मी टू की वर्षगाँठ पर

सीमा आजाद

15 अक्टूबर 2018 को ‘मी टू’ आन्दोलन एक साल का हो गया, एक ‘हैशटैग’ आन्दोलन जिसे हॉलीवुड अभिनेत्री अलीसा मिलाने ने शुरू किया। एक साल पहले उन्होंने महिलाओं को आमंत्रित किया कि वे भी अपने पर होने वाले यौन हमलों और उत्पीड़नों को बेझिझक होकर बयान करें। ‘मी टू’ शब्द का इस्तेमाल अमेरिका की अश्वेत सामाजिक कार्यकर्ता तराना बुर्के ने 2006 में करना शुरू किया, जब वे 12 से 16 साल की बच्चियों, गरीब महिलाओं, और नस्लवादी यौन हिंसा की शिकार महिलाओं की मदद करने के काम में लगी थीं। लेकिन पिछले साल अभिनेत्री अलीसा मिलाने द्वारा इस शब्द को हैशटैग के साथ जोड़कर अपनी यौन उत्पीड़न की कहानी कहने का अभियान बना दिया गया, जिसने बड़े-बड़े पदों पर बैठे ताकतवर संभ्रांत पुरुषों के मुखौटे के पीछे छिपे अपराधी व्यक्तियों को सामने ला दिया। लोगों को अचानक पता चला कि सभ्य-शिक्षित कहे जाने वाले इस वर्ग में इतने सारे अपराधी छिपे बैठे हैं, जबकि इसका आरोप सिर्फ अशिक्षित-असभ्य लोगों पर ही लगता रहा है। हालांकि यह रहस्योद्घाटन नया नहीं है, बल्कि ऐसी सच्चाई है, जिसके बारे में उसी वर्ग के लोगों में फुसफुसाहटों में बातें होती रही हैं। पहली बार हल्ला मचाकर यह सब कहा गया, जो ऐसे पुरुषों का मनोबल तोड़ने के लिए काफी था।

यह आन्दोलन अमेरिका से बाहर भी गया और कई देशों से होता हुआ इस साल सितम्बर अन्त में भारत भी पहुँच गया। यहाँ यह बॉलीवुड की अभिनेत्री तनुश्री दत्ता से शुरू हुआ और फिर यहाँ से भी एक के बाद एक, संभ्रांत चेहरे बेनकाब होते गये। नाना पाटेकर जो कि पर्दे पर ज्यादातर देश की सारी गन्दगी साफ कर देने वाले किरदार निभाते हैं, खुद गन्दी पितृसत्तात्मक मानसिकता से भरे हुए पाये गये। आलोकनाथ, जो कि टीवी के पर्दे पर ‘भारतीय संस्कार’ बाँटते थे, पितृसत्ता के ‘भारतीय सामंती संस्कार’ से लैस मिले। अब बॉलीवुड और टीवी सीरियल की दुनिया की कई महिलाओं ने अपने-अपने उत्पीड़न की कहानी कहनी शुरू कर दी है और यह सिलसिला लगातारजारी है।
(Me Too Movement)

भारत की महिला पत्रकारों ने जब ‘मी टू’ में हिस्सा लिया, तो पत्रकार जगत के सरगना और भाजपा की सरकार में मंत्री बनाये गये एम.जे. अकबर के खिलाफ एक के बाद एक अब तक 10 कहानियाँ बाहर आ चुकी हैं, जिन्हें पढ़कर पता चलता है कि वास्तव में एमजे अकबर महिलाओं का शिकार करता है। उसने महिलाओं को कभी इंसान समझा ही नहीं होगा, उसके लिए महिला सिर्फ और सिर्फ उपभोग करने की वस्तु है। उच्च पदों पर बैठे कुछ और हमलावर संपादक और पत्रकारों की कहानियाँ भी  सामने आयी हैं और आती जा रहीं हैं।

बहुत से संभ्रांत क्षेत्रों में अभी ‘मी टू’ पहुँचना बाकी है, लेकिन भारत में आते ही इसके पक्ष और विपक्ष में बहस शुरू हो गयी है समाज के ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग इस अभियान को चटखारेदार घटना समझकर इसका मजा ले रहे हैं, यह इस समाज की पिछड़ी सामंती मानसिकता और पितृसत्तात्मक उपभोक्तावाद को बयां करने के लिए काफी हैं। दरअसल यही ‘मी टू’ की ताकत के साथ-साथ उसकी सीमाओं को भी रेखांकित कर देता है।

बहुत से जनवादी लोगों का यह कहना है कि ‘मी टू’ अभियान का दायरा शहर का संभ्रांत महिला वर्ग है, गरीब और गाँव की महिलाओं तक इसकी पहुँच नहीं है। हलांकि अभी तक यह आन्दोलन चल ही रहा है, यह कहाँ तक और किस रूप में जायेगा कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन अभी के लिए यह सच है कि इसका दायरा शहर की पढ़ी-लिखी ‘एलीट’ महिलाओं तक सिमटा हुआ है। लेकिन यह अभियान इस सच्चाई को लोगों तक पहुँचा रहा है कि समाज के उच्च वर्ग में भी जो अपने मूल्यों में अधिक सभ्य और लोकतांत्रिक माना जाता है, लड़कियों को देखने का नजरिया कितना तंग, सामंती, पितृसत्तात्मक और उपभोक्तावादी है।
(Me Too Movement)

उच्च वर्ग की महिलायें पुरुषों के वर्चस्व वाले सभी कार्यक्षेत्रों में अधिक से अधिक संख्या में काम करने के लिए आगे बढ़ रही हैं। ये पुरुषों की दुनिया में खलबली मचाने के लिए काफी है। महिलाएँ वहाँ अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद में लगी हैं, लेकिन उसी वर्ग का पुरुष उसे उसका स्थान नहीं देना चाहता। औरतों ने तो वक्त की जरूरत के मुताबिक खुद को बदला है, लेकिन पुरुष उस जरूरत के मुताबिक खुद को नहीं बदल पा रहा। वह कार्यक्षेत्र में बराबरी का काम करने के बावजूद भी औरत को पुरुष से कमतर इंसान के रूप में ही देख रहा है, महिला का यौन शोषण करने की मानसिकता यहीं से निकली है। ‘मी टू’ अभियान ऐसी महिलाओं को इस वर्ग में अपने लिए ‘स्पेस’ बनाने का एक प्रयास है।

इस आन्दोलन की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह यौन शोषण को, जो कि सामंती मानसिकता और पितृसत्तात्मक उपभोक्तावाद का लक्षण है, केवल कुछ व्यक्तियों के अपराध तक सीमित कर देता है। इससे दोषी व्यक्ति का अपराध सामने आ जा रहा है, संभव है कि उनमें से कुछ के खिलाफ कार्यवाही भी हो जाय, लेकिन यह अभियान यौन उत्पीड़न की घटनाओं को एक अलोकतांत्रिक ढाँचागत मानसिकता के रूप में चिह्नित करने या उसे निशाना बनाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। यह पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष के दायरे को वहाँ तक बढ़ाने से रोकता है, जहाँ से यौन शोषण को वास्तव में खत्म किया जा सकता है। सामाजिक ढाँचागत समस्या से जुड़े किसी ‘अभियान’ को  व्यक्तियों पर हमले तक सीमित रखना दरअसल सत्ता के लिए नुकसानदायक नहीं होता है, बल्कि उस सत्ता को बनाये रखने में सहायक बन जाता है।
(Me Too Movement)

फिल्म इण्डस्ट्री से जुड़े यौन उत्पीड़न के तमाम मामले उस घटना को किसी एक व्यक्ति पर केन्द्रित कर रहे हैं। दरअसल किसी ‘अभियान’ में अपराधी को व्यक्ति के रूप में चिह्नित करना गलत नहीं है, लेकिन मात्र पहला कदम ही है। हमारी फिल्म इण्डस्ट्री ऐसी जगह है, जहाँ से महिलाओं के यौन और लैंगिक शोषण के औजार उपलब्ध कराये जाते हैं, वहाँ से आने वाले गाने, कहानियाँ, संवादों से लेकर दृश्यों तक में महिलाओं का पितृसत्तात्मक और उपभोगवादी चित्रण रहता है। गाने और डायलॉग लम्पटों को लड़कियों का मौखिक यौन शोषण करने के औजार उपलब्ध कराते हैं, और कहानियाँ पितृसत्तात्मक, उपभोक्तावादी सोच को बनाये रखने के लिए सीमेंट।

पूरी फिल्म इण्डस्ट्री जब लोगों को महिला विरोधी संस्कार परोस रही है तो, हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वहाँ काम करने वाली महिलाओं को सम्मान का दर्जा मिलेगा? लेकिन ‘मी टू’ अभियान ऐसे महिला विरोधी संस्थान और यौन हमलों के मामलों को अलग-थलग रखता है, वह इस पर कोई सवाल नहीं उठाता, केवल वहाँ सुरक्षित माहौल की माँग रखता है, जो कि संभव नहीं है। तनुश्री दत्ता और और विन्ता नन्दा ने अपने साथ हुई यौन हिंसा की घटनाओं को सबसे साझा किया, यह बहादुरी का काम है, लेकिन उन्हें ऐसे महिला विरोधी संस्थान से कोई शिकायत नहीं है। तनुश्री दत्ता ने न जाने कितनी महिला विरोधी फिल्मों में काम किया है, लेकिन उन्हें उन कहानियों या गानों से शायद ही कोई शिकायत हो। उन्हें अपने ‘मी टू’ को मुकम्मल और व्यापक बनाने के लिए इन फिल्मों में काम करने के लिए अपनी आलोचना भी करनी चाहिए।

विन्ता नन्दा के लिए भी यही बात सही है। जिस संस्कार बाँटने वाले सीरियल में उनके साथ एक संस्कारी पुरुष ने रेप किया, महिलाओं को पुरुषों की दासी के रूप में चित्रित करने वाले उन्हीं संस्कारी सीरियलों में उन्होंने काम करके महिलाओं के जनवाद के आन्दोलन को कमजोर किया। उन्हें मी टू में इस बात की स्वीकरोक्ति भी करनी चाहिए। एक प्रोड्यूसर के रूप में वे खुद ऐसे सीरियल बनाती होंगी, जिनमें महिलाओं का अपमान होता है। उन्हें आलोकनाथ जैसे लोगों को बेनकाब करने के साथ अपनी गलती भी स्वीकार करनी चाहिए और भविष्य में ऐसे सीरियल न बनाने का वादा करना चाहिए।
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फिल्में महिलाओं और बच्चों का मासूम, रोंधू, कमजोर और लाचार रूप ही परोसना पसंद करती हैं। उनका यह रूप ही उन्हें लुभाता है। सभी महिलाओं को ऐसी भूमिका से इंकार करना होगा, जो महिलाओं को कमजोर बनाती है या उनके शोषण के लिए स्पेस मुहैया कराती है। फिल्म इण्डस्ट्री में ‘मी टू’ आन्दोलन का अभियान पितृसत्तात्मक अपराधी पुरुषों का भंडाफोड़ करने से आगे बढ़कर इसके संस्थाबद्घ रूप पर हमले तक नहीं पहुँचा तो इसका असर नहीं होगा, यहाँ काम करने वाली महिलाओं के साथ भी न्याय नहीं होगा।

पत्रकार एम.जे. अकबर के खिलाफ यौन शोषण, हमले, उत्पीड़न के सबसे ज्यादा बयान आये हैं लेकिन कार्रवाई हो भी गयी, तो भी पत्रकारिता का क्षेत्र महिलाओं के लिए असुरक्षित बना रहेगा। क्योंकि इस क्षेत्र में कई एम.जे. अकबर कुंडली मारे बैठे हैं।

पत्रकारिता ऐसा क्षेत्र है जहाँ महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन लोकतंत्र का चौथा आधार कहे जाने वाले इस तंत्र में सवर्ण-हिन्दू-पुरुषों का वर्चस्व कायम होने के कारण इसका अपना ही लोकतंत्रीकरण नहीं हो सका है, समाचारों के चयन और प्रस्तुतीकरण के रूप में हमें मीडिया का महिला विरोधी, दलित विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी चरित्र दिखता है। इस चौथे खम्भे में जो महिलायें हैं, वे महानगरों या बड़े शहरों में केन्द्रित हैं, छोटे शहरों में या कस्बों में तो महिला पत्रकार के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। अपने सामंती पितृसत्तात्मक ढाँचे के कारण ही मीडिया दलित अल्पसंख्यक और महिला उत्पीड़न की खबरों को खबर नहीं बनाता, इसी कारण इसे ‘मेनस्ट्रीम’ मीडिया की बजाय ‘मनुस्ट्रीम’ मीडिया कहना ज्यादा ठीक है। इसी मीडिया से जुड़ी तवलीन सिंह  ने 14 अक्टूबर के ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में लिखा कि उनके द्वारा बहुत मेहनत से लिखी गयी यौन हिंसा की एक खबर को संपादक ने यह कह कर छापने से मना कर दिया कि ‘तुम अपना समय बर्बाद कर रही हो।’ ऐसा ही अनुभव बहुत सी महिला पत्रकारों का है। जो महिला पत्रकार अपने साथ हुई यौन हमलों और उत्पीड़न की खबरों को कभी कह नहीं सकी, उनके लिए इन्हें प्रकाशित कराने का दबाव बनाना सचमुच मुश्किल ही रहा होगा।
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‘मी टू’अभियान से जुड़ने और उसे समर्थन देने वाली महिलाओं को चाहिये कि वे अब महिला उत्पीड़न की खबरों को न सिर्फ अखबारों में जगह दिलाने के लिए भी आवाज उठायें, बल्कि अखबारों में महिला विरोधी खबरों और उनकी पितृसत्तात्मक भाषा को जनवादी बनाने की लड़ाई भी लड़ें। वे इसका भी खुलासा करें कि इन संस्थानों में उन्हें कब-कब क्या लिखने से रोका गया, और कैसी स्टोरी कवर करने के लिए बाध्य किया गया। साथ ही, उन्हें यह भी बयान करना चाहिए कि उन्होंने बस्तर और देश के दूसरे आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी महिलाओं के साथ सेना के जवानों द्वारा किये जा रहे यौन हमलों की रिपोर्टिंग या स्टोरी क्यों नहीं की या उसे प्रकाशित करने का दबाव क्यों नहीं बनाया। दंगों में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की रिपोर्टिंग क्यों नही की, ‘लव जेहाद’ की संघी साजिश के खिलाफ और जाति के बाहर अपनी मर्जी की शादी के कारण ‘ऑनर किलिंग’ के खिलाफ रिपोर्टिंग क्यों नहीं की, दलित महिलाओं पर सामंती दबंगों की जोर जबर्दस्ती की स्टोरी बयान करने में उनके सामने कौन सा दबाव बाधक बना, या उन्होंने खुद ही इसे ‘स्टोरी’ का विषय नहीं माना? बहुत सी महिला पत्रकार अब इन विषयों पर लिख रही हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। पत्रकारिता के संस्थानों में सिर्फ और सिर्फ तभी महिलाओं का शोषण रुकेगा, जब वे ऐसी रिपोर्टिंग का काम हाथ में लेंगी। जो दूसरों के शोषण की बात सामने नहीं ला सकतीं, वह अपने पर होने वाले शोषण की बात को भी सामने नहीं ला सकेंगी।

यौन हिंसा रोकने के अभियान का दायरा अभी और भी व्यापक है। जैसे पुलिस विभाग सहित उन सभी संस्थानों की भी पोल खोलना और हल्ला बोलना होगा, जो किसी भी उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज करने में न सिर्फ आना-कानी करते हैं, बल्कि उत्पीड़न की बात सुनने के बाद उत्पीड़ित पर खुद भी सामंती और पितृसत्तात्मक हिंसा करते हैं, कभी मौखिक रूप से तो कभी शारीरिक रूप से भी। इन संस्थानों में जाकर अपने पर हुए उत्पीड़न की रिपोर्ट लिखाना और न्याय के लिए लड़ना फिर से उसी पीड़ा से गुजरना होता है, जिससे उस उत्पीड़न के समय गुजरे थे। जिन संस्थानों में महिलायें काम करती हैं, वहाँ पर ‘महिला शिकायत सेल’ होने की लड़ाई तो लड़कियां पहले से ही लड़ रहीं हैं, जो कि सुप्रीम कोर्ट के कहने पर भी हर जगह नहीं हैं। जहाँ ये हैं भी उनके जनवादीकरण की लड़ाई लड़ना भी ‘मी टू’ के दायरे में लाना चाहिए। साथ ही पीड़ित औरतों को बताना चाहिए कि उनके साथ उन संस्थानों में शिकायत करने पर क्या-क्या हुआ। उसे किस मानसिक, शारीरिक और आर्थिक पीड़ा से गुजरना पड़ा।
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इन संस्थानों को जनवादी बनाये बगैर किसी भी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई जीत लेना नामुमकिन है। जहाँ सत्ता ही अलोकतांत्रिक हो, वहाँ यह लड़ाई और भी कठिन है। ‘मी टू’ का ‘अभियान’ व्यक्तियों पर केन्द्रित होकर महिलाओं को उनके पक्ष में बदलाव का सपना दिखता है, जो कि संभव नहीं, इससे कुछ देर के लिए समाज में उफान तो आ सकता है, लेकिन बगैर पितृसत्ता को संरक्षण देने वाले संस्थानों से लड़े कोई भी बदलाव नहीं लाया जा सकता, महिलाओं के यौन उत्पीड़न को भी नहीं रोका जा सकता।

भारत जैसे देशों में ‘मी टू’ से यौन हमलों का एक बड़ा क्षेत्र छूट रहा है, वह है घर परिवारों के अन्दर होने वाले यौन हमले और उत्पीड़न। दरअसल कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़नों और घर के अन्दर होने वाले हमलों की कहानी कहने के अभियान में भी बहुत बड़ा अन्तर है। घरों के अन्दर होने वाले उत्पीड़न को बयान करने भर का मतलब है पितृसत्ता की एक मजबूत इकाई ‘परिवार’ की नींव में दरार पैदा कर देना और यह बहुत बड़ी परिघटना होगी। इस कारण इसे बयान करते ही समाज में बड़े पैमाने पर खलबली मचेगी। यह और बात है कि बयान करने वाली औरत के लिए जीना मुश्किल हो जायेगा। यहीं कारण है कि लड़कियां बाहर होने वाले उत्पीड़न को तो बयान कर ले रही हैं, लेकिन घरों के अन्दर होने वाले यौन हमलों को बयान करने से बच रहीं हैं।

‘मी टू’ को खारिज करने वाले कुछ लोगों ने अपने फेसबुक पोस्ट पर कुछ ऐसे वाकयों का जिक्र किया है, जिसमें महिला ने महिला होने का फायदा उठाया, और किसी पुरुष के सीने पर पैर रखकर आगे बढ़ गयी, उसके कारण पुरुष को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। निश्चित ही ये घटनायें सच होंगी, कुछ महिलायें ऐसा करती हैं, वे अपनी यौनिकता का इस्तेमाल आगे बढ़ने के लिए करती हैं, जिसमें दूसरी लड़कियाँ और पुरुष भी इसका शिकार हो जाते हैं। लेकिन ऐसी लड़कियों को अपनी यौनिकता का लाभ उठाने का स्पेस भी इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ही उपलब्ध कराया है, जिसके कारण वह लड़की ऐसा कर पा रही हैं। इस प्रकार ऐसी घटनाओं से पीड़ित पुरुष भी पितृसत्ता का ही शिकार है, न कि उस लड़की का।
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कुछ का आरोप है कि मीटू के कुछ मामले झूठे हैं और लड़कियों ने सम्बन्धित व्यक्ति से बदला लेने के लिए ऐसा लिखा है। इस आरोप से जुड़ा आरोप यह है कि न्याय के सिद्घान्त के अनुसार इसमें सम्बन्धित पुरुष को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया जा रहा है।

हो सकता है इसमें लिखे गये कुछ मामले झूठे हों, लेकिन इन कुछ के आधार पर सबको निशाना नहीं बनाया जा सकता। अभी तक तो यही देखने में आ रहा है कि हर आरोपी पुरुष मी टू में उसकी कहानी आने के बाद अपनी ओर से अपनी बात रखने की बजाय महिलाओं को धमकाता ही दिख रहा है। नाना पाटेकर, आलोक नाथ के बाद एम.जे. अकबर ने सभी पीड़ित महिलाओं को कानूनी नोटिस भेजने की धमकी दी है। एम.जे. अकबर ने अपनी सफाई में मीडिया में जो बातें कहीं हैं वे उसके अपराधी होने की बात को और भी पुख्ता कर रही हैं। लेकिन अगर किसी पुरुष पर गलत आरोप लगाया गया है, तो वह भी अपनी बात बयान कर सकता है और उसे सुना भी जाना चाहिए ताकि यह लड़ाई ‘महिला बनाम पुरुष’ न होकर ‘जनवाद बनाम पितृसत्ता’ बन सके। हालांकि ‘मी टू’ महिला यौन उत्पीड़न के दायरे तक इतना अधिक सिमटा हुआ है कि यह लोगों को इसकी जड़ ‘पितृसत्ता’ तक पहुँचने नहीं देना चाहता, याद करें 2006 में अश्वेत महिला कार्यकर्ता बुर्के ने इसका दायरा जहां गरीब उपेक्षित महिला से लेकर किशोर बच्चों तक फैलाया हुआ था, 2017 में यूनिसेफ के एड्स अभियान से जुड़ी अभिनेत्री अलीसा मिलानो ने इसे ‘कार्यक्षेत्र में महिलाओं पर यौन हमलों’ तक सिमटा दिया, ताकि उच्च वर्ग की महिलाओं को कार्यक्षेत्र में थोड़ा अधिक स्थान बगैर किसी बड़ी, असंगठित और अलग-थलग लड़ाई के हासिल किया जा सके, लेकिन यह संभव नहीं है, महिलाओं की समानता की लड़ाई और व्यापक है, मीटू केवल इसका एक बहुत छोटा सा कदम हो सकता है, मुकम्मल रास्ता नहीं।
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