कोशिशों के बाद मिला तभी पता नोटकर आप तक अपनी पुस्तक पहुँचा पा रहा हूँ।
(Letter to Uttara)
देवेन्द्र नैथानी, लैंसडाउन, गढ़वाल

उत्तरा महिला पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 1992 के अंक से मैं इस लोकप्रिय पत्रिका का नियमित पाठक रह चुका हूँ। लेकिन व्यस्त जीवन शैली के कारण पत्रिका पढ़ने से वंचित हो गया था और काफी अन्तराल भी हो चुका, जिस कारण पत्र-व्यवहार भी नहीं हो पाया। मैं पत्रिका पुन: सुचारु करना चाहता हूँ, कृपया मुझे पत्रिका की वर्तमान में वार्षिक निर्धारित शुल्क से अवगत कराते हुये पत्रिका प्रेषित करने का कष्ट करेंगे।
एस.एस. मजीठिया, बाबूगढ़, विकासनगर, देहरादून-248198

उत्तरा से मेरा सम्बन्ध मेरे अध्ययनकाल से ही रहा है। वर्ष 2006 से मैं इसकी आजीवन सदस्या बनी। लेकिन पत्रिका की प्रतिष्ठा व गरिमा को देखते हुए, अपनी अल्पमति से निष्पन्न विचारों को पत्रिका के लायक न मानते हुए कभी कुछ लिखित भेजने का साहस नहीं कर पाई। आपने मेरी कहानी प्रकाशित की उसके लिए धन्यवाद।
अमिता प्रकाश, द्वाराहाट, अल्मोड़ा

संपादक मण्डल एवं सहयोगियों को मेरा नमस्कार। मुझे उत्तरा के अंक का हमेशा इंतजार रहता है। देर से ही सही लेकिन अक्टूबर-दिसम्बर 2017 की उत्तरा मिली। धन्यवाद। उत्तरा लगभग हर मुद्दे पर बोलती है, उत्तरा के इस अंक में  सामग्री पठनीय है लेकिन उत्तरा का कहना है, संपादकीय, जो कि संजय लीला भंशाली की फिल्म पद्मावत को लेकर है, अच्छा लगा। उत्तरा के इस अंक के माध्यम से बी. मोहन नेगी जी के बारे में जानने का अवसर मिला। वे बहुत अच्छे चित्रकार थे। जसिन्ता केरकेट्टा के साथ बातचीत और उनकी कविताएँ अच्छी लगी। जसिन्ता जी ने बहुत संघर्ष किया और इसी संघर्ष से उनकी कविताएँ जन्मी हैं। चेतना जोशी द्वारा लिखित यात्रा वृत्तान्त अच्छा है, अनिल कार्की की हमारी साझा विरासत (संस्कृति) से पंचेश्वर के बारे में जानकारी मिली। रेखा चमोली के बच्चों के साथ प्रयोग रोचक लगे। जहाँ तक मेरी जानकारी है लगभग 28 सालों से शुरू हुई यह यात्रा, कई कठिनाइयों के बावजूद आज भी जारी है यह बहुत बड़ा कार्य आप लोगों द्वारा किया जा रहा है इसके लिए सभी को पुन: बधाई।
हरि शंकर, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़
(Letter to Uttara)

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