बिखरी हुई लाशों का शहर : संस्मरण 2
उमा अनंत
मुझे अब इन्द्रप्रस्थ स्कूल में दाखिला मिल गया था। सुबह-सुबह प्रभातफेरियों से वातावरण एक सात्विक संगीत से गूँज उठता। वह सुबह भी कुछ अजीबो-गरीब थी- जब घबराहट से मेरे बाबा ने दो मंजिल की बालकनी जिस पर सरकंडे वाली बड़ी चिक, जिस पर गाढ़ा नीले रंग का पर्दा लगा था, नीचे तक ढाँपते हुए सख्त हिदायत दी कि कोई ऊपर से सिर निकाल कर बाहर नहीं झाँकेगा क्यों कि कहीं से भी कोई गोली अकस्मात् कपाल छेद सकती है। शहर में दंगा हो गया था। दंगइयों की दहशत भरी आवाजें, नारे गूँज रहे थे। ‘हर हर महादेव’, ‘अल्लाह-हो-अकबर’ की आवाजें, सिहरन उत्पन्न कर रही थीं। हँसता-खेलता चांदनी चौक उजड़े हुए वीराने में बदल गया था। बीच-बीच में जलती हुई दुकानों का धुँआ, दंगाइयों की सामूहिक आवाजें, गोलियों की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। सन 1946 के दंगों ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया था। मैं सरकंडों की चिक के सबसे नीचे की ओर एक छोटे से छेद से नीचे का नजारा देखने की कोशिश करती थी। बिखरा हुआ रक्त देखकर मुझे चक्कर-सा आने लगता था। इस नजारे ने मुझे पत्थर बना दिया था। अपना-पराया लाशों के ढेर में तब्दील हो गया था। तहजीब और आस्था दम तोड़ रहे थे। मस्जिद, गुरुद्वारा, मंदिर, पक्षियों का अस्पताल सन्नाटे में दफन थे। हँसता-खेलता, भीड़ से भरा शहर जिन्दा मुर्दाघाट में बदल गया था। शहर की कोतवाली के पीछे क्वार्टर में मैं खुद को महफूज समझती थी पर बिखरी हुई लाशों के भी कोई अपने होंगे, उनका क्या?
(Memoir by Uma Anannt 2)
चांदनी चौक के वीराने में जलती दुकानों का धुँआ, दंगाइयों की सामूहिक चीखें, नारे दिल को दहला रहे थे। बीच-बीच में गोलियों की आवाजें उस सन्नाटे को भंग कर रही थीं।
देश का विभाजन हो गया था। इतिहास बदल रहा था। कारण मेरी समझ से बाहर था।
अनायास ही किसी दौड़ते हुए शख्स को ठीक अपने घर के नीचे गिरते हुए देखा। हमारे घर के नीचे बहती हुई नाली में उस की टांगों से रक्त बह रहा था। गौर वर्ण और दोहरे बदन के उस व्यक्ति की पोटली उसके पाँव के पास गिरी हुई थी। ऊपर से मैं उसकी पिंडलियां ही देख पा रही थी। उसकी पिंडलिया तेजी से काँपती और फिर निश्चेष्ट अवस्था में पड़ी रहतीं। कुछ समय के पश्चात उसकी पिंडलियों का कम्पन भी बंद हो गया। अपने जीवन में मैंने यह पहली मृत्यु देखी थी। मैं बुरी तरह काँप रही थी। आँखों से आँसू बह रहे थे। वह मेरे ही घर के नीचे मर रहा था और मैं कुछ नहीं कर पाई।
जोगीवाड़ा और बल्लीमारान लाशों से भरा पड़ा था। कफ्र्यू में बाहर निकलने पर लाशों के अम्बार को लाँघ-लाँघ कर निकलना पड़ता था। पिताजी की बाहर न निकलने की सख्त हिदायत को नकारते हुए मैं अपने ममेरे भाई के साथ जोगीवाड़ा तक अवश्य जाती थी। पहले सभी अपने-अपने से लगते थे पर अब अपनापन मानो कहीं खो गया था। हर आँख में संदेह ने घर कर लिया था। तहजीब और आस्था दम तोड़ रहे थे।
(Memoir by Uma Anannt 2)
कफ्र्यू लगा हुआ था, एक दिन मेरे बड़े मामा भरे हुए कपड़ों के दो थैले लेकर अचानक प्रकट हुए। थैले में पोंड्स का पाउडर, क्रीम, सेनेटरी पैड्स और इसी तरह का छुटपुट सामान था। रात को बंद दुकानों के रोशनदानों से उतरकर, सेंध लगाकर यह सामान निकाल लिया जाता था। मामा की इस क्रूर भेंट को मै कभी माफ नही कर पाई।
आसमान में काले-काले बादल, भूरे, सलेटी लपलपाते हुए प्रतीत होते थे, नंगी आवाजें धीरे-धीरे सब कुछ लील रही थीं। नीली चिक के निचले छेद से छिप-छिप कर देखना एक भयानक अनुभव था। आगजनी, लूटपाट, अपहरण, भीड़ में निर्वस्त्र स्त्री के घूमने की अफवाहें रोंगटे खड़ा कर देती थीं।
उस दिन अपने छोटे मामाजी का आगमन बेहद सुखद लगा। मामा छोटे-मोटे मुशायरों में दत्त उपनाम से शेर पढ़ा करते थे। शायरी सुनाते समय सुदक-सुदक कर थूक के छींटे गिरते थे जो अजीब नहीं लगते थे। मैं मंत्रमुग्ध सी उनकी शायरी सुनती थी, लेकिन आज वे बहुत उदास थे। उन्होंने बताया, उमा, देश का बटवारा हो गया है। शहर में हुए दंगों पर मैंने एक ताजा गजल लिखी है, तुझे सुनाता हूँ-
(Memoir by Uma Anannt 2)
शहर में जो अभी दंगे हुए हैं,
बहुत से चेहरे भी नंगे हुए हैं,
शिकंजे मौत के पैने हुए हैं,
अभी तक हम मगर सहमे हुए हैं,
सितारे, चाँद, सूरज सब वही हैं,
हम इंसा ही मगर बदले हुए हैं
बात-बात में उलझनें सी,
हमारे दस्त-ओ-पा ठन्डे हुए हैं
किसी सैलाब का खतरा है हमको
हम अपने अश्क जो रोके हुए हैं,
जमाना कब किसी को मारता है दत्त
हम अपनी जात के मारे हुए हैं…
(Memoir by Uma Anannt 2)
बरसों पुरानी उनकी यह नज्म आज भी मेरे पास जर्जर अवस्था में पड़ी है। छत पर भीगे बाल सुखाये मुद्दत हो गयी थी। अपनी अपनी छतों पर कबूतरों की बेंतबाजी, जीतने पर हुल्लास से भरे स्वर, पतंगों को आकाश में लहराना, मानो एक बीता हुआ कल था। मुनव्वर सुल्ताना और बिल्कीस की बहुत याद आती थी। बेवजह हँसना, छेड़ना और गप्पें मारना, भविष्य के गर्त में खो गया था। डर और घुटन दिल के रेशे-रेशे में भर गयी थी।
उस मरते हुए व्यक्ति की पिंडलियों का रुक-रुक कर कांपना और फिर हमेशा के लिए स्थिर हो जाना- एक दुखद स्वप्न की तरह मेरे जहन में गड़कर रह गया था। उस घटना की याद आते ही कब आँख से आँसू बहने लगते, पता ही नहीं चलता था। इस हादसे के बाद मैं बात-बात पर रोने लगती थी। कोई डांट भी देता तो कोई प्रतिक्रिया नहीं होती थी। पिताजी गुस्से में गाली देते या हाथ उठा देते, तो चुपचाप सह लेती , दंगों की भयावहता ने मुझे अंदर तक सुन्न कर दिया था। डर मुझमें कहीं गहरे में ठहर गया था और यही डर मेरे भीतर कहीं गहरी कील की तरह पैठ कर चुका है।
पिताजी का तबादला पुरानी दिल्ली से नयी दिल्ली के पार्लियामेंट थाने में हो गया। हमे जयसिंह रोड पर स्थित कोठी आवंटित की गयी।
पुरानी दिल्ली छोड कर जाना एक दु:स्वप्न की तरह था। मेरी नाड़ मेरे जन्मस्थान मुल्तान में गड़ी रह गयी पर पुरानी दिल्ली छोड़ने पर प्रतीत हुआ कि वहाँ का एक अंश मेरे अंदर एक इतिहास बन कर समा गया।
क्रमश:
(Memoir by Uma Anannt 2)
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