हमारी ईजा: जीवन कथा- चार
-राधा भट्ट
इजा कुमाउँनी भाषा का ममत्वपूर्ण शब्द है। हर इजा ममतामयी ही होती है, पर मुझे लगता है मेरी इजा विशेष ममतामयी थीं। वे शान्त, सुशील व धीरता की मूर्ति थीं। बड़े-बड़े कष्टों व संकट भरे काल में भी उनकी धैर्यशक्ति बनी रहती थी।
(My Mother Memoirs of Radha Bhatt)
सात वर्ष की उम्र में इजा अपने पितृगृह पोखरी को छोड़कर धुरका की निवासी बन गई थीं। वे बताती थीं कि विषम वर्षों में शादी नहीं की जाती थी इसलिए उनके गर्भ में बिताये नौ माह भी उम्र में जोड़ दिये गये क्योंकि ब्राह्मण ने आग्रहपूर्वक कहा था कि इसी वर्ष में शादी कर देना मंगलमय होने वाला है, और सबने मान लिया कि वधू आठ वर्ष की है। ‘‘अष्टवर्षात्भवेद्गौरी़..’’ का संस्कृत श्लोक बोलकर सब बुजुर्गों को प्रभावित कर दिया था पुरोहित जी ने। कितनी पकड़ थी ब्राह्मणों की उस काल के समाज पर?
माँ दुरागमन के लिए अपने मायके नहीं गईं। वह रिवाज शादी के दिन ही दो बार देली पूजा करके और दो बार अपने माँ-पिता व सयानों को ढोक (प्रणाम) करके पूर दिया गया था। शादी बसन्तपंचमी को हुई थी और होली के लिए बेटी को विदा कराने आठ-दस दिनों बाद ही नाना जी धुरका पहुँच गये थे। इजा कहती थीं, ‘‘तब तक मैंने तेरे पिताजी के चेहरे पर नजर तक नहीं डाली थी! वे इजा से उम्र में दस वर्ष बड़े थे। इजा को उनसे एक प्रकार की झिझक होती थी। इजा अपनी हम उम्र या अपने से कुछ छोटी ननदों के साथ रहती थीं या अकेली बैठकर रोती थीं। नानाजी के आने से उनकी खुशी की सीमा नहीं रही। उन्हें एक खुशी यह भी थी कि मायके जाकर वे इस भारी घाघरी, आँगड़ी को उतारकर अपनी हल्की सी झगुली पहन लेंगी- घाघरी उन्हें भारी लगती थी पर शादीशुदा स्त्री को घाघरी ही पहननी थी। झगुली तो कुँवारी लड़कियों की पोशाक थी।’’
शादी के समय पोखरी से धुरका तक की 10 मील की दूरी इजा ने पालकी में बैठकर पूरी की थी परन्तु नानाजी के साथ मायके जाते समय स्वयं नानाजी ही उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर ले गये थे। कहीं-कहीं इजा पैदल भी चलीं पर चलते समय सबसे मुश्किल पैदा करती थी उनकी घेरदार घाघरी।
इजा लम्बे समय के लिए मायके गई थी, पर वह समय और भी लम्बा हो गया। महीनों व एक साल का ही नहीं, कुछ सालों की लम्बी अवधि तक वे धुरका नहीं आईं। कोई उन्हें बुलाने भी नहीं आया। यद्यपि आने-जाने वाले लोगों के साथ नानाजी व दादाजी एक-दूसरे को आशल-कुशल भेजते रहते थे। कारण यह था कि पिताजी परदेश यानी गाँव से बाहर किसी भी काम की खोज में चले गये थे। धुरका व पोखरी के गाँववासी यह विश्वास नहीं कर पाते थे कि कोई व्यक्ति गाँव व पहाड़ से इतनी दूर चला जाये कि वहाँ से कोई परिचित आने-जाने वाला भी न मिले, जिसके हाथ वह अपनी कुशल का सन्देश भेज सके। शायद चिट्ठी-पत्री का अधिक चलन नहीं रहा हो उन गाँवों में। उन्हें पढ़ने-लिखने का ज्ञान भी तो नहीं था।
इजा तो मायके में आनन्द से थी परन्तु जब साल दर साल बीतते गये, उनके पति की कोई सूचना न थी और वे बड़ी होती जा रही थीं तो उनका सुन्दर चेहरा और उनकी मेहनत की दक्षता को देखकर लोग सोचने लगते कि वह अपने उपयुक्त स्थान पर नहीं है। उसकी शोभा तो उसकी ससुराल में ही होती। गाँव की स्त्रियाँ- ‘‘शिबौ-शिबौ’’ कहकर उन पर दया दिखातीं। लोगों को लगने लगा था कि शायद उनके पति अब जीवित नहीं रहे होंगे, अन्यथा चार-पाँच वर्षों तक कोई परदेश में ही रहे और घर नहीं आये, उनके लिए यह अविश्वसनीय था। ‘‘क्या होगा इस बालिका का जीवन?’’ नाना व नानी इसकी चिन्ता करने लगे थे। उन्होंने अपनी छोटी बेटी का विवाह कर दिया था। वह एक साल मायके रहकर अब ससुराल चली गई थी।
(My Mother Memoirs of Radha Bhatt)
तभी ठंडे घनघोर जाड़ों के एक दिन पिताजी फौजी ब्राण्ड कोट पहनकर पोखरी पहुँच गये। नाना-नानी ही नहीं, पूरे गाँव के लोग सारा दुखभरा अतीत भूलकर वर्तमान की खुशी में झूम उठे। दामाद जीवित तो था ही, फौज की प्रतिष्ठित नौकरी में जुड़ गया था। उन दिनों हमारे गाँवों में पास-पड़ोस या कुछ दूर की यात्रा करने का एक तयशुदा सोच (री३ाङ्म१े४’ं) था, एक दिन पहुँचने का, दो दिन पटै बिसाने (थकान मिटाने) का और एक दिन वापस आने का। उसी नियम से पिताजी पोखरी में रहे और फिर कम बोलने वाली मेरी इजा को लेकर वापस धुरका आ गये। रास्ते में उन दोनों ने, कुछ खा लो, पानी पी लो, थक तो नहीं गई, यहाँ विश्राम कर लेते हैं, जैसे छोटे वाक्यों के अतिरिक्त कुछ भी ज्यादा नहीं बोला था, ऐसा इजा कहती थी। मैं आशा करती हूँ उस पूरे दिन की पदयात्रा में इजा ने शायद पिताजी के सुशोभन सुन्दर चेहरे पर तो दृष्टि डाली ही होगी। कौन जाने?
पिताजी अपनी छुट्टियाँ बिताकर चले गये, इजा अपनी गृहस्थी की दिनचर्या में लग गईं। इस पाँच वर्ष की अवधि में उनकी ननदों की शादी हो गई थी और घर में एक देवरानी आ गई थी। इजा इस नई देवरानी से तालमेल बिठाकर चलने का प्रयास करने लगीं पर दोनों के स्वभाव व कार्य शैली में बहुत फर्क था। धीमी गति से अच्छा साफ काम करने वाली इजा चाची की गतिशीलता को नहीं पकड़ पाती थीं। दोनों घास काटने साथ जातीं तो सही, पर चाची इजा से आधा घंटा पहले ही घर पहुँच जातीं। इजा उनके बाद पीछे से अकेली ही अपनी घास की गट्ठी लिए घर पहुँचती। देर से आने के बावजूद दादी उन्हें डाँटती नहीं थीं क्योंकि वे दोनों की कार्य-कुशलता व काम की गुणवत्ता को पहचानती थीं। उनकी दोनों बहुएँ एक उम्र की थीं। शायद चाची ही कुछ महीने बड़ी थीं। दादी उनको काम पर साथ-साथ भेजती थीं, किन्तु इजा हमेशा अकेली हो जातीं। दोनों मडुवा गोड़ने जातीं। एक साथ खेत के एक छोर पर दोनों गोड़ना शुरू करतीं। कुछ समय के बाद चाची अपना हिस्सा गोड़ते हुए खेत के दूसरे छोर पहुँच जातीं और इजा अभी आधे खेत ही पहुँची रहतीं,‘‘ दीदी तुम तो खेत को मक्खन बना दे रही हो। जरा छाव हाथ (तेज हाथ) करना सीखो।’’ चाची उन्हें कहती थीं। इजा को तब खुशी होती जब दादी एक सप्ताह बाद खेत में आतीं और आधे खेत में उगी खरपतवार को देखकर बिना किसी का नाम लिए कह जाती, ‘‘कितना झाड़ उग आया है? गुड़ाई करने का कोई रत्थ (तरीका) हुआ ये? इनके हाथों को सियार खा जाये।’’ उसी तरह चाची की घास की गट्ठी के पूले खोलकर गायों के सामने डालते हुए जब घास में छिपे काँटे उनके हाथों में चुभते तो चिढ़कर कहती, ‘‘आँखें कहाँ खो गई इनकी?’’
इजा पहाड़ी खेती के काम में धँस गई थी और पिताजी अपनी सेना की सेवा में। बीच में साल में एक बार वे छुट्टी में आते तो घर में ही नहीं, पूरे गाँव में बहार आ जाती। वर्षा में टूट गई खेतों की मेढ़ों वाली दीवारों की चिनाई करने में वे एक मजदूर से भी अधिक तेजी से जुट पड़ते। शाम को घर का चााख लोगों से भर जाता। घर में तम्बाकू की भीनी खुशबू फैल जाती, कभी-कभी कोई महिला दही की ठेकी ले आती, ‘‘हाड़ी, ले परदेश की रोटी खाते हो, एक दिन घर-गाँव का दही खा जाओ।’’ इजा की ननदों व ननदोइयों का जमघट एक-एक सप्ताह जमा रहता। एक दिन दुर्गा-मन्दिर में पूजा होती और पूरा गाँव वहाँ उमड़ आता।
इस सारे माहौल से लबरेज दो महीनों में इजा बड़ी खुश रहतीं। पिताजी की सक्रियता, लोगों से मिलने वाला सम्मान और विभिन्न आयोजनों में वह अपनी भी अहमियत महसूस करतीं। गौरवान्वित होतीं। पिताजी अब उनसे एकान्त में उनका दु:ख-दर्द, भला-बुरा पूछा करते थे। उनसे बोलने में इजा का संकोच भी धीरे-धीरे घटता गया था। वे चुगलखोर तो थी ही नहीं, मितभाषी भी थीं परन्तु उनको जो अकेलापन सालभर तक भोगना होता, उसे उन्होंने एक बार पिताजी से पूरी मिन्नत के साथ कह दिया। उसका कोई हल न था इसलिए बात आई-गई हो गई। जब अगले साल फिर से पिताजी छुट्टियों में आये, तब इजा ने यही बात फिर से दुहराई, केवल कोरे शब्दों में नहीं वरन् उन्हें आँसुओं से भिगोकर पेश किया।
‘‘अगले साल मुझे फैमिली क्वार्टर मिलेगा, तब तुझे मैं अपने साथ ले जाऊंगा।’’ कहकर पिताजी ने इजा को हल्का-सा भरोसा दिया। परन्तु इजा की विरह वेदना इस भरोसे से कई गुना अधिक प्रबल थी। पिताजी की विदाई का दिन आ पहुँचा। सुबह से तैयारी होने लगी। इस बार वे छाना वाले घर से विदा हो रहे थे इसलिए गाँव के कम लोग ही विदाई के समय आ पाये थे। केवल बलू जिठबौज्यू (बालादत्त ताऊजी) भोर में ही पहुँच गये थे। वे अल्मोड़ा तक पिताजी का बक्सा-बिस्तर लेकर जाने वाले थे। उन्होंने सामान आँगन में रख लिया। टीका-पिठाई, रोली-अक्षत, शगुन का दही सब होने लगा था। यह सब देखकर इजा का कलेजा मुँह को आ रहा था। उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं था। उनकी सबसे निकट-सहेली चाची थीं, वे उनको रोते देखती रही थीं। न रोने को भी नहीं कह रही थीं, उनके साथ भी रहने की कोशिश कर रही थीं परन्तु उन्हें इजा के दिल के हाल की अनुभूति नहीं हो सकती थी क्योंकि उनके पति तो हमेशा उनके साथ ही थे।
(My Mother Memoirs of Radha Bhatt)
यों तो पिताजी के विदा होने पर जो भी उपस्थित होते सभी की अश्रुधाराएँ बहती ही थीं। इजा लोकलाज के कारण पिताजी के सामने नहीं जाती थीं, कहीं ओने-कोने में वह भी आँसू बहातीं, सिसकियाँ लेती थीं। पर इस बार जब पिताजी बौनाव (घर की सीढ़ी की चौकी) उतरने लगे तो इजा उनके बिल्कुल पास जाकर फफक-फफक कर रोने लगी। पिताजी ने समझाइश के कुछ वाक्य कहे और दादी ने इजा को अपने आलिंगन में ले लिया। पिताजी बलू जिठबौज्यू को साथ लेकर चल दिये। सिलौटी की धार को पार करने तक लोग उन्हें देखते रहे। कभलू बेर आये पोथी, त्यार खुट कानलै न बुड़ो इजा (जल्दी वापस आना बेटे, तुम्हारे पैर में काँटा भी न चुभे)। भगवती, रक्षा करिये। दादी जोर-जोर से कहती रहीं थी। इजा कहीं नेपथ्य में जैसी चली गईं थीं। वहीं से उन दो राहियों को पहाड़ी पगडंडी पर जाते देख रही थीं।
जब पिताजी धार के पीछे ओझल हो गये तब एक बार इजा को पुन: लगा जैसे किसी ने उनसे कुछ छीन लिया है। वे उठीं और उसी रास्ते पर चलने लगीं। तब सब लोग भीतर चले गये थे। अत: किसी ने उनको जाते भी नहीं देखा। इजा चलती रहीं, अपने दमभर पूरी तेजी से चलती रहीं किन्तु उन्हें पिताजी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। छोटे एकाध गाँव या राह चलते कोई लोग मिलते तो इजा उनसे पूछती, ‘‘आगे आपने दो बटोही जाते हुए देखे? एक की पीठ पर बोझा था और एक के कंधे पर फौजी झोला।’’ लोग कहते, हाँ-हाँ इसी रास्ते पर कुछ ही दूर गये होंगे। पर तुम क्यों ऐसी दौड़ी चली जा रही हो?
इजा भागते-भागते कह देतीं ‘‘वो कुछ सामान भूल गये हैं’’ बस पीछा छुड़ाकर वह दौड़ती जातीं। आखिर उन्हें पनार नदी के किनारे दोनों विश्राम करते हुए दिखाई दे गये। इजा दौड़कर उनके कुछ करीब तो पहुँच गई पर उनके सामने जाने में हिचक गईं। वहीं खड़ी हो गईं- कुछ देर में पिताजी उठे। शायद अब आगे निकलना था- तभी उनकी नजर इजा पर पड़ी। इजा उनकी ओर चेहरा करके खड़ी नहीं थी। अत: पिताजी ने कहा, ‘‘अरे देखो तो बलूदा, वह बालिका कौन है?’’ इजा निकट आई और रोने लगी। तीनों बैठ गये और पिताजी ने इजा को प्यार से समझाया कि बिना फैमिली क्वार्टर मंजूर हुए वे उन्हें नहीं ले जा सकते थे। अगले वर्ष छुट्टी में आने से पहले फैमिली-क्वार्टर पक्का मंजूर कराके लाऊंगा। तब तुझे अच्छी तरह घर से विदा कराके साथ ले जाऊंगा। आदि-आदि। एक साल और रुक ला। इजा- एक साल? कहकर फफक-फफक कर रो पड़ी। जो भी हो, अन्त में उन्हें मानना ही पड़ा। पिताजी ने कहा, यार बलूदा, इसको सिलौट की धार के पल्ली तरफ तक पहुँचा के आओ। मैं तुम्हारा इंतजार करता हूँ।
मेरा भाग्य था कि मैं इजा की सबसे बड़ी बेटी थी। बड़ी बेटी कुछ अंशों में सहेली जैसी ही होती है। इस कारण वे अपने जीवन की कई घटनाएँ मेरे साथ साझा कर पाईं। मैं सोचती हूँ, आज भी एक फौजी की पत्नी को क्या नहीं झेलना पड़ता होगा?
(My Mother Memoirs of Radha Bhatt)
एक वर्ष के इन्तजार के बाद पिताजी उन्हें अपने साथ ले गए। मुझे नहीं मालूम कि पहली बार जब इजा पिताजी के साथ गईं तब पिताजी मेरठ, बरेली या मथुरा किस छावनी क्षेत्र में नियुक्त थे। इजा ने तब तक न तो हिन्दी बोलते हुए किसी को सुना था, न ही वे अन्य भाषाएँ ही सुनी थीं, जो उन्ही की तरह फैमिली क्वार्टर में रहने वाली पूर्वी उ.प्र., बिहार या महाराष्ट्र की महिलाएँ बोला करती थीं। पिताजी दिनभर अपनी ड्यूटी पर जाते और इजा अकेली उस घर में एक तरह से कैद रहतीं। भाषा की दिक्कत थी। उनके लिए दुनियाँ ही बदल गई थी। तभी एक मुसीबत और भी आ गई। पिताजी तीव्र ज्वर से बीमार पड़ गये। इजा के हाथ-पाँव फूल गये। परेड कराने नहीं गये तो एक सिपाही ने आकर दरवाजा खटखटाया। पिताजी ने उसे कुछ कहा और वह लौटा। थोड़ी देर में अस्पताल की एम्बुलैंस आ गई और पिताजी उसमें जाते हुए कह गये, ‘‘मैं अस्पताल जाता हूँ, चिन्ता नहीं करना, अच्छा होकर आऊंगा।’’
एक दिन, एक रात बीत गई। दूसरे दिन किसी ने दीवार से घिरे आँगन से पिताजी के पहने हुए कपड़े भीतर डाल दिये। अब इजा के होश ही उड़ गये। उन्होंने सोचा मर तो नहीं गये। कपड़ों के बिना कैसे रहते। कपड़ों को छाती से लगाकर खूब रोती रही। कहाँ का खाना, पानी भी मुँह में नहीं डाला। मुश्किल से हिचकते-हिचकते दूसरे दिन बाहर का दरवाजा खोला जो हमेशा बन्द ही रहा करता था और पड़ोसन के पास गई। दोनों ने अपनी-अपनी भाषा में बोला पर इजा समझ गई कि पिताजी को अस्पताल के कपड़े पहना दिये गये होंगे। दो-चार दिन बाद इजा को उन्हीं पड़ोसन से पता चला कि पिताजी को बड़ीमाता (चेचक) निकल आई थी, अत: इलाज में समय लगेगा। अब इजा को पड़ोसन का एक सहारा मिल गया था और दूसरी भाषा सुनने-समझने और कुछ शब्द बोलने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया था। विपत्ति में भी कुछ सम्पत्ति तो छिपी ही होती है।
जहाँ तक मुझे याद है, इजा और भी दो-तीन बार इसी तरह फैमिली क्वार्टर्स में पिताजी के साथ रहने गई। हर बार क्वार्टर कुछ बड़ा भी होता और कुछ अधिक सुविधाओं और बड़े परिवार वाला होता था। बाद में उनके साथ हम बच्चे भी हुआ करते थे। इन्हीं अवसरों पर इजा का पहनावा भी बदला उन्होंने घाघरे के बदले धोती पहनना सीखा। उसके ऊपर आज के जैसे ब्लाउज नहीं वरन् पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस तरह की कुर्ती स्त्रियाँ पहनती हैं, वैसी पूरी आस्तीनों वाली छोटी कुर्ती पहनने लगीं। पिताजी ने उनके लिए वहाँ की शैली के कुछ आभूषण भी बनवा दिये थे। जिन्हें पहाड़ में आकर शायद ही पहना गया हो। खूब छम- छम करने वाले झाँवर, चैनपट्टी, बिछुवे, पायल, कमर की करधनी, गले के हार और हाथों की चूड़ियाँ। उस समय धुरका की किसान महिलाएँ हाथों में चूड़ियाँ भी शादी-ब्याह के अलावा नहीं पहनती होंगी। वे तो गले में चाँदी के भारी सुत और हाथों में धागुले ही पहनती थीं, जो इजा के पास भी थे ही। जिन्हें गाँव में रहने पर पहनती थीं।
(My Mother Memoirs of Radha Bhatt)
मुझे लगता है, गाँव से बाहर निकलने पर और वहाँ सालों तक रहने से इजा का दृष्टिकोण विस्तारित हुआ, पर जो दृढ़ संस्कार बचपन से मिले थे, वे बदले नहीं। उनका एक गुण था कि पिताजी के प्रगतिशील विचारों को समझ-बूझकर सहयोग करती थीं। बच्चों को यानी लड़के व लड़कियों को बराबर पढ़ाई करानी चाहिए, इसे उन्होंने माना था किन्तु तो भी वे सोचती थीं कि लड़कियाँ परम्परागत परिवारों में ही ससुराल जायेंगी अत: उन्हें उस प्रकार की खेती, गौपालन का सारा काम सीख कर क्रिसाण बहू बनने की तैयारी रखनी चाहिए। मैं घास काटते-काटते कविताएँ रचा करती थी अत: निरन्तर उनकी पंक्तियों को गुनगुनाती रहती थी। इजा का ध्यान इस पर गया तो उन्होंने कहा, ‘‘क्या ससुराल में भी ऐसी ही गुनगुनाहट लगाये रखेगी? लोग क्या कहेंगे?’’ एक दिन मैं एक भीड़े (सीढ़ीदार खेतों की दीवार जैसी ऊँची मेड़) से घास काट रही थी। साथ ही स्कूल की वाक् प्रतियोगिता के लिए मैं अपना भाषण भी याद कर रही थी। भीड़े की आड़ में हाथ हिला हिलाकर भाषाण देने लगी तो इजा ने कहा, तू नाच जैसा क्या कर रही थी? तेरे पिताजी तुझे नाचते देखते तो क्या कहते?
रामगढ़ में प्रायमरी विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं नारायण स्वामी हाईस्कूल में पाँचवी कक्षा में पढ़ने लगी थी। इजा गेहूँ अथवा मडुवा साफ करके एक थैला बना देती और मुझे कहती कि इसे स्कूल को जाते समय पिसने के लिए घराट (पनचक्की) में रख देना, विद्यालय की छुट्टी होने पर घराट जाकर आटे का थैला उठा लाना। हमारा हाईस्कूल नदी के पास था। रास्ते से थोड़ा हटकर घराट थे। एक दिन मैं अपनी साथी छात्राओं के साथ गप्पों में ऐसी भूली कि घराट से आटे का थैला लाना भूल गई। घर पहुँची तो इजा ने कहा, ‘‘आटा लाना कैसे भूल गई, रोटी खाना तो नहंी भूलती।’’ दाज्यू भी उसी विद्यालय में बड़ी क्लास में पढ़ते थे। उन्होंने ऊपर से एक और धौंस जमाई। ‘‘भूलेगी क्यों नहीं? लड़कियों के साथ गप्पें हाँकते हुए ऊँची गर्दन करके आकाश की ओर देखकर चलती है- जमीन पर आँखें हों तब तो याद रहेगा।’’ इजा ने मुझे कहा, ‘‘रोटी खा और घराट से थैला लेने जा और हमेशा सिर नीचा करके चलना। लड़की को ऊँची गर्दन शोभा नहीं देती।’’ मैं थैला तो लाई ही, उस दिन से नीची नजरें व सिर झुका चलने के लिए सतर्क हो गई। यों तो हम लड़कियाँ दुकानों के सामने या हमारे शिक्षक सामने से आ रहे हों तब, सिर झुकाकर ही चलती थीं। परन्तु इजा की हिदायत के बाद हमेशा सिर झुकाकर चलना था। इजा कहती थीं, ठाड़ नाक (ऊँची नाक) वाली बहू अच्छी नहीं होती और मेरी नाक कुछ ऊँची थी। उसके अनुरूप मेरा स्वभाव भी था। मुझे गुस्सा भी आता था। मैं बातों को सीधे से मान नहीं लेती थी, अपना दिमाग चलाती थी और बोलने में यानी जवाब देने में तेज भी थी। ये सारे लक्षण इजा को शायद पसन्द नहीं आते होंगे। वे ऊँची नाक को ही इनका कारण समझती होंगी। उन्होंने मुझे कहा कि मैं हर रोज अपनी नाक को हलके से दबाकर नीची करने की कोशिश करूं। मेरी नाक तो नीची हो गई परन्तु मेरा गुस्सा कम न हुआ। अपना दिमाग चलाने की मेरी आदत कम नहीं हुई। बेचारी नाक का उससे सम्बन्ध ही क्या था? कोई मानने वाला हो तो कहेगा कि यह स्वभाव तो उन प्रखर नक्षत्रों की उपज था, जिसमें मेरा जन्म हुआ था।
(My Mother Memoirs of Radha Bhatt)
इजा व मैं अपने फलबाग में गाज्यो (जाड़ों में पशुओं को दिया जाने वाला सूखा चारा) काटने के काम में उन दिनों व्यस्त थीं, तभी एक गाँववासी महिला हमें ढूँढती हुई वहीं पहुँची। ‘‘मैं पहाड़ के उस ढलान पर बने अपने घर से देखती हूँ कि आपके बगीचे के भिड़ों की घास इतनी सफाई से काटी गई होती है कि जमीन चमकने लगती है। घास काटने में इतनी कुशल कौन है?’’ उसने पूछा ये मेरी बेटी काटती है इतनी सफाई से। जब यह शौली के जंगल से घास काटकर गाँव की अन्य घसियारियों के साथ आती है तो इसके सिर पर की गट्ठी को देखने वाले कहते हैं, ‘‘ये लड़की क्या क्या किसी दूसरे जंगल से लाई है ऐसी सुन्दर व उजली घास? औरों के सिरों के गट्ठर तो ऐसे नहीं दिखते।’’ मेरी बेटी घास काटने, बाँज के ऊँचे पेड़ों पर चढ़कर उसकी पत्तियाँ काटने और सिर पर भारी बोझ लाने में बहुत कुशल है। इजा ने गर्व से उस महिला से कहा। फिर धीरे से बोली, मैंने सुना है स्कूल में इसकी लिखाई भी सुन्दर है। अपनी क्लास में भी पहली आती है। उनकी यह बात सुनकर मुझे समझ में आया कि इजा की हमारे जीवन के लिए प्राथमिकताएँ क्या थीं। हमारे जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को परिलक्षित करने वाली एक और भी घटना मुझे याद आ रही है, शायद तब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी और हाईस्कूल में जाने के लिए मैंने एक जोड़ी सलवार व कमीज जिद करके बनवाई थी। उन दिनों लड़कियों की यह पोशाक अति आधुनिक मानी जाती थी और समाज उसको किस नजरों से देखता था, यह उन दिनों प्रचलित इस गीत की पंक्ति से समझ में आता था, ‘‘सलवार वाली लड़की ने बिगाड़ा जमाना।’’
मैं अपनी नई पोशाक पहने, हाथों में कुछ किताबें व कापियाँ तथा स्याही की दवात व होल्डर लेकर घर के दरवाजे से बाहर निकली तो मैंने एक अधेड़ उम्र के सामान्य से कुछ छोटे कद के किसान व्यक्ति को अपने आँगन में देखा। उनका धुला पर धूसरित पायजामा और सलवटों से मुड़ा तुड़ा-सा मोटे कपड़े का कमीज, उसके ऊपर काली वास्कट, सिर पर काली टोपी और हाथों में एक अच्छी चुपड़ी दही की ठेकी जिसके ऊपर हरे पालक का एक मुट्ठा रखा था, यह लेकर वे खड़े थे, ‘‘तेरी इजा कहाँ है भाऊ?’’ उन्होंने पूछा। ‘‘भीतर’’ हाथ जोड़ते हुए मैंने कहा। मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा था कि स्कूल को जाते मेरे गतिशील कदमों को रोकने वाला यह कौन आया? जाकर उन्हें बता दे कि मैं आया हूँ। उन्होंने मुझे आदेश दिया। मैं जिस तेजी से बाहर निकली थी, उसी तेजी से भीतर को मुड़ी और रसोई के बाहर से ही चिल्लाकर बोली, ‘इजा एक व्यक्ति आये हैं और उनका हुलिया बताते हुए यह भी बता दिया कि दही की ठेकी व हरा पालक लेकर आये हैं।’
इजा कुछ क्षण चुप रही, शायद आगन्तुक कौन होंगे इस पर सोचने लगी हों। इतने में मैं लौट पड़ी क्योंकि स्कूल जाने का समय हो चुका था, पर इजा ने जोर से कहा, ‘‘तू अब बाहर नहीं जाना, आज स्कूल भी नहीं जायेगी। आज हमारे घर के लिए कितना सौभाग्य का दिन है कि कोई हमारे दरवाजे पर दही और हरा साग का शगुन लेकर आया है। मैं जाती हूँ उनका स्वागत करने। वे तुझे ही माँगने आये हैं। तू सलवार-कमीज पहनकर उनके सामने मत जाना।’’
मैं कहाँ मानने वाली थी। उन सज्जन के सामने ही गर्दन ऊँची करके स्कूल को चली गई। इजा ने ही उन्हें भीतर बिठाया। स्कूल से शाम को घर लौटने पर अपनी बेअदबी के लिए इजा से खूब डाँट सुननी पड़ी। साथ में उपदेश भी कि जिन्दगी में अपनी इस अकड़ के साथ तुम सुखी नहीं रह सकोगी। इस घटना ने और भी पुष्ट किया कि इजा मेरे लिए किस शकुन और किस सुखभरी जिन्दगी की अपेक्षा रख रही थीं।
(My Mother Memoirs of Radha Bhatt)
क्रमश: …
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