अच्छे सरकारी स्कूलों की तलाश में

भास्कर उप्रेती

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत मार्च माह में हल्द्वानी में डी.पी.एस. नामक एक प्राइवेट स्कूल का उद्घाटन करने पहुँचे थे। वह सरकारी खर्च पर राजधानी से हेलीकप्टर में यहाँ आये थे। यही नहीं, उन्होंने मुख्य सड़क से स्कूल को जोड़ने वाले करीब डेढ़ किलोमीटर मार्ग को पक्का मार्ग बनाने का अनुदान भी एडवांस में दिया हुआ था। मुख्यमंत्री ने इस मौके पर पहला बयान दिया कि सरकारी शिक्षकों को अपना वेतन जस्टीफाई करना चाहिए। मैं नहीं जानता मुख्यमंत्री ने अपने कार्मिकों को नसीहत देने के लिए यह मौका क्यों चुना। और ऐसा बयान देते हुए वह कैसे अपना सरकारी वेतन और सुविधा जस्टीफाई कर रहे थे। मुख्यमंत्री ने एक और बयान दिया कि अब हल्द्वानी के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल हो सकेगी। ऐसा कहते हुए वह बताना भूल गए कि डी.पी.एस. की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए अभिभावकों को प्रतिमाह प्रति बच्चे के लिए 15 हजार रुपये फीस देनी होगी।

बहरहाल मैं यहाँ एक दूसरे पहलू को सामने लाना चाहता हूँ, जिसे शायद अब की सरकारें देखना नहीं चाहेंगी। लेकिन इस पहलू का भारी क्या हल्की फीस भी न दे पाने में असमर्थ वर्ग के लिए महत्व है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 (आर.टी.ई.) कहता है कि स्कूलों में छात्र-शिक्षक का अनुपात (पी.टी.आर.) सही होना गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने की ओर पहला कदम है। लेकिन, सरकार से उचित पी.टी.आर. की दशकों पुरानी मांग, आर.टी.ई. जैसे कानून की जरूरत और स्कूलों तक पर्याप्त शिक्षक मुहैया कराने के सरकारी सच-झूठ के बीच पिछले एक दशक के भीतर सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वजहों से सरकारी स्कूलों से छात्र-छात्राओं का सुनियोजित पलायन तेज हो गया है। इसमें खुद आर.टी.ई. का 25 प्रतिशत बच्चे नजदीकी प्राइवेट स्कूल को हस्तांतरित करने संबंधी प्रावधान काफी घातक साबित हुआ है, जब सरकारी स्कूलों के रहे-सहे बच्चों को भी प्राइवेट स्कूल को सौंपने का क्रम जारी है। अपरोक्ष रूप से इस एक प्रावधान ने अभिभावकों को दो संदेश दिए हैं। एक, प्राइवेट स्कूल सरकारी स्कूलों से बेहतर हैं।  दो, आप अपने बच्चों का भविष्य सरकारी शिक्षकों के हाथ में नहीं छोड़ सकते। हालाँकि कोई भी सरकारी या गैर सरकारी अध्ययन अब तक यह नहीं साबित कर सका है कि जिन प्राइवेट स्कूलों में सरकारी स्कूलों से बच्चे जा रहे हैं, वे सरकारी से किस तरह बेहतर हैं। 

लेकिन, संक्रमण के इस दौर में कुछ शिक्षकों को खुद को साबित करने का मौका भी मिला है। कम बच्चे होना भले ही संयोग हो, लेकिन यह मौका भी था. जहाँ वे सीमित बच्चों के साथ प्रशिक्षणों में हासिल कौशलों और स्वयं की रचनात्मकता को लागू करने की स्थिति देख पा रहे हैं। कुछ समय पहले हमारा वास्ता ऐसे स्कूल और उसके शिक्षकों से पड़ा जिनके प्रयासों से अभिभावक और हम आश्वस्त हो सकते हैं।

यह स्कूल है जनपद नैनीताल के भीमताल विकास खंड के अंतर्गत आने वाला राजकीय प्राथमिक विद्यालय डोल्मार। कुमाऊं की सबसे बड़ी रिहायश हल्द्वानी नगर से तकरीबन 18 किलोमीटर दूर नैनीताल रोड स्थित डोल्मार स्कूल की स्थापना 1950 में हुई थी। विद्यालय भवन अभी भी अच्छी हालत में है। इस क्षेत्र का यह सबसे पुराना स्कूल है। इस स्कूल में अब मात्र 11 बच्चे रह गए हैं। स्कूल परिसर में ही संचालित आंगनबाड़ी में आठ बच्चे हैं। स्कूल में दो शिक्षिकाएं- हेड टीचर कमला पाटनी और सहायक अध्यापिका पूनम परिहार तैनात हैं। बच्चे कम होने की सबसे बड़ी वजह गाँव में खुला दूसरा प्राथमिक स्कूल दोगडा है, जहाँ इस समय 25 बच्चे हैं। हाल ही में एक प्राइवेट स्कूल भी गाँव में खुला है और थोड़ी संपन्नता हासिल कर चुके कुछ लोग अपने बच्चों को रानीबाग और ज्योलीकोट के प्राइवेट स्कूलों में भी भेज रहे हैं, जिन्हें लेने के लिए स्कूल बस यहाँ पहुँचती है।

नैनीताल जनपद में जब हमने शिक्षा महकमे के अधिकारियों, साथी शिक्षकों और समाज के जागरूक लोगों से अच्छे सरकारी स्कूलों के बारे में पूछना शुरू किया तो कई तरफ से डोल्मार स्कूल का जिक्र आया। यहाँ की शिक्षिकाओं और यहाँ के बच्चों दोनों की तारीफ सुनने को मिली, लेकिन हमेशा इस जिक्र के साथ कि वहाँ बच्चे कम हैं। डोल्मार स्कूल में ऐसा क्या हो रहा है जिसे हम सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के लिए शुभ संकेत कह सकते हैं, यह जानने के लिए मैंने और मेरे कुछ साथियों ने स्कूल का कई बार भ्रमण किया। कक्षा चल रही प्रक्रियाओं को, स्कूल-प्रबंधन को और बच्चों से मिल रहे परिणामों को समझने का प्रयास किया।
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स्कूल में जो दीखता है
– बच्चे नियमित रूप से स्कूल आते हैं। पूरे समय स्कूल में बने रहते हैं। अपवाद स्वरूप ही कोई बच्चा स्कूल से अनुपस्थित रहता है. जब कोई बच्चा स्कूल न आ पाए तो शिक्षिकाएं बच्चे के घर पहुंचकर उसका कारण जानने की कोशिश करती हैं।

-बच्चों में शिक्षक का भय जैसी कोई चीज नहीं। वे हमेशा किसी न किसी कार्य के माध्यम से सीखते हुए दीखते हैं। बात करने पर वे तुरन्त प्रक्रिया के लिए तैयार रहते हैं।

-शिक्षिकाओं और बच्चों के बीच अच्छी भावनात्मक मेल दीखता है। बच्चे शिक्षिकाओं से मजाक भी करते हैं। उनके घर के बारे में भी पूछते हैं और गले भी मिलते हैं।

-यह अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं है, लेकिन यहाँ के सभी बच्चों के पास अंग्रेजी का अच्छा भंडार है। कुछ बच्चे अंग्रेजी में बात करने का भी प्रयास करते हैं। तीसरी, चौथी और पांचवीं के बच्चे वाक्य बनाने का प्रयास करते हैं।

-बच्चों में गणित का डर नहीं है। यह विषय उनके लिए अन्य विषयों की तरह ही है। बच्चे व्यावहारिक गणित जैसे घर से दूरी, कम या ज्यादा की मात्रा, ऊंचाई-गहराई, तुलना करके बताना जैसी गणितीय प्रक्रियाओं में जाने का प्रयास करते हैं।

-बच्चों को अपने परिवेश जैसे पेड़-पौधे, नदी, गधेरा, पहाड़, फल-फूल, फसलों, अनाजों और जानवरों की अच्छी जानकारी है। घर में मनाये जाने वाले त्योहारों की भी जानकारी उन्हें है।

-शिक्षिकाएं बच्चों को स्थानीय कुमाउँनी भाषा के प्रयोग पर टोकती नहीं, बल्कि उसे उनकी समझ बढ़ाने में उपयोग में लाती हैं।

-बच्चों को स्कूल में एक-दूसरे का सम्मान करना, एक-दूसरे की देखरेख करना सिखाया गया है। उन्हें एक दूसरे के ज्ञान को साझा करना, उस ज्ञान पर बातचीत करना और अपना मत निर्माण करने के लिए प्रेरित किया जाता है।

-स्कूल में तैनात दोनों शिक्षिकाएं नियमित रूप से स्कूल आती हैं। स्कूल से उनके लगाव का एक प्रमाण ये है कि पिछले सत्र में दोनों शिक्षिकाओं ने बहुत कम छुट्टियां लीं।

-स्कूल के मिड-डे मील में मोटे और पौष्टिक अनाजों और दालों का मिश्रण है। बच्चों को यहाँ का भोजन घर के भोजन जैसा ही और कई बार उससे अच्छा लगता है. गहत, राजमा, चुड़कानी, चैंसा जैसी दालें और लाई-मूली जैसी सब्जियाँ बनती रहती हैं 

-स्कूल मैनेजमेंट कमिटी (एस.एम.सी.) की बैठक में अभिभावकों के सामने सीखे हुए का प्रदर्शन कराया जाता है। सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के अलावा परिवेश, देश और दुनिया के बारे में अर्जित ज्ञान का भी प्रदर्शन वे करते हैं। शिक्षक मानते हैं कि अभिभावकों को अपने बच्चों के विकास की जानकारी होनी चाहिए। ताकि वे पास-फेल करने, फस्र्ट-सेकंड आने या दूसरे स्कूलों के बच्चों से तुलना करने के भ्रम से मुक्ति पा सकें।

-स्कूल के बच्चे अखबार पढ़ते हैं। खबरों का अर्थ लगाते हैं और उसे खुद से जोड़ पाते हैं। उनमें अपने परिवेश के प्रति संवेदनशीलता देखी जाती है। खासकर सुबह प्रार्थना के समय प्रस्तुत होने वाले आज के विचार, निबंध लेखन और डायरी लेखन में उनकी मौलिक समझ के दर्शन होते हैं।

-गाँव के लोग स्कूल की शिक्षिकाओं का सम्मान करते हैं। उन्हें अपने घरेलू आयोजनों में आमंत्रित करते हैं। हाल में ग्राम प्रधान की पत्नी ने पति से झगड़कर अपने बेटे को प्राइवेट स्कूल से निकलवाकर इस स्कूल में दाखिला दिलवाया है। शिक्षिकाओं को भी प्रत्येक बच्चे की घरेलू परिस्थितियों की जानकारी रहती है।
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-शिक्षिकाओं के अपने घर के अखबार, अपने बच्चों के खिलौने और किताबें स्कूल में मिलते हैं। संख्या कम होने की वजह से खास मौकों पर शिक्षिकाएं बच्चों के लिए टॉफी लेकर आती हैं।

-दोनों शिक्षिकाओं के बीच प्रबंधन और पठन-पाठन को लेकर अच्छी समझदारी और समन्वय है। बच्चों के सीखने की क्रमबद्घता का वे खास खयाल रखती हैं।

-हेड टीचर पाटनी मैडम 2007 में जब यहाँ आईं तो सात ही बच्चे थे, तब वह खुद पांच बच्चे ज्योलीकोट के एक गाँव से अपने साथ लेकर स्कूल आती थीं। अब बच्चों की संख्या 10 के पार है। और फिलहाल तो यह स्कूल बंद नहीं होगा। अगले साल आंगनबाड़ी से कुछ बच्चे आएंगे तो यह संख्या 15 तक हो सकती है। मैडम बताती हैं कि वह अभिभावकों को अच्छी शिक्षा की गारंटी की भी बात कहती हैं।

-स्कूल की सुंदर ड्रेस, टाई, बैज आदि बताते हैं कि देखने में भी यह प्राइवेट स्कूलों से कहीं कम नहीं है। शिक्षकों का अभिभावकों से जीवंत संवाद, स्कूल में पौष्टिक भोजन, पानी और बिजली की उपलब्धता, पक्की बिल्डिंग, खेलने का मैदान, झूले, टी.एल.एम. सामग्री सभी अच्छा वातावरण होने की मुनादी हैं। पी.टी.आर. के साथ शिक्षा महकमे के अच्छे स्कूल की कोई परिकल्पना हो तो यह स्कूल उसका उदाहरण हो सकता है।  
बच्चों की सीखने की प्रक्रिया से साक्षात्कार 
हेड टीचर कमला पाटनी ने हमें बताया कि आप बच्चों से उनकी डायरी दिखाने के लिए कहें। ये सभी अपनी बॉक्स फाइल (डायरियों) में कुछ न कुछ करते रहते हैं। बच्चे अपनी-अपनी डायरियों के साथ हमें दिखाने के लिए होड़ लगा लेते हैं। हम कुछ की डायरियां पढ़ते हैं। कक्षा एक की रक्षिता ने लिखा है

मलाला युसुफजई 17 साल की लड़की है। मलाला को शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए नॉबेल पुरस्कार मिला है। मलाला को सबसे कम उम्र में यह पुरस्कार मिला है। मलाला ने 10 साल की उम्र से डायरी लिखना शुरू किया था। वह खुशी खुशी स्कूल जाती थी। मलाला ने इस काम के लिए गोली भी खायी। बच्चों को भी सब कुछ करने का अधिकार है। मलाला की तरह हमें भी अपने अधिकारों के लड़ना चाहिए।

रक्षिता से जब मैंने पूछा कि मलाला के बारे में उसे यह जानकारी कहाँ से मिली तो उसने बताया मैडम के अखबार से। मैडम स्कूल में अखबार लातीं हैं, जिसे सब बच्चे पढ़ते हैं। तब मैंने उससे पूछा कि मलाला किस देश में रहती हैं? उसने झट से बताया पाकिस्तान में। मैंने तब उससे पूछा कि मलाला को इतना बड़ा सम्मान किस काम के लिए दिया गया तो वह बताती है कि मलाला जहाँ रहती हैं वहां लड़कियों का स्कूल जाना मना है। मलाला स्कूल जाती थी तो ‘गंदे लोगों’ने उसे गोली मार दी। लेकिन उसने स्कूल जाना नहीं छोड़ा और लड़कियों में हिम्मत आ गयी।

रक्षिता मुझे यह सब बड़े ही इत्मीनान और उत्साह के साथ बताती है। उन्होंने अखबार की खबर को रटा नहीं था, समझा था। और स्कूल में रक्षिता ही नहीं सभी बच्चों को ये जानकारियां हैं। यानी उन्होंने स्कूल में इस घटना पर चर्चा की थी। स्कूल के बच्चों की बॉक्स फाइल में हमारे जानने के लिए कुछ न कुछ रोचक है।
हमारे आस-पास अंग्रेजी ही अंग्रेजी
थोड़ी ही देर में सभी बच्चे मुझसे और मेरे साथी से घुल मिल गए। शिक्षिका की मदद से मैंने और मेरे साथी ने एक एक्टिविटी करने का प्रयास किया। आओ बच्चो, एक काम करते हैं, अपने चारों तरफ फैले अंग्रेजी के शब्दों को ढूंढते हैं। बच्चों ने चारों तरफ निगाह घुमाई और पूछने लगे कहाँ है अंग्रेजी? मैंने कहा जैसे ये चेयर है वैसे ही बहुत सी चीजें आस-पास दिख रही हैं और उनके कुमाउँनी और हिंदी की तरह ही अंग्रेजी में भी कुछ नाम हैं। इसी बीच एक बच्चा बोला जैसे ट्री। तो अब सभी बच्चों को समझ आ गया कि करना क्या है। सब इधर-उधर देखने लगे, अंग्रेजी ढूँढने लगे और कपी में उतारने लगे।
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कक्षा एक के जो बच्चे अभी लिख नहीं पा रहे थे वह मुझे आकर बता रहे थे पैप (पाइप, जो स्कूल में पानी की व्यवस्था के लिए था). एक बच्चे ने मेरे पास आकर पूछा सर क्या उस खंभे (बिजली का पोल) को भी लिख दें। मैंने कहा लिख दो। उसने पूछा इसको अंग्रेजी में क्या कहते हैं। मैडम ने उससे कहा, सोचो सोचो, तुम उसे अंग्रेजी में ही बोलते हो। इसी बीच बात सुन रहा एक बच्चा चिल्लाया पोल। अवलोकन के दौरान मैंने देखा एक बच्ची नाली पर निगाह टिकाये हुई थी। मैंने उससे पूछा कितने शब्द मिल गए? वह गिनने लगी। अब तक 15 से ऊपर शब्द हो गए थे। मैं आगे बढ़ने लगा तो उसने धीमे से पूछा नाली को क्या कहते हैं? मैंने बताना चाहा तो हमारी बात सुन रही मैडम ने उससे कहा तुम तो क्लास फिफ्थ में हो। तुम्हारी किताब में नाली के लिए शब्द है। थोड़ी देर सोचने के बाद उसे याद नहीं आया तो मैंने बताया ड्रेन। ड्रेन सुनते ही उसने कहा, सर, ड्रेन माने तो बहना होता है। मैंने उसे समझाने की कोशिश की, हाँ, एक शब्द के एक से अधिक मतलब हो सकते हैं।

एक-दो बच्चे जो लिखने में भरोसा नहीं कर रहे थे और इधर-उधर घूमकर मैडम के पास आ रहे थे, मैंने उनसे पार्ट्स आफ बॉडी पूछने चाहे। वे इस से परिचित थे और उनमें से एक धाराप्रवाह होकर बताने लगी। हैण्ड, फिंगर, नोज, आई, चीक्स।.मैंने बीच में रोककर कहा टूकर बताओ। छूकर बताना है, बता देती हूँ’, ये रहा मेरा नोज।

कॉपी में शब्द उतार चुके बच्चे अब अपना काम दिखाने के लिए कतार लगाए खड़े हो गए कमाल हो गया था कुछ बच्चे अपने आस-पास से 30 शब्द से अधिक जुटा चुके थे और उनकी निगाहें अभी इधर-उधर लगी ही थीं। मैंने एक्टिविटी पूरा कर देना नहीं, आस-पास कहाँ-कहाँ अंग्रेजी फैली पड़ी है यह देखना। अब्जरवेशन कह सकते हैं इसे।

वुड, फॉरेस्ट, लीव्ज, फ्लावर, रोज, लैपटॉप (जो हमारे साथी ने मेज पर रखा था), पेन, पेंसिल, स्टोन, रूम, रूफ, टीन (छत की टिन), पोल, पाइप, ब्वॉय, गर्ल, चिल्ड्रेन आदि-आदि। कापी दिखाने आये एक बच्चे ने पूछा, सड़क के बारे में भी लिख सकते हैं? (सड़क करीब 150 मीटर नीचे थी, जहाँ बच्चे झांक सकते थे). मैंने कहा, जहाँ तक चीजें आपको दिख रही हैं सब लिखा जा सकता है। तो उसने झट से कापी पर कार लिख दिया। मैंने देखा कि एक दो शब्दों, को छोड़कर सभी बच्चों ने सभी शब्दों की सही स्पेलिंग लिखी थी। मैडम ने बच्चों से कहा कि अभी इस लिस्ट में और भी शब्द जोड़ सकते हो और इसे तब तक बनाते रहना, जब तक आस-पास की सारी चीजों को अंग्रेजी में नहीं लिख लेते। फिर मैंने कहा कि आप अपने घर की वस्तुओं के नाम अंग्रेजी में लिखकर लाना। इसके लिए बच्चे सहर्ष राजी हो गए कुछ बच्चे घर के दृश्यों की कल्पना करते हुए अपनी कॉपी में कुछ-कुछ लिखने भी लगे। मुझे आश्चर्य हुआ एक माह बाद मेरे स्कूल में जाने पर ये बच्चे अपने घर और उसके आसपास का शब्द कोश संजोए मेरा इंतजार कर रहे थे। इस दिन मैंने उनसे क्रिकेट विश्व कप में सुने-पढ़े शब्द पूछने चाहे। मैं बच्चों की कल्पना शक्ति और मानसिक शक्ति देखकर हैरान था। अधिक अच्छी बात यह थी कि बच्चे नए शब्दों को गौर से सुनने और उनका अर्थ लगाने का प्रयास करते हैं।
आओ गणित का मजा लूटते हैं
अगले माह हमारे गणित विषय के संदर्भ व्यक्ति और मैं फिर से डोल्मार स्कूल पहुँचे। क्या करना है, ऐसा पहले से बहुत सोचा नहीं था। मैडम पाटनी को कृष्ण कुमार की किताब राज, समाज और शिक्षा देनी थी। लेकिन हमारे साथी ने जब बच्चों से पूछा कि क्या आज आप गणित का मजा लूटना चाहते हैं तो बच्चे मजा सुनकर राजी हो गए। गौर करने की बात ये थी कि उन्होंने गणित शब्द की बिल्कुल भी परवाह नहीं की। यह एक पहेली थी, जिसमें कोई गणितीय प्रक्रिया निहित थी। हमारे साथी ने पहेली को ब्लैक बोर्ड पर बॉक्स बनाकर चित्रित किया।

एक मालिक है। उसके पास 24 घोड़े हैं। लेकिन वह केवल 9 तक की गिनती कर सकता है। और उसकी आदत है वह चार तरफ देखकर घोड़े गिन पाता है। वह अपने घोड़े इस तरह से रखता है कि एक लाइन में नौ घोड़े बांधता है। उसका नौकर उसकी इस आदत को जानता है। एक दिन नौकर का एक परिचित अपने चार घोड़े लेकर आया और कुछ दिन के लिए उन्हें मालिक के घोड़ों के साथ रखने का अनुरोध करने लगा। नौकर ने परिचित से कहा, उसे घोड़े रखने में कोई समस्या नहीं है लेकिन वह इन्हें इस तरह रखे कि मालिक को अस्तबल में 24 ही घोड़े दिखें। तो वह इन्हें कैसे रक्खे? पहेली का दूसरा हिस्सा था, जब नौकर का परिचित अपने चार घोड़े ले जाता है तब वह मालिक के भी चार घोड़े चुरा ले जाता है। तो नौकर बचे हुए 20 घोड़ों को कैसे रक्खे कि मालिक को वह 24 ही लगें। पहेली से पहले बच्चों को 9 अंक की बनावट समझायी गयी। 9 को कैसे तीन बॉक्स में रखें? तीन ग्रुप जिनका योग 9 हो। बच्चों ने 9 के कई समूह बनाए। 9=1+2+6, 9=1+4+4, 9=1+3+5, 9=2+4+3 आदि आदि। पहेली को पंक्ति और खानों में ऐसे रखना था कि योग 28 और 20 आए। हमें यह लगा कि शायद बच्चे ये चुनौती स्वीकार करने को तैयार न हों। लेकिन इस स्कूल की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि बच्चे किसी भी नई चीज से घबराते नहीं थे। हमने देखा सभी बच्चे ब्लैक बोर्ड को देखकर अपनी कॉपी में रेखाएं खींचने लगे। उनमें अंक व्यवस्थित करने लगे। 20 और 28 का योग लाने के लिए वे वह प्रयास करते और कॉपी हमें दिखाने लाते। वे जोड़ भी समझ रहे थे और क्या करना है यह भी समझ रहे थे। जिन्हें कुछ दिक्कत थी वे हमसे या अपने बगल के बच्चे से समझने का प्रयास कर रहे थे।
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इस तरह से इस अभ्यास में कक्षा एक से कक्षा पांच तक के सभी बच्चे जुटे हुए थे। बच्चे जब तक समाधान तक पहुँचते, उससे पहले की उनकी जिज्ञासा और उत्साह देखने लायक था। इस बीच मैडम उनकी लगातार हौसलाफजाई को मौजूद थीं। मैडम जब कहतीं, बच्चो आप कर सकते हैं, बच्चे मान लेते वे कर सकते हैं। गणित की इस कक्षा में कोई खामोशी नहीं थी, कोई तानाशाही नहीं थी, सभी बच्चे गणित का मजा लूट रहे थे। करीब 10 मिनट बाद एक बच्चा जो लगातार अंकों को घूरे जा रहा था और मन ही मन कुछ बना रहा था, दबे पाँव कॉपी लेकर आता है। जी हाँ वह कामयाब हो गया था। मैडम ने पहले खुद देखा फिर हमारी तरफ कॉपी बढ़ाई। देखिये, शायद इसने कर लिया है। बहुत धीमे से कही गयी मैडम की इस बात को सुनकर बाकी बच्चे भी उछलकर सामने आ गए। वे जानना चाहते थे कैसे कर लिया? फिर इनमें से कुछ बच्चों ने इस सफल बच्चे से कुछ गुफ्तगू की और थोड़ी देर में दो और बच्चे नए तरह से जोड़कर ला गए। इस बीच एक बच्चा जो बहुत जल्दी-जल्दी जोड़ रहा था बार-बार कॉपी लेकर आ जाता। और फिर से गलत होने पर हँसकर लौट जाता। शायद इसी को कहते है गणितबाजी करना।   
जब बच्चे शिक्षक को दोस्त मानने लगते हैं   
1-हमारे एक साथी ने पिछले विजिट में स्कूल से अनुपस्थित एक बच्चे को बुलाया। उसने बताया कि वह तब शादी में शामिल होने दिल्ली गया था। दिल्ली में आपको क्या दिखा? उसके पास जवाब था। हमने वहां अक्षरधाम मंदिर और कुतुबमीनार देखी। उसने इन दोनों स्थलों के बारे में साथी बच्चों को वह सब बता दिया था जो वह देखकर आया था।

2-सचिन बिष्ट नाम के बच्चे को मैडम ने पास बुलाया। यह बच्चा हमें काफी सक्रिय दिखा। मैडम ने बताया कि यह पहले बोलता ही नहीं था. गुमसुम रहता था। लेकिन जब इसकी ओर ध्यान दिया और इससे खूब बातें कीं तो यह खुल गया। आज यह स्कूल का सबसे…..बच्चा है।

3- एक और बच्चे के बारे में मैडम ने बताया कि वह गौलापार का रहने वाला है। उसके पिताजी शराब पीते हैं और माँ ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली है। अब वह अपने ननिहाल में आकर यहाँ पढ़ रहा है। उसके मामा विदेश में रहते हैं और उसकी प्रगति के बारे में पूछते रहते हैं। उसे स्कूल बहुत पसंद आता है। वह रोज स्कूल आता है।

4- मैडम ने एक और बच्चे की तरफ इशारा किया, जब भोजन शुरू हो रहा था। मैडम ने बताया यह बच्चा भोजन नहीं करेगा। (तब तक हमारी बात सुन रही भोजनमाता ने भी बताया कि उससे भोजन के लिए पूछा लेकिन वह नहीं करना चाहता). मैडम ने आगे कहा कि यह इस स्कूल में नहीं पढ़ता। एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ता है। लेकिन इसकी मां ने इसे यहाँ भेजा है ताकि पढ़ने-लिखने में मदद मिले। इसके पिताजी ऑटो चालक हैं और उनका मानना है कि घर का एक ही लड़का है इसलिए प्राइमरी में नहीं भेज सकते। वह इसे दाल-भात खाने वाला स्कूल कहते हैं। लेकिन बच्चे की माँ मानती है कि यहाँ अच्छी पढ़ाई होती है। यह बच्चा पहले इसी स्कूल में बनी आंगनबाड़ी में आता था। उसके सारे दोस्त यहीं हैं।

5- कक्षा 3 का छात्र शायद मंगल सिंह। अपने माता-पिता के साथ जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर भ्रमण पर गया था। मैम ने उससे कहा वहां तुम ऐसी-ऐसी चीजें देखोगे जो हमने देखी ही नहीं होंगी। क्या तुम हमारे लिए भी देखकर लाओगे? वह खुशी-खुशी राजी हो गया। यात्रा पूरी कर स्कूल आया तो उसके हाथ में यात्रा के संस्मरण थे. जो उसने डूबकर लिखे थे। उसने जो जो देखा वह सब बताना चाहता था। ट्रेन, पहाड़, डोली, प्रसाद, भीड़, बाबा बगैरा।
स्कूल को समाज और सिस्टम की मदद चाहिए
ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस स्कूल की सामान्य चर्या हैं। यह स्कूल के दोनों शिक्षकों के रवैये का ही फरक हो सकता है कि यहाँ सीखना और सिखाना दोनों मुमकिन हैं। ऐसा यहाँ नहीं होता कि शिक्षकों को गुस्सा आए और वे डंडा पकड़ना चाहें। ऐसी नौबत ही नहीं आती। बातचीत के बीच ही बच्चों ने एक स्किट की कुछ झलकियाँ हमें दिखायीं। संवाद कौशल, अभिनय क्षमता और आत्मविश्वास देखने लायक था। कुछ बच्चे प्रदर्शन करने लगे तो बाकी बच्चे भी अपने-अपने आइटम के साथ सामने आ गए। यानी सब सीखते हैं और सब बताते हैं। मैडम ने हाल में एस.एम.सी बैठक के लिए तैयार नाटक, ‘सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं आ रहे बच्चे!’ की झलकियाँ दिखाने के लिए कहा। इसमें बच्चे बता रहे हैं कि इस बीच समाज बदल गया है। बदली हुई दुनिया में सरकारी स्कूल चमक खो रहा है। लोग चमकदार चीजों की ओर भाग रहे हैं। नाटक इस भगदड़ और भागमभाग पर सवाल खड़े करता है।

मेरी नजर कक्षा चार के प्रवेश द्वार पर लिखे सूत्र वाक्य, ‘राष्ट्र की संपत्ति विद्यालयों में है, बैंकों में नहीं’ पर टिक गयी। मन ने यही कामना की कि काश समाज और सिस्टम इस वाक्य का मर्म समझ पाता। लोग इस सुंदर और सरल स्कूल को छोड़ क्यों बैंक रूपी स्कूलों की ओर भाग रहे हैं! कोई प्राइवेट स्कूल है जो गरीबों के बच्चों को ऐसी शिक्षा निशुल्क देना चाहेगा! मेरे मन में यह भी दु:स्वप्न आता है कि बात-बात पर सरकारी शिक्षकों को कोसने और धिक्कारने वाले हमारे मंत्री कभी किसी सरकारी स्कूल का भात भी खाने आ जाएँ। शिक्षकों से न सही बच्चों से थोड़ा बतिया जाएँ। झूठे ही सही, यह बोल जाएँ कि हम अच्छे सरकारी स्कूलों को खामखाँ में बंद नहीं होने देंगे।
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