विद्यालयी शिक्षा: जीवन कथा- छह
-राधा भट्ट
पढ़ाई के लिए जब दाज्यू व मुझको रामगढ़ भेजा गया, तो मेरा नाम बेसिक प्रायमरी स्कूल, मल्ला रामगढ़ में दूसरी कक्षा में लिखाया गया. हम रहते थे तल्ला रामगढ़ और पढ़ने के लिए मुझे पूरी चढ़ाई चढ़कर मल्ला रामगढ़ जाना होता था. दादाजी सुबह ही खाना खिला देते और उसके बाद चढ़ना और भी कठिन लगता था. मेरी सहेली व मैं कहीं बैठती और फिर उठकर चलने लगतीं. ऐसे में स्कूल पहुंचने में देर होना स्वाभाविक था- सहेली कहती, ‘‘अब तो बिल्कुल ‘उज’ (ऊर्जा) नहीं आ रही है, देर भी हो ही गई है, पंडितजी बेंत लगायेंगे. चल छिप जाते हैं.’’मैं रामगढ़ में स्वयं को नई मानती थी और वह तो रामगढ़ में ही पैदा हुई थी. मुझे वहां की विभिन्न चीजों, स्थानों और लोगों से परिचित वही कराती. अत: मेरी भूमिका उसके पीछे चलने की बन गई थी. वह छिपने को कहती तो मैं सारा दिन उसके साथ खेलने, जंगली फल खाने, बातें करने व झगड़ा करने में बिता देती. तीसरी कक्षा पूरी करने तक मेरे बहुत सारे दिन स्कूल न जाकर इसी आवारापन में बीत गये. (Memoirs of Radha Bhatt)
तीसरी कक्षा के शिक्षक सख्त थे. उनके बोलने से पहले ही उनका बेंत चलता था. उनके पूछने की आवाज और लहजा ही ऐसा था कि जवाब आता भी हो तो भी हमारी घिग्घी बंध जाती, शब्द नहीं निकलते. तीसरी कक्षा तक ज्यों-त्यों मैं अगली कक्षा में जाती रही. मुझे पढ़ाई में मजा बिल्कुल नहीं आया. जबकि मुझे पढ़ने की खूब इच्छा थी. छिपना, डरना, सहेलियों से कुछ अजनबी-सी ऊटपटांग बातें सुनना, सब विश्रृंखल-सा था. कुछ भी करीने से नहीं हो रहा था. मेरी उम्र के दिन बीत रहे थे.
मैं चौथी कक्षा यानी अपने स्कूल की सबसे बड़ी कक्षा में पहुंच गई और उस कक्षा के शिक्षकों ने मेरे दृष्टिकोण और मेरी पढ़ाई में ही नहीं, मेरे मानस में भी पूरा परिवर्तन ला दिया. तीसरी कक्षा के अपने शिक्षक का नाम मैंने जानबूझकर नहीं लिखा है. जबकि वह नाम आज भी मेरी स्मृति में जिन्दा है. परन्तु चौथी कक्षा के शिक्षक और हमारे स्कूल के हेडमास्टर का नाम मैं पूर्ण श्रद्घा व गर्व के साथ लिखना चाहूंगी, उनका नाम था- श्री बहादुर राम आर्य, सांवला रंग, स्फटिक सफेद दंत पंक्ति और चेहरे पर एक कुदरती मुस्कान. मुझे याद है जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ती थी तब सुबह सात बजे विद्यालय प्रारम्भ होता था. चौमासे के दिन थे. घास के बीच से विद्यालय को जाते हुए मेरी लम्बी फ्राक नीचे की ओर से भीग गई थी. चढ़ाई चढ़ने से सांस फूल गई थी. विद्यालय के आंगन में हेडमास्टर (बड़े पंडितजी) मिल गये. उन्होंने मुझे अपने दोनों हाथों में उठा लिया, ‘‘अररे सुबेदार सैप की चेली (बेटी) तेरी झगुली तो भीग गई है.’’ फिर मुझे चिढ़ाने के लिए कहने लगे, ‘‘ये तेरे सिर में दो सींग आ गये हैं’’. सम्भव है, मेरे बालों की दो लटी बनाई गई हों. मुझे याद नहीं पड़ता. मैं खुश होकर अपनी कक्षा के कमरे में भाग गई.
इनके द्वारा पढ़ाया गया एक-एक शब्द मुझे समझ में आता था. अत: तीसरी कक्षा में पिछड़ी पंक्ति की छात्रा मानी जाने वाली मैं चौथी कक्षा में धीरे-धीरे अच्छे विद्यार्थियों में गिनी जाने लगी. मुझे स्कूल जाने के नाम से ही उत्साह उमड़ने लगा. वाचन करने की बारी की मैं प्रतीक्षा करती. मुझे वाचन के लिए उठने को कहते तो मैं तुरन्त उठकर ऊंची आवाज में पढ़ने लगती. पंडितजी का ‘‘शाबास’’शब्द सुनती तो गर्व मिश्रित आनन्द से मैं भर उठती. मेरे विद्यालयी जीवन का मानो एक नया अध्याय प्रारम्भ हो गया था. जो 1950 के दिसम्बर की अन्तिम उस तिथि तक कायम रहा जिस दिन मैंने विद्यालयी जीवन से विदा ली. इन समस्त वर्षों में मैं अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर आती रही. बीमार होने से केवल एक वर्ष द्वितीय स्थान पाने से मुझे दुख झेलना पड़ा और मेरी प्रतिद्वंद्वी को प्रथम स्थान का आनन्द मिला था. मुझे जीवन में जब लम्बे समय तक लड़कियों को पढ़ाने का अवसर मिला तो मैंने यह बात हमेशा लागू की कि बच्चों को केवल जानकारी दे देने या उन्हें लिखने-पढ़ने की कला सिखाने में मेहनत करने से बच्चे की आन्तरिक शक्तियां, उसकी प्रतिभा प्रस्फुटित नहीं होती. उसके साथ आत्मीयता, निकटता व प्रोत्साहन का रस भी घोलना पड़ता है, जो बच्चे के व्यक्तित्व में निहित शक्तियों को स्वत: प्रकट कर देता है.
(Memoirs of Radha Bhatt)
पांचवीं कक्षा में पढ़ने के लिए मैं तल्ला रामगढ़ में श्रीनारायण स्वामी हाईस्कूल की बड़ी-सी सुन्दर इमारत में जाने लगी. ढाई-तीन सौ लड़कों के बीच हम केवल 7-8 लड़कियां ही इस पूरे विद्यालय में पढ़ने जाती थीं. शायद बहुत सारी लड़कियां जो रामगढ़ की प्रायमरी पाठशालाओं में पढ़ने जाती थीं, चौथी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी थीं. या फिर नैनीताल आदि स्थानों में कन्या हाईस्कूलों में किसी एक-दो को भेज दिया गया होगा. मुझे भी इस विद्यालय में भेजने से पूर्व ईजा ने शर्त रखी थी कि स्कूल को जाने से पूर्व मुझे गाय-भैंसों के दिनभर का चारा यानी एक गट्ठर हरी घास काटकर रख जाना होगा. स्कूल से आने के बाद भी एक गट्ठर चारा लाना होगा, जो वर्षा के चार-पांच महीने घास होती तो जाड़ों व गर्मी के महीनों में बांज की पत्तियां होतीं. पढ़ाई में मेरा मन खूब लगता था, अत: मैं स्कूल से दिया गृह कार्य हर रोज पूरा करके ले जाती थी. चाहे उसके लिए मुझे लिखने का समय रात में ही मिले. कभी किसी सहेली ने गृह कार्य न किया हो तो वह भी स्कूल में जल्दी-जल्दी से मेरी कापी से अपनी कापी में लिख लेती थी. हम लड़कियों के बीच अच्छे मेल-मिलाप भरे सम्बन्ध थे. एक तरह से हम अल्पसंख्यक लड़कियां बहुसंख्यक लड़कों के बीच अपना अच्छा स्थान बनाये रखना चाहती थीं. यद्यपि हमारे लिए खेल का कोई अलग मैदान नहीं था और हम मध्याह्न का अधिकांश समय स्कूल के पिछवाड़े की संकरी जगह में छोटा-मोटा खेल करने या बैठकर बातें करने में बिताते थे. परन्तु स्कूल हमारे लिए सरपट दौड़, सुई दौड़, तीन टांग की दौड़ जैसी कई प्रतियोगिताएं आयोजित कराता था. बाद में एक कैरम बोर्ड और बैटमिंटन भी लाया गया था, जिन्हें खेलने का समय हमें कम ही मिलता था क्योंकि स्कूल में पढ़ाई पूरी होकर छुट्टी की घंटी लगते ही हमें सीधे घरों को चल देना होता था.
अतिरिक्त क्रिया-कलापों के अन्तर्गत इस विद्यालय में बालसभा में वाक् प्रतियोगिता, काव्य पाठ व नाटक, चुटकुले आदि होते थे. उसमें हम लड़कियां भाग लेती थीं और हमारे शिक्षक इसके लिए हमें प्रोत्साहित भी करते थे. जब मैं इस विद्यालय में आई तब श्री विद्यासागर दीक्षित जी हमारे प्रधानाचार्य थे. एक गरिमापूर्ण, सीधा जागृत व्यक्त्त्वि. उनका काला कोट, सफेद पेंट और हाथ में एक काला रोलर वाला चित्र मेरी आंखों में आज भी उतर आता है. वे आदर्श पर विश्वास करते थे. चरित्र व नैतिकता उनके लिए शिक्षा की सबसे मूल वस्तु थी. रोज सोमवार की प्रात: जब हम खूब तेज आवाज में ‘दया कर दान भक्ति का..’’ प्रार्थना गाकर फर्श पर बैठ जाते, तब वे हमें प्रवचन देते थे. जीवन कैसे ईमानदार तेजस्वी, स्वस्थ और समाजोपयोगी बने? कैसे हम यशस्वी हों? किस राह पर परिश्रम करें कि आगे बढ़ें, यानी पढ़ाई-लिखाई के अतिरिक्त अन्य विषयों पर वे सारगर्भित सम्बोधन करते थे. दीक्षित जी के प्रति स्वत: आदर भाव उमड़ पड़ता था. उनका अनुशासन सख्त था पर वह उनके चारों ओर फैले उनके प्रभामंडल से ही व्यवस्थित रह लेता था. उन्हे डांटते-चिल्लाते मैंने कभी देखा हो, इसकी याद मुझे नहीं है, मेरे किशोर मन को ऐसे व्यक्ति की छत्र-छाया में शिक्षा पाना एक वरदान जैसा लगता था.
कभी इसी विद्यार्थी सभा में महात्मा नारायण स्वामी जी प्रवचन करते थे. वे 75 वर्ष से अधिक आयु के वृ़द्घ थे पर उनका शरीर सुगठित था और वाणी में गम्भीरता व मृदुता थी. उनके कई प्रवचनों में लड़कियों के लिए मैत्रेयी जैसी विदुषी और तेजस्वी बनें, यह वाक्य होता था. तब मेरे मन में यह वाक्य वर्षों तक के लिए गड़-सा गया था. स्वामी जी का एक छोटा-सा आश्रम था. रामगढ़ में आकर उन्होंने आर्यसमाज मन्दिर की स्थापना भी की. इस आश्रम की रजत जयन्ती हमारे इसी हाईस्कूल में मनाई गई. वह अवसर मुझे भूले से भी नहीं भूलता. सर्वोत्तम बात यह थी कि उस एक सप्ताह के आयोजन में स्थानीय लोग भी उमड़कर आये थे और संयुक्त प्रान्त के सैकड़ों आर्य समाजी स्त्री-पुरुष भी शामिल हुए थे, इस विशाल जन समुदाय की सभाओं में पानी पिलाने का जिम्मा हम लड़कियों को दिया गया था.
हमारी छाती पर ‘‘स्वयं सेवक’’ लिखा था. एक बिल्ला लटका रहता था, मेरे गौरवान्वित मन को वह बिल्ला मानो स्वर्णपदक जैसा ही लगता था. हम पास के धारे से सिर पर गागर रखकर पानी ढोतीं और गिलासों में पानी भरकर प्यासे लोगों को पानी पिलातीं. हमारे पैर एक क्षण भी रुकते न थे. मुझे तो लगता था कि ‘‘मैं उड़ जाऊं’’ और सबको अकेली ही पानी पिला दूं. दूसरी बात थी कन्या गुरुकुलों की छात्राओं को देखना, पूर्ण सादगी किन्तु चमकते सफेद वस्त्रों में जब वे हवन यज्ञ के समय मंत्रोच्चार करतीं या उसके बाद भजन गातीं तो आत्मविश्वास से दमकते उनके चेहरे मुझे मुग्ध कर देते. उनके विभिन्न व्यायाम और योगासनों के प्रदर्शन देखकर बार-बार मन में आता, काश यह सब सीखने का अवसर हमें भी मिलता. इस सप्ताह के भीतर हमने कितने ही विद्वान पुरुषों के भाषण सुने. पुरुषों ने ही नहीं विदुषी महिलाओं ने भी भाषण दिये और वे पुरुषों से कम नहीं थीं, उनकी बातों पर तालियां बजती थीं तो मेरा मन उमड़ता था कि हम क्यों नहीं ऐसा कर सकती? सप्ताह पूरा हुआ पर हम विद्यार्थियों ने सप्ताह पूर्व भी कई दिनों तक तैयारियों व साज सज्जा में समय लगाया था और बाद में भी समेटने में समय दिया. तदुपरान्त हमें अपनी कक्षाओं में बैठना ही था. हमारी पढ़ाई चल पड़ी पर हृदय में कहीं परदे के पीछे रजत जयन्ती का उत्साह धड़क उठता था.
(Memoirs of Radha Bhatt)
छठी कक्षा की वार्षिक परीक्षाओं की तैयारियां चल रही थीं, तभी विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने हम लड़कियों को सूचित किया कि छठी से आगे हमें इस विद्यालय में पढ़ने के लिए आने की अनुमति नहीं है. कारण यह कि अब हम सयानी हो गई थीं. हमें लड़कों के साथ नहीं रहना चाहिए. हम सभी लगभग 11 या 12 वर्ष की बालिकाएं थीं. यह समाचार हम सभी के लिए एक अप्रत्याशित आघात था, क्योंकि हमारे लिए अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने के कोई दूसरे मौके नहीं थे. हमारे परिवारों की आर्थिक स्थितियां तथा उनकी मानसिकता नैनीताल या कहीं दूर कन्या विद्यालय और कन्या छात्रावास में भेजने की सम्भावना से कोसों दूर थीं. अपने मध्याह्न अवकाश के समय हम सभी 7-8 लड़कियां विद्यालय की इमारत के पिछवाड़े बैठकर इसी पर विचार करती थीं. अन्त में मैंने एक राह निकाली. हम सभी रविवार को अपनी फरियाद लेकर महात्मा नारायण स्वामी जी के आश्रम में उनसे मिलने गईं. हम उनके आश्रम के एक छोटे से फाटक के पास गईं, तो उनके माली ने जो बगीचे में काम कर रहे थे, हमें टोका, ‘‘लड़कियो क्यों आई हो यहां?’’
‘‘स्वामी जी से मिलना है,’’ हमारा उत्तर था. ‘‘तुम छोकरियां, और स्वामी जी से मिलोगी? उन्हें मिलने बड़े लोग आते हैं, तुम भला उनसे क्या बातें करोगी?’’ उन्होंने आश्चर्य में भरकर हमें कहा क्योंकि सच में हम बारह-तेरह वर्ष की बालिकाएं ही तो थीं, जाओ, जाओ यहां से जाओ.
यह अन्तिम वाक्य उस माली ने तेज आवाज में कहा, जिसे आश्रम की पहली मंजिल में बैठे स्वामीजी ने सुन लिया. वे खड़े हुए और उन्होंने खिड़की से बाहर झांका, बोले, ‘‘क्या है मदन (बदला नाम) किसे भगा रहे हो?’’ ‘‘स्वामी जी, ये कुछ छोटी-छोटी लड़कियां आपसे मिलने की बात कह रही हैं, आप इनके लिए अपना समय क्यों बर्बाद करेंगे? है ना?’’ “नहीं-नहीं’ बच्चियों को मेरे पास आने दो.’’करुणापूर्ण शब्दों में स्वामी जी ने कहा, हमारी टोली स्वामी जी के सामने जाकर बैठ गई, पर किसी के मुंह से वाणी नहीं फूटती थी. तब वीरबाला ने बात शुरू की, उसे स्वामी जी को अपने घर पर मिलने के अवसर मिलते थे. अत: वह हम अन्यों की तरह झिझक में नहीं थी. हमारी समस्या सुनकर स्वामी जी ने भी प्रबन्ध समिति के निर्णय को सही बताया. स्थानीय लड़कियां और लड़कों का विद्यालय में साथ पढ़ना कैसे हो सकता है. तुम तो कन्या विद्यालय में पढ़ने जाओ. उनकी इस बात से हम निराश हुईं.
(Memoirs of Radha Bhatt)
हमने भी अपने मुद्दे को छोड़ा नहीं, हमारे परिवारों की अर्थव्यवस्था, लड़कियों की शिक्षा के मामले में उनका संकुचित दृष्टिकोण, यहां घर में काम-धंधे में परिवार को मदद करते हुए पढ़ने की सुविधा का हमने वर्णन किया. ‘‘यह प्रबन्ध समिति का निर्णय है. मैं तो उसमें सदस्य हूं नहीं. स्वामी जी ने आखिरी बात कह दी.’’ अब हमारी बोलती बन्द हो गई.
खूब हिम्मत जुटाकर तब मैंने कहा, ‘‘आपने अपने प्रवचनों में कई बार हम से कहा है कि गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषी बनो. हम पढ़ेंगी ही नहीं तो विदुषी कैसे बनेंगी. स्वामी जी तुरन्त बोले, लड़की तुमने तो मेरी ही जबान पकड़ दी. मैं प्रबन्ध समिति में जाकर तुम लड़कियों के सम्बन्ध में बात रखूंगा.’’
स्वामी जी का आशीर्वाद पाकर हम वापस घरों को गई. प्रबन्ध समिति की बैठक के बाद हमेंं बताया गया कि हम सातवीं और आठवीं कक्षाओं में अपनी पढ़ाई चालू रख सकेंगी, किन्तु शर्तों के साथ. पहली शर्त कि स्कूल में साड़ी के पल्लू या दुपट्टे से हमारे सिर हमेशा ढके रहने चाहिए तथा पूरी आस्तीन का ब्लाउज ही पहनना होगा, आधी आस्तीन का नहीं. दूसरी शर्त थी कि कोई लड़की अपने घर से अकेली विद्यालय को नहीं आयेगी एक या दो लड़कियां साथ होनी चाहिए. हमें बांधने वाली ये शर्तें हमें मंजूर हैं या नहीं इसका कोई सवाल ही नहीं था, न ही हम कोई सवाल उठाने वाली थीं. हम आपस में स्वामी जी को धन्यवाद दे रही थीं और बेहद खुश थीं कि 8वीं तक पढ़ने का मौका मिल गया. (Memoirs of Radha Bhatt)
क्रमश: …
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