कड़े कानून की जरुरत

प्रेमा बिष्ट

16 दिसम्बर को हुई दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना ने समूचे देश को झकझोर दिया है। सभी इस घटना को सुनकर क्षुब्ध हैं। देश की राजधानी में  यदि कोई महिला सुरक्षित नहीं है तो हम अन्य शहरों की क्या बात करें। इससे बहुत बड़ा सवाल उठता है कि महिलाएँ कहाँ सुरक्षित हैं? ऐसी कई घटनाएँ हैं जो महिलाओं के साथ घटती हैं और जिन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है और जो कभी बहस का मुद्दा नहीं बन पातीं। दिल्ली की घटना ने महिलाओं की सुरक्षा का सवाल पुन: ताजा कर दिया है। आखिर वे कौन लोेग हैं, जो हमें सुरक्षा देंगे? पटवारी चौकी, पुलिस थाना, हम अपने को कहाँ सुरक्षित महसूस करेंगे। जो रिपोर्ट लिखने के लिए तैयार नहीं होते, पीड़ित पक्ष को यह कहकर चुप करा देते हैं कि क्या करोगे केस करके, बेटी बदनाम हो जायेगी, उसकी शादी नहीं हो पायेगी, दूसरा पक्ष ताकतवर है, कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ेंगे। इन बातों से डरकर पीड़ित पक्ष कानून के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि आम इंसान कानून से उलझना नहीं चाहता। कानून का हव्वा खड़ा करने वाले कानून में बैठे लोग ही हैं। जिस कानून में अपने अधिकारों की बात कही जाती है, वहीं सबसे ज्यादा असुरक्षा महसूस होती है। बहुत-से लोग ऐसे हैं जो दिल्ली काण्ड के संदर्भ में यह भी कह रहे हैं कि उस लड़की को रात में बस में बैठने की क्या आवश्यकता थी? इतनी रात को घर से बाहर निकली थीं तो पहनावा कैसा था।

यह पितृसत्ता की वह सोच है जिसके अनुसार औरत घर पर बैठी ही अच्छी लगती है। सह सोच आम समुदाय से अधिक हमारे उन नेताओं की है जो हमारे लिये कानून बनाते हैं और जो महिला सशक्तीकरण के नाम पर योजनाएँ बनाते हैं। जो कि मात्र दिखावा है। यह पितृसत्तात्मक सोच ही है कि यदि कोई पुरुष हँसकर बोलता है या मजाक करता है तो हमारा समाज उसे अच्छा बताता है कि हँसमुख है, दिलदार है। वहीं यदि कोई महिला किसी से हँसकर बोलती है तो उसके चरित्र पर सवाल क्यों उठाये जाते हैं कि उसे शर्म नहीं है, लिहाज नहीं करती, नेता बन गयी है। देश में फैशन शो किये जाते हैं, लड़कियाँ वहाँ दिखाई देती है उनके लिए अलग ड्रेस बनायी जाती है लेकिन फिर लड़कियों के पहनावे पर सवाल उठते हैं? लड़कियाँ क्या पहनेंगी, उनकी शिक्षा कैसी होगी, उन्हें कितनी आजादी देनी चाहिए, इसकी दिशा समाज तय करता है। महिलाएँ घर से बाहर की हिंसा सा से पीड़ित होने पर विरोध कर लेती हैं परन्तु जो हिंसा रात-दिन घरों के अन्दर होती है, उसके खिलाफ बोलने का साहस नहीं कर पातीं जिसका मुख्य कारण उनकी आर्थिक असुरक्षा है। नैनीताल जिले के मालधन क्षेत्र में एक महिला के साथ हुई घटना इसका उदाहरण है। पति का कहना न मानने पर पति ने उसके पूरे बाल काट दिये। गाँव में खलबली मच गई। सभी एकत्र हुए, संगठनों से जुड़ी महिलाएँ भी आयीं। काफी बातचीत की गई उस महिला से। महिला का साथ देने की बात कही गयी लेकिन वह महिला काफी कोशिश करने के बाद भी पति के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं कर पायी। शायद आर्थिक सुरक्षा का सवाल उसके सामने खड़ा था। 2010 में महिला समाख्या के पास एक मुद्दा आया था जिसमें एक सम्पन्न परिवार का व्यक्ति कृष्णा आरोपी था। पीड़िता गरीब परिवार से थी। महिला संगठनों के दबाव से रिपोर्ट दर्ज हुई और आरोपी को सजा भी हो गई। लेकिन पीड़िता के पक्ष में कोई खड़ा नहीं था। परिवार वालों ने उसे छोड़ दिया। अन्तत: उसे नारी निकेतन भेजना पड़ा। जब भी कोई लड़की अपने ऊपर हो रही हिंसा के खिलाफ आवाज उठाती है तो समाज उसे स्वीकार नहीं करता। परिवार भी उसे अलग कर देता है। ऐसी कई घटनाएँ होती रहती हैं जो महिला की सुरक्षा के सवाल को उठाती हैं। अन्तत: महिलाओं को समझौता करना पड़ता है। परिवार, समाज व नेताओं का दबाव इतना अधिक है कि पीड़ित महिला कभी सही निर्णय नहीं ले पाती है। मजबूरन समझौता ही उसे सही विकल्प लगता है। कुछ लोगों का कहना है कि बलात्कारियों को फाँसी दी जाय। उन्हें ऐसी सजा हो जो दुनिया में ऐसे कुकर्म करने वाले लोगों की रूह काँप उठे। पर सवाल उठता है कि कौन बनायेगा ऐसे कानून? कानून बनाने वाले लोग स्वयं ही ऐसे कुकर्मों में लिप्त हैं। हमारे जनप्रतिनिधियों में से कई लोग हैं जिन पर बलात्कार के केस दर्ज हैं, क्या वे हमारी सुरक्षा के लिए कानून बनायेंगे? क्या हम उनसे उम्मीद कर सकते हैं? उन्हें तो स्वयं इस बात का डर है कि यदि सख्त कानून बनेगा तो हम लोग ही उसके शिकार होंगे। इसलिए वे अलग-अलग बयान देकर जनता को गुमराह कर रहे हैं।
need for strict laws

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