जन्म कथा-जैसा ईजा ने सुनाया : जीवन कथा : एक

राधा भट्ट

कार्तिक महीना शुरु हो गया था, हमने धुरका गाँव के उपजाऊ  खेतों से मादिरा, मडुवा आदि सब लवा लिया था पर अभी तक मडुवे का नलुवा (पौधे) काटना बाकी था, धुरका गाँव की किसान महिलायें कमर झुकाये नलुवा काटने व सुखाने में लगी थीं, जिधर नजर दौड़ाओ दूर-दूर तक उन छोटे-छोटे संकरे खेतों में नलुवा काटती महिलायें झुकी दिखाई देती थीं। पुरुष गाज्यों के लूटों के लिए टान ठोककर लुटासे गाड़ते व उन पर गाज्यो चढ़ाकर लूटे बना रहे थे। बच्चे गाज्यों के ‘पूले‘ ढोकर लूटे के पास ला रहे थे। गाँव का हर व्यक्ति जुटा था मनुष्यों व जानवरों के लिए आहार सम्भालने में।

उस दिन दिन भर मैंने नलुवा काटा अकेले ही, उसको सुखाने भी डाला। मैं पचासों बार झुकी, पचासों बार उठी। तेरे चाचा-चाची दूसरी ‘सार‘ में कटी सूखी गाज्यो को समेटने व लूटे लगाने में लगे थे। अंधेरा होने से कुछ पहले मैं नलुवा की एक भारी गट्ठी लेकर घर पहुंची और गोठ के सामने उसे डाल दिया, मैं थककर चूर हो गई थी, अत: आँगन की दीवाल पर बैठ गई, तेरे दादा जी ‘सगड’़ में आग जलाने के लिए ‘कठघव‘ से लकड़ी लेने आये तो नलुवे के गट्ठर को किनारे की ओर खिसकाने लगे। तुरन्त बोले: ये तू लायी है ब्वारी? ये तेरे लिए बहुत ही भारी है पोथी। यह तुझे नही करना चाहिए, तेरी सास ‘छाना‘ गई है अन्यथा वह तुझे ऐसा काम नही करने देती।

उन्होंने ये शब्द बड़े कोमल स्वर में प्रेम पूर्वक कहे थे, मैं अपने श्वसुरनी के इन शब्दों से निहाल हो गई। परन्तु श्वसुर के प्रति बहू की जो ये मर्यादा होती है, उस लिहाज वश मैंने सिर झुका लिया और मौन रही। मैं जानती थी कि मेरे परिवार में मुझे सब ‘लाटी ब्वारी‘ कहकर प्यार व्यक्त करते थे, मैं काम साफ-सुथरा करती थी पर धीमी गति से। मेरी सफाई, ईमानदार मेहनत और शान्त स्वभाव सबको प्रिय था किन्तु उस सारे दिन की मेहनत मेरे व मेरे गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए ठीक न थी, मैंने गाँव की महिलाओं से सुन रखा था कि आठवें माह में सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि अठ्वासी बच्चा कम ही जीवित रहता है, पर असोज के महीने पर किसी का क्या बस चलता?
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

उस दिन तेरी चाची भोजन तैयार करने लगी तो मैं चुपचाप जाकर अपने कमरे में फीणे के ऊपर लेट गयी। मेरा शरीर थककर चूर था पर मुझे अपने पेट में कुछ ‘असज‘ सी लग रही थी। हमारा यह दुमंजिला मकान पूरे गाँव में सबसे बड़ा था। इसे तेरे बाबू ने अपनी पसन्द से बनाया था जिसमें बहुत बड़ा एक ‘चाख‘ आगे की ओर और एक छोटा चाख पीछे की ओर भी था। तेरे चाचा-चाची भीतर के कमरे में रहते थे और मैं उसी से जुडे़ अपने कमरे में, जो मेरा और तेरे बाबू का कमरा था, तेरा दाज्यू चार वर्ष का प्रकाश उस शाम मेरे पास आया ही नहीं। अपने चाचा से उसका बहुत जुड़ाव था, उन्हीं के साथ सोता भी था, अत: खाना खिलाकर उसे उन्होंने सुला दिया था।

सब अपनी-अपनी जगहों पर सो गये, मुझे भी तुरन्त एक नींद आ गई, पर बाद में मुझे बाहर जाने की जरूरत महसूस हुई, तब हमारे घर के पास में कोई शौचालय और स्नान की जगह नहीं थी, रात में जाना पड़े तो हमें पास के खेतों में जाना पड़ता था। मैं एक बार बाहर गयी। फिर दुबारा और जब तिबारा मैंने चाख का दरवाजा बाहर जाने के लिए खोला तो तुम्हारे दादा जी ने चाख के दूसरे कोने में अपने बिस्तर में लेटे-लेटे ही पूछा, ‘‘तुम दो तीन बार बाहर चली गयी हो बहू! क्या तुम्हें कोई तकलीफ हो रही है?‘‘

हाँ, मुझे दर्द हो रहा है, मेरा नम्र और संक्षिप्त उत्तर था। दिनभर के कठिन श्रम से थके, श्रम किये हुए परिवार जनों को मैं तकलीफ नहीं देना चाहती थी परन्तु तेरे दादा जी को चिन्ता हुई कि आठवें माह में होने वाले इस प्रसव में कुछ अनहोनी न हो जाय, अत: उन्होंने तुम्हारे चाचा जी को जगाया और कहा कि गाँव की उस महिला को बुलाओ जो दाई की तरह मदद करती है। जल्दी ही वह सयानी दयालु महिला आ गई, मेरा अकेलापन दूर हुआ। उसने आते ही कहा, मुझे कल अपनी गाय दुहनी है क्योंकि मेरी बहू मायके गयी है और गाय केवल उसे और मुझे ही दुहने देती है मैं तुम्हें थोड़े समय ही मदद करूंगी, तुम्हारे ‘नातक’ की छूत मुझे नही लगनी चाहिए।’’ उसने मेरी पीठ व कमर को सहलाया। मुझे बताया कि बच्चा ठीक स्थिति में है, वह चिन्तित थी कि आठवें महीने का बच्चा कैसे बचेगा? तू पैदा हुई कि वह दाई उछलकर दूर हो गयी अन्यथा उसे नातक की छूत लग जाती, तब वह अपनी गाय नहीं दुह पाती। दुहती तो उसकी गाय बिगड़ जाती।

मेरे शरीर में शक्ति नहीं रह गई थी किन्तु प्रसव के बाद की सारी क्रिया मैंने ही की, क्योंकि तेरी चाची को सब आता न था, उसने मदद की। तू पैदा हुई तो दाई महिला ने ‘चाख‘ में जाकर दादाजी को बताया; ‘‘आपकी नातिनी हुई है, भगवती की कृपा से तुम्हारे परिवार व गाँव के लिए लहणि (शुभ) हो।
जीती रहो, बहू तो ठीक है न? और बच्ची कैसी है?
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

बहू अभी तो ठीक ही लग रही है, पर बच्ची बहुत कमजोर है, उसका सिर बहुत कोमल है हड्डियों पर एक झिल्ली मढ़ी है बस, मैंने दूर से इतना ही देखा है।‘‘ उस सयानी महिला ने बताया और दादाजी के साथ पूरे परिवार ने सुना। माँ भगवती उसकी रक्षा करे, दादाजी ने कहा, मेरे बेटे की यह पहली बिटिया लम्बी उमर जिये।

अब तो जरूर जियेगी ये भाऊ  क्योंकि माता धुरका देवी के लिए आपकी भक्ति अपार है और आपने इस गाँव के कितने बच्चों के प्राण अपनी जड़ी-बूटी से बचाये हैं, क्यों नही सुनेगी मैया तुम्हारी पुकार (धात) को। यह कहते हुए वह रात में ही अपने घर को चली गई।

मैं कही सपनों जैसी बेहोशी में यह वार्तालाप सुन रही थी, मैंने यह भी सुन लिया था कि उस महिला के पहले वचन पर ही तेरे दादा जी बाहर गये और उन्होंने तारों की स्थिति देखी ताकि जन्म का सही समय बताया जा सके, तब हमारे घर में समय देखने के लिए कोई घड़ी नहीं थी, बाद में तेरे बाबू पलटन से एक घड़ी लाये थे तो उसको चाबी देने का अन्दाज सबको नहीं आता था। तेरे चाचा को आता था तो वो भी भूल जाते थे, तभी तो घड़ी ज्यादातर बन्द ही रहती थी।

दूसरी सुबह गाँव के पुरुष-महिलाएँ सभी हमारे घर आये, तेरे दादा जी फीण बिछाकर और हुक्का-चिलम लेकर आँगन में बैठे थे आने वाले पुरुषों को वे घर के तम्बाकू की दो फूँक लगाने का आह्वान कर रहे थे। बेटा हुआ होता तो गुड़ भी बाँटते। तभी हमारे गाँव से दूर के गाँव के एक युवा-ब्राह्मण अपना पोथी पत्र लिए उधर से निकले। तेरे दादा जी को मानों मुँह माँगी मुराद मिल गई। उन्हें बुलाया, अलग से आसन देकर बिठाया और ताजा हुक्का भरकर उन्हें पेश किया, कुशल-बात, बच्चे-परिवार, धौ-धिनाली की चर्चा के बाद तेरे दादाजी ने कहा, ‘‘पंडित जी, हमारे घर में मेरे बड़े बेटे की एक कन्या कल रात पैदा हुई है, जरा गणना करके देखिये कि वह हमारे परिवार के लिए कैसी है? उसके ग्रह-नक्षत्र उसके भविष्य और हमारे परिवार के भविष्य के लिए क्या लेकर आये हैं?‘‘

पंडित जी ने अपना बस्ता खोला, पत्रा निकाला और तेरे दादाजी से पूछा, ‘‘जन्म का ठीक समय क्या है?‘‘ तेरे दादाजी ने तारों की वह स्थिति बता दी जो उन्होंने रात में दर्ज की थी, पंडित अपने पत्रे में गणना कर रहे थे। तेरे दादाजी व वहाँ बैठे सब ग्रामीण जानते थे कि पंडित नौसिखिया है पर उसकी गणना पर सबको विश्वास था, गणना में कुछ देर अवश्य लगी परन्तु पंडित जी ने अपनी गणना के परिणाम को पूरे आत्मविश्वास व गम्भीरता से समझाकर प्रस्तुत किया।

देखो, ये कार्तिक के महीने की तीन गते हैं, इस महीने के इन तीन दिनों पर इस बार मूल नक्षत्र पड़ा है, अगर कन्या पहले मूल में पैदा होती तो वह अपनी माँ के लिए सारी (सख्त या अशुभ) होती, परन्तु वह दूसरे मूल की आखिरी घड़ी में पैदा हुई है, जब कि दूसरा मूल अस्त हो रहा था, अस्त होता मूल बड़ा क्रूर और पीड़क होता है, यह दूसरा मूल पिता के लिए है इसलिए कन्या अपने पिता के लिए बहुत कठोर है। मेरा विश्वास है कि इस कन्या पर पहली डीठ पड़ते ही इसका पिता मृत्यु को प्राप्त होगा। पंडित इस बात को उगलकर थोड़ा रुका, मानों अपनी सांस को थिरा रहा हो, तेरे दादाजी व अन्य लोग अवाक् थे।
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

सुन्न पड़ गये लोगों को जगाते हुए जैसे पंडित जी ने फिर से कहा, ‘‘माफ करिये, सुबह-सुबह आकर मैंने आपको बड़ी कठिन जानकारी दी है परन्तु हर कठिनाई का ईलाज भी होता है, बुरे ग्रहों को शान्त भी किया जाता है। हाँ, यह मूल के नक्षत्र किसी पूजा- अर्चना से शान्त नही होते।‘‘ पंडित स्वयं ही दु:खी हो गये थे फिर भी तेरे दादा जी को शान्त करने के लक्ष्य से उन्होंने जोड़ा ‘‘चिन्ता न करें जजमान, हम सभी उस परमात्मा के हाथों के खिलौने हैं मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं है। वह तो सृष्टि का एक अदना सा जीव है। ‘‘वह जाने को उद्यत हुए तो सबने नमस्कार के लिए हाथ ऊँचे करके जोड़ दिए, परन्तु तेरे दादा जी ब्राह्मण को दक्षिणा देना न भूले, उन्होंने उठकर कुछ अनाज बाँध दिया और कुछ सिक्के थमा दिये।

तेरे दादा जी बड़े गैल (गहरे) व्यक्ति थे, इस आघात को वे शान्तिपूर्वक झेल रहे थे, मन ही मन विचार कर रहे थे, आने वाले किसी से उन्होंने इसकी चर्चा नहीं की परन्तु शाम को जब तेरे चाचा जी खेत से आये तब उनको  यह सारी बात जो ब्राह्मण ने की थी, बता दी ।

सब सुनने के बाद तेरे चाचा जी उत्तेजित होकर बोले, ‘‘नहीं, नहीं, यह सब झूठ है। यह सच नहीं हो सकता, मैं उस अनपढ़ ब्राह्मण की गणना पर विश्वास नहीं करता।’’

तेरे दादा जी शान्त स्वर में ही बोले, ‘‘सही कहते हो, वह संस्कृत भाषा का जानकार नहीं है जो ज्योतिष विद्या के लिए जरूरी है पर वह अपने पत्रे की सहायता से समय व ग्रह नक्षत्रों की गणना कर सकता है, हम उसकी गणना को नकार नही सकते। इसी काम की रोटी तो वह खा रहा है‘‘।

तेरे चाचा जी इस बात को समझ गये होंगे इसलिए वे चुप रहे व गम्भीर हो गये, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि हम किस अनहोनी घटना में फँस गये थे।

गाँव में यह समाचार एक मुख से दूसरे मुख तक ‘बणाग‘ की तरह फैल गया था। सारे गाँव में एक ही विषय था जो सबकी चर्चा का कारण बना था। वे लोग हमारे घरों में आकर भी बातें करते, हरेक की चिन्ता थी कि अब क्या होगा? मैं उनकी कुछ आधी अधूरी बातें अपने कमरे में सुन लेती थी पर परिवार के सयानों ने सीधे-सीधे यह सब मुझे नहीं बताया था। शायद मुझे नाजुक स्थ्तिि में देखकर या फिर ऐसे मामले में मैं कर ही क्या सकती हूँ, यह सोचकर उन्होंने हम घर की स्त्रियों को इस चर्चा से अलग ही रखा था।
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

तीसरे चौथे दिन से मैं बाहर जाकर घर के कुछ छोटे-मोटे काम करने लगी। तब गाँव की स्त्रियों ने ब्राह्मण की भविष्यवाणी और लोगों की चिन्ता पूरे विस्तार से बताई, मेरे लिए तो मानो सिर पर आकाश टूट पड़ा। मैं पूरी की पूरी कांप गई। यह सोचकर कि मेरी गोद की बेटी मेरे प्रिय पति की मौत का कारण बनेगी। मैं किसको बचाऊँ, किसको छोडूँ? मैं किसी को नहीं छोड़ सकती थी, मेरा दिल तेरे व तेरे पिता जी के बीच झूल रहा था। मैं दोनों को अपनी ममता से ढक कर छिपा लेना चाहती थी। हर तूफान से बचा लेना चाहती थी पर कैसे? ब्राह्मण के वचनों पर मेरा पूरा विश्वास था। वह झूठे नहीं हो सकते थे किन्तु मैं हजार बार भगवती को रो-रोकर मनाती कि ब्राह्मण की गणना गलत हो जाय। मेरी रातें व दिन रो-रोकर बीत रहे थे। तुम्हारी दादी यह सब सुनेगी तो क्या कहेगी? यह एक और भय था, जो बीच-बीच में मेरे मन में कौंध जाता था। मुझे मालूम था कि वे तुम्हारे बाबू को बेहद प्यार करती थीं। उनका पहला बेटा गाँव का सबसे सुन्दर, सुशोभन उत्साही युवक, जो गाँव से बाहर जाने वाला पहला व्यक्ति था। उनके कारण परिवार का कितना मान व कितनी इज्जत थी इलाके में? मुझे लगता था, मैं तुम्हारी दादी को अपना चेहरा नही दिखा पाऊंगी। उनको तुम्हारे जन्म की जानकारी मिली नहीं कि वे एक शाम गाय-बकरियों को जल्दी गोठ में बाँधकर डेढ़ मील की धार चढ़कर गाँव आ गयी। उनकी सांस फूल रही थी, किन्तु तो भी उनके कदम पूरी तेजी से चल रहे थे क्योंकि उन्हें अपनी नवजात नातिनी को देखकर रात के लिए वापस छाना ही जाना था। गाँव की महिलाओं ने रिश्ते के अनुसार उनका अभिवादन किया पर वे किसी के पास बोलने को रुकी नहीं। तभी एक माइके आयी स्त्री सामने आयी। उससे बातें करना लाजिमी हो गया। अत: तुम्हारी दादी रुक गयी। महिला ने उन्हें ‘‘ज्याडजा पैलाग‘‘ कहकर प्रणाम किया। बातों के बीच उस स्त्री ने कह ही तो दिया’’ शिबौ, कमलदा की बेटी ऐसे ‘सारे (सख्त) मूल में पैदा हुई है। पंडित जी कह गये हैं कि अपने बाप की पहली डीठ पड़ते ही़.़ बाप ही जो नहीं रहेगा तो आपके परिवार पर यह कैसी विपदा आ गई? ‘‘हे भगवती।‘‘  कहते हुए उसने पर्वत की चोटी पर स्थित गाँव की ईष्ट देवी दुर्गा देवी के मन्दिर की ओर हाथ जोड़ दिए। तेरी दादी के तो होश ही उड़ गये। मानो वज्रपात हो गया हो और उसने उनके हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर  दिये हों, वह लगभग भागती हुई आयी और धड़ाक से चाख में पहँुच गयी।

‘‘हे भगवती! तूने इस लड़की को हमारे घर में क्यों भेजा? कहते हुए वे धप से नंगी पाल पर बैठ गयीं। ‘‘मेरा वह असाधारण बेटा अपनी ही नवजात बेटी के कारण मर जाने वाला है क्या? इस लड़की के लिए जो हमारे घर में पैदा हो गयी है अब क्या करना होगा?‘‘ आकाश की ओर देखकर वे जोर-जोर से कह रही थीं। मैं अपने कमरे में आकर तुम्हें दूध पिला रही थी और उनके ये शब्द मेरे कानो में पड़कर कलेजे को चीर रहे थे। आसुँओं के अलावा मेरे पास और क्या था?

तब तेरी दादी ने चाख के दूसरे छोर पर अपने आसन पर बैठे दादा जी की ओर देखा और पूछा,‘‘ जो हमारे लिए दुर्भाग्य का पहाड़ ले आयी है, उस ‘चिहड़ी’ (छोकरी) के लिए क्या करने का सोचा है तुमने? यह कपूत तभी तो समय से पहले पैदा हो गयी है।‘‘
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

दादा जी मौन रहे। इसलिए नहीं कि वे कम बोलने वाले व्यक्ति  थे वरन इसलिए कि वे जानते थे कि दादी के सवालों का कोई जवाब नहीं था। परन्तु उनकी चुप्पी ने दादी के घायल दिल में गुस्से की जलन पैदा कर दी, दादी लगभग चिल्ला उठी, ‘‘हमारा कपाल फूट रहा है, हमारी तकदीर धूल में लुट रही है, और तुम बैठे शान्ति से तम्बाकू पी रहे हो। क्या हो गया तुम्हारे दिल और दिमाग को? ‘‘

तेरे दादा जी उतने ही शान्त स्वर में बोले, ‘‘इस समस्या का हल मेरे बस से बाहर है। मैंने इसे माँ भगवती पर छोड़ दिया है, उन्होंने ही इस बच्ची को संसार में भेजा है। इसके जीवन से भी मैया कुछ करना चाहती होगी, सब माँ की शक्ति से होता है भागी!! तुम अपने मन को क्यों कड़वा कर रही हो? उसको क्यों जला रही हो?’’ तेरी दादी मन प्राण से अपने अत्यन्त लाड़ले, सर्वश्रेष्ठ, हिम्मतदार बेटे की जिन्दगी बचाने की चिन्ता से व्यथित थीं, उन्हें तेरे दादा जी की दर्शन भरी बातों का एक भी शब्द अच्छा नहीं लगा, बल्कि इससे उनका क्रोध मुड़कर रौद्र रूप में फूट गया। उन्होंने सीधे तनकर खड़ी होकर दादाजी को अपनी अंगुली दिखाते हुए कहा, ‘‘मैं कह रही हूँ, कान खोलकर सुन लीजिए, मैं अपने प्यारे बेटे को बचाकर रहूँगी। इस ‘चिहड़ी’ को इस घर से दूर हटाना ही होगा, चाहे कही दे दो, चाहे फैंक ही दो या मार दो। यह है क्या? केवल पानी का एक बुलबुला ही तो है। इसकी मच्छर मारे जितनी हत्या भी नहीं लगेगी।’’ ऐसी कुलच्छिनी को तो जीने से अच्छा है कि मर ही जाय। लड़की ही तो है यह, लड़की के जीवन में क्या सुख देखना है, जिसके लिए जीना जरूरी है? ‘‘ तेरी दादी भावावेश में हाँफ गयी थी। थोडा़ रुकी।‘‘ मेरा बेटा, तेरी बलायें लूँ मेरे बच्चे, कौन से मुलुक में न जाने घर से बाहर परदेश की रोटी तोड़ रहा है। अनजाने लोगों के बीच अनजानी भूमि में अपनी जिन्दगी खपा रहा है, केवल इस परिवार को पालने, इसको बेहतर बनाने के लिए, यहाँ ऐसी कुऔलाद पैदा हो रही है। हुहँ! भगवती उसको सदा दैण रहे। उसके पैर में  कांटा भी न चुभे।‘‘ उनकी आँखों  से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं। वे उठी और बिना विदा लिए घर से बाहर निकलने लगीं। तब तेरे चाचाजी उनके साथ दरवाजे तक गये और बोले ‘‘ईजा ऐसे शब्द नही कहिए।‘‘ इस परिवार में किसी का भी कोई बुरा नहीं होने वाला है। शान्ति से देखती रहो, सब भला ही होगा, तेरी दादी को मानो बिच्छू घास छू गयी। फिर से चिल्लाई, ‘‘यह शान्ति से देखने का मामला नहीं है बेटा, मुझे तो साफ दिख रहा है कि तुम लोगों का दिल और दिमाग इस छोटी सी दुर्भाग्य की पुतली ने अपनी माया में जकड़ लिया है। मैं न तुम पर विश्वास करती हूँ, न तेरे बौज्यू पर। तुम सब अच्छी तरह सुन लो। मैं इस घर से जाने को जा रही हूँ  वापस तब तक नही आऊँगी जब तक ये लड़की यहाँ से निकाल कर कही नही भेजी जाती या फिर मर नहीं जाती। इस देली में तब तक पैर नही रखूंगी।’’ उनकी वाणी दृढ़ और संकल्पित थी। पीछे से तेरे दादा जी बोले, चुप कर, साँझ की बेला में ऐसी कुमति? मेरे घर में यह हुड़दंग नही चलेगा। दो बेलायें एक हो रही हैं, मेरा पूजा का समय है, तुम कौन होती हो उस बच्ची को मारने वाली? तुम्हें क्या पता ये बच्ची खुद में भगवान है, बाल भगवान। उसको प्यार करते है, उसकी पूजा करते हैं तू उसको गाली दे रही है? यह सब मेरे घर में नहीं चलेगा।

‘‘तुम रहो अपने घर में, अपने भगवान को पूजो, मैं जाती हूँ अपनी गायों व बकरियों के पास, मेरे बेटे को कुछ हुआ तो तुम जानना, कह देती हूँ। ये देली तुम्ही को मुबारक हो।‘‘ और बिना विदाई वे चली गयी।

मैंने कमरे से उनकी पूरी बातें सुनीं और मेरे आँसू मेरी छाती भिगोते रहे। मैंने सोचा, मेरी सास, बेचारी माँ अपने लाल को काल के मुँह से भी छीन लाने को तैयार थी। वे लगभग दौड़ती हुई सी छाना को चली गयीं। उन्हें अन्धेरा होने से पहले ड़ेढ़ मील का जंगल पार करना था। फिर अपने लिए दो रोटी बनायेंगी। क्या पता ऐसे दर्द भरे दिल से खा भी पायेंगी या नहीं? मैं उस शाम बराबर उनके बारे में सोचती रही। मैं यह भी सोचने लेगी थी कि कहीं यह मेरा ही अपराध तो नही है? मेरी मौन व्यथा, शब्द रहित दु:ख को सुनने वाला कौन था?
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

गाँव भर में चर्चा थी। सुबह-शाम-दोपहर, गली-ग्वेट, धारा-नौला हर कोने-नुक्कड़ पर एक ही बात थी। उस दु:खदात्री लड़की से कैसे छुटकारा लिया जाय। हर स्त्री हर पुरुष के पास एक सुझाव था। तेरे चाचा जी ने तेरे बाबू को सारी बातें विस्तार से लिखते हुए एक चिट्ठी भेज दी थी और सब उनकी सलाह की प्रतीक्षा करने लगे थे। एक दिन तेरी सबसे बड़ी बुआ आयीं। उन्होंने रोते हुए कहा‘‘ मेरे दाज्यू की बेटी को मारना नहीं, उसे मुझे दे दो। मेरा तीन माह का बेटा है। मैं उसके साथ इसे भी दूध पिला लूंगी,‘‘

‘‘नहीं-नहीं, यह तो हो ही नही सकता। तुम्हारा गाँव इतनी नजदीक है। कभी भी तुम्हारे दाज्यू को ये दिखाई दे सकती है, हमें तो इसे दूर-दूर, इतनी दूर भेज देना चाहिए कि इसके पिता की इस पर नजर पड़ने की संभावना ही न रहे, गाँव के सयाने व्यक्ति ने उनको उत्तर दिया।

‘‘हम उसे ‘सोर‘ क्यों न पहुंचा दें? (उन दिनों हमारे उस छोटे और बन्द जैसे गाँव में सोर मानो दुनियाँ की सबसे दूर जगह थी) हम वहाँ के गाँव में जाने को तैयार हैं, कोई दूध पिलाती माँ मिल ही जायेगी। क्या पता कोई नि:संतान जोड़ा मिल जाये। ‘‘एक नौजवान ने उत्साह से कहा, ‘‘कोई न कोई गोद तो इसे मिल ही जायेगी।’’

कुछ देर सोचने के बाद तेरे दादाजी ने गम्भीर होकर कहा, ‘‘यह भी सम्भव नही है। मेरा बेटा फौज की नौकरी में है। वह देश के किसी भी कोने में जा सकता है, और तो और देश से बाहर भी जा सकता है। सोर भेजना पूरी तरह सुरक्षित नही होगा। हाँ, तुमने यह ठीक कहा, इस लड़की का अशकुनी चेहरा तो उसके पिता की नजर से इतनी दूर कर देना होगा कि उसके जीवन भर इसके चेहरे पर उनकी डीठ पड़ने की दूर तक भी सम्भावना न रहे।’’

जब जीवित रहते हुए दृष्टि बाहर दूर भेजने के सुझाव सफल नही हुए तो लोग मार देने की योजना बनाने लगे। कोई एक विषैली जड़ी बताता तो कोई एक जहरीली पत्ती जिसे बच्चों के मुँह में रख देना ही काफी होगा। पर कोई सर्वसम्मत निर्णय नही हो पाया। सारे गाँव का माहौल चिन्ता से तनावमय था।

माँ सोचती थी कि किसी भी जुगत से मेरी बेटी जिन्दी रहती। चाहे दूर भेज दें क्योंकि तभी तो उसके बाबू जिन्दा रह सकेंगे। कम से कम कभी न कभी मैं बेटी को देखने तो जा सकती, उसके सिर पर अपना हाथ रख सकती, उसे कुछ खाने-पहनने को दे सकती। परन्तु सोर कितनी दूर होगा? सौ मील? उतना भी मैं चल ही लेती। फिर इस नाजुक जान को अपनी छाती से अपनी कोख से दूर करने की कल्पना से मेरे दिल में दर्द की एक हूक उठती थी।
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

रोज- रोज की इन अनिश्चित उलझी- पुलझी बातों को सुनते, सोचते-सोचते तेरे दादा जी भी शायद भ्रमित हो गये थे। उनके मन की शक्ति व उनका भरोसा डगमगाने लगा था। एक सुबह उन्होंने मुझसे पूछा ‘‘घर में इन दिनों सब अस्त-व्यस्त है। तुम्हें ठीक से खाना भी दिया जा रहा है कि नही?‘‘

‘‘हाँ-हाँ, मुझे रोटी और दाल अच्छी तरह से मिलती है, दिन में जितनी बार भूख लगी, उतनी बार मेरी देवरानी मुझे ताजी रोटी बनाकर देती है। सब्जी और भात का मैंने बच्ची के लिए ‘बारा‘ किया है।‘‘ मैंने कहा।

‘‘ अरे! केवल रोटी और दाल? हाँ घी-दूध-दही ये चीजें तो तुझे देनी ही नहीं हुई। और क्या दिया जाय? मैं तुझे शहद देता हूँ। रोटी में डालकर खाना।‘‘ कहते हुए दादाजी ने शहद की एक बोतल मुझे दे दी। मैं तो अपने ससुर जी की इस प्रेमल, मातृवत सार सम्भाल से निहाल हो गयी। उसी समय से अपनी रोटी में खूब शहद डालकर खाने लगी। तुम्हारे जन्म को छ: सात दिन हो चुके थे। मैं मौसम अच्छा होने पर नजदीक के खेतों और सब्जी के बाड़ों में गुड़ाई-निराई करने जाने लगी थी। सब्जी के छोटे पौधों के बीच उगी छोटी घास की निराई कर रही थी। तभी हमारे गाँव की एक सयानी महिला आ गयी और पूछने लगी, ‘‘तुम क्या खाती हो? मैं कसम से कहती हूँ कि तुझको ठीक से खाना नहीं दिया जाता होगा क्योंकि तुमने एक अपशकुनी संतान को पैदा किया है। तुम्हें अभी भी भूख लगी है क्या? मैं तुम्हारे लिए थोड़ी चावल ले आती हूँ। मुँह में डालकर चबाती रहोगी तो थोड़ा आधार हो जायेगा। कहते हैं कि चावल के खाजे खाने से बच्चे के शरीर पर ‘लेजी‘ हो जाती है। ज्यादा ठीक होगा कि मैं तुम्हारे लिए मादिरा का जौला पकाकर लाती हूँ।’’

‘‘न वे दीदी, मेरे लिए खाने की कमी नहीं है मुझे दिन में कई बार रोटी और दाल खाने को देते हंै। सब्जी और भात तथा घी का मैने बारा कर रखा है, जैसे कि बेटा पैदा होने पर किया जाता है, मैं अपनी बेटी को बेटा ही मानती हूँ और सब परहेज करती हूँ ताकि वह स्वस्थ रहे, अगर लोग उसे जिन्दा रहने देंगे तो। ‘‘गहरी साँस छोड़ते हुए मैंने कहा। ‘‘ठीक ही कह रही है बैणा, मुझे उस नन्ही जान के जीने के कम ही आसार दिखते हैं। यह तो बता कि परिवार के मुखिया की दृष्टि से तेरे ससुर क्या कह रहे हैं?‘‘
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

‘‘निश्चित रूप से मेरे ससुर जी बड़े गहरे, गम्भीर और मजबूत व्यक्ति हैं पर मेरी सास कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। हमारे घर में कई फैसले तो वे ही करती हैं। मेरे ससुर मेरी बेटी को बचा लेंगे पर सास? ससुर जी इतने दयावान हैं, उन्होंने मुझे ठीक खुराक मिले यह सोचकर एक पूरी बोतल शहद की दी है, जिसे मैं अपनी रोटी के साथ खाती हूँ। मैंने उसमें से काफी शहद खा भी लिया है,’’ शहद की बात सुनते ही महिला चौंक गई, और उसकी आँखें डर से पूरी फैल गईं। ’’शहद?‘‘ वह बोली, ‘‘तुमने काफी मात्रा में शहद खा लिया है? ‘‘वह चिल्ला उठी और मैं सहम गई, अब और कौन सी मुसीबत आ गई?

स्त्री एक घड़ी चुप रही। मानो उसकी वाणी कहीं घुट कर रह गई हो! फिर बोली, ‘‘यह तेरी बेटी को मारने की छिपी साजिश है। शहद और इतनी अधिक मात्रा में, बच्चे का नाजुक शरीर उसकी गर्मी को सहन नही कर सकता, ’’अपनी जानकारी के अनुसार उसने बताया,’’ पहले तो वह बचेगी नहीं, बच गयी तो उसकी आँखें ‘बुसी‘ (बुझ) जायेंगी। सोचो, एक लड़की वह भी अन्धी! उसका भला क्या भविष्य होगा?‘‘

मैं उसी पल टटोल-टटोल कर राह में कदम ठिठकाती लड़की का चित्र अपने मन में देखने लगी और रुआँसी होकर कहने लगी, ‘‘नही-नहीं, दीदी ऐसा नही कहिए। मेरी बेटी की गहरे ‘‘नौलों‘‘ जैसी सुन्दर आँखें, उन्हें कहीं से एक खरोच भी न लगे। ‘‘मेरे मन में एक और चिन्ता आकर बस गई।

रात में भी जब कभी नींद खुलती मैं उस छोटी सी बच्ची के बदन पर हाथ फिराकर देखती कि वह मर तो नही गयी! सुबह ज्यों ही पौ फटती, मैं उसे बाहो में लेकर देली में ले जाती और गहरी नींद से उसे जगाती, जब बच्ची कुनमुना कर अपनी सुन्दर काली भँवर सी आँखें खोल देती तो मुझे संतोष हो जाता कि अाँखें सही सलामत हैं। अभी बुसी नहीं गई।
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

इसके दो तीन दिन बाद तेरे दादा जी ने मुझे पूछा, ‘‘ब्वारी तुमने मेरा दिया शहद खाया? ‘‘हाँ मैंने खूब खाया।’’ हरे राम, तुम्हें पता नहीं था क्या कि अधिक शहद छोटे शिशुओं के लिए हानिकारक है?’’ ‘‘हाँ अब तो मुझे मालूम है जबकि जानने से पहले मैंने कई बार उसे खा लिया था लेकिन अब मैंने पक्की ठान ली है कि इसकी एक बूँद भी नही खाऊंगी। शायद मेरी बच्ची के प्राण बच जांए और आँखें भी बच जांए।’’ मैंने मजबूती से अपना निर्णय और अपनी बच्ची को बचाने की तमन्ना उनके सामने व्यक्त कर दी। तेरे दादाजी (अपने ही पश्चाताप से) पिघले हुए थे बोले, ‘‘तुमने बिल्कुल ठीक निर्णय लिया है। मुझे पछतावा हो रहा है कि मैं भ्रमित हो गया था। कहीं न कहीं मेरे मन में छिपी मंशा अपनी मासूम नातिनी को मारने की थी। मुझे कुछ समय के लिए उस सर्वशक्तिमान पर से विश्वास उठ गया था। अपने बेटे के लिए मेरे अन्धे प्रेम ने मुझे अन्धा बना दिया था। मुझे माफ करना ब्वारी!’’

‘‘अब मेरा अन्तस्थल साफ है। वह मुझे बताता है कि जो होगा हम सबके लिए अच्छा ही होगा। तुम अपनी बच्ची और अपने पति की चिन्ता नहीं करना। माँ भगवती सबका कल्याण करेंगी।

दिन बीतते गये पर मेरी बेटी को न तो कोई मार ही सके न उसको दूर भेजने का कोई स्थान ही ढूँढ पाये। अभी तक तेरे पिता जी का पत्रोत्तर भी नहीं पहुंचा था, वे बड़े कठिन दिन थे मेरे लिए, तेरे दादा जी के लिए और मैं सोचती हूँ तेरी दादी के लिए तो और भी कठिन, 12वें दिन की सुबह आयी। यह बच्चे के नामकरण संस्कार का दिन था और साथ ही मेरी नातक- छूत दूर करने का भी दिन था। मैं अन्धेरे में ही ठण्डे पानी से नहा आयी थी और अपनी ओढ़ने-बिछाने वाली चादरें धो आयी थी। मैंने तुम्हारे जन्म के उस कमरे का फर्श गाय के गोबर और मिट्टी से लीप दिया था। तुम्हारी चाची घर के अन्य कमरों व चाख को लीप रही थी। तेरे चाचा हमारे परिवार के पुरोहित को बुलाने गये थे और तेरे दादाजी पूजा के लिए फल-फूल, दूब, समिधा, धूप-दीप, शंख-घण्टी आदि को एक स्थान पर रख रहे थे जहाँ पर पुरोहित जी आकर नामकरण संस्कार की पूजा करायेंगे।

बस उसी क्षण, तेरी दादी ने घर के अन्दर कदम रखा। वे बहुत उत्तेजित थीं और दृढ़ता पूर्वक आक्रामक होकर आयी थीं, वे क्षुब्ध थीं कि उनके परिवार जन साहस हीन थे जो एक अशुभ बच्ची को रास्ते से हटा नही पाये थे। अत: उन्होंने स्वयं इस जिम्मेदारी को अपने हाथ में ले लिया था। सुनो, मैं आ गई हूँ तुम लोगों के कलेजों में तो इतना भी दम नहीं रहा कि इस लड़की को घर से बाहर कर देते, जो कि अभी हमारे परिवार का अंग भी नहीं बनी है, ये क्या है? मिट्टी के  नीचे  का एक अंकुर जो अभी ऊपर भी नहीं आया है। ये क्या है? ये जंगल की वह घास है जो हर चौमासे में उगती है और काट दी जाती है। ये केवल एक लड़की ही तो है, इसके जीवन में कौन सा सुख लिखा हुआ है? इसके बिना दुनियाँ में कौन सी कमी आने वाली है?’’
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

‘‘मैंने तय किया है कि मैं इसको जिन्दा ही मिट्टी में गाड़ दूंगी।‘‘ उनके हाथ में एक बड़ा सा ‘कहौल’ था। उसे मुझे दिखाते हुए वे बोली, ‘‘ब्वारी इसको क्यों नहला रही है? इसको इधर फेंक, मैं इसे’’ छीड़ के मुन ’’में ले जाती हूँ, जहाँ मर जाने के बाद छोटे बच्चों को गाड़ा जाता है। मुझे कोई डर नहीं है। मैं गड्ढा खोदूंगी, इसे उसमें दबाकर ऊपर से पत्थर रख दुंगी। ये मेरे पाले-पोसे जवान बेटे को खाने वाली जियेगी नहीं तो खायेगी कैसे?‘‘ उनकी तेज अवाज उत्तेजना से फट जैसी रही थी, आँखें मानो जलती मशालें बन गयी थीं, पूरा शरीर कांप रहा था। दादी मेरी राख की रेखा के बाहर खड़ी थी, वे ‘छूत‘ के प्रति बहुत संवेदनशील थीं, उन्हें छूत लगने का डर था, अन्यथा वे कूदकर मेरे हाथ से बच्ची को छीन लेतीं। मेरे हाथ में गीली बच्ची थी, मेरे हाथ कांप रहे थे। मेरी आँखें भय से विस्फारित हो गई थीं। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी दादी को देख रही थी। क्या करूँ? सास की आज्ञा मानूँ? बच्ची को उन्हें दे दूँ या अपने कलेजे के टुकड़े को कहीं छिपाकर इसे बचा लूँ? पर कैसे? यहाँ तो मानो साक्षात मौत ही सामने थी, किसी दुश्मन को भी कभी ऐसी घड़ी न झेलनी पड़े।

‘‘ये क्या बक रही है तू? जा यहाँ से’’ तेरे दादा जी ने कमरे में आते हुए डाँटकर कहा। उसी दिन वे पहली बार मेरे कमरे में आये थे।‘‘ अरे भगवान, इस बच्चे को भगवती ने भेजा है इस दुनियाँ में। इसमें भी उसका कोई हित है। तुम अपने बेटे की जिन्दगी को बचाने वाली कौन होती हो? और इसको मारने वाली भी कौन होती हो? मैं तुझे कहता हूँ कि प्राणों को बचाने वाला बस वह एक प्राणों का सृजनहार ही है, आज का दिन हमारे परिवार का और इस बाल आत्मा का शुभ दिन है तुम भी इसमें शामिल हो जाओ भगवती पर भरोसा रखो, तेरी दादी जोर से रो उठी। ‘‘माँ भगवती रक्षा कीजिए‘‘ कहकर वे कमरे से निकल गईं।

ब्राह्मण पुरोहित आ गये थे। उन्हें बैठने को फीणा व पीने को ताजा हुक्का देते ही बैचेन और भावुक होकर तेरे दादा जी ने तुरन्त पूछ लिया। ‘‘आपने नवजात के बारे में कोई गणना अभी तक तो नहीं की होगी न? आपको पता हुआ कि नही? पिछले ये बारह दिन हमारे लिए भयंकर यंत्रणा के दिन थे। बताइये कैसे हम अपने बेटे के प्राण बचायें? हम इस बच्ची को कहीं दूर कहाँ भेज दें? या फिर इसको मारना ही पड़ेगा? ‘‘हाँ, हाँ जजमान मैंने सारी कथा अपने घर से यहाँ आने तक सुन ली है। परन्तु मैंने स्वयं जब तक गणना नहीं की, मैं किसी की बताई भविष्यवाणी पर विश्वास नही करता, मैं गणना करूंगा और अगर जरूरी होगा कि लड़की को हटाना है तो मैं आपकी मदद भी करूंगा। रास्ता निकलेगा। तुम्हारे बेटे के लिए कोई अशुभ नहीं होगा। ग्रह नक्षत्रों को शान्त करने के कई विधि विधान हैं। ‘‘तेरी दादी को आशा की किरण दिखाई देने लगी तो वे निकट आ गईं और बोली, ‘‘मेरे बेटे के लिए अलच्छण न करे तो मैं इस अभागी को क्यों नहीं प्यार करूंगी, हमारे परिवार की यह पहली ही तो लड़की है। हमारे इस परिवार में लड़कियों की कदर की जाती है। मेरी ही चार लड़कियाँ हैं, हमने उन्हें प्यार से पाला है। इसे भी पालेंगे। पर पंडितज्यू कैसे भी आप मेरे बेटे को बचा लें,‘‘ उनका गला रुँध आया था।
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

पुरोहित  जी ने जन्म का समय पूछा तो दादाजी ने उन्हें जन्म के समय के तारों व ग्रहों की स्थिति बता दी। पंडित पत्रे, पंचांग और उनकी ज्योतिष की विशेष पुस्तकों के आधार पर गणना करने लगे। उन्हें समय लगा, इधर तेरे दादा मानो साँस रोककर धड़कते हृदय के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे कि पंडित के मुँह से कहीं पूर्ववत् वही वज्रपात न हो जाय। पंडित जी ने सिर उठाया और पूछा, ‘‘जजमान तुम मुझे बता सकते हो कि बच्चे के जन्म के कितनी देर बाद पौ फटी थी।‘‘

‘‘ज्यादा से ज्यादा तीन घण्टे,‘‘ दादाजी ने कहा- ‘‘मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि तारों की स्थिति के आधार पर गणना करने में बड़ी सावधानी बरतनी होती है।‘‘ पुरोहित जी ने कहा और पोथी से सिर उठाते हुए आत्मविश्वास पूर्वक कहा, ‘‘यह बच्ची कार्तिक मूल के दूसरे दिन नहीं पैदा हुई है। यह आधीरात में जब दूसरा मूल अस्त हो चुका था उसके बाद तीसरे मूल में पैदा हुई है,‘‘ तेरी दादी व तेरे चाचा पंडितज्यू के और भी निकट खिसक आये।

‘‘देखो जजमान, कौन कहता है कि तुम्हारी नातिनी अपने पिता के लिए अशुभ है। पिता को पिड़ाने वाला दूसरा मूल था, तीसरा मूल स्वयं इस बच्ची के लिए पीड़ादायक है, किसी भी दशा में पिता के लिए नहीं। उदय होता तीसरा मूल आपकी नातिनी को तो यशस्वी बनायेगा ही। जिससे उसके पिता को आनन्द मिलेगा इसके उज्ज्वल, तेजस्वी व्यक्तित्व से परिवार को भी यश मिलेगा। केवल मूल इसे ऐश व आराम से नहीं रहने देगा।‘‘
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)

तेरी दादी और दादा खुशी के आँसुओं में नहा गये। दोनों ने पंडित का ‘दै जीरया‘ कहकर धन्यवाद दिया और तेरे दादाजी दौड़कर मेरे कमरे में आये, ‘‘ब्वारी अब कोई चिन्ता न करना, तेरी बेटी अपने पिता और किसी भी परिवार जन के लिए अशुभ नहीं है। वह तो सारे परिवार का सौभाग्य है।‘‘मेरा दिल खुशी से उछल पड़ा। मैंने तेरे पिताजी और तुझे दोनों को पा लिया था। उसी दिन तेरे बाबू का पत्र लेकर डाकिया आया।

तेरे चाचा ने लिफाफा खोलकर पत्र जोर से पढ़ा ताकि सब सुनें। मैंने भी सुना, पत्र देशी भाषा में था, ‘‘सिद्घि श्री सर्वोपमायोग्य बौज्यू के चरण कमलों में आपके पुत्र कमलापति का सादर प्रणाम स्वीकार हो, आगे आपका पत्र प्राप्त हुआ, मेरा कहना है कि कोई बेटी कभी भी अपने पिता के लिए अशुभ नहीं हो सकती। आपने उसे मेरे लिए अशुभ लिखा है पर मुझे विश्वास हो गया है कि वह मेरे लिए शुभ है क्योंकि उसके जन्म के बाद ही मुझे मेरी पदोन्नति का आदेश पत्र मिला है। आप लोग उसे लड़की मानकर उसकी जिन्दगी को हेय मान रहे होंगे परन्तु मेरे लिए लड़की या लड़का सभी की जिन्दगी एक समान महत्वपूर्ण है। इसलिए मेरी बेटी को कहीं दूर भेजने का विचार भी न करें, मेरे लिए यह असह्य होगा। मैं छ: महीने बाद अपनी सालाना छुट्टी में आऊँगा और तब उसको स्वस्थ व मजबूत देखना चाहता हूँ, कृपया उसकी अच्छी देखभाल करें।‘‘

लोगों के मनों के रहे-सहे शंका के बादल भी पूरी तरह उड़ गये। नामकरण की पूजा बड़े शान्त व स्वच्छ भाव से सम्पन्न हुई। गाँव के लोगों ने हँसते-गाते नामकरण का भात खाया।  
क्रमश:
(Birth Story Memoir by Radha Bhatt)
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