मुजफ्फरनगर काण्डः मानवीय अस्मिता का सवाल
कमल नेगी, शीला रजवार तथा उमा भट्ट
994 का उत्तराखण्ड आन्दोलन जहां एक ओर जबर्दस्त जनभागिता और आन्दोलनकारियों के दृढ़ निश्चय को लिये था, वहीं यह जनवादी मूल्यों की लड़ाई का ऐतिहासिक व अहिंसक आन्दोलन रहा। दूसरी ओर तमाम जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखते हुए सत्ता ने अपनी शक्ति का यथासम्भव दुरुपयोग किया, जिसमें आन्दोलनकारियों से मारपीट, लूटखसोट, फायरिंग, हत्या, अवैध रूप से पुलिस लाईन में रोका जाना आदि के साथ-साथ आन्दोलनकारियों पर अवैध हथियार बरामदगी के झूठे इल्जाम तक लगाये गये। 2 अक्टूबर 1994 को दिल्ली रैली के लिए जा रहे आन्दोलनकारियों के साथ हुआ अमानुषिक व्यवहार भारतीय इतिहास में सत्ता द्वारा दमन का सबसे बर्बर उदाहरण है। आजाद भारत की सरकार ने ऐसा दमन किया जैसा अंग्रेजी सरकार ने भी नहीं किया था।
दमन का सिलसिला आन्दोलन की शुरूआत से ही प्रारम्भ हो चुका था। 2 अगस्त 1994 को पौड़ी में इन्द्रमणि बडोनी के नेतृत्व में आमरण अनशन शुरू हुआ। 7-8 अगस्त को पौड़ी में लाठी चार्ज हुआ तथा अनशनकारियों की गिरफ्तारियाँ की गई। 9 अगस्त को पौड़ी काण्ड के विरोध में उत्तराखण्ड पीपुल्स फ्रण्ट, उत्तरकाशी के चैदह कार्यकर्ताओं ने अपनी गिरफ्तारियाँ दी। 15 अगस्त को नैनीताल में काशी सिंह ऐरी अनशन पर बैठे। उसी रात कर्णप्रयाग में लाठी चार्ज हुआ। 16 अगस्त को ऋषिकेश में लाठी चार्ज हुआ। 17 अगस्त को तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ में पत्रकार- सम्मेलन में उत्तराखण्ड विरोधी बयान दिया। 18 अगस्त को इस बयान से उत्तराखण्ड में व्यापक रोष फैला। प्रदर्शन व चक्का जाम हुआ। ऊखीमठ में पुलिस द्वारा गोलीबारी की गई। 26-28 अगस्त को पिथौरागढ़ में 43 महिलाओं सहित 250 लोग गिरफ्तार किये गये।
1 सितम्बर 94 को खटीमा में जुलूस पर हुई फायरिंग में 12 लोग मारे गये, 29 घायल हुए और 14 गिरफ्तार किये गये। मसूरी में 2 सितम्बर 94 की सुबह उत्तराखण्ड संघर्ष समिति के कार्यालय में अनशन कर रहे आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार करके वहाँ पी.ए.सी. को ठहरा देने व बाद में 42 और आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी के बाद गोलीबारी हुई। जिसमें 6 आन्दोलनकारियों के अतिरिक्त क्षेत्राधिकारी उमाकान्त त्रिपाठी भी मारे गये। पी.ए.सी. के कैम्प में आग लगाने व कुछ लोगों पर क्षेत्राधिकारी त्रिपाठी की हत्या करने तथा हथियार लूटने आदि की रिपोर्ट तत्कालीन थाना प्रभारी किशन लाल द्वारा दर्ज की गई थी। जबकि उनकी मृत्यु पी.ए.सी. की गोली लगने से हुई। इसकी पराकाष्ठा दो अक्टूबर 94 को हुई।
2 अक्टूबर 94 की रात उत्तराखण्ड के निहत्थे, बेगुनाह व शान्तिपूर्ण आन्दोलनकारी नागरिकों को, जो कानून के दायरे में अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन हेतु दिल्ली जा रहे थे, मुजफ्फरनगर से 3 किमी. दूर रामपुर तिराहे पर जनपद के प्रशासन द्वारा अनधिकृत रूप से रोका गया, मार-पीट की गई, गोलियाँ चलाई गई, महिलाओं के साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया। लूटपाट की गई और आन्दोलनकारियों को बुरी तरह आतंकित किया गया। यह सब तब हुआ जबकि रामपुर तिराहा (घटना स्थल) में खुद डी.आई.जी. मेरठ, जिलाधिकारी मुजफ्फरनगर, एस.पी. मुजफ्फरनगर अपने पुलिस बल और पी.ए.सी. की कुछ बटालियनों के साथ मौजूद थे। इस घटना के तुरन्त बाद राष्ट्रीय महिला आयोग, पी.यू.सी.एल., जनवादी महिला समिति, मानवाधिकार आयोग सहित अनेक स्वैच्छिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों व समाचार माध्यमों की टीमों ने घटना स्थल तथा गढ़वाल मण्डल का दौरा किया और अपनी प्रारम्भिक जाँच में उपरोक्त तथ्यों को सत्य पाया।
राष्ट्रीय महिला आयोग का चार सदस्यीय दल जयन्ती पटनायक के नेतृत्व में 6 अक्टूबर 94 को घटना स्थल पर पहुँचा। उन्होंने 60-65 लोगों, 47 महिलाओं, मुजफ्फनगर के जिलाधिकारी, एस.एस.पी. आदि के बयान लिये। जांच दल गढ़वाल के अपने चार दिवसीय दौरे में सौ से अधिक लोगों से मिला। उन्होंने 72 लोगों के बयान व्यक्तिगत रूप से तथा 30 लोगों के बयान सामूहिक रूप से लिये। यह दल न केवल पीड़ितों से वरन् स्वयंसेवक, प्रत्यक्षदर्शी, रिश्तेदार, शुभचिन्तक व आन्दोलनकारियों से भी मिला, उन्होंने पाया कि आन्दोलनकारियो को बन्दूक की बट से मारा गया, गाली-गलौच की गई तथा महिलाओं के साथ अभद्रता तथा ज्यादतियाँ की गईं। महिलाओं के साथ बलात्कार की भी पुष्टि हुई। महिलाओं के बयान इतने मर्मस्पर्शी थे कि महिला आयोग ने उ.प्र. सरकार द्वारा मामलों के सन्दर्भ में मुकदमे दायर न किये जाने पर खुद लड़ने की बात कही।
Muzaffarnagar incident: Question of human identity
दमन का सिलसिला यहीं पर नहीं रुका। 3 अक्टूबर 94 को अनेक शहरों में कफ्र्यू लगाया गया, लाठी चार्ज, गोलीबारी तथा आन्दोलनकारियों पर झूठे मुकदमें दर्ज किये गये। नैनीताल तथा देहरादून में हत्यायें हुई।
यह सब तभी रुका जब 6 अक्टूबर 94 को उत्तराखण्ड संघर्ष समिति, मसूरी द्वारा दायर याचिका पर उच्च न्यायालय ने निर्णय लिया। 7 अक्टूबर 94 को उ.प्र. उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि एस. धवन तथा न्यायमूर्ति ए.बी. अग्रवाल की खण्डपीठ ने सी.बी.आई. को मसूरी, खटीमा, देहरादून, नैनीताल समेत सभी घटनाओं की जाँच के लिए कहा। सी.बी.आई. के निदेशक विजय राव ने सीमित साधनों व समय का हवाला देते हुए कुछ ही मामलों की जांच करने की बात कही। इस पर न्यायमूर्तियों ने 16 दिसम्बर को कहा कि घटनाओं की जांच के लिए कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय, स्वैच्छिक व आधिकारिक संगठन उत्सुक हैं लेकिन इन अतिसंवेदनशील घटनाओं की जांच सी.बी.आई. द्वारा की जानी चाहिए क्योंकि अगर हमारी जांच एजेन्सी इस सम्वेदनशील जांच को टालती है तो कोई और जांच करेगा। जिनकी जांच के तरीकों से भारत राष्ट्र की सम्प्रभुता प्रभावित हो सकती है।
सी.बी.आई. के राष्ट्रीय महत्व के मामलों की जांच में व्यस्त होने के तर्क पर न्यायमूर्तियों ने टिप्पणी की कि सी.बी.आई. के पास इस देश की साधारण जनता के लिए भी कुछ समय होना चाहिए। उच्च न्यायालय द्वारा सी.बी.आई. को 660 सम्बन्धित मामलों की जांच के आदेश दिये गये। जिनमें से केवल 63 मामलों की जांच ही सी.बी.आई. कर पाई। 9 फरवरी 96 को उच्च न्यायालय इलाहाबाद का ऐतिहासिक फैसला आया। उत्तराखण्ड संघर्ष समिति द्वारा अक्टूबर 1994 में दायर याचिका के सम्बन्ध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि एस. धवन तथा न्यायमूर्ति ए.बी. श्रीवास्तव ने उ.प्र. सरकार को दोषी मानते हुए इसे मानव अधिकारों का हनन माना। विशेषकर महिलाओं पर हुये अत्याचार को केन्द्र में रखते हुए उन्होंने अपने फैसले में राज्य सरकार को इसकी क्षतिपूर्ति के लिए प्रति व्यक्ति 1 रुपया प्रति माह के हिसाब से मुआवजा देने और इस धनराशि को महिला उत्थान योजना में लगाये जाने का निर्देश दिया। यह प्रतिकर राशि लगभग 35 करोड़ रुपया थी। इस फैसले में शहीदों के परिवारजनों को 10 लाख रुपया, बलात्कार की शिकार महिलाओं को भी मृतक के बराबर 10 लाख रुपया, उत्पीड़ित महिलाओं को 5 लाख रुपया, घायलों को 25 हजार रुपया, स्थायी आंशिक विकलांग को 2.50 लाख रुपया तथा आन्दोलन के दौरान गैर कानूनी ढंग से गिरफ्तार कर दूर-दराज जेलों में बन्द किये गये लोगों को 50-50 हजार रुपया मुआवजा दिये जाने के आदेश थे।
हाईकोर्ट ने स्त्री की गरिमा को और मानवीय अधिकारों को ध्यान में रखते हुए अपना फैसला दिया। केन्द्रीय जांच ब्यूरो की रिपोर्ट को जिसमें उन्होंने बतलाया है कि पहाड़ से आयी महिलाओं से पशुवत व्यवहार, बलात्कार एवं अश्लील व्यवहार किया गया, आधार मानते हुए इसे निजी सम्मान पर आघात माना। यह काण्ड राजनैतिक आन्दोलन में भागीदारी कर रही महिलाओं के साथ हुआ जिसमें बलात्कार किसी एक महिला के साथ या किसी एक अभ्यस्त बलात्कारी या सेक्स मानसिक रोगी द्वारा नहीं हुआ वरन् सरकार जो जनता की सुरक्षा के लिए होती है, इसके लिए जिम्मेदार थी।
9 फरवरी 96 के उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ भारत की संघ सरकार, उ.प्र. सरकार एवं दोषी अधिकारियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में विशेष रियायत याचिकाएं (एस.एल.पी.) दाखिल की गईं। ए.के. सिंह एवं अन्य बनाम उत्तराखण्ड जनमोर्चा की सिविल अपील संख्या 3027, 99 के साथ अपील संख्या 3028-41, 99 के साथ विशेष रियायत याचिका (सिविल न. 12485, 96 और विशेष रियायत याचिका (आपराधिक) न. 1810, 96) पर सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली के न्यायमूर्ति के.टी. थौमस, डी.पी. महापात्र तथा यू.सी. बनर्जी की न्याय पीठ ने 13 मई 1999 को फैसला दिया। इस फैसले में उच्च न्यायालय इलाहाबाद के फैसले को दर किनार करते हुए माननीय न्यायमूर्तियों ने उच्च न्यायालय के उन निर्देशों पर आपत्ति प्रकट की जिनके द्वारा विशेष न्यायिक अदालतों का गठन किया गया। तथा मुआवजा एवं प्रतिकर निर्धारित किया गया। साथ ही सरकारी कर्मचारियों पर मुकदमा चलाने के लिए अनुमोदन पर भी बल दिया तथा अपराध निर्धारण के लिए सैशन अदालतों को जिम्मेदार माना। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय को शुरूआती दौर में इन बहसों में नहीं पड़ना चाहिए था। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से लोगों में निराशा फैली लेकिन सत्र अदालतों में चल रही न्याय प्रक्रिया पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ना था। केवल अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) को लेकर दुविधा पैदा हुई और कुछ मामले लम्बित हो गए। फैसले पर पुनर्विचार के लिए पी.यू.सी.एल. ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की पर उसे भी न्यायालय ने खारिज कर दिया।
Muzaffarnagar incident: Question of human identity
केन्द्रीय जाँच ब्यूरो की भूमिकाः केन्द्रीय जाँच ब्यूरो की भूमिका इस पूरे मामले में प्रारम्भ से अब तक संदिग्ध रही है। जब उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने उत्तराखण्ड संघर्ष समिति तथा अन्य की याचिकाओं पर सी.बी.आई. को जांच का आदेश दिया तो सी.बी.आई. ने इस पर समय न होने का बहाना बनाया। अन्ततः उच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि इस देश की आम जनता के लिए भी सी.बी.आई. के पास कुछ समय होना चाहिए। जांच शुरू हुई तो कुल 660 सम्बन्धित मामलों में से केवल 63 मामलों की ही जांच सी.बी.आई. कर पाई। उसने कुल 28 मौतों की पुष्टि की। श्रीयंत्र काण्ड के दो तथा कोटद्वार के पृथ्वी सिंह की मृत्यु इसमें शामिल नहीं है। इस जांच के विषय में भी महाधिवक्ता उ.प्र. का 5 अप्रैल 95 को यह कहना था कि ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत प्रारम्भिक रिपोर्ट एवं अन्य रिपोर्टों के साथ कोई साक्ष्य नहीं गया और न ही वह शपथ पत्र पर आधारित है। यदि यह सच है तो फिर प्रश्न उठता है कि सी.बी.आई. ने ऐसा क्यों किया ? 597 मामले ऐसे रह गये जिनकी जांच ही न हो सकी। आखिर वे कौन से मामले थे। जिन 63 मामलों की जांच हुई उनमें से भी कितने मामलों पर मुकदमा चला यह स्पष्ट नहीं है। उत्तराखण्ड जनमोर्चा की एक रिपोर्ट के अनुसार एक-दो अक्टूबर 94 के मुजफ्फरनगर काण्ड से सम्बन्धित विभिन्न न्यायालयों में इस समय केवल 11 मामले चल रहे हैं। ऐसी स्थिति में बकाया मामलों का क्या हुआ ?
इन मामलों को चलाने के लिए उच्च न्यायालय ने उत्तराखण्ड में विशेष अदालतों के गठन के निर्देश दिये। ये अदालतें 1. कुमाऊँ क्षेत्र में हुए अपराधों के लिए नैनीताल की सेशन अदालत में तथा 2. गढ़वाल क्षेत्र, मुजफ्फरनगर तथा हरिद्वार के मामलों के लिए देहरादून में लगाये जाने के निर्देश दिये गये और यह भी कहा गया कि जहां सेशन डिवीजन नहीं है, वहां एक माह में उ.प्र. सरकार द्वारा हाईकोर्ट की सलाह से यह अदालतें स्थापित कर ली जायं।
उच्च न्यायालय ने मुजफ्फरनगर काण्ड के लिए जिम्मेदार उ.प्र. सरकार के 13 अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के निर्देश भी दिये। उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार ये मामले देहरादून में चलने चाहिए थे पर अधिकारियों ने अपने लिए देहरादून में खतरा बताते हुए इनके लखनऊ स्थानान्तरण की मांग की। गढ़वाल मण्डल से लखनऊ की दूरी अधिक होने के कारण मुरादाबाद में लखनऊ की कैम्प अदालत की व्यवस्था की गई। सी.बी.आई. द्वारा इन अधिकारियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने में देरी किये जाने के कारण 20 अक्टूबर 97 को केस न. 7/1996 आर.सी.न. 22, 23 (एस.) 95 डी.ए.डी. जो 109, 120 बी 341, 342 भा.द.सं. के अन्तर्गत सी.बी.आई. लखनऊ के विशेष मजिस्टेªट श्री पी.एन. श्रीवास्तव की कैम्प अदालत ने उक्त 13 अधिकारियों को बरी कर दिया। सी.बी.आई. ने आरोप पत्र दाखिल करने में देरी के कारण का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया। जबकि उसे देना चाहिए था क्योंकि यह देरी सरकार द्वारा मुकदमा चलाने की अनुमति दिये जाने/ न दिये जाने के विवाद के कारण हुई थी। भले ही केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने जन दबाव के कारण उच्च न्यायालय में रिविजन की याचिका लगाई है और यह तब से लम्बित पड़ी है।
सी.बी.आई की भूमिका इसलिए भी सवालों के घेरे में है क्योंकि 1-2 अक्टूबर 94 की घटनाओं के लिए उसने अलग-अलग धाराओं में, अलग-अलग अदालतों में मुकदमे चलाये। जबकि कानूनविदों का मानना है कि इन सब मुकदमों को एक साथ एक अदालत में चलाया जाना चाहिए था। अलग-अलग मुकदमे होने से इनमें कमजोरी आई है और पैरवी करने में दिक्कतें हुई हैं। अभियुक्तों पर धारायें लगाने में भी शिथिलता बरती गई है। इससे स्पष्ट है कि सी.बी.आई. पर राजनैतिक तथा प्रशासनिक दबाव था जिसके कारण मुकदमे कमजोर हुए।
एक और घटना सी.बी.आई. की कमजोरी का प्रमाण है। 6 जनवरी 1996 को कांस्टेबल सुभाष गिरि, जो कि मुजफ्फरनगर के तत्कालीन सी.ओ. जगदीश सिंह का गनर था और अब सी.बी.आई. का एक महत्वपूर्ण गवाह बन गया था, देहरादून- बॉम्बे एक्सप्रेस में मुरादाबाद से मुजफ्फरनगर काण्ड की तारीख में न्यायालय में उपस्थित होकर लौट रहा था तो गाजियाबाद के पास चलती ट्रेन में कुछ सशस्त्र व्यक्तियों द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। इसका मुकदमा 6/96 सरकार बनाम अज्ञात धारा अन्तर्गत 302 आई.पी.सी. आज भी जी.आर.पी. थाना मेरठ में लम्बित है। इसकी जांच सी.आई.डी. मेरठ कर रही है। यह मुकदमा इसलिए विशेष महत्वपूर्ण है कि सुभाष गिरि, जो कि मुजफ्फरनगर काण्ड में मुलजिम था, को केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने सम्पूर्ण काण्ड का प्रत्यक्षदर्शी गवाह बनाया था। उसकी गवाही होते ही अनेक वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ मुकदमे की दिशा स्पष्ट हो जानी थी। इससे पूरा मुकदमा ही प्रभावित नहीं हुआ वरन् अन्य गवाहों की सुरक्षा का भी प्रश्न उठ खड़ा होता है।
साक्ष्य प्रस्तुत करने में भी सी.बी.आई. ने लापरवाही बरती और एक बार वह 1000 रुपया जुर्माना भी भर चुका है। नैनीताल, देहरादून, मुरादाबाद तथा लखनऊ की सी.बी.आई. अदालतों में तारीखों के दौरान सी.बी.आई. का उपस्थित होने पर भी ढीला-ढाला रवैया, तारीखों पर उपस्थित ही न होना स्पष्ट करता है कि उसकी इन मुकदमों की पैरवी में अब कोई रुचि नहीं रह गई है। ऐसी दशा में उत्तराखण्डियों को न्याय कैसे मिल सकता है। नैनीताल में 3 अक्टूबर 94 को प्रतापसिंह की हत्या का जो केस था उसका आरोप पत्र सी.बी.आई. ने जून 99 में दाखिल किया है। आखिर इतना विलम्ब क्यों ? सी.बी.आई. के डी.आई.जी. स्तर के अधिकारियों ने इन मामलों की जांच की। फिर भी जांच पूरी नहीं हो पाई। केस दायर करने में विलम्ब हुआ तथा अन्य त्रुटियाँ की गईं और अब पैरवी में लापरवाही बरती जा रही है। यह देश की सर्वोच्च जांच एजेन्सी है। ऐसी स्थिति में न्याय प्राप्ति के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास करने के लिए कौन सा रास्ता बचा हुआ है ?
Muzaffarnagar incident: Question of human identity
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सी.बी.आई. की विशेष अदालतों ने पुनः उच्च न्यायालय इलाहाबाद में यह पूछने के लिए अर्जी लगाई है कि अब इनका अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) कहाँ होगा। और इसी बात पर मुकदमे लटके हैं।
प्रशासनिक दबावः तत्कालीन उ.प्र. सरकार की उत्तराखण्ड आन्दोलन को कुचल देने की इच्छा को उ.प्र. प्रशासन ने भलीभांति आत्मसात किया और तदनरूप कुटिलतम और नृशंश व्यवहार किया, पूरा घटनाक्रम इसका गवाह है, इसे दुहराने की यहां आवश्यकता नहीं है।
आन्दोलनकारियों को रोकने की कोई वजह नहीं थी पर रोका गया। महिलाएं आ रही हैं यह सबको ज्ञात था पर महिला पुलिस की कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी। आन्दोलनकारियों के पास हथियार नहीं थे पर हथियारों की बरामदगी दिखाई गई। बाद में पुलिस रोजनामचे में हेरा-फेरी की गई। जो वहाँ मौजूद नहीं थे, ऐसे पुलिस कर्मियों की तैनाती दिखाई गई। रोजनामचे के पृष्ठ गायब थे। ये सारी बातें सी.बी.आई. की जांच से प्रमाणित हुईं। 5 सितम्बर 95 को पेश अपनी रिपोर्ट में ब्यूरो ने बताया कि पुलिस महानिरीक्षक एस.एम. नसीम व उप महानिरीक्षक बुआ सिंह ने मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी अनन्त कुमार सिंह तथा पुलिस अधीक्षक आर.पी. सिंह के साथ मिलकर उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए अवैध व्यवस्था की। यही नहीं 2 अक्टूबर के बाद उत्तराखण्ड के उन दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में कफ्र्यू लगा दिया गया जहां की जनता नहीं जानती थी कि कफ्र्यू क्या होता है और वह कफ्र्यू देखने सड़कों पर निकल आई। रैपिड एक्शन फोर्स सी.आर.पी. की टुकड़ियाँ जगह-जगह तैनात कर दी गई जो कि दंगा या साम्प्रदायिक तनाव को दबाने के लिए लगाई जाती हैं जबकि यहां शान्तिपूर्ण आन्दोलन चल रहा था। शासन और प्रशासन पूरी तरह हिंसा पर उतारू था पर उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। उल्टे आन्दोलनकारियों पर मुकदमे ठोक दिये गये।
हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी मुकदमे कायम करने, धारायें लगाने, मुकदमों की अनुमति देने आदि प्रकरणों में उ. प्र. प्रशासन ने अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल किया। इस पूरे प्रकरण में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए यदि हम यह कहें कि यहां एक ब्यूरोक्रैटिक माफिया है जिसने पूरे मामलों को अपने निहित स्वार्थों के लिए तोड़ा-मरोड़ा है, अपने प्रभावशाली सम्पर्कों का लाभ उठाया है, जो अब भी निरन्तर दांव-पेंच खेल रहा है और अभी भी उत्तराखण्ड की सरकार को कुछ न करने के लिए विवश कर रहा है।
जनतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़े जाने वाले इस अहिंसक आन्दोलन के साथ राजनेताओं की भूमिका भी अत्यधिक नकारात्मक रही। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की इस टिप्पणी के बाद कि मेरी सरकार उत्तराखण्डियों के भरोसे नहीं चल रही जनता का आक्रोश और भड़का। मुजफ्फर नगर काण्ड में महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं कहकर मायावती ने इस कुत्सित काण्ड पर पर्दा डालने की कोशिश की। जनता की न्यायोचित मांगों पर विचार करने की बजाय अपने गैर जिम्मेदाराना बयानों से इन नेताओं ने जनता के आक्रोश को भड़काने का ही काम किया। हाईकोर्ट का फैसला आते ही अपनी अवसरवादिता का प्रमाण देते हुए मुलायम सिंह यादव ने उत्तराखण्ड की महिलाओं से माफी भी मांगी परन्तु उन्हें न्याय दिलाने के लिए कुछ भी नहीं किया। मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में मुजफ्फरनगर काण्ड के आरोपी जिलाधिकारी ए.के. सिंह एवं उप महानिरीक्षक बुआ सिंह प्रोन्नत किये गये। भारतीय जनता पार्टी के नेता विपक्षी के रूप में मुजफ्फरनगर काण्ड को भुनाने की कोशिश करते रहे पर न्याय की दिशा में चुप्पी ही साधे रहे। आज भी सी.बी.आई. द्वारा ए.के. सिंह के खिलाफ सबूत जुटाये जाने के बाद उन पर मुकदमा चलाये जाने के लिए उ.प्र. के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह से अनुमति नहीं मिली है। महिला अस्मिता के सवाल पर राजनीतिज्ञों का यह कैसा खेल है। किसी भी राजनैतिक दल ने मुजफ्फरनगर काण्ड को मुद्दा नहीं माना, न ही आन्दोलनकारियों को न्याय दिलाने की कोशिश की। क्या तहलका, बोफोर्स, हवाला, चारा घोटाला और ऐसे तमाम काण्डों के लिए इस्तीफे की, सरकार की बर्खास्तगी की माँग करने वालों और कई-कई दिनों-महीनों तक संसद ठप कर देने वालों को मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों की बर्खास्तगी की मांग नहीं करनी चाहिए थी। राजनैतिक रूप से कमजोर होने के कारण भी उत्तराखण्ड को न्याय मिलने में अड़चनें आयी हैं।
उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान जब कानून व्यवस्था चरमरा गई थी तब केन्द्र सरकार का रवैया भी अत्यन्त शर्मनाक रहा। जब उत्तराखण्ड में आन्दोलन के साथ दमन भी चरम पर था। उस वक्त केन्द्र सरकार भी तमाशाई बनकर चुपचाप देखती रही। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में मुजफ्फरनगर काण्ड में महिलाओं के साथ हुए बलात्कार एवं अभद्रता के लिए केन्द्र और राज्य दोनों को दोषी माना और इसीलिए महिलाओं के पुनर्वास एवं उत्थान के लिए दोनों सरकारों को प्रतिकर देने का निर्देश दिया। उक्त काण्ड को द्रोपदी के चीरहरण काण्ड से भी जघन्य करार देते हुए हाईकोर्ट ने अपना फैसला देकर राजनीतिज्ञों को सवालों के कटघरे में खड़ा किया है। देश-विदेश में चर्चित उक्त काण्ड के दोषी इन्हीं राजनीतिज्ञों की शह में निद्र्वन्द्व घूम रहे हैं। आखिर जनता को न्याय कहाँ मिलेगा।
राज्य बन जाने मात्र से उस हानि की क्षतिपूर्ति नहीं हो जाती जो शासन-प्रशासन की संवेदनहीन कुटिल नीतियों के फलस्वरूप उत्तराखण्ड को हुई है। मानवीय अस्मिता की रक्षा के लिए और किसी भी नागरिक के जान-माल की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार होने के नाते राज्य की जिम्मेदारी बनती है कि वह यहां की जनता को न्याय दिलाये। इसलिए जरूरी है कि नये राज्य की सरकार मुजफ्फरनगर काण्ड के लिए नामजद अधिकारियों पर मुकदमा चलाये। माना कि अलग राज्य बन जाने के बाद न्यायिक अधिकार क्षेत्र और अभियुक्तों के उ.प्र. सरकार के राजपत्रित अधिकारी होने के नाते न्याय की प्रक्रिया बहुत सीधी नहीं रह जाती और राज्य के सामने उठ खड़े इस प्रश्न को हल किये जाने के लिए उत्तराखण्ड की सरकार को दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है। सरकार बन जाने के बाद इन साढ़े पांच महीनों में इस सम्बन्ध में कुछ न किये जाने से जनता के मन में यह आशंका पैदा हो रही है कि क्या सरकार ने बिजली-पानी आदि संसाधनों की तरह उ.प्र. सरकार से उत्तराखण्ड की अस्मिता के सवाल पर भी कोई समझौता तो नहीं कर लिया है। अगर एक राजसत्ता अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करती है और दूसरी सत्ता उसका प्रतिकार नहीं करती तो वह भी बराबर की दोषी है। बलात्कार और हत्या को समान अपराध का दर्जा दिया गया हैै। इन मामलों को उठाने के लिए कोई समय-सीमा नहीं है। अगर हत्या और बलात्कार के दोषी सजा नहीं पा रहे हैं तो कौन सा मानदण्ड इसे जघन्य अपराध की श्रेणी में मान रहा है। क्या इससे पीड़ित पक्ष ही दण्डित नहीं होता है ? इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? आम जनता की भी यह जिम्मेदारी है कि वह मानवीय अस्मिता से जुड़े इन सवालों की पुरजोर वकालत करे। जब राज्य नहीं बना था तब भी जनता के संवेदनशील वर्ग की पहली मांग मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों को सजा दिलाने की थी, राज्य की मांग दूसरे नम्बर पर थी।
गुलाम भारत में 1901-02 में मणिपुरी महिलाओं के साथ अंग्रेजों ने छेड़छाड़ की थी तो उन अंग्रेजों को नौकरी से निकाल दिया गया था। परन्तु आजाद-भारत में प्रशासन द्वारा किये गये इस बीभत्स काण्ड में हमें अभी तक, उत्तराखण्ड राज्य बन जाने पर भी न्याय नहीं मिला है। मुआवजा मिलने से यह लड़ाई शिथिल हुई ऐसा कहना उचित नहीं है। मुआवजा अनुदान नहीं, अधिकार के रूप में दिया गया। मुआवजे का मतलब न्याय मिलना नहीं है। यह मानवाधिकार की लड़ाई है। सी.बी.आई. ने 28 मौतों की (जबकि उत्तराखण्ड आन्दोलन में कुल 45 लोग शहीद हुए) पुष्टि की लेकिन अभी तक एक भी मौत के लिए अपराधियों को सजा नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया पर वह अपराधियों के लिए कवच नहीं है। अपराधियों को बरी करने, दोषमुक्त मानने की कोई बात उस फैसले में नहीं है। प्रश्न केवल उत्तराखण्ड का भी नहीं है। यह जनतांत्रितक संघर्षों के अस्तित्व का प्रश्न है। इस संघर्ष में महिला अस्मिता के सवाल पर मानव मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्षरत जन संगठनों, समाज के संवेदनशील वर्गों, मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने वालों को आगे आना होगा।
Muzaffarnagar incident: Question of human identity
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