कोरोना संकट में मानसिक स्वास्थ्य
-रेखा जोशी
आज विश्व कोरोना महामारी के संकट से जूझ रहा है। इसने विश्व में लगभग दो सौ देशों को अपनी चपेट में ले लिया है, चूँकि मानव से मानव के मध्य संक्रमण है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को शक, संदेह एवं भय से देख रहा है। नया वायरस होने तथा उपचार की तकनीक विकसित न होने के कारण शारीरिक दूरी (जिसे सोशल डिस्टेंसिंग का नाम दिया गया है), बार-बार हाथ धोना, मास्क पहनना तथा लॉकडाउन जैसी प्रक्रियाओं से संक्रमण रोकने का प्रयास किया जा रहा है। जीवन में अचानक आये इस संकट ने दुनिया के भागते कदमों पर विराम लगाने की कोशिश की है। बड़े-बड़े ताकतवर देश भी महामारी से बच नहीं पा रहे हैं। विश्वभर में लाखोें कोरोना रोगियों की मौत हो गई है। भारत में भी संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ रही है। (Mental Health in Corona Crisis)
विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशों तथा सरकारों द्वारा किये गये लॉकडाउन ने मानव की जीवनशैली एवं पर्यावरण में कई परिवर्तन किये। वायरस से बचने के लिए बार-बार हाथ धोने तथा चीजों को कीटाणुनाशक करने की प्रक्रिया ने स्वच्छता की महत्ता को बढ़ाया। लॉकडाउन के प्रारम्भिक दौर में सोशल मीडिया में सामान्यत: मध्यम वर्ग द्वारा विभिन्न व्यंजनों का प्रदर्शन देखने को मिला, कई लोगों ने जीवन में अधूरे रह गये शौकों को पूरा करने का जज्बा दिखाया। पर्यावरण की दृष्टि से कई सकारात्मक प्रभाव दिखाई दिये। प्रदूषण के कम होने से नदियों का पानी साफ होने से तथा सहारनपुर से हिमालय दिखाई देने की घटना भी सोशल मीडिया पर वायरल हुई। इस तरह की तमाम घटनाओं ने मानव द्वारा पारिस्थितिकी पर अनावश्यक हस्तक्षेप के संदर्भ में सोचने को मजबूर किया। इसी के साथ कई नकारात्मक पहलुओं से भी जीवन रूबरू हुआ।
आकस्मिक रूप से हुए लॉकडाउन एवं सामाजिक दूरी ने मनुष्य की चिन्ताओं को बढ़ाया है। चूँकि मानव एक सामाजिक प्राणी है और समाज में स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता से जीना उसकी फितरत का हिस्सा है। साथ ही यह एक सामान्य व्यवहार है कि अगर व्यक्ति स्वयं की इच्छा से घर पर रहता है तो आनन्दित अनुभव करता है परन्तु नियंत्रित करने पर उसके व्यवहार में बेचैनी एवं चिड़चिड़ाहट में वृद्धि की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार की चिन्ता, बेचैनी का ग्राफ तब और ज्यादा बढ़ गया जब तमाम समाचार पत्रों, इलैक्ट्रानिक मीडिया तथा सोशल मीडिया में कोरोना की खबरों की भरमार आने लगी। इसे देखते हुए संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य एजेंसी ने आम लोगों के साथ स्वास्थ्य कर्मियों, बाल देखरेख सुविधा प्रदाताओं, वृद्धजनों तथा बीमार लोगों के संदर्भ में 31 बिन्दुओं पर क्रमवार सलाह उपलब्ध कराते हुए कहा कि- ‘‘किसी महामारी में अचानक तथा लगातार समाचारों की भरमार किसी भी चिन्ता का कारण बन सकती है। इसलिए विश्वस्त सूत्रों से दिन में एक या दो बार जानकारी हासिल की जाय ताकि मानसिक तनावों से बचा जा सके।’’
जनवरी 2020 से प्रारम्भ हुई इस महामारी में वर्तमान तक बनी अनिश्चितता, स्वास्थ्य परीक्षण एवं उपचार के संसाधनों में भारी कमी ने शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डाला है। सम्पूर्ण विश्व पटल से मानसिक तनावों में वृद्धि की खबरें आ रही हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन आदि कोई भी देश इससे अछूता न रहा। ‘नेशनल हेल्थ काउन्सिल’ ने 25 जून 2020 को एक रिपोर्ट प्रकाशित की जो मानसिक स्वास्थ्य अमेरिका के मई 2020 के अध्ययन पर आधारित है। इसमें कहा गया है कि इस महामारी में उत्पन्न तनाव के कारण अमेरिका के 21000 लोगों में स्वयं को हानि पहुँचाने की तथा आत्महत्या की प्रवृत्ति दिखाई दी। अध्ययन में विशेष जनसंख्या का भी उल्लेख किया गया है, जिसमें अत्यधिक चिन्ता एवं प्रमुख अवसाद के लक्षण दिखाई दिये। विशेष जनसंख्या से तात्पर्य छात्रों, कोरोना प्रदाताओं, पहले से ही स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों तथा एल.जी.बी.टी.क्यू. को शामिल किया गया।
इसी तरह मई माह में ऑस्ट्रेलिया के मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने एक अनुमान लगाया कि इस महामारी के कारण सामाजिक एवं र्आिथक पहलुओं पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ा है। जिस वजह से आत्महत्या दर लगभग 50 फीसदी बढ़ सकती है।
मानसिक स्वास्थ्य के सम्बन्ध में विकासशील देशों में अभी भी जागरूकता नहीं दिखाई दे रही है लेकिन जो अध्ययन हुए हैं उनकी चर्चा करना वाजिब है। भारत में ‘भारतीय चिकित्सा शोध परिषद्’ (आई.सी.एम.आर.) ने 2017 में मानसिक रोगोें पर अध्ययन किया और बताया कि भारत में 4.57 करोड़ लोग आम मानसिक विकार, अवसाद और 4.49 करोड़ लोग बेचैनी से पीड़ित हैं। इसके अनुसार हर सातवाँ व्यक्ति किसी न किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है जिसमें अवसाद, शिज्रोफ्रिनिया, द्विध्रुवीय रोग, ऑटिज्म तथा आचरण सम्बन्धी विकार मुख्य हैं। कोरोना काल में आ रही खबरों के अनुसार इस संख्या का वृद्धि दर लगातार बढ़ रहा है।
भारतीय संदर्भ में पहले आकस्मिक लॉकडाउन ने लोगों को अचंभित करने के साथ उनकी कठिनाइयाँ बढ़ा दीं। रोजमर्रा कमाकर खाने वाले लोगों के लिए यह स्थिति भयावह थी। अचानक बन्द हुए उद्योग धन्धों/कम्पनियों आदि के कारण कई लोग सड़क पर आ गये। कोरोना भय के साथ भूखे, प्यासे लोगों की सहायता को कई स्वयंसेवी संस्थाएँ, व्यक्तियों, गुरुद्वारों एवं चंद सरकारी योजनाओं ने भोजन आदि की व्यवस्था की। कई स्थानों पर पहले एवं दूसरे लॉकडाउन में मजदूरों को भोजन के लिए सुबह से ही लम्बी कतारों में लगते देखा गया जिसने उनके जीवन के संघर्षों को बढ़ाने के साथ जीवन के प्रति असुरक्षा के भावों को बढ़ा दिया। तीसरे लॉकडाउन के आते-आते गरीब मजदूर, महिलाएँ, विद्यार्थी आदि तमाम लोगों का सब्र का बाँध टूट गया। एक तो रोजी रोटी की चिन्ता, अपनी छोटी-मोटी बचत का समाप्त होना, अधिकांशत: मकान मालिकों एवं कम्पनियों से सहयोग न मिलना, भूख-प्यास आदि ने उनके शारीरिक स्वास्थ्य के साथ उनको संवेगात्मक रूप से विचलित किया जिस कारण उन्होंने पैदल ही अपने मूल स्थानों को प्रस्थान करना प्रारम्भ कर दिया। यह एक स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक व्यवहार है कि जब भी व्यक्ति तनाव, असुरक्षा एवं अकेलेपन से ग्रस्त होता है तो वह अपने आत्मीय जनों के मध्य रहना चाहता है, जो उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नैतिक बल प्रदान करता है। इन्हीं तमाम कारणों से लोग अपने मूल स्थानों या घरों को पलायन कर गये। इस बीच भूखे-प्यासे बिना किसी सहायता के पैदल जाने से कई लोगोें को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यह घटना अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर र्चिचत रही। महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश के खंडवा तक गर्भवती महिला के पैदल जाने का मामला सामने आया। आठ माह की गर्भावस्था में प्रति दिन 70-80 किमी. पैदल चली।
कई घटनाओं ने सरकारी तंत्र की असंवेदनशीलता को भी जगजाहिर किया। बरेली में पलाचन कर रहे मजदूरों पर प्रशासन द्वारा कीटनाशक दवाइयों का छिड़काव जिसमें एक था। ऐसे न जाने कितनी घटनाओं ने पलायन कर रहे मजदूरों के दिलों को घाव दिया। जिस समय सबसे ज्यादा मानवीय होने की जरूरत थी, सबसे ज्यादा सहानुभूति, परानुभूति व सहायता की लोगों को आवश्यकता थी, ऐसे समय में क्वारन्टीन केन्द्रों एवं गाँव आये प्रवासियों के साथ किये जा रहे उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने मनोवैज्ञानिक रूप से लोगोें पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। यह त्रासदी कई तरह के मनोविकारों को भविष्य में बढ़ायेगी जिसमें अवसाद, फोबिया, मनोग्रस्तता बाध्यता, विकृति एवं पीटीएसटी आदि मनोरोग दिखाई दे सकते हैं।
महामारी के इस दौर में र्आिथक संकटों ने भी तनावों में काफी वृद्धि की है। दुनिया को बचाने के लिए किये गये लॉकडाउन के कारण उद्योग धंधों/कम्पनियों आदि में काम करने वाले लोगों की रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। विश्व के अग्रणी देश माने जाने वाला अमेरिका भी इससे अछूता नहीं रहा। अमेरिका के श्रम मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार अमेरिका में 28 मार्च तक 66 लाख से ज्यादा कामगारों ने बेरोजगार भत्ते के लिए आवेदन किया। यह संख्या लगातार बढ़ रही है। भारत में सेक्टर फार मानीटरिंग इकॉनामी (सीएमआईई) के आँकड़ों के अनुसार मार्च 2020 में बेरोजगारी दर 8.8 फीसदी थी जो 31 मई तक 24.3 फीसदी हो गई। संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों की बढ़ती बेरोजगारी का जीवन में नकारात्मक प्रभाव दिखाई दिया है। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ की राय तथा विभिन्न अनुसंधानों से भी यह स्पष्ट हुआ है कि बेरोजगारी का सम्बन्ध अवसाद से है जो जीवन के प्रति निराशा, हताशा एवं आत्महत्या की प्रवृत्ति को बढ़ाती है। इसी के मद्देनजर कई आत्महत्याओं की खबरें समाचारों में आईं। इतना ही नहीं इस महामारी एवं लॉकडाउन ने सिर्फ श्रमिकों, बुजुर्गों छात्रों तथा बच्चों की राह ही कठिन नहीं कि वरन् घरेलू हिंसा के पीड़ितों के लिए यह समय भारी साबित हुआ। भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग ने लॉकडाउन के दौरान शिकायतों में इजाफा दर्ज किया है।
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ मान रहे हैं कि कोरोना भय ने अधिकतर लोगों में अनिद्रा, भय, डर, घबराहट, बेचैनी तथा अवसाद की सीमा को बढ़ाया है। इसी के साथ सामाजिक उपेक्षा के शिकार रहे कोरोना वारियर्स एवं कोरोना रोगियों को भी अथाह तनावों का सामना करना पड़ रहा है। इसका स्पष्टत: कारण मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का अभाव तथा मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर संवाद नहीं किया जाना भी माना जा सकता है। अगर यही स्थिति रही तो मानसिक रोगियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो सकती है।
डॉ. रेखा जोशी, मनोविज्ञान विभाग, एम.बी.पी.जी. कालेज, हल्द्वानी
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