महिलाओं की दुनिया बदली है
प्रदीप पाण्डे
# मी टू अभियान मन से कूड़ा निकालने की एक मुहीम कही जा सकती है। इस अभियान के तहत बीसियों महिलाओं ने उनके साथ पूर्व में हुए यौन दुव्र्यवहार का उल्लेख सोशल मीडिया या मुख्य मीडिया में कर दिया है। उनके साथ यौन हिंसा करने वाले का साफ तौर पर नाम लेकर जिक्र किया है।
कुछ समय पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने जज ब्रेट केवेनोग को सुप्रीम कोर्ट में एसोसिएट जस्टिस के पद के लिए चुना, एक महिला ड़ ब्लेसी फोर्ड ने समाचार पत्र वाशिंगटन पोस्ट और अपने कांग्रेस प्रतिनिधि से सम्पर्क कर अपनी व्यथा कही कि वे स्कूल में केवेनोग की सहपाठी थी तो उसने मुझ से यौनहिंसा की थी। ब्लेसी का पलीग्राफ टेस्ट भी हुआ जिसमें पाया गया कि वे सच कह रही हैं। 27 सितम्बर 2018 को ड क्रिस्टीन ब्लासी फोर्ड ने सीनेट की जुडीशियल कमिटी के सामने हलफ उठा कर बयान दिया कि हाँ इस शख्स ब्रेट केवेनोग ने 36 साल पहले बल और छलपूर्वक उसके साथ अवांछित हरकत की। यह एक इतिहास का निर्माण था जब दशकों पुराने किसी कृत्य के कारण एक महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति दांव पर थी। श्रीमती फोर्ड ने सीनेट के सदस्यों के सवालों के जवाब पूरे आत्मविश्वास और इत्मीनान से दिए जिसे दुनिया के कई लाख लोगों ने टी.वी., मोबाइल पर लाइव देखा। जनमत सर्वे में पता चला कि फोर्ड के समर्थक तेजी से बढे़ हैं। दरअसल फोर्ड एक प्रतीक बन गयी उन लोगों की, उस वेदना की जो उन्हें मिली तो सालों पहले थी मगर जिसकी पीड़ा अब भी कायम है, क्योंकि इसने शरीर पर कम मगर अंतर्मन पर ज्यादा गहरे जख्म लगाए हैं। फोर्ड नवयुवकों के लिए भी एक चेतावनी बनी कि तुम्हारे आज किये दुष्कर्म दशकों बाद भी तुम्हारे पद, प्रतिष्ठा और करियर को दांव पर लगा सकते हैं, इसलिए सम्भलो। ब्लासी फोर्ड का यह कदम जितना कठिन दीखता है उससे भी ज्यादा कठिन था क्योंकि उन पर मीडिया, सोशल मीडिया में फब्तियां कसी गयीं, उनकी मजाक उड़ाई गयी, राष्ट्रपति ट्रम्प ने खुद एक रैली में उनका मखौल उड़ाया और कुछ लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी। उन्हें निजी सुरक्षा गार्ड रख अपनी सुरक्षा देखनी पड़ी। फोर्ड की गवाही के बाद केवेनोग मामले में एक और इंक्वायरी बैठायी गयी। उसकी नियुक्ति अभी खतरे में ही है। ड फोर्ड को अमेरिका की कुछ महिलाओं जिनमें मीटू अभियान की संस्थापक तराना बुर्के भी हैं, ने एक चिट्ठी लिखी जो बहुत छोटी है मगर बेमिसाल है। ये कुछ इस तरह है-
(# me too campaign)
‘‘डियर ब्लासी फोर्ड आज हमने तुम्हें अपना फर्ज अदा करते हुए देखा, तुम हमें कोई महानायक नहीं बल्कि एक पूरी तरह इंसानियत से भरी औरत नजर आयी। तुमने जतलाया कि नए तरह के नायक- जिस नायकत्व की आज दरकार है, एक महिला है, जो पुरुषसत्ता का सामना किसी हथियार से नहीं बल्कि अपनी आवाज, अपने शरीर और अपने विश्वास से कर रही है, थैंक्यू ड फोर्ड।’’
अमेरिका में मुस्लिम महिलाओं की जागरूकता और यौनिक सुरक्षा के लिए काम करने वाली एक संस्था है ‘हार्ट’, इसके सदस्यों के पास महिलाएँ अपने साथ हुई यौनहिंसा का दर्द साझा करने आती हैं तो इसकी सदस्य महिलाएँ इस शपथ से आबद्घ हैं कि ‘‘अगर तुम कभी भी हुए यौन हमले का खुलासा मुझसे करोगी तो मैं वचन देती हूँ कि तुमसे गर्मजोशी और प्यार से पेश आऊंगी, तुम्हारा शुक्र अदा करूंगी कि तुमने मुझ पर भरोसा किया, तुम्हारे सच को सुनूंगी, तुम पर यकीन करूंगी, तुम्हारे मजहब और सांस्कृतिक सन्दर्भ की इज्जत करूंगी, तुम्हारी निजता का ख्याल रखूंगी, तुम्हें साधन मुहैय्या कराने में मदद करूंगी, अपने जख्म भरने, न्याय पाने का तुम्हें जो विकल्प वाजिब लगे, उसे पाने में मददगार बनूंगी, दूसरों से भी निवेदन करूंगी कि तुम्हारी निजी जिंदगी का सम्मान करें। यह न पूछूंगी कि तुमने क्या पहना था, तुमने हल्ला क्यों नहीं मचाया, प्रतिरोध क्यों नहीं किया, पुलिस क्यों नहीं बुलाई। ये जांच-पड़ताल करूंगी कि हुआ क्या, यह जताऊंगी नहीं कि मेरे खयाल से तुम्हें क्या करना चाहिए था, तुम्हारे धर्म का बेजा इस्तेमाल कर तुम्हें चुप नहीं कराऊंगी, कोई सुबूत गवाह नहीं मागूंगी, न उसका बचाव करूंगी जिसने यह कृत्य किया, तुम पर इस बात को किसी और को न बताने का दबाब नहीं डालूंगी।’’
एक मनोचिकित्सक भी यही करता है। वह अपने सामने बैठे रोगी को सुनता है, उसे उपदेश नहीं देता। वह रास्ता बनाता है कि सामने बैठा व्यक्ति जो कि मानसिक रूप से घायल है, अपने मन के गुबार को निकाल सके, हल्का हो सके और सामान्य जिन्दगी में लौट सके। # मी टू एक ऐसा मनोविकार विरेचक हो सकता है और एक सेहतमंद समाज बनाने में मदद कर सकता है। जब किसी व्यक्ति पर यौनिक दुराचार होता है तो वह एक अपराधबोध को ढोने लगता है।
(# me too campaign)
एक जानकारी के अनुसार दुव्र्यवहार के शिकार लोग अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर बहुत आशंकित रहते हैं, उन पर कई प्रकार की बंदिशें लगा उनका व्यक्तित्व भी कुप्रभावित कर देते हैं। यानी इसके जख्म पीढ़ियों तक जाने लगते हैं, इसलिए इसके शिकार व्यक्ति अगर आज अपनी व्यथा बयान कर रहे हैं तो उनका सम्मान होना चाहिए, उनकी सुनी जानी चाहिए। इससे कई लोग कुंठा मुक्त होंगे और समाज की बेहतर इकाई बनेंगे।
इस अभियान ने कई नामी-गिरामी चेहरों को, जो कभी शालीन लगते थे, बेनकाब कर दिया है। कई की नौकरी चली गयी है, कई का बहिष्कार हुआ है और इस अभियान से लज्जित हुए सबसे बड़े चेहरे एम. जे अकबर को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। यह एक युगांतरकारी घटना है और इसके परिणाम दूरगामी होने जा रहे हैं। एक सवाल जो काफी वाजिब है, वह यह है कि किसी पुरुष पर कोई महिला झूठा आरोप भी लगा सकती है, सही बात है और ऐसी महिलाओं को किसी भी नजरिये से सही नहीं ठहराया जा सकता, मगर दुनिया का कोई भी कानून ऐसा नहीं है जिसका दुरुपयोग नहीं होता हो। यह वैसा ही है जैसे किसी तकनीकी, किसी ताकत, किसी पद का दुरुपयोग करना। ये मानव समाज की विसंगतियां हैं। मगर सिर्फ दुरुपयोग की संभावना के कारण मी टू अभियान को बुरा-बुरा और सिर्फ बुरा कहने वालों की अक्ल पर थोड़ा शक कर लेना चाहिए। उनकी समझ पर सवाल उठने चाहिए क्योंकि यह उन अहंकारी व्यक्तियों के अतीत में किये दुष्कर्म को सामने लाने का जरिया बना है, जो आज शालीनता का मुखौटा लगाए घूम रहे हैं। एक और सवाल उठाया जा रहा है, वह यह कि इन महिलाओं ने तब सवाल क्यों नहीं उठाया जब ये घटना हुई। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि तब वह महिला अकेली थी, कमजोर थी इसलिए विरोध नहीं कर पायी। क्रिस्टीन ब्लासी फोर्ड के साथ घटना तब हुई जब वह कक्षा 8 में थी। आये दिन खबरें मिलती हैं कि टीचर किसी बच्ची से दुष्कर्म करता था मगर घर वाले लोकलाज के कारण चुप रहे। बसों में महिलाओं के साथ गलत ढंग से छूने की घटनाएँ आम हैं और हम उम्मीद करते हैं कि ऐसी हर महिला उठे और गलत काम करने वाले के मुँह पर थप्पड़ जड़ दे, जब कि सारा समाज गुंडों से, पुलिस से, नेताओं से, जजों से, वी.आई.पी. लोगों से डरता है, उनकी तमाम नाकाबिलेबरदास्त हरकतों को देखता है,चुप रहता है। अपनी बेरहमी, मंथरगति के कारण हमारी पुलिस और अदालतें बदनाम हैं। अत: यह कहना भी वाजिब नहीं सुनाई देता कि इन महिलाओं ने पुलिस में रपट क्यों नहीं की, अदालत में क्यों नहीं गयी।
(# me too campaign)
इस अभियान का विरोध इस कारण भी हो रहा है कि यह अच्छी पोजीशन में बैठी, आधुनिक महिलाओं का आंदोलन बन गया है, बात सही है क्योंकि इसमें गरीब, मध्यवर्ग और छोटे कस्बों से कोई आवाज सामने नहीं आयी है, जिन महिलाओं ने # मी टू किया वे सब सुस्थापित हैं मगर समाज के कई आंदोलन, कई सुधार, कई रीतियां उच्चवर्ग से ही प्रारम्भ हुई हैं, बाद में नीचे तक गयी हैं। 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई तो यह अतिसंपन्न, समृद्घ और पाश्चात्योन्मुखी वर्ग द्वारा स्थापित की गयी, बाद में इसका स्वरुप बदलता गया और यह जनता का संगठन बन गया। वैसे भी सेक्स एक ऐसा विषय है जिस पर सार्वजनिक रूप से बोलने में मिडिल क्लास की जीभ लटपटाने लगती है, छोटे शहरों में समाज के रिश्तों में एक खास किस्म की घनिष्ठता होती है, अगल-बगल, आसपड़ोस में एक-दूसरे को जानना, शहर में किसी को तलाश निकालना आसान होता है, जिस कारण लोग खुलकर सामने नहीं आ पाते, महानगरों में यह नहीं होता। ‘मी टू’ अभियान बदली हुई परिस्थितियों का परिणाम है, इसी कारण यह पहले नहीं हो सकता था। इसका कारण है, पहले अपनी बात कहने के लिए किसी व्यक्ति को मीडिया पर ही निर्भर रहना पड़ता था, आज आप अपने ब्लॉग लिख सकते हैं, सोशल मीडिया पर अपनी बात शेयर कर सकते हैं, मेल कर सकते हैं। आज महिलाओं का परिवेश जबरदस्त तरीके से बदला हुआ है, वे घरों से बाहर निकल रही हैं, दूरदराज पढ़ने-लिखने, नौकरी करने जा रही हैं, याद कीजिये आज से बीस-तीस साल पहले आपको ऑफिसों में, दुकानों में, वाहन चलाती कितनी महिलाएं नजर आती थीं। प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छी खासी तादाद लड़कियों की होती है। 30-40 साल पहले महिला पुलिस नमूने के तौर पर रखी जाती थी, आज जहाँ-तहाँ नजर आती हैं। अत: आज नए मुद्दे उठने ही हैं, नए सवाल उभरने ही हैं। दुनिया बदल गयी है और बहुत जल्दी बदल गयी है, मगर महिलाओं को पुराने नजरिये से देखने की सोच अभी मौजूद है। महिलाओं की दुनिया बदली है इसलिए # मी टू है, पुराना नजरिया कायम है इसलिए इसका विरोध भी है।
(# me too campaign)
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