मंगलेश डबराल की कविताएँ

Manglesh Dabral Poem

माँ की तस्वीर

घर में माँ की कोई तस्वीर नहीं
जब भी तस्वीर खिंचवाने का मौक़ा आता है
माँ घर में खोयी हुई किसी चीज़ को ढूंढ रही होती  है
या लकड़ी घास और पानी लेने गयी होती है
जंगल में उसे एक बार बाघ भी मिला
पर वह डरी नहीं
उसने बाघ को भगाया घास काटी घर आकर
आग जलायी और सबके लिए खाना पकाया

मैं कभी घास या लकड़ी लाने जंगल नहीं गया
कभी आग नहीं जलायी
मैं अक्सर एक ज़माने से चली आ रही
पुरानी नक्काशीदार कुर्सी पर बैठा रहा
जिस पर बैठकर तस्वीरें खिंचवाई जाती हैं

माँ के चेहरे पर मुझे दिखाई देती है
एक जंगल की तस्वीर लकड़ी घास और
पानी की तस्वीर खोयी हुई एक चीज़ की तस्वीर
(Manglesh Dabral Poems)

चेहरा

माँ मुझे पहचान नहीं पाई
जब मैं घर लौटा
सर से पैर तक धूल से सना हुआ

माँ ने धूल पोछी
उसके नीचे कीचड़
जो सूखकर सख्त हो गया था साफ किया

फिर उतारे लबादे और मुखौटे
जो मैं पहने हुए था पता नहीं कब से
उसने एक और परत निकालकर फेंकी

जो मेरे चेहरे से मिलती थी
तब दिखा उसे मेरा चेहरा
वह सन्न रह गयी

वहाँ सिर्फ एक खालीपन था
या एक घाव
आड़ी-तिरछी रेखाओं से ढका हुआ

तुम्हारे भीतर

एक स्त्री के कारण तुम्हें मिल गया एक कोना
तुम्हारा भी हुआ इंतज़ार

एक स्त्री के कारण तुम्हें दिखा आकाश
और उसमें उड़ता चिड़ियों का संसार

एक स्त्री के कारण तुम बार-बार चकित हुए
तुम्हारी देह नहीं गयी बेकार

एक स्त्री के कारण तुम्हारा रास्ता अंधेरे में नहीं कटा
रोशनी दिखी इधर-उधर

एक स्त्री के कारण एक स्त्री
बची रही तुम्हारे भीतर
(Manglesh Dabral Poems)

स्त्रियाँ
(इतालवी फिल्मकार फे़देरीको फे़ल्लीनी की फिल्म देखने के बाद)

आधी क्रूरता और आधी कामुकता की सजीधजी दुनिया में
जहां मासूमियत का एक छोटा-सा घेरा
खींच दिया गया है
देखो एक स्त्री को एक पुरुष से प्रेम करते हुए
उसका चेहरा बताता है
वह कितने लम्बे समय से करती आ रही है प्रेम
वह उसके पीछे-पीछे चलती है
उसके चारों ओर बार-बार लिपटती है
वह उसे सौंपना चाहती है सर्वस्व
उसके कान में कहती है कोई मर्म की बात
जबकि पुरुष सिर्फ़ अभिनय कर रहा है
सबसे अच्छे कपड़े पहने हाथ में एक फूल लिये हुए
वह उसे फुसलाकर एक कगार तक ले जाता है
एकाएक उसके पैसे छीनता है
और उसे नदी में धकेलकर भाग जाता है

लेकिन वह फिर से कगार पर खड़ी है
पानी से उबरकर आयी हुई समूची सुन्दर और निष्कलुष
एक आंख से हंसती हुई एक से रोती हुई
वह फिर से आ पहुंचती है पुरुष के सामने
जैसे उसका कुछ न छीना गया हो
जैसे वह उसी तरह करती आ रही हो प्रेम

इस तरह स्त्रियां जाती हैं अत्याचारियों के साथ
या सामंतों की रस्सियों से बंधी हुई
चल देती हैं तानाशाहों के पीछे
उनकी जगमग पोशाक और तम़गे देखती हुई
उन्हें ले जाया जाता है निर्जन रोमांचक यात्राओं में
खतरनाक कगारों तक
बा़गीचों और रोशनियों से होते हुए
वासना के धुएं से भरी शानदार इमारतों में
रात्रिभोजों और इतिहास के स्र्विणम पृष्ठों में
जहां पियक्कड़ अय्याश उन पर सवारी गांठते हैं
उन्हें कोड़ों से फटकारते हैं
जबकि वे अपने स्तनों को बेहिचक इतनी देर तक दिखाती हैं
जैसे उनमें कोई रहस्य न हो
और उन्हें देखते हुए पुरुष दिखने लगें मूर्ख और लज्जित

जब उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता है चट्टानों के बीच
या नदी में धकेल दिया जाता है
या घरों और दिमा़गों से निकाल दिया जाता है
प्रेम करने के अपराध में
उन्हें अच्छी तरह भुला दिया जा चुका होता है
तब कहीं से आती है उनके होने की आवाज़
उनका कोई प्रिय गीत अचानक सुनाई दे जाता है
वे धीमी कोमल आवाज़ में कुछ कहती दिखती हैं
जिसे एक भारी कोलाहल के बीच
हम सुन नहीं पाते
कभी-कभी वे अपनी ही तस्वीरों और पोस्टरों से
बाहर उतर आती हैं
दुगुनी तिगुनी चौगुनी होती गलियों चौराहों में टहलती हुई
सहसा वे ढांप लेती हैं समूचे पर्दे को
(Manglesh Dabral Poems)

मैं चाहता हूँ

मैं चाहता हूँ कि स्पर्श बचा रहे
वह नहीं जो कंधे छीलता हुआ
आततायी की तरह गुज़रता है
बल्कि वह जो एक अनजानी यात्रा के बाद
धरती के किसी छोर पर पहुंचने जैसा होता है

मैं चाहता हूँ स्वाद बचा रहे
मिठास और कड़वाहट से दूर
जो चीज़ों को खाता नहीं है
बल्कि उन्हें बचाये रखने की कोशिश का
एक नाम है

एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है
मसलन यह कि हम इंसान हैं
मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सचाई बची रहे
सड़क पर जो नारा सुनाई दे रहा है
वह बचा रहे अपने अर्थ के साथ
मैं चाहता हूँ निराशा बची रहे
जो फिर से एक उम्मीद
पैदा करती है अपने लिए
शब्द बचे रहें
जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते
प्रेम में बचकानापन बचा रहे
कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा.
(Manglesh Dabral Poems)

-मंगलेश डबराल