मेरा वोट मेरा अधिकार

जया पाण्डे

बिहार चुनाव 2815 के महत्व का एक और पैमाना सामने आया कि इसमें महिलाओं ने पुरुषों की अपेक्षा अधिक संख्या में अपने मताधिकार का प्रयोग किया। महिला मतदाता का प्रतिशत 2010 के विधानसभा के मुकाबले 3 प्रतिशत अधिक था, जहाँ 2010 में 54.5 प्रतिशत था। बिहार में यह बात इसलिए महत्व की है क्योंकि यह ऐसा राज्य था कि जहाँ महिलाओं के जाये बिना ही उनका वोट, उनके पति या पिता या भाई के द्वारा डाल दिया जाता था। इसे इवीएम का कमाल ही कहा जाना चाहिए कि महिलाओं ने सिद्ध किया कि वे किसी के दबाव में आये बिना अपने मत का प्रयोग कर सकती हैं। पुरुषों के पलायन और पंचायत में उनकी भागीदारी ने भी उनमें स्वतंत्रता का अहसास कराया है। नीतीश कुमार की कल्याणकारी योजनाओं की भी इसमें अहम् भागीदारी है। नीतीश के कार्यकाल में एक विधवा को भोजनमाता की नौकरी मिली, लड़कियों को साइकिल मिली और वे अधिक संख्या में स्कूल जाने लगी। बहरहाल, पते की बात यह है कि महिलाएँ एक ‘वोट बैंक’ के रूप में उभरी।

इससे पहले 2014 के लोकसभा में भी पाँच राज्यों गोवा, अरुणांचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम और लक्ष्यद्वीप में मत देने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं से कम थी। निर्वाचन आयोग द्वारा मतदाता जागरूकता अभियान के भी ये परिणाम हो सकते हैं। 1962 से 2004 तक पुरुष मतदाताओं की भागीदारी जहाँ 60 प्रतिशत से अधिक थी, महिला मतदाताओं का प्रतिशत 60 प्रतिशत को पार नहीं कर पाया। 2009 के चुनाव में ही महिला मतदाताओं का प्रतिशत 60 प्रतिशत का ऑकड़ा पार कर पाया। 2014 के चुनाव में ‘निर्भया काण्ड’ 2012 के बाद का चुनाव था। निर्भया काण्ड ने ‘महिलाओं के लिए सुरक्षा’ मुद्दे को महंगाई जैसे मुद्दे की अपेक्षा अधिक प्राथमिक बना दिया। 2014 में मोदी की जीत का एक कारण यह भी माना गया कि महिलाएँ उनसे ‘सुरक्षित दिल्ली’ की अपेक्षा रखती थी।

मतदाता के रूप में महिलाएँ प्रत्याशी के रूप में महिलाओं की अपेक्षा महिला समानता या उनकी राजनीतिक अधिकारों के अधिक निकट है। जो भी महिलाएँ भारत में सत्ता के निकट पहुँची हैं, उन्हें महिला महत्ता स्थापित होने से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। वे पुरुषों जैसी थी इसलिए वे वहाँ तक पहुँची। ‘महिला मतदाता’ या ‘वोट बैंक’ सीधे-सीधे इस बात को स्थापित करता है कि अब महिलाओं की सोच या नजरिये की अनदेखी नहीं की जा सकती है। महिलाएँ मत डालने जायें यह महिलाओं को आसानी से नहीं मिला है। इसके पीछे बड़ी लम्बी लड़ाई है। विश्व के किसी भी कोने में या किसी भी लोकतंत्र में। ई.पू. तीसरी-चौथी सदी का यूनान, जहाँ से प्रत्यक्ष लोकतंत्र की शुरुआत हुई, जिसमें नागरिक वही था जिसे शासन कार्यों में भाग लेने का अधिकार था। आश्चर्य यह कि यहाँ स्त्रियों को नागरिकता ही प्रान्त नहीं थी। वे मानसिक रूप से सक्षम नहीं मानी जाती थी और उन्हें शासन कार्य में भाग लेने का अधिकार नहीं प्राप्त था। ‘अरस्तु’ के गुरु प्लेटो ने सार्वजनिक जीवन में स्त्री-पुरुष बराबरी की बात की मगर उस समय प्लेटो को ‘कल्पनाशील दार्शनिक’ बता दिया गया। दार्शनिकों ने इस बात की पैरवी बाद में आकर की।

9वीं सदी का यूरोप राजाओं के शासन का था। राजसत्ता पितृसत्ता से ही जुड़ी रहती है। पीढ़ी दर पीढ़ी बड़े बेटे को ही उत्तराधिकार मिलता रहा। ब्रिटेन ने तो 2011 में जाकर राजसत्ता के उत्तराधिकार में परिवर्तन किया। अब उत्तराधिकार राजा के बड़ा चाहे बेटा हो या बेटी उसे ही प्राप्त होगी।

आज लोकतंत्र युगधर्म है। जो भी देश आजाद होता है लोकतांत्रिक शासन पद्धति अपनाने पर बल देता है। जहाँ तानाशाही भी है वे देश भी अपने को लोकतांत्रिक सिद्ध करते हैं। लोकतंत्र की पहली मान्यता है कि सत्ता एक वर्ग या वंश के के पास ही नहीं होनी चाहिए। सत्ता पर बराबरी से सभी की सहभागिता होनी चाहिए। ‘जनता का, जनता के द्वारा जनता के लिए’ लिंकन की यह परिभाषा जनता की अधिकतम भागीदारी पर जोर देती है। ‘जनता की अधिकतर भागीदारी कैसे हो’ इसके लिए प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र आया जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है वे प्रतिनिधि ही शासन कार्य करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक एक इकाई है जिसके सूत्र सत्ता तक जाते हैं। उसका वोट महत्व व्यक्ति लोकतंत्र आने पर भी पुरुषों को महिलाओं से बहुत पहले मताधिकार प्राप्त हो गया।

विभिन्न देशों में महिला मताधिकार की स्थिति-

न्यूजीलैण्ड   आस्ट्रेलिया   फिनलैण्ड   नार्वे    डेनमार्क   इंग्लैण्ड   अमेरिका   फ्रांस    भारत    भूटान
1893          1902         1906          1913    1915    1918    1920       1944    1928    2008

स्कैन्डिनेवियन देशों, नार्वे, फिनलैण्ड, डेनमार्क, जहाँ से का लोकतंत्र स्वस्थ एवं समृद्ध माना जाता है, में प्रथम विश्वयुद्ध से पहले ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हो गया था। प्रथम विश्वयुद्ध में महिलाओं के प्रदर्शन व भागीदारी का परिणाम था कि इंग्लैण्ड और अमेरिका जैसे देशों को भी महिलाओं को मताधिकार देना पड़ा। इन दोनों ही लोकतंत्रों में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। इंग्लैण्ड में 1897 में 17 संगठनों ने मिलकर इस लड़ाई के लिए एक संगठन बनाया- नेशनल यूनियन फॉर वूमैन्स सफरेज सोसाइटी। यह संगठन अपनी बात संवैधानिक तरीके से रखता था यानि कि प्रार्थना पत्र और शिष्टमण्डल के द्वारा अपनी बात कहना। 1913 तक 500 सोसाइटीज इस संगठन के साथ जुड़ गये। लेकिन इससे पहले 1903 में कुछ महिलाएँ इससे अलग हो गईं। जो इस मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाना चाहती थी। इन्होंने वूमैन्स सोशल एण्ड पालिटिकल यूनियन बनाया। इनका नारा था, शब्द नहीं कार्य (deed not words) इंग्लैण्ड में इस संगठन ने इस लड़ाई के बाबत बहुत यातनाएँ झेली। इन महिलाओं ने सिद्ध किया वे भी पुरुषों की भाँति देशभक्त हैं। रैलियाँ निकाली, भूख हड़ताल की, जेल भी गईं, कभी-कभी इन्हें पुरुषों के अश्लील दृष्टि और छेड़छाड़ का सामना भी करना पड़ा। इनकी आलोचना यह कहकर की गई कि इनका व्यवहार स्वाभाविक व स्त्रियोचित नहीं है। मताधिकार के इतिहास में 18 नवम्बर 1910 को ब्लैकफ्राइडे कहा जाता है। इस दिन 115 महिलाएँ गिरफ्तार हुई जिसमें दो की मौत हो गई।
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यह तो प्रथम विश्वयुद्ध में महिलाओं का योगदान था जिस कारण इंग्लैण्ड की सरकार महिलाओं तथा सैनिकों को मताधिकार देने को विवश हुई। इससे पहले कुछ सम्पत्तिशाली लोगों को ही मत देने का अधिकार था। 1918 के एक्ट से स्त्री पुरुष दोनों को मताधिकार प्राप्त हुआ। लेकिन यहाँ भी भेदभाव बरता गया। इस एक्ट के द्वारा 30 वर्ष की महिला और 21 वर्ष के पुरुष को मताधिकार दिया गया। 10 वर्ष बाद 1928 के एक्ट से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लागू हुआ, जिसके अनुसार 21 वर्ष के स्त्री पुरुष मतदान के अधिकारी बने।

1789 में बने अमेरिकी संविधान ने मताधिकार का प्रश्न हल नहीं किया। उसे राज्यों पर छोड़ दिया गया। पर किसी भी राज्य ने महिलाओं को मताधिकार नहीं दिया। अमेरिका में मताधिकार की लड़ाई 1848 के सिनेका हॉल कन्वेन्श न न्यूयार्क से शुरू होती है। इसके बाद 50 वर्षों तक महिलाएँ अपने पक्ष के समर्थन में जनता को शिक्षित करने का प्रयास करती रही। गृह युद्ध के बाद (1861) में काले-गोरे दोनों की ही मताधिकार दिया गया परन्तु 14वें संशोधन की एक विवादास्पद धारा से मामला बिगड़ गया। 14वें संशोधन की दूसरी धारा थी, जो भी राज्य पुरुषों को मताधिकार से वंचित करता है, दण्डित किया जायेगा। इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने उन राज्यों पर प्रतिबन्ध लगा दिया जहाँ महिलाओं को मताधिकार प्राप्त था। इससे महिला मताधिकार की लड़ाई जोर पकड़ गई। 1890 में नेशनल अमेरिकन सफरेज एसोसिएशन बनाया गया। अब महिलाओं ने नया तर्क दिया। मताधिकार इस आधार पर नहीं मिलना चाहिए कि ‘स्त्री-पुरुष समान हैं’ बल्कि इसलिए क्योंकि वे पुरुषों से भिन्न हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी सरकार ने भी 19वें संशोधन से स्त्री-पुरुष दोनों को समान मताधिकार से नवाजा।

भारत में महिलाओं के संगठनों (स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर तीन महिला संगठन-वूमेन्स इण्डियन एसोसिएशन, नेशनल काउन्सिल ऑफ वूमैन्स इन इण्डिया, ऑल इण्डिया वूमैन्स कान्फ्रैन्स) के प्रयासों से 1921 से 1930 के बीच सभी प्रान्तों में महिलाओं को मताधिकार दिया गया। इन तीनों ही संगठनों ने शिष्ट मण्डल के माध्यम से ब्रिटिश सरकार से बातचीत की और दबाव डाला। यद्यपि गाँधी भी महिला मताधिकार के उस समय विरोधी थे लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन में उनकी भागीदारी को देखकर उनकी क्षमता में सन्देह नहीं किया जा सकता था। भारत की महिलाओं को मताधिकार के लिए इंग्लैण्ड की महिलाओं की भाँति संघर्ष नहीं करना पड़ा। स्वाधीन भारत के संविधान में प्रारम्भ से ही स्त्री-पुरुष दोनों को समान रूप से मताधिकार की व्यवस्था की गई।

स्विट्जरलैण्ड जैसे देश में प्रत्यक्ष प्रजातंत्र का घर कहा जाता है, नागरिकों को वहाँ जनमत संग्रह जैसी प्रक्रिया प्राप्त है लेकिन वहाँ 1971 में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हुआ है। भूटान में 2008 में मताधिकार मिला है। सऊदी अरब में 2015 में पहली बाद महिलाएँ अपने मत का प्रयोग कर पाई हैं।

दार्शनिकों की एक लम्बी श्रृंखला ने पितृसत्ता का समर्थन किया है। सुकरात, अरस्तु, देकार्ते, कांट, हीगल, रूसो सभी पितृसत्ता के समर्थक हैं। अरस्तु ने स्त्री को दासों की श्रेणी में रखा। रूसो, रस्किन और टैनीसन चाहते थे कि नारी को केवल धर्म, नैतिकता और कलाओं की शिक्षा दी जाय जो उन्हें अपनी पराधीन भूमिका अर्थात् पति की सेविका की भूमिका के लिए योग्य बनाए। महिलाओं को मताधिकार दिए जाने के विरोध में भी यही तर्क दिए गए कि यदि महिलाएँ राजनीति में भाग लेंगी तो उनमें स्त्री जाति के गुण समाप्त हो जायेंगे। राजनीति का अखाड़ा महिलाओं का उपयुक्त स्थान नहीं है। महिला मताधिकार से परिवार में फूट पड़ेगी।

बीसवीं सदी में आकर जॉन स्टुअर्ट मिल ने इन सब आलोचनाओं का मुहतोड़ जवाब दिया और ब्रिटिश संसद में पुरजोर तरीके से महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों की पैरवी की। उनका मानना था कि मताधिकार का आधार नैतिक और बौद्धिक है, शारीरिक नहीं। महिलाएँ शरीर से कमजोर होती हैं अत: उन्हें कानून और समाज पर अधिक निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा मताधिकार की आवश्यकता अधिक है।

महिला मताधिकार से महिला प्रत्याशी चुने जांय, यह भी सिद्ध नहीं हो पाया। जब तक जमीनी महिलाएँ राजनीति में नहीं आयेंगी तक तक महिलाएँ महिलाओं को नहीं वोट दे पायेंगी। किसी भी लोकतंत्र में यदि सत्ता के सूत्र व्यक्ति तक जाते हैं आधी आबादी को मताधिकार न देना बेनामी होगी। वह लोकतंत्र अधूरा है जहाँ महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं है।
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