जन आन्दोलन, राजनीति और महिला नेतृत्व

श्रुति जैन

राजनीति में महिला नेतृत्व की बात करते  हुए उसे केवल राजनीतिक पार्टियों के महिला नेतृत्व तक ही सीमित  करना ठीक नहीं। समाज में राजनीति का विस्तार राजनीतिक पार्टियों की गतिविधियों, चुनाव, वोट और सरकार चलाने से आगे जाता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि देशभर में चले विभिन्न जनआंदोलनों ने क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति को एक नई दिशा दी है। इन्होंने राजनीति में नये मुद्दों और नेतृत्व को पैदा किया है। अमूमन संगठित राजनीति में आम जनता की सक्रिय भागीदारी बहुत कम रहती है। ऐसी सूरत में जनआंदोलन ही लोगों की राजनीतिक भागीदारी का जरिया बनते हैं। जिससे समाज में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है।

जनआंदोलनों की राजनीति पर लंबे अरसे तक काम करने वाले राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी (1984) के अनुसार जनआंदोलन चुनावी और संसदीय राजनीति को पुनर्परिभाषित करते हैं। इनके जरिये वे लोग भी राजनीति का हिस्सा बनते हैं जिन्हें सत्ता राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर रखती है। जनआंदोलन इस विचार को भी चुनौती देते हैं कि राजनीतिक गतिविधि सिर्फ राज्य की सत्ता पर कब्जा करने तक ही सीमित है। बल्कि वे समाज की ऐतिहासिक प्रक्रिया में एक व्यापक राजनीतिक हस्तक्षेप के तौर पर भी सामने आते हैं।

आंदोलनों की राजनीति को कोठारी वैकल्पिक राजनीति, जमीनी स्तर की राजनीति और नन पार्टी पॉलिटिकल फॉरमेशन भी कहते हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि आंदोलन अक्सर राजनीति की विषय वस्तु को बदल देते हैं और संगठित राजनीति और अर्थव्यवस्था के कारण समाज में बढ़ते गैरराजनीतीकरण को भी चुनौती देते हैं। आंदोलन ऐसे मुद्दों को राजनीतिक बना देते हैं जिन्हें पहले गैरराजनीतिक समझा जाता था। शिक्षा, स्वास्थ्य, प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय के अधिकार, दलितों और महिलाओं के अधिकार आदि ऐसे ही मुद्दे हैं। महिला आंदोलन से सामने आयी समझ ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’ (जो व्यक्तिगत है वह भी राजनीतिक है) ने परिवार के अंतर्सबंधों को भी एक राजनीतिक चश्मे से देखना सिखाया है।

महिलाओं ने कई जनआंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उन्हें खड़ा किया, नेतृत्व दिया और नई और व्यापक समझदारी भी दी। दलित, किसान, और पर्यावरणीय आन्दोलनों में महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। शराब के बढ़ते चलन, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ चले आंदोलनों में भी महिलाओं ने केंद्रीय भूमिका निभाई है। इसके अलावा सूचना के अधिकार आंदोलन समेत कई नए सामाजिक आंदोलनों में भी महिलायें आगे रही हैं। इन सभी आंदोलनों ने एक राजनीतिक बहस खड़ी की है।

पिछले कुछ दशकों में विकास के नाम पर सामाजिक ताने-बाने और पर्यावरण के विध्वंस के चलते कई जनआंदोलन खड़े हुए हैं। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, नंदीग्राम-सिंगूर और पस्को आदि ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। इन सभी में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। ये सभी आंदोलन विकास की ऐसी अवधारणा को चुनौती देते हैं जो मुनाफे की अर्थव्यवस्था पर टिकी हो और विशाल परियोजनाओं में ही विकास को देखती हो। जनआंदोलनों पर काम करने वाले प्रमोद पराजुली (1991) कहते हैं कि महिलाओं, आदिवासियों और दलितों के नए सामाजिक आन्दोलन राज्य द्वारा निर्धारित विकास सूचकों का विरोध करते हैं और समानता एवं सम्मानपूर्ण जीने को विकास का सूचक बताते हैं।

इन आंदोलनों में महिला नेतृत्व ने सामाजिक न्याय को पर्यावरणीय न्याय से जोड़ कर ऐसे मूल्यों और मुद्दों को आम बहस और विमर्श  का हिस्सा बनाया जो तकनीकी के उपयोग से प्रकृति के दोहन, मनुष्य के शोषण और अनियंत्रित उपभोग को बढ़ावा देते हैं। हाल के दौर में जलवायु परिवर्तन को लेकर बहुत सी महिलाएं विश्व स्तर पर विमर्श को दिशा दे रही हैं।
Mass movement, politics and women’s leadership

जनआंदोलनों ने प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण और इस्तेमाल के अधिकार के प्रश्न को भी एक केन्द्रीय राजनीतिक विषय बनाने की कोशिश की है। आंदोलन इस बात को भी सामने लाते हैं कि किस तरह जनता के अधिकारों को छीना और खत्म किया जा रहा है। इस तरह जनआंदोलनों के दौरान चलने वाले विमर्श नागरिकों की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने का काम करते हैं। ऐसे आंदोलनों में उत्तराखंड के चिपको आंदोलन और गौरा देवी का नाम प्रमुख तौर पर लिया जाता है।

उत्तराखंड में चलने वाले जन आंदोलनों में यहां की महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की है। एक मजबूत महिला नेतृत्व भी यहां पर मौजूद रहा है। हालांकि कई आंदोलनों में महिलाओं की हिस्सेदारी तो रही, पर जिस प्रकार पुरुषों के नेतृत्व का विकास हुआ, उस प्रकार महिलाओं में नहीं हो सका (भट्ट, 2021)।

चिपको आंदोलन से लेकर उत्तराखंड राज्य आंदोलन में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उत्तराखंड के आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी के बारे में इतिहासकार शेखर पाठक (2019) कहते हैं, उनकी हिस्सेदारी से न सिर्फ आंदोलनों ने असली अर्थों में सत्याग्रह का रूप लिया, उन्हें हिंसा और सतहीकरण से उबारा बल्कि उनमें गहराई और गरिमा का सृजन किया।

राज्य में सर्वोदयी विचारधारा की सरला बहन ने एक बड़े सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व किया और उनके लक्ष्मी आश्रम से शिक्षित प्रशिक्षित अनेक महिलाओं जैसे राधा भट्ट, विमला बहुगुणा आदि का नेतृत्व नशाबंदी, चिपको और नदियों को बचाने के आंदोलनों में रहा। लक्ष्मी आश्रम ने दूरस्थ क्षेत्रों की लड़कियों के लिए शिक्षा के द्वार खोले, संघर्ष करने वाली महिलाओं की एक पीढ़ी तैयार की और महिला नेतृत्व के विकास में विशेष भूमिका निभाई (भट्ट, 2021)। इसी तरह उत्तराखंड महिला मंच का नेतृत्व विभिन्न सामाजिक आंदोलनों को दिशा देने का काम करता रहा है।

महिलाओं के सामाजिक जीवन में आने से उन्होंने एक नये विमर्श को भी जन्म दिया। मुख्य धारा की राजनीति में अनुपस्थित मुद्दों को उन्होंने सामाजिक विमर्श के केन्द्र में लाने में कामयाबी हासिल की। ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन में इसकी सबसे ज्यादा मजबूत अभिव्यक्ति को देखा जा सकता है। कुछ वक्त पहले चमोली जिले के हेलंग में घस्यारी महिलाओं द्वारा अपने चरागाह में एक बड़ी कंपनी के कब्जे के विरोध में आंदोलन ने प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय लोगों के अधिकारों को लेकर एक राज्यव्यापी आक्रोश में बदल दिया।

यहां इस बात का जिक्र करना मुफीद रहेगा कि महिलाओं की पर्यावरणीय आंदोलनों में हिस्सेदारी केवल इसलिए नहीं रहीं कि उनकी प्रवृति महिला होने के कारण प्रकृति के प्रति भी पालन पोषण की रहती है या अपने रोजमर्रा के कामकाज के कारण उनकी निर्भरता ज्यादा रहने के कारण उनका रिश्ता प्रकृति से गहरा रहता है, जैसा कि इको फेमिनिज्म की एक धारा ने कहा। इस तरह से महिलाओं की भूमिका को देखना परिवार में उनकी कमतर स्थिति और काम के बोझ को अनदेखा करता है, और एक तरह से उनके शोषण को मान्यता मिलती है। बल्कि आंदोलनों में उनकी भागीदारी में सामाजिक और राजनीतिक कारण ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते हैं।

मध्य प्रदेश में नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता चित्तरूपा पालित (2008) अपने अनुभवों के आधार पर बताती हैं कि महिलाओं का विस्थापन विरोधी आंदोलनों में नेताओं, समर्थकों और प्रतिनिधियों के रूप में आगे आना उनके जीवनयापन के साधनों पर विनाशकारी हमले से जुड़ा है। लेकिन वे जिस तरह जी-जान से आंदोलन से जुड़ीं, वह सिर्फ इस हमले की प्रतिक्रिया नहीं बल्कि उनके महिला होने की पहचान और उनके उत्पीड़न से भी जुड़ा था। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि इस तरह के जनआन्दोलनों ने महिलाओं को पहली बार घरों के भीतर और बाहर के प्रभुत्व और अधीनता के बंधन तोड़कर अपनी सामाजिक और राजनीतिक समझदारी दर्ज करने का मौका दिया।

महिलाओं के नेतृत्व ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को एक नया रूप देने में कामयाबी हासिल की। उन्होंने प्रतिरोध के तरीकों को भी पूरी तरह बदल कर रख दिया। वे एक नैतिक केन्द्र बिन्दु और आंदोलन की रीढ़ बनकर उभरीं। उन्होंने पुलिस से भिड़कर, लाठी-डंडों का मुकाबला कर गिरफ्तारी देकर, अनुनय और चिरौरी की राजनीति के स्थान पर चुनौती की राजनीति को स्थापित किया। महिलाओं के नेतृत्वकारी भूमिका में होने की वजह से ही वे नर्मदा बांधों की पुनर्वास नीति को प्रभावित करने और उनमें महिलाओं के हितों की गारंटी करवाने में सफल हुईं।
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जनान्दोलनों के राजनीति से रिश्तों को समझने की कोशिश में एक बात बिल्कुल साफ है कि उनमें महिलाओं का होना निश्चित तौर पर एक नये विमर्श की ओर ले जाता है। इससे महिलाओं की राजनीतिक चेतना भी बढ़ती है। वे जान पाती हैं कि किस तरह सरकारें और राजनीतिक पार्टियां काम करती हैं और वे किसके हितों का ध्यान रखती हैं। किस तरह का विमर्श आंदोलन के पक्ष में है और किस तरह का विपक्ष में। इस तरह की समझदारी उन्हें राजनीतिक तौर पर जागरूक नागरिक बनाती है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष बिल्कुल भी नहीं निकाला जा सकता है कि सिर्फ जनान्दोलनों में ही महिलाओं की भूमिका पर्याप्त है और उन्हें मुख्यधारा की चुनावी राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

पिछले दिनों जनआंदोलनों के नेतृत्व में रही कई महिलाएं चुनावी राजनीति में सामने आयी हैं। ईरोम शर्मिला और मेधा पाटकर इनमें से महत्वपूर्ण नाम हैं। दोनों ने ही इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम से चले आंदोलन से निकली राजनीतिक पार्टी आप की तरफ से चुनाव लड़ा था। उन्हें चुनावी राजनीति में सफलता न मिल पाना दिखाता है कि वैकल्पिक राजनीति और महिलाओं के मुद्दे अभी चुनावी राजनीति के केंद्र में नहीं आ पाये हैं और वहां पुरुषवादी चिंतन का प्रभाव बरकरार है।

उत्तराखंड के कई जनआंदोलनों में नेतृत्वकारी भूमिका में रही कमला पंत (2021) भी चुनावी राजनीति में आंदोलनकारी महिलाओं के हाशिये पर रह जाने पर अपनी चिंता जाहिर करती हैं। वे सवाल उठाती हैं कि राज कौन करेगा व संघर्ष कौन?  ये मानसिकता भी वर्तमान राजनीति ने तैयार करके दे दी है कि       कुछ खास तरह के लोग व संगठन (आंदोलनकारी) संघर्ष करेंगे जबकि निहित स्वार्थी दलों से जुड़े कुछ लोग अपने निहित स्वार्थों व सुख के लिए राजनीति करेंगे। इस चिंता का विस्तार ये भी है कि चुनावी राजनीति में मुख्यधारा की पार्टियों का हिस्सा बनने वाली महिलाएं भी उसी तरह की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन जाती है और आंदोलनों के मुद्दों को वहां उठा पाना उनके लिए कठिन हो जाता है। वे उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाती हैं जो उनके मुद्दों को उठाने से रोकती है। इस तरह सत्ता संरचना का हिस्सा बनकर वे आंदोलन की राजनीति से पूरी तरह मुंह मोड़ लेती हैं। वैकल्पिक राजनीति की चाह रखने वाले, खास तौर पर महिला नेतृत्व को यह सोचना पड़ेगा कि वे नई राजनीतिक संस्कृति का निर्माण कैसे करें।

एक लोकतंत्र में तार्किक जनमत और चुनाव सबसे अहम हैं। आखिरकार चुनी हुई सरकारें ही नीतियों का निर्धारण करती हैं। वरना आंदोलनों के दौरान एकजुट महिलाएं चुनाव के दौरान मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को वोट देने के लिए मजबूर होती रहेंगी। जनआंदोलनों के महिला नेतृत्व के सामने ये चुनौती है कि वो चुनावी राजनीति में भी सकारात्मक हस्तक्षेप के रास्ते बनायें।

जनआंदोलनों से निकले महिला नेतृत्व और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के महिला नेतृत्व के बीच का फर्क साफ देखा जा सकता है। लेकिन वैकल्पिक राजनीति की वकालत करने वाले महिला नेतृत्व को इस बारे में भी गंभीर विचार करना पड़ेगा कि वे चुनावी राजनीति का प्रचलित मुहावरा बदल कर उसे ज्यादा जनोन्मुखी बना पाएं।
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सन्दर्भ

भट्ट, उमा (2021): महिला आंदोलन: पृष्ठभूमि और चुनौतियाँ, में उमा भट्ट आदि (संपादित) उत्तराखंड की महिलाएं: स्थिति और संघर्ष, गाजियाबाद: नवारुण: 49-61
कोठारी, रजनी (1984): द नन-पार्टी पलिटिकल प्रोसैस, इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, वोल्यूम 19, ऩ 5: 216-224
पालित, चित्तरूपा (2008): ‘कोमबैटिंग डिसप्लेसमेंट’, सेमिनार, वोल्यूम 583: 16-20
पंत, कमला (2021): राजनीति और महिलाएं: विकल्प की तलाश, में उमा भट्ट आदि (संपादित) उत्तराखंड की महिलाएं: स्थिति और संघर्ष, गाजियाबाद: नवारुण: 275-279
पराजुली, प्रमोद (1991): ‘पॉवर एंड नॉलेज इन डेवलेपमेंट डिसकोर्स: न्यू सोशल मूवमेंट्स एंड द स्टेट इन इंडिया’, इंटरनेशनल सोशल साइंस जर्नल,  ऩ 127: 173-190
पाठक, शेखर (2019): हरी भरी उम्मीद,  नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन
सिन्हा, सुबीर, गुरुरानी, शुभ्रा और ग्रीनबर्ग, ब्रायन (1997): ‘द ‘न्यू ट्रेडिशनलिस्ट’ डिसकोर्स आफ इंडियन एनवायरनमेंटलिज्म’, जर्नल ऑफ पीजेंट स्टडीज, वोल्यूम 24, ऩ 3: 65-99।